live
S M L

पैदा होते ही मर जाने के डर से जिसे ‘दफनाने’ के इंतजाम थे, वही IPS देश का पहला ‘साइबर-कॉप’ बना!

1960 के दशक में जिसे, जन्म के कुछ घंटे बाद ही मर जाने की आशंकाओं के चलते, ‘दफनाने’ का इंतजाम और इंतजार किया जा रहा था, आज वो देश का पहला साइबर कॉप है

Updated On: Sep 16, 2018 09:10 AM IST

Sanjeev Kumar Singh Chauhan Sanjeev Kumar Singh Chauhan

0
पैदा होते ही मर जाने के डर से जिसे ‘दफनाने’ के इंतजाम थे, वही IPS देश का पहला ‘साइबर-कॉप’ बना!

‘लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती,

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,

जा-जाकर खाली हाथ लौट आता है,

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,

बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में,

मुठ्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती.’

ऊपर लिखे कविता के अंश स्वर्गीय श्री सोहन लाल द्विवेदी जी द्वारा रचित है. इन पंक्तियों का जिक्र मैं, भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) की उस शख्सियत की जिंदगी के पन्नों को पलटने से पहले कर रहा हूं, जिसकी नौकरी कानून की पहरेदारी, सामने मौजूद खूंखार अपराधी को दबोच या भूनकर (एनकाउंटर) शांत करने की है. ऐसे में जेहन में सवाल आना लाजमी है कि किसी पुलिसिया या आईपीएस अफसर की जिंदगी का, बच्चों को स्कूल में पढ़ाई जा रही कविता से भला क्या सरोकार? जेहन में उठ रहे इस सवाल का माकूल जवाब, ‘संडे क्राइम स्पेशल’ की इस नायाब किश्त को पढ़ने के दौरान पाठकों को, कहीं-न-कहीं. खुद-ब-खुद मिल जाएगा. जमाने की भीड़ के बीच से निकलकर ‘आम’ से ‘खास’ बन चुकी, इस शख्सियत के तंगहाल बचपन. संघर्षपूर्ण नौजवानी. हिरनी के मन-मोहक चंचल शिशु की सी कुलांचे भर रहे ‘वर्तमान’ की हकीकत से रु-ब-रु होते ही. इतना ही नहीं आज, वही जुझारू बालक भारत का पहला ‘साइबर-कॉप’ बना बैठा है! सन् 1960 के दशक में यानी करीब 53 साल पहले जिसे, जन्म के कुछ घंटे बाद ही मर जाने की आशंकाओं के चलते, ‘दफनाने’ का इंतजाम और इंतजार किया जा रहा था!

1960 के दशक में बलिया का मुड़ियारी गांव

उत्तर प्रदेश के बलिया जिले का मुड़ियारी गांव थाना मनियर इलाके में स्थित है. इसी गांव में रहते थे फागू सिंह पत्नी राममूर्ति देवी के साथ. कालांतर में फागू सिंह-राममूर्ति देवी के सात संतान (4 पुत्र, 3 पत्रियां) पुत्र कैलाश पति सिंह (बिजनेसमैन), कमल देव सिंह (मुड़ियारी में स्कूल प्रिंसिपल), तारकेश्वर सिंह (जिला जज मंदसौर, मध्य प्रदेश), सबसे छोटे बेटे के रूप में वह संतान, जिसकी रुह कंपा देने वाली जिंदगी पर आधारित, ‘संडे क्राइम स्पेशल’ की यह किश्त लिखी जा रही है. तीन पुत्री श्याम सुंदर, श्याम प्यारी और निर्मला का जन्म हुआ. 7 संतान और आय का एकमात्र रास्ता फागू सिंह की पुलिस-इंस्पेक्टरी की नौकरी से हर महीने मिलने वाली सरकारी पगार (तनख्वाह). आर्थिक हालात विपरीत थे. 7 संतानों को पढ़ाने लिखाने की जिम्मेदारी दिन-रात सामने मुंह बाए खड़े रहती. फागू सिंह-राममूर्ति देवी ने हिम्मत नहीं हारी. राममूर्ति देवी ने घर में चूल्हा भले एक वक्त जला लिया. संतानों की शिक्षा पर लेकिन,‘तंगहाली’ का कलंक नहीं लगने दिया.

कक्षा-10 में पढ़ाई के समय की यादगार फोटो...बायें से दायें वो बालक त्रिवेणी सिंह मां राममूर्ति देवी के साथ जन्म के वक्त ही मर जाने की आशंका में जिसे दफनाने की तैयारी कर ली गई थी.

कक्षा-10 में पढ़ाई के समय की यादगार फोटो...बायें से दायें वो बालक त्रिवेणी सिंह मां राममूर्ति देवी के साथ जन्म के वक्त ही मर जाने की आशंका में जिसे दफनाने की तैयारी कर ली गई थी.

हालातों ने बेबस मां की ‘ममता’ बहादुर बनाई!

दरअसल फागू सिंह उस जमाने में पश्चिम बंगाल पुलिस में इंस्पेक्टर थे. 1966 में दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई. पति की मौत ने राममूर्ति देवी को तोड़ दिया. पति का अंतिम संस्कार होने के बाद कुछ को छोड़कर, तमाम रिश्ते-नातेदार धीरे-धीरे अपने-अपने रास्ते हो लिए. राममूर्ति देवी के सामने खड़े थे बिना बाप के 7 मासूम. जिनके मुरझाए चेहरे बेबस मां के, जख्मों को कुरेदने और उनकी आत्मा के फफोलों को फोड़ने के लिए किसी पैने नस्तर से कम नहीं लग रहे थे. उन विषम हालातों में राममूर्ति देवी ने आंसू बहाने के बजाये, जिंदगी की हारी बाजी जीतने के लिए, खुद के पांवों पर खड़े होना ज्यादा जरुरी समझा. क्योंकि उसी एक फैसले पर टिका था, बिना पिता की 7 संतानों का भविष्य.

‘साइबर-कॉप’ बनने को ‘कब्र’ नहीं कुबूली!

पति फागू सिंह की मृत्यु के वक्त सबसे छोटा पुत्र तीन-चार साल का था. इसी पुत्र के जन्म के वक्त का एक हैरतंगेज किस्सा मां राममूर्ति देवी के शब्दों में, ‘1 नवंबर सन् 1965 को सबसे छोटी संतानों के रूप में मेरे दो जुड़वां बेटियों और एक बेटे का जन्म हुआ था. एक दिन के अंतराल पर तीन संतान में से दो बेटियों का देहांत हो गया. दूसरी बेटी का अंतिम संस्कार करके जब मर्द घर लौटे तो, किसी आदमी की आवाज मेरे कानों में पड़ी, 'एक गढ्ढा (कब्र) और खोद आते. थोड़ी बहुत देर में यह भी (तीन में से जीवित बची एक संतान यानी बेटा) चल बसेगा तो फिर, कफन-दफन करने तो इसे भी जाना ही पड़ेगा.'......किस्मत से मेरा सबसे छोटा वही बेटा जिसे, ‘दफनाने’ के लिए कोई सज्जन पहले ही गढ्ढा (कब्र) खुदवाने पर उतारू थे, जीवित बच गया. जो अब आईपीएस (भारतीय पुलिस सेवा) बन गया है. बहू किरन (उसी बेटे की पत्नी) अखबारों में खबरें पढ़कर बताती-सुनाती रहती है कि, उसने (बेटे) कभी कहीं कोई बदमाश 'मार' (एनकाउंटर) डाला है. कभी सुनती हूं कि, गलत टाइप के लोग गिरफ्तार कर लिए हैं.’

नाखूनों से बनाई ‘आईपीएस’ की राह!

‘जब यह 8वीं में पढ़ता था उसी वक्त, इसकी स्कॉलरशिप (एकीकृत छात्रवृत्ति) बंध गई. सन् 1977 में कक्षा-9 में सरकार ने राजकीय बाल विद्यालय (जीआईसी) बलिया में हॉस्टल में दाखिल कर लिया. 1982 में इंटर करने के बाद इसकी प्लानिंग इलाहाबाद में रहकर, भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) की तैयारी करने की थी. 1984 में इलाहाबाद से ग्रेजुएशन कर लिया. आईपीएस बनने तक जो कष्ट इसने उठाए हैं, ईश्वर किसी बच्चे को वो मुसीबतें न दिखाए.’ अतीत के काले पन्नों पर, सफेद रोशनाई (स्याही) से लिखी इबारतें पढ़कर सुनाते-सुनाते, सफेद झक सूती धोती में पुत्रवधू किरन सिंह के पास बैठी, 101 साल की राममूर्ति देवी की आँखों में खुशी छलछला आती है आंसू बनकर.

बायें से दायें पत्नी किरन सिंह और माँ राममूर्ति देवी (बीच में) के साथ भारत का पहला साइबर कॉप आईपीएस डॉ (प्रो.) त्रिवेणी सिंह, जिन्हें 1960 के दशक में पैदा होते ही मर जाने पर दफनाने के आशंका में बैठे थे परिजन

बायें से दायें पत्नी किरन सिंह और माँ राममूर्ति देवी (बीच में) के साथ भारत का पहला साइबर कॉप आईपीएस डॉ (प्रो.) त्रिवेणी सिंह, जिन्हें 1960 के दशक में पैदा होते ही मर जाने पर दफनाने के आशंका में बैठे थे परिजन

एलआईसी असिस्टेंट बना जेलर से ‘साइबर-कॉप’

‘बात है सन् 1986 की. एलआईसी में असिस्टेंट की नौकरी लग गई. तनख्वाह थी साढ़े तेरह सौ रुपया महीना. पोस्टिंग हुई उत्तरांचल (अब उत्तराखंड) के रानीखेत में. दो साल बाद ही सन् 1989 में मध्य प्रदेश जेल सर्विस में सलेक्ट हो गए. वेतन था 1850 रुपया महीना. पहली पोस्टिंग हुई बतौर जेलर सेंट्रल जेल इंदौर में. उस वक्त अंतरराष्ट्रीय भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ द्वारा गिरफ्तार कुख्यात स्मग्लर बाला बेग भी वहीं कैद था. दो साल जेल की नौकरी के बाद, सन् 1992 में 3000 महीना वेतन की ब्लॉक डवलपमेंट अफसर (बीडीओ) की नौकरी ज्वाइन कर ली. छह महीने बाद ही उत्तर-प्रदेश पुलिस सेवा (पीपीएस) से सन् 1991 बैच में ‘डिप्टी सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस’ बन गये. बतौर पुलिस उपाधीक्षक (डिप्टी एसपी) पहली पोस्टिंग मिली सन् 1994 में नैनीताल जिले में.’ ‘बचपन में मुझे देखकर घर-कुनवे में सब कहते थे कि, 'बॉडी-गार्ड' बनेगा. सो ‘साइबर-कॉप’ यानी आईपीएस बन गया.’ बताते हुए आज बेसाख्ता हंस पड़ता है, खाकी का यह ‘पढ़ा-लिखा’ दिलेर.

चार्टर्ड-एकाउंटेंट है या ‘एनकाउंटर-स्पेशलिस्ट’?

‘घर से स्कूल में पढ़ने टाट-पट्टी लेकर जाता था. फीस थी 10 पैसा. पांचवी तक पढ़ने के लिए कुल खर्च मेरा आया था 6 रुपया 20 पैसा. जबकि कक्षा 6 से 8 तक यानी दो साल की एजूकेशन पर खर्च हुआ मात्र 1 रुपया 20 पैसा. पहली क्लास से दसवीं करने तक मेरी पढ़ाई पर कुल खर्चा उस जमाने में हुआ था 200 रुपया. जबकि 360 रुपये इंटर में और 15 रुपये सालाना खर्च हुआ यूनिवर्सिटी में. 1977 में हर महीने 100 रुपए स्कॉलरशिप मिला करती थी. इस हिसाब से मुझे पूरे जीवन में करीब 7200 रुपये बजरिे स्कॉलरशिप मिले. यह स्कॉलरशिप ग्रेजुएशन तक मिलती रही. जबकि पहली क्लास की पढ़ाई से लेकर डिप्टी एसपी बनने तक कुल खर्चा हुआ मात्र 1320 रुपये.’ चार्टर्ड एकाउंटेंट हो या फिर एनकाउंटर स्पेशलिस्ट देश का पहला उच्च-शिक्षित ‘साइबर-कॉप’? पूछने पर हंसकर बताता है यह हरफनमौला, ‘आमदनी-खर्चे का हिसाब-किताब सबको रखना चाहिए. ऐसा न करने पर जिंदगी का गणित गड़बड़ाने में वक्त नहीं लगता है.’

केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के पूर्व निदेशक रंजीत सिंहा के साथ भारत के पहले साइबर-कॉप आईपीएस प्रोफेसर (डॉ.) त्रिवेणी सिंह

केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के पूर्व निदेशक रंजीत सिंहा के साथ भारत के पहले साइबर-कॉप आईपीएस प्रोफेसर (डॉ.) त्रिवेणी सिंह

याद है आंखों में गुजरी मां की हर वो रात

अच्छे दिनों के फेर में फंसते ही इंसान बुरे दिनों को भूल जाता है. यहां सब कुछ मगर इसके उलट है. भारत के पहले ‘साइबर-कॉप’ कहलाए इस आईपीएस को मां से जुड़ी हर एक बात आज भी याद है. जैसे मां की इच्छा थी कि बेटा पुलिस अफसर (आईपीएस) या प्रशासनिक (आईएएस) अफसर बने. इसी उम्मीद में मां, बेटे की पढ़ाई के दिनों में आधी-आधी रात तक जागती रहती थीं. ‘चूंकि नाना और पिता पुलिस में रह चुके थे. इसलिए मैं कुछ अलग करके आईएएस में जाना चाहता था. किस्मत के लिखे को कोई काट और पढ़ नहीं सकता है. इसलिए मैं आईपीएस बन गया.’ बेबाकी से बतियाते हुए अचानक आसमान की ओर निहारने लगता है वर्दी का यह दिलेर.

‘साइबर-क्राइम’ पीएचडी होल्डर ‘टॉप-कॉप’!

अपराध को रोकने और अपराधियों को ‘ठोंक’ कर, ठिकाने लगाने के जुनूनी इस आईपीएस का शौक पढ़ना-लिखना बचपन से रहा. यही वजह है कि उत्तर-प्रदेश पुलिस महकमे से 2 साल की ‘स्टडी लीव’ ले ली. 2012 में एमिटी यूनिवर्सिटी से ‘साइबर-क्राइम’ में भारत का पहला इकलौता पीएचडी होल्डर (डॉक्टरेट उपाधि धारक) बन गया. अपने इस अजूबे ‘बहुउद्देशीय’ स्टूडेंट से निहाल, यूनिवर्सिटी ने ‘प्रोफेसर’ जैसी गरिमामयी ‘मानद-उपाधि’ से भी सुशोभित किया. यह अलग बात है कि, उस जमाने के एक तत्कालीन पुलिस महानिदेशक (आईपीएस डीजीपी, मौजूदा वक्त में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिमिनॉलॉजी एंड फॉरेंसिक साइंस दिल्ली में डेपूटेशन पर पदासीन) ने यूपी पुलिस की ‘सिरमौर’ बनी इस शख्सियत को, उसके नाम के पहले ‘प्रोफेसर’ लिखने की अनुमति देने से साफ इंकार कर दिया था.

बायें से दायें छोटे बेटे हर्षवर्धन सिंह, बड़े बेटे कार्तिकेय सिंह के साथ बीच में आईपीएस त्रिवेणी सिंह

बायें से दायें छोटे बेटे हर्षवर्धन सिंह, बड़े बेटे कार्तिकेय सिंह के साथ बीच में आईपीएस त्रिवेणी सिंह

‘सरकार’ का करिश्मा, ‘साहब’ नहीं समझे!

हालांकि बाद में, राज्य सरकार ने बाकायदा नाम से पहले ‘प्रोफेसर’ लिखने की अनुमति का शासनादेश जारी करके, राज्य और सूबे की पुलिस को गौरवांवित किया. इसका पूरा श्रेय उत्तर-प्रदेश शासन के उप-सचिव धीरेंद्र कुमार को जाता है. तीन हजार सात सौ करोड़ का पोंजी स्कैम हो, रेलवे एग्जाम पेपर लीक कांड का पर्दाफाश. फर्जी कॉल सेंटरों से ठगी का गोरखधंधा. ऐसे तमाम चर्चित मामलों के खुलासों पर सफलता की मुहर इसी दिलेर आईपीएस और उसकी टीम की लगी. इतना ही नहीं देश को हिला देने वाला, मध्य-प्रदेश के भोपाल शहर का महिला आरटीआई कार्यकर्ता शहला मसूद हत्याकांड के आरोपी की गिरफ्तारी का ‘श्रेय’ भी इसी जाबांज की झोली में आकर गिरा था. यह अलग बात है कि, देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई आरोपी की तलाश के नाम पर, महीनों हवा में ही पांव पटकती रह गई.

इंसानी रोबोट है या स्वचालित मशीनगन!

यूपी पुलिस ही क्या, भारत की संपूर्ण पुलिस-फोर्स (राज्य) के पास एक अदद मौजूद यही ऐसी शख्सियत नजर आती है जिसमें छात्र, शिक्षक, कानूनविद्, व्याख्याता (लेक्चरर/वक्ता), पड़ताली (इन्वेस्टीगेटर), गणतिज्ञ, निडरता आदि-आदि सब-कुछ समाहित है. कानपुर में सन् 2012 में तड़के करीब 5-6 बजे के आसपास, कुख्यात सानू बॉस की खूनी मुठभेड़ में बतौर डिप्टी एसपी (यूपी एसटीएफ) सफाई. सन् 2011 में हाथरस में हुई खूनी मुठभेड़ में 50 हजार के इनामी कमलेश यादव को मौत की नींद सुलाने का मामला हो. हर लाश के सीने या माथे में, गोली इसी शख्स के हाथों में मौजूद हथियार से निकली हुई मिली. इस जाबांज को तमाम इनाम-इकराम के साथ-साथ पुलिस वीरता पदक से भी नवाजा गया. हाथरस में ढेर किया गया कमलेश यादव, 15 कत्लों का बोझ लेकर पुलिस से बचता हुआ, इधर-उधर भटक रहा था.

गतवर्ष दक्षिण-कोरिया में आयोजित 'वीसा सुरक्षा समिट' में भारत की भागीदारी निभाने के दौरान.

गतवर्ष दक्षिण-कोरिया में आयोजित 'वीसा सुरक्षा समिट' में भारत की भागीदारी निभाने के दौरान.

अमेरिका बाया बलिया....फिर भी मन बेचैन!

जब इंसान को उसकी मंजिल मिल जाती है तो, वह शांत होकर बैठ जाता है. यह अजूबा इंसान मगर भीड़ से अलग है. तीन-तीन सरकारी नौकरियां छोड़कर आईपीएस बना. एमबीए की पढाई की. एथिकल हैकिंग कोर्स और फॉरेंसिक इंवेस्टगेटर का कोर्स ईसी काउंसिल यूनिवर्सिटी अमेरिका से किया. ‘साइबर-क्राइम’ की स्पेशल-ट्रेनिंग अमेरिका की सीक्रेट पुलिस सर्विस से ली. सन् 2012 में नैसकॉम और डीएससीआई द्वारा ‘साइबर-कॉप ऑफ इंडिया’ से सम्मानित किया गया. उसी साल राष्ट्रपति से वीरता पुरस्कार हासिल किया. देश की सर्वाधिक चर्चित, बड़ी और इकलौती केंद्रीय जांच एजेंसी (सीबीआई) द्वारा विशेष सम्मान मिला. गतवर्ष ही दक्षिण-कोरिया में आयोजित ‘वीसा सिक्योरिटी समिट’ में हिस्सेदारी निभाने का अवसर मिला. ‘साइबर-क्राइम’ में देश में पहली पीएचडी हासिल करने का सेहरा सिर बंधा. इसके बाद भी जुनून का आलम यह है कि...अब आगे और क्या करुं? क्या पढ़ूं? क्या लिखूं?

अहसान फरामोशी ‘फितरत’ में नहीं...

‘काम निकालो और भागो’ वाली जिंदगी में, अमूमन इंसान अहसानफरामोश बनने में लेशमात्र भी हिकारत महसूस नहीं करता है. जब सीढ़ी से छत पर पहुंचते ही उसे गिरा या फेंक देना अधिकांश लोगों की फितरत देखी जाती है. ऐसे वातावरण में भी आज का यह अनोखा आईपीएस, तोहमतों का बोझ सिर पर लादकर चलने में खुद को ‘असमर्थ’ पाता है. शायद यही वजह रही होगी कि, हिंदुस्तान जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश का पहला ‘साइबर-कॉप’ बनने के बाद भी, गुरबत के दिनों में साथ देने वाली बहन श्याम प्यारी और उनके पति कपिल देव सिंह, छोटी बहन निर्मला और उनके पति सूर्यनाथ सिंह से मिले सहयोग का जिक्र इस संवाददाता/लेखक से करना नहीं भूलता है. शोहरत की इन बुलंदियों पर पहुंचने के बाद भी, बुरे वक्त के सहयोगियों के प्रति यह कृतज्ञतापूर्ण व्यवहार, इस शख्शियत के ‘ओहदे’ को और ऊंचाईयां ही नवाजता है.

पश्चिम बंगाल पुलिस में इंस्पेक्टर पिता फागू सिंह की फाइल फोटो पिता की आकस्मिक मृत्यु के वक्त त्रिवेणी सिंह की उम्र चार साल से भी कम थी.

पश्चिम बंगाल पुलिस में इंस्पेक्टर पिता फागू सिंह की फाइल फोटो पिता की आकस्मिक मृत्यु के वक्त त्रिवेणी सिंह की उम्र चार साल से भी कम थी.

हिंदुस्तान की खाकी का ‘खुद्दार-ए-खास’!

साइबर क्राइम से जुड़े अब तक करीब 75 से ज्यादा उलझे हुए मामले खोल चुके हैं. 600 से ज्यादा अपराधियों को गिरफ्तार करके जेल की काल-कोठरी में पहुंचा चुके हैं. देश के मशहूर एनकाउंटर-स्पेशलिस्ट और मौजूदा समय में उत्तर-प्रदेश पुलिस की स्पेशल टॉस्क फोर्स के प्रमुख (महानिरीक्षक) दबंग आईपीएस, अमिताभ यश के मार्गदर्शन में कई साल तक बहैसियत एसपी एसटीएफ लखनऊ रहते हुए (स्पेशल टॉस्क फोर्स) ‘पुलिसिया-एनकाउंटरी’ के गुर, गुणा-गणित सीखा-समझा, अमल में ले आये. हाल ही में, उत्तर प्रदेश राज्य पुलिस सेवा से ‘आईपीएस-कॉडर’ हासिल किया. जून 1994 में बलिया के रसड़ा की रहने वाली किरन सिंह से शादी हुई थी. बड़ा बेटा कार्तिकेय सिंह और छोटा पुत्र हर्षवर्धन सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ाई के साथ-साथ सिविल सर्विसेज की तैयारी में जुटे हैं. दफ्तर हो या घर...हर जगह. हर लम्हा अक्सर राही मासूम रजा की लिखी लाइनें...

‘ज़हर मिलता रहा ज़हर पीते रहे, रोज़ मरते रहे रोज़ जीते रहे

जिंदगी भी हमें आजमाती रही और हम भी उसे आज़माते रहे’

.....गुनगुनाकर मस्त रहने वाला हरफनमौला आला-पुलिस-अफसर इस वक्त औरैया का नव-नियुक्त पुलिस अधीक्षक (एसपी) है. बरेली में पुलिस अधीक्षक (शहर) के अलावा गाजियाबाद, नोएडा आदि जगहों पर तैनाती के दौरान, खाकी में जनता का ‘मीत’ के नाम से मशहूर, इस मनमौजी अजूबे और पहले ‘साइबर-कॉप ऑफ इंडिया’ का नाम है आईपीएस डॉ. (प्रो.) त्रिवेणी सिंह.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

0

अन्य बड़ी खबरें

वीडियो
KUMBH: IT's MORE THAN A MELA

क्रिकेट स्कोर्स और भी

Firstpost Hindi