नए साल पर बेंगलुरु में महिलाओं के साथ हुई अभद्रता के बाद समाजवादी पार्टी के नेता अबु आज़मी का बयान आया. इसमें उन्होंने महिलाओं के पहनावे को ही उनके साथ होने वाले दुर्व्यवहार के लिए जिम्मेदार ठहराया था. लेकिन ऐसे बयानों के लिए सिर्फ एक अबू आज़मी को क्या दोष देना!
हिंदुस्तान में ऐसी सोच रखने वाले वो अकेले ऐसे इंसान नहीं हैं. उनके जैसे अनगिनत और भी हैं, जो यह सोचते हैं कि महिलाओं के कम कपड़े पहनने से मर्दों की कामुकता जाग जाती है.
औरतों की गलती कहां है?
इन लोगों के अनुसार बताई जाने वाली ऐसी चीजों की एक लंबी लिस्ट बनाई जा सकती है जिससे हिंदुस्तान के मर्द सेक्सुअली एक्साइट हो जाते हैं. जैसे किसी के हिसाब से महिलाओं के लिपस्टिक लगाने से लेकर हाई हील की सैंडल पहनने से, तो किसी के हिसाब से उनके चाउमीन खाने से, छोटी ड्रेस पहनने से, कुछ अलग हेयर स्टाइल बनाने से, मोबाइल यूज करने से मर्दों की कामेच्छा बढ़ जाती है.
कुछ को ऐसा लगता है कि अगर कोई महिला अपने पिता या भाई के इतर किसी आदमी के साथ घूमती-फिरती है तो उन्हें उससे छेड़खानी या ज्यादती करने का अधिकार मिल जाता है.
जहां किसी छेड़खानी की हरकत को जायज ठहराने के लिए ऐसे बहाने मौजूद हों, यह समझ लेना चाहिए कि उस माहौल में महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. उनकी सुरक्षा कहीं भी सुनिश्चित नहीं की जा सकती. भले ही वो बेंगलुरु की कोई भीड़भाड़ वाली सड़क हो या फिर कोई सुनसान पार्क.
राजनेताओं से उम्मीद करना बेमानी है
ऐसे में जब अबू आज़मी जैसे लोग इन घटनाओं के लिए महिलाओं पर ही उंगली उठाते हैं तो हैरानी की बात नहीं है. उन्होंने तो औरतों की तुलना चीनी और पेट्रोल तक से कर डाली. उनके अनुसार चीनी पर चींटी तो आएगी ही, पेट्रोल है तो आग का लगना लाजिमी है.
इस बात को ज्यादा समय नहीं हुआ जब एक बड़े नेता ने बयान दिया था कि लड़के तो लड़के होते हैं. 31 दिसंबर की इस घटना के बाद कर्नाटक के गृहमंत्री जी परमेश्वरा ने भी कथित तौर पर कहा है कि ऐसी घटनाएं तो होती रहती हैं.
यह मानसिकता अपने आप में ही इतनी घृणित है कि इस पर उन लोगों को समझाना अपना सिर दीवार पर दे मारने जैसा है. हम कई सालों से ऐसा होते हुए देखते आए हैं, इसे सुधारने की भी काफी कोशिशें की गई हैं पर लोगों के माइंडसेट इतनी आसानी से नहीं बदलते.
नेताओं को छोड़िए, पुलिस पर बात करिए
सबसे खराब बात यह है कि यहां ऐसी मानसिकता होने के बावजूद महिलाओं की सुरक्षा के बारे में कभी सोचा ही नहीं गया. महिलाओं के साथ यौन शोषण के मामले दिनबदिन बेशर्मी के साथ बढ़ते ही चले जा रहे हैं. बेंगलुरु में लगभग डेढ़ हजार पुलिसकर्मियों की मौजूदगी में महिलाओं के साथ हुई छेड़खानी और अभद्रता पर कोई क्या स्पष्टीकरण देगा?
पर अब बहुत हुआ. अब समय आ गया है कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए बहस करने के बजाय कोई प्रैक्टिकल कदम उठाया जाए. एक बार यदि कोई महिला इस तरह की हिंसा या शोषण का शिकार होती है तो उस सदमे का अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है जिसका उसे सामना करना पड़ता है. उसके लिए अपनी खोई हुई गरिमा और आत्मविश्वास को दोबारा पाना असंभव-सा होता है.
इस मसले का एक ही हल है कि बजाय किसी की नैतिकता पर सवाल उठाने के ऐसे अपराधों से बचाव के तरीकों पर ध्यान दिया जाए. पर शायद हम ऐसा करना ही नहीं चाहते!
हम क्यों पुलिस व्यवस्था को बेहतर करने की जरुरत पर बात नहीं करते? 16 दिसंबर, 2012 को दिल्ली में पैरामेडिकल की एक छात्रा के साथ हुए दर्दनाक अपराध ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था, उस समय महिलाओं की सुरक्षा को लेकर काफी हो-हल्ला हुआ था पर आज चार साल बाद भी दिल्ली में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आए हैं.
आए दिन ऐसे अपराधों के नये रूप अखबारों की सुर्खियों में आते रहते हैं. कहीं ज्यादा बर्बरता दिखाई गई होती है कहीं कम... पर महिलाओं के साथ ऐसे अपराध लगातार हो रहे हैं.
सड़कों या शहर के सेंसिटिव हिस्सों में भी पुलिस की निगरानी में कोई विशेष सुधार नहीं आया है, न ही सुरक्षा को लेकर कोई खास व्यवस्था ही की गई है. देश के बाकी हिस्सों में भी कमोबेश यही हाल है. देश के राजनेता, जिन पर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी है, इन सब से बेखबर हैं. उन्हें महिलाओं के प्रति बढ़ रहे अपराधों से मानो कोई लेना-देना ही नहीं है.
पहले पुलिसवालों पर कार्रवाई करिए
जब भी कोई महिला कार्यकर्ता टेलीविजन चैनल की किसी बहस में महिलाओं के प्रति रखे जा रहे सामंती और पितृसत्तात्मक व्यवहार पर उंगली उठाती है तब लोग इस जनरलाइजेशन को लेकर नाराज हो जाते हैं. उनके अनुसार सभी मर्द ऐसे नहीं होते हैं. वे इस बात से भी नाराज होते है कि नारीवादी इसका कोई हल भी नहीं दे सकते, सिर्फ आरोप लगाते हैं.
पर क्या आप इस पितृसत्ता को बदल सकते हैं? नहीं. तो क्या यह पितृसत्तात्मक रवैया अधिकतर हिंदुस्तानी मर्दों को एक ‘पोटेंशियल रेपिस्ट’ बना रहा है?
अबु आज़मी जैसे लोगों की इन मसलों पर अपनी सोच-समझ है जो बहुत अजीब है पर आम घरों में जाकर देखिए, अधिकतर बुजुर्गों का भी यही मानना होगा. पर ऐसा होना उनको विलन नहीं बना देता.
यहां जो बात सबसे जरूरी है वो है कि इन अपराधियों को कानूनी रूप से कड़ी से कड़ी सजा दी जाए. उनके अंदर ऐसा अपराध करने पर उसका नतीजा भुगतने का डर होना चाहिए और इसकी पूरी जिम्मेदारी और जवाबदेही पुलिस की होनी चाहिए.
क्यों न बेंगलुरु में अपनी ड्यूटी सही से न करने वाले इन पुलिसवालों को आड़े हाथों लिया जाए? इस बात को अगर मजबूती से सार्वजनिक रूप से उठाया जाए और कुछ पुलिसकर्मियों को सलाखों के पीछे भेजा जाए तो कोई नई मिसाल कायम की जा सकती है. सिर्फ औरतों से छेड़छाड़ करने वालों को दंडित कर देने भर से तो बात नहीं बनेगी.
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