अब एनकाउंटर-एक्सपर्ट्स ने ‘पुलिस-मुठभेड़’ के रीति-रिवाजों में आमूल-चूल मगर ‘जानलेवा’ बदलाव शुरु कर दिए हैं. मसलन जंगल, सुनसान, नदी-नालों, खेत-खलिहानों के बजाए खुलेआम बीचों-बीच घुसकर खूनी (मरो या मारो) ‘एनकाउंटर्स’ की शुरुआत हुई है. यहां इस बात को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है कि मुठभेड़ के रीति-रिवाजों में ये बदलाव तब लाए जा सके जब देश में 1990 और 2000 दशक की तरह न खतरनाक गैंग बचे हैं न गैंगवार.
यह जरूर है कि इन नए बदलावों की बानगी वास्तव में तो 1990 से 2000 के बीच हुए बृजमोहन त्यागी-अनिल मल्होत्रा, राजबीर रमाला, महेंद्र फौजी, सतबीर गुर्जर, रणपाल गुर्जर, किशन-बलराज के एनकाउंटर में ही देखने को मिली थी. ब्रृजमोहन त्यागी-अनिल मल्होत्रा के एनकाउंटर में तो दिल्ली के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर एम.बी. कौशल (मुकुंद बिहारी कौशल ) तक की बोलती चंद लम्हों के लिए बंद हो गई थी.
एनकाउंटर्स के बदलते ट्रेंड में अब पुलिस वालों के घायल होने की खबरें भी गाहे-ब-गाहे सुनने में आने लगीं हैं. आखिर क्या है पुलिसिया मुठभेड़ों के अंदर-बाहर का काला-सफेद सच? इन्हीं तमाम सवालों के जवाब तलाश रही है ‘पड़ताल’ की यह कड़ी.
अपराधी के ढेर होने पर भला किसी को आपत्ति क्यों?
पुलिस मुठभेड़ में अपराधी ढेर हो तो भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? बशर्ते मुठभेड़ संदिग्ध न हो. मरने वाला अपराधी समाज के लिए खतरा था (अगर उस एनकांउटर में मानवाधिकार कानूनों का कतई उल्लंघन न हुआ हो तो) आपत्ति नहीं होनी चाहिए. वास्तविकता मगर इससे कोसों दूर है. अमूमन ऐसा होता नहीं है. अब से कुछ साल पहले तक इलाके के निवासियों को बजरिए मीडिया ही पता चलता था कि अमुक जंगल में या नदी-नाले किनारे सूनसान इलाके में फलां बदमाश रात के अंधेरे में हुई पुलिस मुठभेड़ में ढेर कर दिया गया.
बीते जमाने में खास बात यह थी कि 10 में से 9 मुठभेड़ पुलिस अंधेरे में और सुनसान इलाकों में ही करती थी! मुठभेड़ में बदमाश के ढेर होने की खबर फैलते ही प्राय: जन-मानस की एक ही रटी-रटाई प्रतिक्रिया होती थी, ‘पुलिस वालों ने घर से उठाकर या रास्ते से पकड़ कर निहत्थे ही दौड़ाकर गोलियों से भून डाला होगा!’
ऐसे में दो ही रास्ते पुलिस के पास बचते थे. पहला रास्ता, नासूर बने खूंखार अपराधियों को उनके हाल पर छोड़कर समाज में उन्हें तबाही मचाने के लिए खुला छोड़ देना. दूसरा रास्ता उन्हें पहले पकड़ने की कोशिश वरना, आमने-सामने की भिड़ंत में, जिसकी किस्मत में जो लिखा हो (पुलिस और बदमाश), वो हासिल कर लेना या करा देना. मुठभेड़ के इन तमाम पुराने और नए ट्रेंड पर जितने एनकाउंटर स्पेशलिस्ट उससे ज्यादा अपने-अपने तर्क हैं. जिनका जिक्र हम इस ‘पड़ताल’ के आगे के हिस्से में करेंगे.
फिल्मी स्टाइल में हुआ वो खूनी एनकाउंटर
पुलिस-एनकाउंटर्स की चर्चा चले और ब्रृजमोहन त्यागी खूनी-मुठभेड़ छूट जाए, ऐसा असंभव है. यह मुठभेड़ हुई थी पश्चिमी दिल्ली जिले में राजा गार्डन चौक पर 15 सितंबर, 1994 को दिन-दहाड़े. मुठभेड़ में मेरठ का कुख्यात ‘कॉन्ट्रैक्ट-किलर’ ब्रृजमोहन त्यागी मारा गया. साथ में ढेर हुआ था अनिल मल्होत्रा.
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बृजमोहन त्यागी के सिर पर उस समय पुलिस ने 2 लाख का इनाम रखा था. अनिल मल्होत्रा दिल्ली के लाजपत नगर का रहने वाला था. उस पर एक पिता और पुत्र की हत्या का आरोप था. ब्रृजमोहन त्यागी यूं तो खुद के गैंग का लीडर था, बावजूद इसके वह सतवीर गुर्जर, राजबीर रमाला, रणपाल गुर्जर, महेंद्र फौजी, केशव गुर्जर उर्फ कैशौ ‘दयालपुरिया’ (पूर्वी दिल्ली दयालपुर गांव) जैसे खून-खराबे के शौकीन गैंग्स और उनके बदमाशों में जबरदस्त पैठ रखता था.
एनकाउंटर जिसने कमिश्नर की बोलती बंद कर दी!
बृजमोहन त्यागी-अनिल मल्होत्रा को ढेर करने वाली दिल्ली पुलिस की टीम को पुलिस कमिश्नर एम.बी. कौशल और तत्कालीन डीसीपी पश्चिमी दिल्ली जिला दीपक मिश्रा लीड कर रहे थे. एनकाउंटर करने वाली टीम को सीधे तौर पर तत्कालीन एसएचओ तिलक नगर एल. एन. राव लीड कर रहे थे. राव ने मुठभेड़ शुरू होते ही वायरलेस पर गोली चलने और गोली लगने का मैसेज दिया.
खुद ही के बदन में तीन गोलियां घुसी होने के कारण खून से लथपथ और बेहोशी के हाल में राव वायरलेस-मैसेज में यह क्लियर नहीं कर सके कि गोली लगी किसे है. बृजमोहन त्यागी मुठभेड़ के बारे में करीब 25 साल बाद पूछे जाने पर एम.बी. कौशल बताते हैं, ‘मुठभेड़ में राव का मैसेज सुनते ही मैं हिल गया. मन में विचार कौंधा वायरलेस पर ही पूछूं कि गोली किसे लगी है, बदमाशों को या पुलिस पार्टी के किसी सदस्य को! चूंकि एनकाउंटर शुरू हो चुका था. सड़क पर भीड़ के बीच पुलिस टीम और बदमाशों के बीच ताबड़तोड़ गोलियां चल चुकी थीं. मौके पर पैदा हो चुके उन विपरीत और संघर्षपूर्ण हालातों में फंसे होने पर मैंने चुप्पी लगा लेने में ही दिल्ली पुलिस की भलाई समझी. मेरा बोलना मेरी ही टीम के लिए घातक हो सकता था. मेरे सवाल का जवाब देने के चक्कर में संभव था कि ध्यान बंटने से हमारी टीम ज्यादा नुकसान उठा जाती.’
जिनका ‘खून’ बहाने को बदले रिवाज, वे गायब!
1990 से 2000 के बीच देश के अधिकांश सूबों में गैंग और गैंगवार की बहुतायत थी. समय के साथ में तमाम खतरनाक गैंग्स खुद ही खूनी गैंगवार में निपट गए. गिने-चुने जो बदमाश या छोटे-मोटे गैंग बचे हैं उन्हें अपना ही पेट-पालने की इस कदर चिंता है कि गैंगवार की कौन सोचे? अब यह अलग बात है कि कथित फर्जी मुठभेड़ों के लिए कुख्यात हो चुके भारत के कई सूबों की पुलिस के ‘एनकाउंटर-स्पेशलिस्टों’ ने जब तक खुलेआम भीड़ के बीच में घुसकर बदमाशों का सफाया करने का ‘फॉर्मूला’ अख्तियार किया, तब तक गैंग-लीडर और गैंग जमींदोज हो चुके हैं. हालांकि गैंग और गैंगवार के समाप्त-प्राय: होने के हमारे तर्क से उत्तर प्रदेश पुलिस स्पेशल टॉस्क फोर्स प्रमुख (एसटीएफ महानिरीक्षक) और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट आईपीएस अमिताभ यश इंकार करते हैं. उनके मुताबिक, ‘गैंगवार में कमी आई है. तो अपराधों में भी कमी आनी चाहिए. महज एनकाउंटरों की संख्या बढ़ाने की उम्मीद में गैंग्स और अपराधियों की संख्या को बढ़ते हुए देखने को पुलिस भला लालायित क्यों रहेगी? यह जरूर है कि अब पुलिस के साथ-साथ अपराधी भी अत्याधुनिक हथियार और घातक तकनीक से लैस हो चुके हैं.’
दो स्टेट की एसटीएफ पर एक बलराज ‘बलवान’ साबित
नोएडा में यूपी एसटीएफ प्रमुख डिप्टी एसपी राजकुमार मिश्रा के मुताबिक, भले ही आज गैंग्स-गैंगवार कम हो गए हों, मगर मुठभेड़ के दौरान पुलिस पर भारी पड़ने में अपराधी कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते. इसका उदाहरण है करीब 3 लाख के (दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश पुलिस) इनामी कांट्रैक्ट-किलर बलराज भाटी की 23 अप्रैल 2018 को नोएडा में यूपी और गुड़गांव (हरियाणा) एसटीएफ के साथ हुई मुठभेड़. वहीं अमिताभ यश के मुताबिक, हाल-फिलहाल यूपी पुलिस के लिए तो बलराज भाटी से बड़ा कोई दूसरा सिरदर्द नहीं था. बलराज को 23 अप्रैल 2018 को यूपी एसटीएफ गौतमबुद्ध नगर जिला प्रमुख (डिप्टी एसपी) राजकुमार मिश्रा की टीम द्वारा नोएडा के सेक्टर 39-49 में पकड़ने की लाख कोशिशों के बाद भी काबू न कर पाने पर मजबूरन पुलिसकर्मियों को खुद की जान बचाने के लिए एनकाउंटर में ढेर करना पड़ गया. नोएडा में हुए उस एनकाउंटर में हरियाणा एसटीएफ के दो सिपाही और एक बच्चे सहित तीन चार राहगीर (बेकसूर लोग) गोली लगने से जख्मी भी हुए.
बदमाशों से मिली खुशी, पुलिस से बदमाशों ने ही छीन ली
दक्षिणी दिल्ली के छतरपुर इलाके में कारों के भीतर एक ही जगह कुख्यात राजेश भारती गैंगस्टर को दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल की टीम ने ढेर कर दिया. एक साथ चार बदमाश मारे गए. कुख्यात राजेश भारती जींद हरियाणा का मूल निवासी था. दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल के डीसीपी प्रमोद कुमार सिंह कुशवाहा और संजीव यादव की टीम द्वारा एक साथ चार बदमाशों की लाशें बिछा दिए जाने की खबर ने राजधानी और देश के बाकी राज्यों की पुलिस में सनसनी मचा दी.
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यहां यह भी उल्लेखनीय है कि छतरपुर एनकाउंटर की खुशी दिल्ली पुलिस (स्पेशल सेल) अभी ‘इन्ज्वॉय’ कर ही रही थी. उससे पहले ही उत्तरी दिल्ली जिले के बुराड़ी इलाके में हुए खून-खराबे में गोगी और सुनील उर्फ टिल्लू गैंग ने एक-दूसरे के दो दुश्मनों को (दोनों गैंग ने एक-एक बदमाश मार डाला) और दो बेकसूरों का काम तमाम कर दिया. जबकि दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल और क्राइम ब्रांच की टीमें एअरकंडीशन दफ्तरों में करोड़ों की अत्याधुनिक मशीनों के सामने बैठीं, दोनो गैंग्स के बदमाशों की लोकेशन ट्रेस करने और बातचीत की रिकॉर्डिंग सुनने में ही फंसी रह गईं.
अब दिल्ली के चंद बचे-खुचे एनकाउंटर-स्पेशलिस्टों और उनके उस्तादों की इस सवाल पर बोलती बंद है कि गोगी-टिल्लू गैंग, पुलिस का जबरदस्त नेटवर्क के होते हुए भी गैंगवार करके कैसे बच निकले?
पड़ताल, पाबंदी और कंट्रोल मतलब ‘पुलिस’
यूपी पुलिस के डिप्टी एसपी धर्मेंद्र सिंह चौहान के मुताबिक, ‘बड़े अपराधी तो खुद-ब-खुद ही पुलिस की नजर में रहते हैं. जरूरत है कि छोटे-छोटे अपराधों में लिप्त क्रिमिनल्स को भी दबोचने की. इस नजरिए पर अमूमन भारत के किसी भी राज्य की पुलिस काम के अधिक दबाव के चलते सोच ही नहीं पा रही है. पुलिस हर अपराधी का डोजियर (फोटो, फिंगर प्रिंट इत्यादि) जरूर बनाए. पुलिस को अदालत में साइंटिफिक सबूतों के साथ केस की मजबूत पैरवी करना चाहिए. ताकि कानून की नजर में अपराधी मजबूत और पुलिस कमजोर साबित न हो सके. अपराधी के साथ उनके सपोर्टर भी पुलिस की नजर में हमेशा रहने चाहिए. पुलिस के तीन प्रमुख काम हैं पड़ताल, पाबंदी और रोकथाम.’
पुलिस अगर ईमानदार हो जाए तो...
डीआईजी पद से 2017 में रिटायर हुए राजेंद्र प्रसाद सिंह यादव के मुताबिक, ‘पुलिस ईमानदार हो जाए तो इलाके में गैंग और गैंगवार कुछ भी बाकी न बचे. मुश्किल यह है कि पुलिस ही बदमाशों को पालती है! तो फिर ऐसे में बदमाश और बदमाशी भला खत्म कौन करेगा? सिपाही से लेकर थाना-इंचार्ज तक की जेब में इलाके के हर छोटे-बड़े अपराधी की जन्म-कुंडली होती है. उन्हें पकड़ने या ठिकाने लगाने के लिए नहीं, उनसे ऊपरी कमाई-उगाही के लिए. हवलदार, सिपाही, थानेदार जब सब वसूली में जुट जाएंगे तो सोचिए अपराध और अपराधी काबू कौन करेगा?’
इसलिए वर्दी ‘बेदम’ और बदमाश ‘दमदार’ हैं
1960-70 के दशक में यूपी पुलिस का चर्चित चेहरा रहे पूर्व दबंग पुलिस उपाधीक्षक (डिप्टी एसपी) सुरेंद्र सिंह लौर तो देश की पुलिस कार्य-प्रणाली से ही खासे खफा हैं. सुरेंद्र लौर के मुताबिक, ‘हर बदमाश का ठौर-ठिकाना इलाके की पुलिस की जेब में रहता है. पुलिस वाले अगर जेबों में बदमाशों को रखने का शौक छोड़कर ईमानदारी से पुलिसिंग कर लें, तो पुलिस-पब्लिक दोनों चैन से जी सकते हैं. मौजूदा वक्त में ज्यादातर पुलिस-एनकाउंटर इसलिए बदनाम हो जाते हैं, क्योंकि पुलिस पहले से ही पब्लिक की नजरों में नासूर सी बनी हुई है. इसलिए पुलिस अच्छा भी करती है. तब भी वो बेईमान, झूठी कही-देखी-सुनी जाती है. एनकाउंटरों पर सवालिया निशान लगवाने के लिए पब्लिक से ज्यादा पुलिस खुद जिम्मेदार है.
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