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जब जवाहर बाग के 'महाभारत' में हुई 'अभिमन्यु' की मौत पर रोया था पूरा मथुरा

मथुरा का जवाहर बाग गोलीबारी कांड में लाठी-गोलियां खाते हुए एसपी सिटी मथुरा मुकुल द्विवेदी, जाबांज फराह थानाध्यक्ष इंस्पेक्टर संतोष कुमार यादव शहीद हो गए

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

जहन्नुम बन चुकी बूढ़ी जिंदगी के ‘खुरदुरे-पालने’ में पल रही, अभिमन्यु से जीवट वाले बहादुर जिगर के ‘टुकड़े’ के लौट आने की ‘बेईमान-उम्मीद’. आंसू भरी आंखों में आते-जाते ‘खूनी-ज़मीन’ के दिल-दहलाने वाले भयावह सपने. बूढ़े दिलों में मौजूद, नासूर बन चुकी यादों के, फूटते-रिसते फफोलों की ना-काबिल-ए-बरदाश्त ‘जलन’. बंजर खेत के बीच मौजूद आड़ी-तिरछी-सूखी-पगडंडी सी बे-सिंदूर ‘सूनी-मांग’ किए, सफेद लिबास में सामने बैठी उत्तरा सी बदकिस्मत जवान पुत्रवधू! वक्त और बदकिस्मती के हाथों हारे, सिर से पिता का साया गंवाए बैठे परीक्षित से बेबस दो मासूम भाई. ये सब के सब बदकिस्मत मौजूद हैं, एक ही छत के नीचे. दिल्ली से सटे हाईटेक शहर ग्रेटर-नोएडा में. ये सब हैं मथुरा में शापित ‘जवाहर-बाग’ की ज़मीन की खातिर,

सन् 2016 में हुए कलियुग के ‘घिनौने-महाभारत’ में हारे हुए ‘बेगुनाह-पात्र’! वो खूनी-जंग थी दुशासन-जयद्रथ से क्रूर-चालबाज किसी, ‘खद्दरधारी-नेता’ की ‘फरेबी-मंशा’ की खूनी-परिणति! एक झटके में ही जिसने छीन ली 80 साल के बुजुर्ग, श्रीचंद्र दुबे और मनोरमा देवी के बूढ़े कांपते हाथों से, ‘अभिमन्यु’ सी मजबूत लाठी! पेश है जवाहर-बाग की जंग के जयचंद, दुर्योधन और दुशासन के ‘चक्रव्यूह’ में, कलेजे के टुकड़े से अपने ‘लाल’ को गंवा चुके, बुजुर्ग मां-बाप की ‘आह-डाह’ और ‘आंसूओं’ में डूबी ‘संडे क्राइम स्पेशल’ की यह खास किश्त.


आंसूओं में सराबोर सिसकता हुआ सवाल

वक्त और हालातों के हाथ हारे जर्जर बदन, बेहाल श्रीचंद्र दुबे और मनोरमा देवी आज, भीष्म-पितामाह से ‘लाचार’ कथित जन-सेवकों का चोला ओढ़े ‘खुराफाती-खद्दरधारियों’, जयचंद से कुछ सरकारी हुक्मरानों और शकुनि से चंद पुलिसिया कारिंदों से कर रहे हैं, किसी भी संवेदनशील इंसान को मर्माहत कर देने वाला सवाल...‘मथुरा में हुई जवाहर-बाग की खूनी-जंग में पुलिसकर्मियों-अफसरों में जब, ‘जयद्रथ-बृहन्नला-शिशुपाल’ के से ही कायर-मौकापरस्त अफसरान मौजूद थे. युद्ध का ताना-बाना अंधतत्व के शिकार, 'दुर्योधन-गांधारी-धृतराष्ट्र' से चंद ‘कपटियों’ द्वारा ‘बुना’ गया था! ‘रक्त-पिपासु ज़मीन’ का टुकड़ा जीतने की उम्मीदें जब, ‘शिखंडी-जरासंध’ जैसे दगाबाजों के कंधों पर ही टिकी थीं! तो फिर अभिमन्यु से बहादुर हमारे ही ‘जिगर’ के बांके दीदावर को, ‘चक्रव्यूह’ के भीतर भेजकर क्यों मरवा डाला? 18 दिन चले महाभारत में एक भी तीर तरकश से बाहर न निकालने वाले, कृष्ण से चंद चतुरों ने?’

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महाभारत के अंतिम दिन सा था ‘जवाहर-बाग’!

दो साल कृष्ण की जन्मस्थली मथुरा के जवाहर बाग में हुई खूनी-लड़ाई ‘महाभारत’ से कमतर नहीं थी. जवाहर बाग की जंग, सरकारी जमीन के कब्जाए गए एक टुकड़े को छुड़ाने की थी. कलियुगी दुर्योधन से मास्टर-माइंड रामवृक्ष यादव के कब्जे से. जवाहर बाग की जंग और हजारों साल पहले हुए महाभारत में एक फर्क रहा. महाभारत ‘धर्मयुद्ध’ कहलाया क्योंकि वहां, अधिकांश देव-पुरुष या देवत्व प्राप्त पुरुष रूप (भीष्म पितामह, अर्जुन, युधिष्ठिर, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, स्वंय श्रीकृष्ण) मैदान में डटे थे. जवाहर-बाग कत्ल-ए-आम में ‘सरकार और उसके कुछ हुक्मरान पुलिसिया कारिंदे युधिष्ठिर, अर्जुन, भीष्म पितामह की सी भूमिका में तो कतई नहीं थे! ऐसा होता तो, अभिमन्यु से बांके जीवट के धनी, पुलिस अधीक्षक मुकुल द्विवेदी और फराह थानाध्यक्ष संतोष कुमार यादव का नाम बे-वक्त ही ‘शहीदों’ में न लिखा जा चुका होता. यह भी तय है कि जवाहर बाग की जंग में ‘लाक्षागृह’, राज्य के किसी राजनीतिज्ञ और पुलिस के ही किन्हीं शकुनी, धृतराष्ट्र और गांधारी की सी ‘फरेबी-फितरत’ वाले या, मोहम्मद गौरी जैसे किसी दगाबाज! द्वारा ही बनाया गया होगा. जिसमें फंसकर, उत्तर प्रदेश राज्य पुलिस सेवा 1998 बैच के पुलिस अधीक्षक (एसपी सिटी मथुरा) मुकुल द्विवेदी अनजाने में ही बलि का बकरा बनवा दिए गए!

21 फरवरी सन् 2000 को विवाह के मौके पर खींची गयी अर्चना और मुकुल की यादगार तस्वीर.

‘बद्दुआओं’ से कैसे बचोगे ‘बुजदिलों’?

महाभारत के से धैर्यवान भीष्म पितामह. अर्जुन सा तीरंदाज. अश्वत्थामा सा बलशाली गुरु-पुत्र. या फिर अश्वत्थामा को 3000 वर्ष तक जंगल-जंगल भटकते रहने का श्राप देने वाली, कृष्ण सी चतुर ईश्वरीय शक्ति, भले ही आज इंसानों की मायावी दुनिया में मौजूद न हो. इस सबके बावजूद 2 जून 2016 को हुए, जवाहर बाग खूनी-कांड के हरे ज़ख्म. हर लम्हा फूट कर रिस रहे फफोलों की जलन तो आज भी बरकरार है ही. 80 साल के बुजुर्ग श्रीचंद दुबे (शहीद मुकुल द्विवेदी के पिता), माँ 75 साल की मनोरमा देवी, पत्नी अर्चना द्विवेदी (45), पुत्र कौस्तुभ (17) और आयुष (13) के दिलों में. इनकी बिलखती बेहाल आत्मा लम्हा-लम्हा कोस रही है, जवाहर बाग कांड के उन तमाम जिम्मेदार, सरकारी-खद्दरधारी धृतराष्ट्र, शिशुपाल, शकुनि, जयचंद, दुशासन, दुर्योधन को, जिनके धोखे में आकर असमय ही दुनिया छोड़ गया, मुकुल द्विवेदी सा ईमानदार-निडर एक संवेदनशील स्वाभिमानी पुत्र. सहयोगी-मिलनसार और मृदुभाषी पति. एक संस्कारी शिक्षक सा गरिमामयी मार्गदर्शक पिता.

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सियासत की वैसाखियों पर थी नींव!

सत्ता के गलियारों से निकली सड़ांध भरी सियासत की कमजोर बैसाखियों पर टिकी थी. जवाहर-बाग-खूनी कांड की इमारत की नींव! शायद यही वजह रही कि, जान-माल का नुकसान उन्हें कतई नहीं हुआ जो, जवाहर बाग की खूनी जंग के असली जिम्मेदार थे. मारे वे गए जो इस कांड में शामिल जयचंद, दुर्योधन, धृतराष्ट्र, शिखंडी से फरेबी और मौका-परस्तों के बुने ‘चक्रव्यूह’ के रास्तों से पूर्णत: अनजान थे.

इन्हीं बेकसूर न-समझदारों में गिने गए तीव्र-बुद्धि मगर बदकिस्मत एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी. जो जिंदगी से कहीं ज्यादा, खाकी-वर्दी की नौकरी को ही तवज्जो देकर उसे ‘ढोते’ रहे. बूढ़े मां-बाप, पत्नी और दोनो बेटों (कौस्तुभ 12वीं और आयुष 8वीं का छात्र) की तमाम हसरतों को नजरंदाज करके. शहीद मुकुल की पत्नी अर्चना द्विवेदी का इस संवाददाता को दिया गया बयान इसका चश्मदीद है. बकौल अर्चना, ‘वे (पति मुकुल द्विवेदी) चाहते थे कि, कभी कोई उनकी ओर ऊंगली न उठाए. सुबह चढ़ी पुलिसिया खाकी-वर्दी बदन से उतरेगी कब? वो खुद भी नहीं जानते थे.’ अर्चना और मुकुल की शादी 21 फरवरी सन् 2000 को हुई थी. अर्चना देवरिया के रिटायर्ड जिला जज घनश्याम पाण्डेय की पुत्री और, महाराजगंज जिले के धनुआडीह गांव की मूल निवासी हैं.

कैसे उतारुं ‘खाकी-वर्दी’ ये मेरी दूसरी ‘खाल’ है?

औरैय्या जिले के थाना-तहसील विधुना के गांव मानीकोठी के मूल निवासी मुकुल का जन्म आगरा में 31 जुलाई 1967 को हुआ था. छोटा भाई प्रफुल्ल पत्नी नताशा, पुत्र प्रत्युष और बेटी निवृति के साथ दुबई में रह रहा है. 29 जुलाई सन् 1998 को, जिला सहायक निबंधक सहकारी समितियां (इटावा) से एडिश्नल डिस्ट्रिक्ट कोऑपरेटिव ऑफिसर पद से रिटायर मुकुल के पिता, श्रीचंद दुबे अब करीब 80 वर्ष के हैं. उनके मुताबिक, ‘मैं पुलिस की नौकरी के खिलाफ था. मुकुल की खाकी-वर्दी के प्रति जरूरत से ज्यादा लगन देखी तो उसे टोका था. वो बोला 'वर्दी मेरी स्किन है. बताओ उसे मैं खुद ही कैसे बदन से उतार दूं?' खाकी के प्रति उसकी ईमानदार ‘वफादारी’ सुन-देखकर मैं खामोश हो गया. मुकुल वाली बात तो मुझमें भी नहीं है.’ कहते-कहते गला भर्राने लगता है. आंखों में डबडबा आये आंसूओं को छिपाने के लिए. दोनो हथेलियों के बीच में ले लेते हैं चेहरे को.

80 साल के बुजुर्ग बेबस पिता श्रीचंद दुबे...बुढ़ापे की लाठी छीनने वालों को आह और डाह से कौन बचायेगा...आज नहीं तो कल कर्मों का फल सामने आयेगा.

इत्तिफाक या विधि का लिखा विधान

इसे विधाता की लिखी कहिए या फिर, इंसानी दुनिया का अजब इत्तिफाक. मुकुल द्विवेदी का जन्म, जिस आगरा मंडल में हुआ था. खेले-कूदे-पढ़े-लिखे. करीब 49 साल बाद नगर पुलिस अधीक्षक मथुरा के पद पर रहते हुए ‘शहीद’ होकर उसी आगरा मण्डल में, उन्होंने जीवन की अंतिम सांस भी ली. अतीत की यादें बांटते हुए, चलने-फिरने में बेहद लाचारी महसूस करने वाले पिता श्रीचंद दुबे की आंखों में, ऊफन रहे बेकाबू आंसू सफेद झक कुरते में समाकर सूख जाते हैं. कई घंटे से चल रही बेटे की शहादत के चर्चा में शांत बैठी मां मनोरमा देवी, पति की टूटन देखकर फफक पड़ती हैं. दिल पर पत्थर रखकर गुमसुम सी बैठी पुत्रवधू (शहीद मुकुल की पत्नी अर्चना द्विवेदी), पहली विदा में बाबुल की देहरी छोड़ने के वक्त किसी सोन-चिरैय्या या ‘जानकी’ सी बिलखती सास को, ढाढस बंधाने की कोशिश करती हैं. अपनी आंखों में भरे आंसूओं को पी पाने में नाकाम रहते हुए भी.

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भगवान की पूजा छोड़ दी क्योंकि....

‘जिस दिन से ईश्वर ने मुकुल छीना. मैंने पूजा-पाठ छोड़ दिया. ईश्वर मेरी और मुकुल की एक गलती बता दे. वो गुनाह बताए भगवान जिसकी सजा में, मुकुल और मुझे जुदा कर दिया. मैं पूजा करने लगूंगी.’ बेटे के विछोह में वक्त से पहले ही बूढ़ी हो चुकी मां, मनोरमा देवी कहते-कहते बिलख पड़ती हैं. बकौल मनोरमा देवी, ‘अस्पताल में मुकुल के जन्म वाले दिन एक ही लड़का जन्मा था. बिना गलती डांटे जाने पर मैं या पिता मान-मनुहार करके मनाते तभी काबू आता था वो. समझदार हुआ तो कहता कि, मां-पापा तुम्हें इतना प्यार दूंगा कि भूल न पाओगे कभी. अपनी तकलीफ जाहिर नहीं होने देता था कभी. हमारी (मां-बाप) तकलीफ तुरंत ताड़ लेने का हुनर था उसमें. पिता के बाहर होने पर भूखे सो जाते थे. आधी रात को पिता ही उठाकर खाने खिलाते थे. मां होकर भी यह बात मुझे बहुत बाद में समझ आई कि, मुकुल में किसी को भी अपना बना लेने की चमत्कारिक ईश्वरीय ताकत थी.’ कथित ‘शहादत’ के नाम पर अभिमन्यु से लाल को असमय ही खो चुकीं मनोरमा देवी बार-बार बेहाल-निढाल हो जाती हैं.

भगवान तू एक गल्ती मेरी बता जो मुकुल सा लाल छीन लिया...बेहाल-बेबस बिलखती माँ मनोरमा देवी

अतीत की खुबसूरत यादें जो बन गयीं नासूर

बेजान उंगलियों से अतीत की यादों के पन्ने पलटते हुए बताते हैं पिता श्रीचंद और मां मनोरमा देवी, ‘सन् 1977 की बात है. मुकुल पूरनपुर के आर्य समाज इंटर कालेज में 8वीं में पढ़ रहे थे. पिता-पुत्र के रिश्ते से अनजान प्रिंसिपल ने, एक दिन मुझे मुकुल की ओर उंगली उठाते हुए कहा कि, इस लड़के (मुकुल) का सामान्य ज्ञान तुमसे (पिता श्रीचंद) भी कहीं ज्यादा अच्छा है. मुकुल के सहपाठी कॉलेज के वक्त से ही उसे 'आईएएस' कहकर बुलाया करते थे. मुकुल ने आगरा विवि से एमएससी (केमिस्ट्री) 74 फीसदी अंकों से उत्तीर्ण किया था. आईएएस-प्री चार मर्तबा क्वालीफाई किया. इंटरव्यू तक भी पहुंचे. इंटरव्यू में नसीब ने मुकुल का साथ नहीं दिया.’

जायज की ‘जंग’ का जिद्दी नौजवान

जायज की जंग में मुकुल, इस कदर के जिद्दी थे कि एक बार पीसीएस के इंटरव्यू में कमेटी चेयरमैन से ही अड़ गए. इस सवाल पर कि सम्राट अशोक का कोई दूसरा नाम नहीं है. पिता श्रीचंद के मुताबिक, ‘बात है सन् 1994-95 की. मुकुल सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे थे. उस दौरान रात को खाना नहीं खाते. वजह थी नींद आ जाएगी. कमरे का बाहर से ताला लगवाकर अंदर बैठकर आईएएस की तैयारी करते. कहते पापा दुनिया विचित्र है. यहां चमत्कार को ही नमस्कार है. आलस आएगा इसलिए पढ़ाई के वक्त कूलर में पानी नहीं भरते थे.’ बकौल मां मनोरमा देवी, ‘आगरा में रहकर मुकुल बीएससी कर रहे थे. उन्हीं दिनों चीटियों ने काट लिया. मुझे फोन करके पूछ रहा था कौन सी शर्ट पहन लूं? ताकि चीटीं न काट सकें. मेरे 'लाल; को काम के जुनून और बेइंतिहाई शराफत ने 'लील' लिया.’

वो भी क्या दिन थे...मशहूर उद्योगपति रतन टाटा से हाथ मिलाते हुए मुकुल

‘कुरान’ का विद्वान पुलिसिया पंडित!

बेटे द्वारा लिखे गए उसके पुराने खतों में चेहरा तलाश रही बूढ़ी मां-पिता के अल्फाजों में, ‘एमएससी पासआउट होने के बावजूद उसे कुरान का ज्ञान बखूबी था. पुलिस महकमे में तमाम सहयोगी/अफसरान/ मातहत उसके कुरान के ज्ञान पर अक्सर ताज्जुब में पड़ जाते थे.’ ट्रेनिंग के बाद मुकुल के बतौर सर्किल ऑफिसर पहली पोस्टिंग सन् 2002 में मिली मेरठ में. दूसरी चैलेंजिंग जिम्मेदारी मिली 2006 में हुए अलीगढ़ दंगों में कर्फ्यू के दौरान. मेरठ, बुलंदशहर, हाथरस (सादाबाद), सहारनपुर में भी मुकुल तैनात रहे. सन् 2014 तक करीब तीन साल मथुरा में ही क्षेत्राधिकारी रहे.

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मेरठ में हुए ‘ऑपरेशन-मजनूं’ में मुकुल को बलि का बकरा बनाकर पुलिसिया हुक्मरानों ने सस्पेंड कर दिया था. जांच में बेदाग साबित होते ही बहाल कर दिए गए. बरेली में सर्किल ऑफिसर रहते हुए ही एसपी (पुलिस अधीक्षक) पद पर प्रमोट हो गए. इसके बाद 6 फरवरी 2016 को पहली बार बतौर पुलिस अधीक्षक मथुरा (शहर) तैनात किया गया. जहां 2 जून 2016 को हुए जवाहर-बाग जघन्य कांड में संदिग्ध हालातों में शहीद हो गए. उस कांड की जांच सीबीआई कर रही है. जो अभी तक फाइलों में पड़ी धूल फांक रही है. जांच कहां तक पहुंची? इस सवाल का जवाब सीबीआई के आला अफसरान एक-दूसरे को ही बता-सुनाकर गाल बजा रहे हैं!

फाइलों में सांसें गिनते सैकड़ों सवाल!

जवाहर बाग कांड होना था हो गया. जिन्हें मरना था मर गए. जांच की बारी आई तो सीबीआई की चाल सुस्त पड़ गई. आखिर क्यों और किसके इशारे पर? यही सवाल है बेवजह ही बैठे-बिठाए ‘शहादत’ का निवाला बन चुके, शहीद निडर पुलिस अफसर मुकुल द्विवेदी के पीड़ित परिजनों का. इनके एक सवाल में सीबीआई सौ जगह घिरी नजर आती है! 'जबसे घटना की पड़ताल शुरू हुई है तब से क्या, सीबीआई की जांच एक बार ही मुकुल द्विवेदी के परिवार के पास जाने तक बढ़ पाई है? कहां है मुकुल द्विवेदी के उस मोबाइल की डिटेल जो पीड़ित परिजनों द्वारा, सीबीआई के हवाले किया गया था?' बेबाकी से पूछती हैं मुकुल द्विवेदी की पत्नी अर्चना और छोटे भाई प्रफुल्ल द्विवेदी.

पिता श्रीचंद दूबे, मां मनोरमा देवी (बैठे हुए), दोनों बेटे कौस्तुभ-आयुष, पत्नी अर्चना और छोटे भाई प्रफुल्ल (बाएं पीछे की ओर काली शर्ट में) के साथ खाकी जैकेट में मुकुल.

किसने पाले जवाहर बाग के जरासंध-जयद्रथ?

कृष्ण से चालाक किस ‘खद्दरधारी-नेता’ ने रामवृक्ष यादव को, पाल-पोसकर किसने बनाया था, जवाहर बाग का ‘जरासंध, जयद्रथ और दुर्योधन’? थानाध्यक्ष फराह संतोष कुमार यादव और एसपी सिटी मथुरा मुकुल द्विवेदी को अभिमन्यु सा ‘चक्रव्यूह’ में घिरा देखते ही पीठे दिखाकर भाग जाने वाले, मौका-परस्त शिखंडी से गद्दार-कायर, आला पुलिस अफसर को किसने दी है नोएडा में 'मलाईदार' तैनाती? जवाहर बाग की दीवार तोड़कर उसके अंदर बैठे, दुर्योधन से रामवृक्ष यादव को निकालने के लिए जब, दीवार 4 जून को तोड़ी जानी थी, तो फिर 2 जून को ही अभिमन्यु बनाकर, शकुनि सी चालें चलने में माहिर, किस दबंग नेता, आला पुलिस अफसर या जिला प्रशासन के किस अधिकारी ने बहादुर मुकुल द्विवेदी को भेज दिया और क्यों? जवाहर-बाग के ‘चक्रव्यूह’ में शिखंडी से कायर कुछ दगाबाजों के साथ! कौन हैं जयचंद से वे अफसरान जो, जवाहर बाग गोलीकांड के वक्त गेस्ट-हाउस में बैठे बजा रहे थे अपने गाल! जबकि बदन पर लाठी-गोलियां खाते हुए एसपी सिटी मथुरा मुकुल द्विवेदी, जाबांज फराह थानाध्यक्ष इंस्पेक्टर संतोष कुमार यादव शहीद हो गए.

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सबको सस्पेंड कर देंगे तो पुलिस कैसे चलेगी?

बकौल शहीद मुकुल द्विवेदी के पिता श्रीचंद, ‘जवाहर बाग कांड में जैसे ही मुकुल उपद्रवियों के चंगुल में फंसे, वैसे ही साथ मौजूद जयचंद, दुशासन,जयद्रथ, जरासंध से कायर कई खाकी वर्दीधारी मौके से रफूचक्कर हो गए. शाम पांच-छह बजे की घटना रात साढ़े दस बजे तक किसी जिम्मेदार पुलिस अफसर ने हम लोगों को नहीं बताई. आखिर क्यों? क्या इसलिए कि वे सब मेरे बेटे मुकुल से भी ज्यादा, (लापरवाह पुलिस अफसर, मथुरा जिला प्रशासन हुक्मरान) ईमानदार और बहादुर थे? यूपी सरकार में उस वक्त का सबसे कद्दावर युवा नेता बोला...'सबको सस्पेंड कर देंगे तो सूबा कैसे चलेगा?' यह अलग बात है कि मुकुल के बूढ़े मां-बाप की आह और डाह ने, उस नेता और उसकी सरकार को ही 'डस' लिया. उसके परिवार में आज सब मठाधीश पॉलिटिशियन ‘पॉलिटिकल-पीड़ा’ के ‘वायरल’ से जूझ रहे हैं.’

‘मुकुल’ जिसकी मौत पर रोया था मथुरा

मुकुल की मौत वाले दिन मथुरा के उन घरों में चूल्हा नहीं जला जो, मुकुल को बे-वर्दी भी जानते-पहचानते थे. एक इंसान के तौर पर. मुकुल की मौत पर मथुरा की गलियों में लोगों को रोते-बिलखते देखा गया था. जमाने का सबसे गहरा जख्म और जिंदगी का सबसे भारी दुख सीने में दफन किए. सास-ससुर और दोनो बेटों के बीच गुमसुम सी बैठी हैं सफेद सूट पहने पत्नी अर्चना. सीने में दफन गम बहुत कुछ बोलने को उकसाता है. जुबान है कि साथ नहीं देती. लब आपस में लड़खड़ाकर बंद हो जाते हैं. आंखें बोलने से पहले ही डबडबाकर बिलख उठती हैं. 2 जून 2016 का वो मनहूस दिन याद करके जब अर्चना बरेली में थीं. व्रत रखा था उस दिन. पति ने फोन पर ब-हुक्म एसएसपी मथुरा, जवाहर बाग की 'रेकी' पर जाने की बात बताई थी. तो अर्चना उनसे बोलीं, ‘सावधान रहना.’ बरेली से रात 12 बजे मथुरा पहुंची तो, मांग का सिंदूर मिट चुका था. तमाम हसरतों को साथ लिए, ज़िंदगी जिंदा ही ‘ज़मींदोज’ हो चुकी थी.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)