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नीरव मोदी के घोटाले ने भ्रष्टाचार के खिलाफ पीएम मोदी के सख्त रवैये वाली छवि को नुकसान पहुंचाया है

नीरव मोदी का घोटाला सामने आने से पीएम मोदी की इमेज को चोट पहुंची है. जैसी साफ सुथरी सरकार का उन्होंने वादा किया था, अब उसे आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है

Ajay Singh

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भारत के सरकारी सिस्टम में भ्रष्टाचार की तीन मिसालें अक्सर दिया करते थे. वो कहते थे कि गांव के पटवारी, पुलिस थाने का दारोगा और रेलवे के टिकट कलेक्टर इतने भ्रष्ट हैं कि इन्हें सुधारा ही नहीं जा सकता. कोई गुंजाइश ही नहीं. अब उन्होंने सबसे भ्रष्ट सरकारी मुलाजिमों में बैंक के कर्मचारियों का नाम भी जोड़ लिया है.

नीतीश ने बैंक कर्मचारियों को सबसे भ्रष्ट की लिस्ट में उस वक्त जोड़ा जब बिहार में सृजन घोटाला सामने आया था. पिछले साल, ये घोटाला ठीक उस वक्त सामने आया था, जब नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद से गठबंधन तोड़कर बीजेपी का दामन थामा था. ये घोटाला सैकड़ों करोड़ रुपयों का था. ये ठीक उसी तरह का था जिस तरह से नीरव मोदी ने पंजाब नेशनल बैंक को 11 हजार 400 करोड़ रुपयों का चूना लगाया है.


बैंकों की छवि धूमिल हुई है

नीरव मोदी के केस की ही तरह, सृजन घोटाले में कई जिलों के अधिकारी और कुछ बैंक कर्मचारी शामिल थे. इन लोगों ने एक विवादास्पद महिला मनोरमा देवी के सहकारी बैंक से साठ-गांठ की और सरकारी खजाने के लिए आई रकम को अपने ठिकाने लगा दिया. ये घोटाला उस वक्त सामने आया, जब मनोरमा देवी की अचानक मौत हो गई और सरकार के चेक बाउंस होने लगे. इस केस से हैरान नीतीश कुमार ने पहले जांच शुरू की, फिर मामले की पूरी पड़ताल के लिए इसे सीबीआई के हवाले कर दिया.

सृजन घोटाले की ये कहानी बैंकों में होने वाले तमाम दूसरे घोटालों की ही तरह है. हर्षद मेहता से लेकर नीरव मोदी तक यही किस्सा रहा है. हर बार जब भी घोटाला सामने आता है, तब हमें एहसास होता है कि बैंक किस तरह से गैरजिम्मेदार और घोटालेबाज हो गए हैं. याद कीजिए कि नोटबंदी के बाद किस तरह से कई बैंक कर्मचारियों ने पुराने बैंक नोट ठिकाने लगाने का धंधा कमीशन पर शुरू कर दिया था.

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ज्यादातर ऐसे मामलों में जांच एजेंसियां छोटे कर्मचारियों को घोटाले का जिम्मेदार ठहराकर पल्ला झाड़ देती हैं. अब तक कोई ऐसा घोटाला नहीं हुआ जिसमें मुजरिमों को काबिले-नजीर सजा दी गई हो. आज लोगों के जहन में ये बात बैठती जा रही है कि अगर आप बड़ा घोटाला करने में कामयाब होते हैं, तो आप यकीनन बच निकलेंगे. ये सोच पिछले कई दशकों के तजुर्बों के बाद बनी है. वजह साफ है, हमारे सियासी लीडरों ने बैंकिंग और वित्तीय संस्थाओं का बैंड बजा दिया है. इसमें भाई-भतीजावाद और रिश्वतखोरी को बढ़ावा दिया है. जाहिर है ऐसे में एक से बढ़कर एक घोटाले ही होंगे.

'नरेंद्र मोदी सिस्टम को झकझोर देंगे'

2014 के लोकसभा चुनाव ठीक ऐसे ही माहौल में हुए थे. तब देश में माहौल ऐसा बन गया था कि हर भ्रष्टाचार को 'चलता है' कहकर लोग उसे सिर झुकाकर मंजूर कर लेते थे. इसमें कोई दो राय नहीं कि उस वक्त नरेंद्र मोदी ऐसे नेता के तौर पर देखे जा रहे थे जो आकर पूरे सिस्टम को झकझोर कर बदल डालेंगे. मोदी ने वादा किया था कि वो आकर पूरे सिस्टम की सफाई करेंगे. घोटालेबाजों को मार भगाएंगे. सरकार में कुंडली जमाए बैठे कुछ खास लोगों के पर कतरेंगे. मोदी ने कहा था कि उनके राज में 'चलता है' वाली सोच नहीं चलने वाली.

मगर आज वो बातें जमीनी स्तर पर हकीकत बनती नहीं दिख रही हैं. जिस तरह से जांच एजेंसियों ने 2जी घोटाले में किया कि सारे आरोपी बच निकले. फिर बैंकों से 9 हजार करोड़ का कर्ज लेने वाले विजय माल्या आराम से देश से भाग निकले. और अब नीरव मोदी बैंकों के हजारों करोड़ लेकर परिवार समेत देश से भाग निकले हैं. जबकि इन सब के खिलाफ मजबूत केस थे. इनका जुर्म देश के सामने जाहिर था.

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इसमें कोई शक नहीं कि जब 2जी घोटाले में ए राजा को बरी किया गया और अब जब नीरव मोदी का मामला सामने आया तो नरेंद्र मोदी की छवि को नुकसान पहुंचा है. जैसी साफ सुथरी सरकार का उन्होंने वादा किया था, अब उसे आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है.

सवाल ये उठता है कि ऐसे हालात क्यों और कैसे पैदा हो गए? जिन मोदी की गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर शानदार प्रशासक की छवि थी, वो आज उतनी चमकदार नहीं रह गई है. ऐसा हुआ कैसे? क्या दिल्ली आकर मोदी नाकाम साबित हो रहे हैं? क्या वो प्रशासन से ज्यादा राजनीति पर ध्यान दे रहे हैं?

शायद मोदी को ये एहसास अच्छे से है कि अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीति से ज्यादा बेहतर प्रशासन पर जोर दिया. इसीलिए वो 2004 का चुनाव हार गए. एनडीए 1 के दौरान पार्टी और सहयोगी दलों के सभी बड़े नेता सरकार में शामिल कर लिए गए थे, तो बीजेपी का संगठन कमजोर हो गया था. वाजपेयी सरकार के आगे बीजेपी का पार्टी के तौर पर दर्जा दोयम ही रह गया था. इससे वाजपेयी के राज में बीजेपी का संगठन बेहद कमजोर हो गया था. मोदी के दौर में आज बीजेपी संगठन पर सबसे पहले ध्यान दिया जाता है. यही वजह है कि पार्टी लगातार अपना विस्तार कर रही है. आज बीजेपी दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर में तेजी से सियासी जमीन मजबूत कर रही है.

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कुछ राज्यों में भी बीजेपी की सरकारों का यही हाल है

बीजेपी ने राज्य दर राज्य चुनाव जीतकर अपना जबरदस्त विस्तार किया है. लेकिन इसका नतीजा ये हुआ है कि राज्यों की बीजेपी की सरकारों के काम-काज का स्तर गिरता जा रहा है. झारखंड में बीजेपी के मुख्यमंत्री ने विधानसभा में बहस के दौरान अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया. राजस्थान में प्रशासन इतना खराब है कि जनता वसुंधरा राजे को नफरत की हद तक नापसंद करने लगी है.

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हाल ही में दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर उपचुनाव में पार्टी की हार वसुंधरा की खराब होती छवि की मिसाल है. इसमें कोई दो राय नहीं कि पार्टी के संगठन को तरजीह देने से बीजेपी की सरकारों का कामकाज खराब हो रहा है. ये एनडीए 1 यानी वाजपेयी सरकार के दौर के ठीक उलट है.

अब अगले लोकसभा चुनाव बस एक साल बाद हैं. ऐसे में हम फिलहाल ये अटकलें ही लगा सकते हैं कि संगठन पर जोर देने का बीजेपी का दांव कितनी सियासी कामयाबी दिलाता है. पर, इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी की छवि को इससे भारी नुकसान हुआ है. वो अब ऐसे नेता के तौर पर नहीं देखे जा रहे हैं, जो 'चलता है' की मानसिकता को खत्म कर देंगे.

जाहिर है, जब वक्त आएगा तो जनता सवाल तो करेगी. ठीक उसी अंदाज में जैसे शायर फिराक जलालपुरी ने लिखा है-

तू इधर उधर की बात न कर, ये बता के काफिला क्यों लुटा,

मुझे रहजनों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है...

पिछली बार ये शेर आज से सात बरस पहले बड़े जोर-शोर से उठाए गए थे. ये वो दौर था जब देश में रोज नए घोटाले सामने आ रहे थे. तब सुषमा स्वराज ने यही शेर पढ़कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व पर सवाल उठाया था.