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भारत में औरत होना इतना मुश्किल क्यों है ?

देश में महिला उत्पीड़न और छेड़छाड़ पर जिस तरह की बहस होती है, वो समाज और पुरुषों की मानसिकता को जाहिर करता है

Vishnupriya Bhandaram

औरत होना बेहद मुश्किल है. हम साल 2017 तक आ पहुंचे हैं, मगर यकीन जानिए, औरत होना अभी भी बेहद मुश्किल है.

जब हम 2017 के स्वागत में तुरहियां बजा रहे थे, महिलाओं पर छेड़खानी और यौन उत्पीड़न का एक और मुक्का जड़ दिया गया.


बेंगलुरु में रहने वाली महिलाओं को नये साल की पूर्व संध्या पर ये हमला झेलना पड़ा. महिलावादियों को एक बार फिर खून का घूंट पीना पड़ा क्योंकि ऐसी घटनाओं पर विराम लगता नहीं दिख रहा.

यौन हमले या छेड़खानी की शिकार महिलाओं की बातों को कोई गंभीरता से नहीं लेता. इसकी मिसाल इस बात से मिलती है कि जैसे ही इंटरनेट पर बेंगलुरु की घटनाओं की निंदा शुरू हुई, सोशल मीडिया पर ट्रेंड चल पड़ा, #NotAllMen. मर्दों ने फौरन ही इस बात के लिए सहानुभूति पाने की कोशिश शुरू कर दी कि वो तो ऐसा नहीं करते.

बेंगलुरु के एमजी रोड पर हुई सामूहिक छेड़छाड़ के दौरान महिला पुलिसकर्मी से बचाव की गुहार लगाती  पीड़ित युवती. (फोटो साभार: बेंगलुरु मिरर)

इंटरनेट की वजह से समाज के तमाम मुद्दों पर बहस का तरीका बदला है. लेकिन यहीं पर एक-दूसरे से सहानुभूति और एकता जाहिर करने में भी दिक्कत होती है. यहां पर राजनीतिक बंटवारा ज्यादा दिखता है.

राजनीति के लिहाज से तमाम गलत ख्यालों, विचारों को उड़ेलने का इंटरनेट एक बहुत अच्छा प्लेटफॉर्म बन गया है. अब कोई भी राय बहुत सोच विचार कर कहा गया तर्क नहीं हो सकता. लेकिन इंटरनेट ने ऐसी तमाम बातों के लिए कोई पैमाना तो तय नहीं किया. इसलिए हर राय तर्क के तौर पर पेश की जाती है.

बातचीत की जरूरत

अब ऐसे माहौल में जहां शोर ज्यादा है. जिसे देखो वही कुछ भी कहने को आजाद है. वहां पर एक सार्थक बहस कैसे हो सकती है? खास तौर से महिलाओं के अधिकारों के मुद्दे पर?

मिसाल के तौर पर पाकिस्तान में ट्विटर पर हालिया 'डायलॉग' या चर्चा को ही लीजिए. जिसमें Why Loiter and Girls at Dhabas के शीर्षक से सीमा के आर-पार फेमिनिज्म को लेकर चर्चा हुई.

ऐसी ही जगहों पर जरूरी हो जाता है कि हम बराबरी और खुलेपन को बढ़ावा देने वाले विचारों से एकजुटाता दिखाएं. महिलाओं को सम्मान देने वालों को अपने पास मौजूद संसाधनों के जरिए अपने एजेंडा को आगे बढ़ाएं. ये एजेंडा है महिलाओं को बराबरी का हक दिलाने का.

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फ़र्स्टपोस्ट पर एक और लेख में हमने बताया था कि किस तरह इंटरनेट पर फेमिनिज्म के मुद्दे पर मर्दों और औरतों की एकजुटता का मौका उपलब्ध होता है. 'सोशल मीडिया के जरिए महिलावादी एकजुट हो रहे हैं. वो एक दूसरे से तबादला-ए-ख्याल कर रहे हैं, सहयोग कर रहे हैं. महिलाओं के लिए ये बेहद जरूरी है, तभी हम महिलावादी आंदोलन को जिंदा रख सकेंगे और आगे बढ़ा सकेंगे'.

बेंगलुरु में न्यू ईयर के मौके पर कई जगह सामूहिक तौर पर लड़कियों के साथ छेड़छाड़ हुई

बातचीत करना सस्तापन नहीं

ये कहा जा सकता है कि इंटरनेट में समाज के सभी तबकों की भागीदारी नहीं होती. इसमें हो रही चर्चा में वो महिलाएं शामिल नहीं होतीं जिनके पास कंप्यूटर या मोबाइल नहीं. ऐसे में ये जरूरी हो जाता है कि हम सामाजिक भेदभाव को जानें और समझें.

यहीं से जमीनी स्तर पर एक दूसरे से जुड़ने की जरूरत महसूस होती है. जिनके पास इंटरनेट और मोबाइल है वो अपने तजुर्बों को उन महिलाओं तक ले जाने की कोशिश कर सकती हैं, जो इन संसाधनों से विहीन हैं.

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'ब्लैंक नॉइज' नाम की ऑनलाइन कम्यूनिटी इस बात को अच्छे से समझती है. इसीलिए 'ब्लैंक नॉइज' ये कोशिश कर रही है कि जो लोग अंग्रेजी बोल-समझ नहीं पाते. उन्हें वीडियो और दूसरे तरीकों तक ऑनलाइन हो रही बहसों को पहुंचाया जाए.

व्हाई लॉइटर नाम की किताब लिखने वाली समीरा ख़ान बताती हैं कि उनकी किताब से मुंबई में एक समूह बना है, जिसका यही नाम है- ‘व्हाई लॉइटर’. ये ग्रुप शुरू करने वाली नेहा सिंह मुंबई में उन जगहों पर उठती-बैठती और घूमती-फिरती हैं, जहां आजादी से ऐसा किया जा सकता है.

चर्चा ऑनलाइन के दायरे में सीमित नहीं

जो चर्चा ऑनलाइन हो रही है, वो सिर्फ ऑनलाइन के दायरे में सीमित नहीं रह रहा. वो कई तरह के रंग-रूप धरकर उन महिलाओं की जिंदगी पर भी असर डाल रहा है, जो ऑनलाइन नहीं हैं.

समीरा ख़ान कहती हैं कि सार्वजनिक ठिकानों पर हक जताना सिर्फ महिला होने के नाते नहीं बल्कि एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते भी आपका कर्तव्य है. खुले, सार्वजनिक ठिकानों पर घूमना-फिरना आपका कोई मामूली अधिकार नहीं. इस अधिकार के लिए हमें कई मोर्चों पर लड़ाई लड़नी पड़ती है. खुले में घूमने के अधिकार की लड़ाई में यौन उत्पीड़न और घरेलू हिंसा के खिलाफ चलने वाली जंग भी शामिल है.

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समीरा आगे कहती हैं कि शहरों में हिंसा के खिलाफ लड़ाई और शहर में मनोरंजन की तलाश, दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं.

इसीलिए जरूरी है कि ब्लैंक नॉइज, व्हाई लॉइटर और गर्ल्स ऐट ढाबास जैसे छोटे-बड़े आंदोलन देश के अलग-अलग हिस्सों में चलते रहें. अपने अधिकार की लड़ाई ऐसी होनी चाहिए कि वो जाहिर हो. खास तौर से सार्वजनिक ठिकानों पर हक जताने की लड़ाई को प्राथमिकता मिलनी चाहिए.

मानसिकता जाहिर करता है

जब भी यौन उत्पीड़न की अंधेरी, तंग गलियों पर रोशनी पड़ती है. महिलाओं से हो रहे भेदभाव उजागर होने लगते हैं. ये भी पता चलता है कि इस भेदभाव को किस तरह से सामाजिक मान्यता मिली हुई है. इसे ही आम तरीका माना जाने लगा है.

जिस तरह से अबू आजमी और जी. परमेश्वर ने बेंगलुरू की यौन हिंसा के लिए महिलाओं को जिम्मेदार ठहराया, वो उनकी इस मानसिकता को जाहिर करता है.

कई नेताओं ने इस घटना के बाद लड़कियों को दोषी माना

केवल नेताओं ने ऐसे बयान दिये हो, ऐसा नहीं है और भी बहुत से लोगों ने यही बात कही. ये तो वो लोग हैं जो कह रहे हैं. बहुत से ऐसे भी हैं जो ऐसा ही सोचते हैं, मगर उन्होंने अपने मुंह बंद रखे हैं.

दिक्कत यहीं बढ़ जाती है.

यहीं जरूरी हो जाता है कि महिलाएं, समाज में अपने अधिकार को लेकर रणनीतिक तौर पर सवाल उठाएं. मुश्किल सवाल पूछें. अपने दोस्तों के साथ कैफे में बैठकर अपने अनुभव बताएं. क्या हम ऐसी जिंदगी नहीं जी रहे हैं जिसमें पूरी आजादी नहीं हासिल है.

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समीरा ख़ान बताती हैं कि जब वो पब या बार में जाती हैं तो लड़कियों को डार्क लिपस्टिक लगाए हुए देखती हैं. ये वो लड़कियां होती हैं जिन्हें घर पर डार्क लिपस्टिक लगाने की आजादी नहीं होती. इनमें से बहुत सी ऐसी भी होती हैं जो बिना जैकेट या दुपट्टे के घर से नहीं निकलती हैं. वो निजी वाहन से चलते वक्त अलग और पब्लिक ट्रांसपोर्ट से चलते वक्त अलग तरह के कपड़े पहनती हैं.

सच तो ये है कि घर से निकलते ही महिलाएं हर बार अलग तरह की रणनीति से निकलती हैं. क्योंकि हर बार उन्हें बताया जाता है कि ऐसा करो, वैसा न करो.

छेड़छाड़ और यौन अपराध के खिलाफ लड़कियां सड़कों पर उतरकर विरोध-प्रदर्शन कर रही हैं (फोटो: पीटीआई)

कोई भी महिला छेड़े जाने से पहले ऐहतियात के कई कदम उठा चुकी होती है. समाज की तय की हुई तमाम बंदिशों के बावजूद महिलाओं का पीछा किया जाता है. उन्हें छेड़ा जाता है, भद्दे तरीके से छुआ जाता है, उनका बलात्कार होता है. फिर बताया जाता है कि महिलाएं अपने कपड़ों की वजह से असुरक्षित हैं. सच तो ये है कि महिलाएं हर हाल में असुरक्षित हैं.

किसी और अपराध पर वैसी प्रतिक्रिया नहीं आती जैसी यौन अपराधों पर आती है. यौन उत्पीड़न के जुर्म में लोग आरोपी पर केंद्रित करने की बजाय पीड़ित को ही लेक्चर देने लगते हैं.

सवाल उठाते हैं कि वो वहां क्या कर रही थी? वो किसी आदमी के साथ क्यों थी? उसने ऐसे कपड़े क्यों पहने हुए थे? वो ऐसा बर्ताव क्यों कर रही थी? वो घर से इतनी देर बाहर क्यों थी? यौन अपराधों की जांच ऐसे ही सवालों की तंग गलियों से होकर गुजरती है.

इसे कैसे सुधारा जा सकता है?

इसका जवाब है... बात करके... ऊंची आवाज में अपनी बात कहकर... ताकि जमाना सुने उसे.

सवाल उठाएं, खास तौर से ऐसे सवाल ‘जो ये कहें कि तो क्या'? इसमें जोखिम है, मगर ये जोखिम हमें लेना ही होगा.

हमें ये यकीन होना चाहिए कि हम ही बातचीत का रुख मोड़ सकते हैं. जब हम इसमें पूरी ताकत से शामिल होंगे. जोर-शोर से अपनी बात कहेंगे. अपने दोस्तों से बात करें. अजनबियों से बात करें. दूसरे मर्दों और औरतों से बात करें. उन ऐहतियातों के बारे में सोचें जो आप रोज करते हैं. आप ऐसा क्या-क्या करती हैं जो मर्द नहीं करते. खुद से सवाल करें कि ऐसा क्यों है? अपने दोस्तों से इस बारे में बात करें.

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समीरा ख़ान हमसे बातचीत में 'खुले आसमान' के तजुर्बे के बारे में बात करती हैं. ये वो तजुर्बा था जब वो मुंबई में रात के वक्त अकेले टहलने निकलीं तो हासिल किया था.

समीरा लिखती हैं कि, 'मेरा जेहन उम्मीदों से लबरेज था कि एक ऐसा शहर कैसा होगा, जहां औरतों को पूरी आजादी हासिल होगी, जब उन्हें सार्वजनिक ठिकानों पर जाने की पूरी छूट होगी, खास तौर से रात के समय'.

ये 'खुला आसमान' अभी तो दूर की कौड़ी लगता है. मगर हमें कहीं से तो शुरुआत करनी होगी.

इस बारे में बातचीत करने का ख्याल कैसा है?