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खाकी का खुद्दार: जिसके थाने में ‘आतंकवादी’ खुद जमा कराने पहुंच जाते थे ‘AK-47’!

बात तब की है जब खालिस्तान की मांग को लेकर आतंकवाद (सिख आतंकवाद) पूरी तरह उभर कर सामने आ चुका था

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

पुलिस, अपराधियों को पालती है. कांटे से कांटा निकालने के लिए पुलिस एक बदमाश के खिलाफ दूसरे का इस्तेमाल करती है. बदमाश और पुलिस की सांठगांठ से दोनों ही एक-दूसरे की जेब में भी बंद रहते हैं. इसी तरह के और न जाने कौन-कौन से तमाम आरोप पुलिस पर अक्सर लगते रहते हैं. ऐसे में खूंखार आतंकवादी या बदमाश खुद ही आकर एके-47 राइफल और स्टेनगन जैसे घातक हथियार थाने में गुपचुप खुद ही जमा कराने के लिए उतावले हो उठें! तो इसे क्या कहा या माना जाए? कुछ इसी तरह के ताने-बाने पर टिकी है इस ‘संडे क्राइम स्पेशल’ में पेश की जा रही कहानी की सच्चाई.

उस दबंग दारोगा की कहानी जो, अविश्वसनीय तो है मगर, इस कहानी को आसानी से झुठलाना भी मुनासिब नहीं होगा. अगर आपको भी विश्वास न हो कि, ऐसा भी कोई खौफनाक दारोगा होगा जिससे, जान की भीख मांगने की एवज में, आतंकवादी खुद-ब-खुद ही अपने हथियार थाने में जमा करा जाएं, तो पढ़िए खुद ही पूरी कहानी.


सन् 1980-90 का दशक और तराई का इलाका

बात तब की है जब खालिस्तान की मांग को लेकर आतंकवाद (सिख आतंकवाद) पूरी तरह उभर कर सामने आ चुका था. पंजाब के बाद उत्तर-प्रदेश और उत्तराखंड के कई इलाके (खासकर तराई क्षेत्र) खाड़कूओं के निशाने पर थे. उस जमाने में उत्तराखंड (अब राज्य) उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा हुआ करता था. नैनीताल, किछा (किच्छा) राम नगर, सितारगंज, पलिया, शाहजहांपुर, लखीमपुर खीरी इलाके में खालिस्तानी आतंकवादियों ने कोहराम मचा रखा था. थाने-चौकी की लाइट रात में जलानी बंद कर दी गई थी. उनके दरवाजों पर शाम ढलने से पहले ही ताले जड़कर पुलिस वाले खुद की जान बचाने के लिए इधर-उधर कमरों में छिप जाते थे. ताकि बाहर से आतंकवादियों के थाने-चौकी के अंदर मौजूद पुलिसकर्मियों की गतिविधियों या मौजूदगी का अंदाजा ही न हो पाए.

अब खंडहर में तब्दील हो चुके इसी सतुइया डाक बंगले के भीतर जनवरी 1985 में कई रात इंस्पेक्टर रामचरन सिंह ने खूंखार खाड़कू स्वर्ण सिंह जबंदा को बंद करके की थी पूछताछ...फोटो संजीव कुमार सिंह चौहान

स्वर्ण सिंह जबंदायानी पुलिस की मौत का दूसरा नाम

उन्हीं दिनों तराई में स्वर्ण सिंह जबंदा जैसे खूंखार आतंकवादी (खाड़कू) ने पांव रख दिए. जबंदा मूलत: रहने वाला तो पंजाब का था. पंजाब राज्य का उस पर तब के जमाने में कई लाख का इनाम भी था. पंजाब में केपीएस गिल जैसे घातक पुलिस अफसर के दबाव के चलते जबंदा ने वहां से कूच करने में ही भलाई समझी. लिहाजा वो पंजाब छोड़कर अपने कुछ साथी खाड़कूओं के साथ तराई (किच्छा, नैनीताल, ऊधमसिंह नगर, काशीपुर, रामनगर) में आ पहुंचा. जबंदा के पहुंचते ही इलाके में आए-दिन खून-खराबा होने लगा. यूपी पुलिस की समझ में नहीं आ रहा था कि, जबंदा से कैसे निपटा जाए. उन दिनों वरिष्ठ आईपीएस विक्रम सिंह (यूपी के पूर्व पुलिस महानिदेशक और इस वक्त नोएडा इंटरनेशनल यूनविर्सिटी के प्रो. चांसलर) नैनीताल के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) थे.

साहब के साथ मातहत भी जा पहुंचा

विक्रम सिंह एटा में एसपी और फिर एसएसपी रह चुके थे. जब उन्होंने नैनीताल इलाके में जबंदा का खौफ देखा तो उन्हें लगा कि उनके साथ वहां दबंग इंस्पेक्टर रामचरन सिंह को भी होना चाहिए. थोड़े-बहुत प्रयास के बाद वे रामचरन सिंह को भी कासकंज कोतवाली से तराई में ले जाने में सफल हो गए. रामचरन सिंह को तीसरी बार किच्छा कोतवाली का कोतवाल बनाया गया. रामचरन के पहुंचने से जहां विक्रम सिंह को राहत मिली, वहीं रामचरन सिंह को भी फिर से जबंदा जैसे खूंखार आतंकवादी से निपटने की चुनौती यूपी पुलिस ने थमा दी. 30 अक्टूबर सन् 1984 की शाम किच्छा कोतवाल का चार्ज इंस्पेक्टर रामचरन सिंह ने ले लिया. अगले ही दिन यानी 31 अक्टूबर सन् 1984 को दिल्ली में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई. और देश में बवाल मच गया.

बैंक लूट ने खोल दी कोतवाल की किस्मत

रामचरन सिंह को किच्छा कोतवाली का चार्ज लिए अभी दो महीने ही बीते होंगे कि, एक दिन 3 जनवरी 1985 को दिन-दहाड़े इलाके में स्थित नैनीताल बैंक की किच्छा स्थित शाखा में डाका पड़ गया. तीन आतंकवादी स्टेनगन से लैस होकर बैंक पहुंचे थे. वारदात को अंजाम देने के बाद तीनों मोटर साइकिल से भाग गए. मौके पर पहुंची किच्छा कोतवाली पुलिस को पता चला कि, आतंकवादी करीब साढ़े तीन लाख रुपए लूट ले जाने में सफल रहे हैं. आतंकवादियों ने बैंककर्मियों-प्रत्यक्षदर्शियों को डराने के लिए हवाई फायर भी किए थे.

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किच्छा में आला अफसरों का जामाव-बाड़ा

दिन दहाड़े बैंक लूट की वारदात से सूबे में सनसनी फैल गई. एसएसपी विक्रम सिंह, डीआईजी रेंज सीडी कैंथ, जिलाधिकारी आर.के. शर्मा ने किच्छा में ही कैंप लगा दिया. कैंप कर रहे तमाम आला पुलिस अफसरों की उम्मीदें बैंक लूट कांड खोलने के लिए इंस्पेक्टर राम चरन सिंह पर ही टिकी थीं. पुलिस ने बैंक लूट में इस्तेमाल मोटर साइकिल का नंबर पता कर लिया. मोटर साइकिल मालिक को पकड़ा. वो बोला मेरा रिश्तेदार मोटर साइकिल मांगकर ले गया. उस रिश्तेदार ने पुलिस को बताया कि उसने, मोटर साइकिल एक हजार रुपए रोजाना किराए पर, निजी बॉडीगार्ड की नौकरी करने वालों दे रखी है. जिसके बॉडीगार्डों का नाम सामने आया वो इलाके का दबंग था.

1980 के दशक में अलीगंज थाना इलाके में हुए नथुआपुर कांड का बदला लेने वाली पुलिस टीम के जावांजों में से कुछ सदस्य...एटा के पूर्व एसएसपी विक्रम सिंह के साथ इंस्पेक्टर रामचरन सिंह के साथ

ऐसे जुड़ती गई कड़ी से कड़ी

जिसके बॉडीगार्ड थे उसने बताया-

उन दोनों का नाम स्वर्ण सिंह जबंदा और रमणीक सिंह है. स्वर्ण सिंह जबंदा के खौफ का चर्चा उन दिनों तक बच्चे-बच्चे की जुबान पर था. पुलिस को जैसे ही बैंक लूट में जबंदा का नाम सामने आते दिखाई दिया, तो उसे काठ भी मार गया. और खुशी भी हुई. पुलिस जांच में आगे पता चला कि जबंदा और रमणीक सिंह को उस दबंग ने अपनी सुरक्षा के लिए विशेष तौर पर पंजाब से तराई में बुलाया हुआ था. साथ ही पता चला कि, विलासपुर निवासी जिस दबंग सिख की सुरक्षा के लिए जबंदा पंजाब से आया था, जबंदा उसके समधी की साली का बेटा था.

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आज भी याद है वो भूतियाडाक बंगला

बकौल रिटायर्ड डीजीपी यूपी विक्रम सिंह और उस वक्त किच्छा कोतवाली के इंस्पेक्टर रहे रामचरन सिंह के मुताबिक, ‘आरोपियों के रिश्तेदारों और संदिग्धों को पूछताछ के लिए आधी रात को ले जाया गया सतुइया डाक बंगला, जोकि किच्छा इलाके में ही था. संदिग्धों से पूछताछ में आरोपियों के बारे में पता चला. तमाम संदिग्ध और संभावित जगहों पर पुलिस ने कई दिन तक छापेमारी की. एक दिन थाना विलासपुर (रामपुर) इलाके में तीनों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया. हथियार और बैंक से लूट वाले लाखों रुपये तीन चार दिन बाद खेतों में पॉलिथिन में बंद दबे मिल गए.’

काले झूठ का सफेद सच

अब तक आप द्वारा ऊपर पढ़ी गई कहानी सच्ची यानी असली थी. अब जानिए सच के पीछे झूठ को. सभी आरोपियों की गिरफ्तारी. माल-हथियार की बरामदगी के बाद किच्छा पुलिस ने आम-नागरिक के सामने जो कहानी गढ़ी वो घटना के होने और फिर उसके खुलासे से भी ज्यादा हैरतंगेज थी. नैनीताल बैंक (किच्छा) लूट कांड का खुलासा कैसे हुआ? कागज में किच्छा पुलिस ने दिखाया कि, लुटेरे घटना को अंजाम देकर गांव दरऊ के ईख (गन्ने) के खेतों में छिप गए थे. तीनों डाकू जब खेत में छिपे आराम कर रहे थे. तभी पुलिस ने छापा मारकर उन सबको दबोच लिया. कागजी और पुलिसिया कहानी में वो सब सच्चाई गोल-मोल या गायब कर दी गई जिसके मुताबिक, पुलिस ने कई दिन रात दौड़भाग और माथा-पच्ची की. कुछ जमा 6 दिन की हाडतोड़ मेनहत के ‘भागीरथ’ प्रयासों को आला–पुलिस अफसरान दबा गए. ताकि कहीं खुबसूरत पड़ताल पर कहीं कोई सवालिया निशान न लगा बैठे.

सच्चाई उस्ताद और मातहत ही जानते थे

बकौल उस मामले के प्रमुख और इकलौते पड़ताली/तफ्तीशी रहे रिटायर्ड इंस्पेक्टर रामचरन सिंह के, ‘मेरे और एसएसपी विक्रम सिंह के अलावा बाकी किसी को सूबे में पूरे मामले की सच्चाई नहीं पता थी. विक्रम साहब रोजाना दो-तीन बार मुझसे बात करके जांच में हुई प्रगति पूछते. फिर आगे कैसे चला जाए? यह भी मार्ग-निर्देशन करते. मैंने विक्रम साहब से दरखास कर रखी थी कि वह, पब्लिक और पुलिस के बाकी अफसरों को कंट्रोल रखें. वारदात का खुलासा मैं अपने ही बलबूते कर लूंगा. आखिर में हुआ भी वही. किच्छा नैनीताल बैंक शाखा की दिन-दहाड़े लूट करने वाले पकड़े. उसके साथ कई और लूट की वारदातें भी खुल गयीं. पकड़े गये लुटेरों ने बताया कि उन्होंने, सितारगंज और स्वार में भी बैंक लूट की घटना को अंजाम दिया था. मगर पकड़े कभी किसी वारदात में नहीं गये थे.’

यूपी पुलिस का शिकार पंजाब पुलिस ले गई

तीनों खूंखार लुटेरों को बाद में पंजाब पुलिस रिमांड पर ले गई. पता चला कि पकड़ा गया जबंदा सिख आतंकी संगठन का महत्वपूर्ण गुर्गा था. पंजाब राज्य का उसके सिर पर लाखों रुपए का इनाम लदा हुआ था. जबंदा और उसके साथियों को सिख आतंक फैलाने के लिए धन की जरूरत थी. इसलिए उसने साथियों के साथ मिलकर किच्छा जैसे छोटे इलाके में मौजूद नैनीताल बैंक को ‘टारगेट’ किया.

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वजह थी कि, छोटा कस्बा और छोटा बैंक होने के बाद भी नैनीताल बैंक की किच्छा ब्रांच में नकदी ज्यादा मिलने की उम्मीद थी. किच्छा स्थित नैनीताल बैंक लूटकांड में किच्छा कोतवाली में 3 जनवरी 1985 को आईपीसी की धारा 394 के तहत एफआईआर नंबर-3 पर लूट का मामला दर्ज किया गया. यह अलग बात है कि बाद में जबंदा और उसके बाकी साथियों की जमानत हो गयी. पुलिस की ही ‘ढीली’ पैरवी के चलते. इंस्पेक्टर रामचरन सिंह के मुताबिक जबंदा भिंडरावाला टाइगर फोर्स ऑफ खालिस्तान का मुख्य नुमाइंदा था.

किच्छा कोतवाली, इंस्पेक्टर रामचरन सिंह की यहां तैनाती के दौरान उनसे भयभीत खाड़कू-बदमाश खुद ही फेंक जाते थे अपने घातक हथियार

अपनी ही बस्ती में ढेर हुआ खूनी

चंडीगढ़ के मौजूदा पुलिस महानिदेशक संजय बेनीवाल ने बताया कि, खाड़कू ‘स्वर्ण सिंह जबंदा’ का नाम तो मैंने भी सुना था. उसके सिर पर लाखों की इनामी राशि थी. जहां तक मुझे याद आ रहा है जबंदा 5 सितंबर 1993 को संगरूर (पंजाब) में हुई एक पुलिस-मुठभेड़ में मारा गया था.’ दूसरी ओर कई साल तक यूपी-पंजाब में यह भी अफवाह उड़ती रही थी कि, जबंदा पंजाब पुलिस की अपनी महिला-दारोगा गर्लफ्रेंड के साथ कनाडा भाग गया. हालांकि बाद में यह सब कोरी-अफवाह ही साबित हुआ.

जिसके पांवों में हथियार डाल जाते थे आतंकवादी!

जहां तक इंस्पेक्टर राम चरन सिंह की दबंगई और पुलिसिया नौकरी की यादें हैं, उस बारे में बात करते हुए रामचरन सिंह के 1980 के दशक में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक रहे यूपी के रिटायर्ड पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह भावुक हो उठते हैं. बकौल विक्रम सिंह, ‘यूपी पुलिस तब भी चल रही थी. आज भी चल रही है. आगे भी चलती रहेगी. किसी के आने-जाने से जिंदगी नहीं ठहर जाती.

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इंस्पेक्टर रामचरन सिंह सा मेरी पूरी पुलिसिया नौकरी में दूसरा जाबांज नहीं नसीब हुआ. यह बात मैं अपनी निजी तौर पर बयान कर रहा हूं. इसका मतबल यह नहीं कि यूपी पुलिस में रामचरन के बाद बहादुरों का अकाल ही पड़ गया होगा. रामचरन सिंह का रुतबा मैंने देखा था अपनी आंखों से. सिख आतंकवाद की आग में जल रहे तराई में खूंखार आतंकवादियों के दिल-ओ-दिमाग पर रामचरन सिंह के भय का आलम मैंने देखा-सुना था. यह रामचरन सिंह के भय की ही कुव्वत थी, जिसके चलते क्रूर से क्रूर आतंकवादी उस जमाने में एक-47/स्टेनगन/ हथगोले जैसे घातक हथियार विस्फोटक खुद ही उस थाने में जमा कर आने का मौका खोजते थे, जहां रामचरन सिंह की तैनाती होती थी. ऐसे में सोचिये कि भला रामचरन सिंह भला पुलिस की भीड़ का हिस्सा भर कैसे हो सकते हैं?’

वो नहीं उसकी बहादुरीदिल में बस गई

‘हां, इंस्पेक्टर रामचरन सिंह ने जब यूपी पुलिस महकमे की महज 23-24 सी नौकरी में स्वर्णिम-इतिहास लिखने के साथ ही स्वैच्छिक-सेवा-निवृत्ति (वीआरएस) लेने की दरखास दी थी, तो मैं एक बार को हिल गया. रामचरन बहादुर और जिद्दी थे. यह सब उन्हें माता-पिता से जन्मजात हासिल हुआ था. उन्होंने यूपी में जिस डाकू को निपटाने की कसम खा ली उसके मारकर ही दम लिया. वीआरएस लेते वक्त भी उनका कहना यही था कि, अब यूपी में जब उस जिगर वाले डाकू-बदमाश ही नहीं बचे, जिनसे मुकाबले में वर्दी में गोलियां चलाते हुए पसीना बहाऊं. जिंदगी दांव पर लगाऊं. खुद की जिंदगी-मौत का खेल अपनी आँखों से खेलूं-देखूं. तो फिर पुलिस में अब रहने का मतलब ही भला क्या?’ कभी रामचरन सिंह जैसे जाबांज मातहत इंस्पेक्टर के ‘बॉस’ रह चुके. इस लेखक से बात करते-करते पूर्व दबंग आईपीएस विक्रम सिंह की आंखों में आंसूं छलक आते हैं.

(कहानी, अब करीब 76 साल के हो चुके रिटायर्ड इंस्पेक्टर रामचरन सिंह और यूपी के पूर्व पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह से उत्तरखंड के किच्छा (जिला ऊधमसिंह नगर, उत्तराखंड) और यूपी के नोएडा में हुई विशेष बातचीत पर आधारित है)