तुम्हें नोचा गया लेकिन कारण तुम थीं!
कारण तुम्हारे छोटे-तंग कपड़े थे!
कारण आधी रात तुम्हारा बाहर निकलना था, हां दिन के मेले में भी होता ये सब
कारण तुम्हारा घर से ही निकलना था, हां घर में भी होता ये सब
कारण दरअसल तुम्हारा पैदा होना था!
क्षोभ, पीड़ा और दुख से भरी यह कविता प्रीति कुसुम ने फेसबुक पर बुधवार को अपनी फेसबुक वॉल पर पोस्ट की. ऐसा करने वाली वे अकेली नहीं थीं. देश भर की महिलाओं में बेंगलुरु की शर्मसार घटना के बाद जो गुस्सा उपजा है, उसे जाहिर करने का सहज सुलभ मंच भी तो नहीं है. तो यह गुस्सा सोशल मीडिया पर दिखा.
बेंगलुरु में नये साल की पूर्वसंध्या पर हुए सामूहिक छेड़छाड़ और यौन उत्पीड़न की घटनाओं के बाद महिलाएं दुखी हैं, गुस्से में हैं, उस पर तुर्रा यह कि सत्ता भी उन्हें चिढ़ा रही है.
कोई कह रहा है कि लड़कियों का पहनावा ठीक नहीं है, कोई कह रहा है कि इस घटना के लिए पश्चिमी विचार और सभ्यता जिम्मेदार है, पुलिस कह रही है पूरा शहर वहशी हुआ लेकिन एफआईआर नहीं आई, तब क्या हो?
नेता कह रहा है कि लड़कियां शक्कर हैं, चींटें तो आएंगे. लड़कियां पेट्रोल हैं, आग तो जलेगी. कठमुल्ले कह रहे हैं कि हाथ की उंगली भी दिख जाए तो बलात्कार होना स्वाभाविक बात है. लड़कियों को संदूक में बंद करके ताला जड़ दो. लड़कियां गुस्से में कहती हैं कि ऐसे मर्दों के मुंह पर हमेशा के लिए ताला जड़ दो.
सबसे दुखद यह है कि ऐसी भयावह घटना के बाद भी राजनीतिक गलियारे में आरोप-प्रत्यारोप और घटियाबयानी से ज्यादा कुछ नहीं हुआ. हमारी सरकारें अपमानित हुईं महिलाओं से न माफी मांगने का जमीर रखती हैं, न ही उन्हें सुरक्षा देने की प्रतिबद्धता.
अध्यापिका विभावरी ने फेसबुक पर लिखा, 'दंगल जैसी कितनी ही फिल्में बना कर सिनेमाहॉल के भीतर सराह ली जाएं लेकिन अपनी रूढ़ पितृसत्तात्मक मान्यताओं से जब तक असल दंगल नहीं लड़ा जाएगा, अपनी आंखों और दिमाग को लड़कियों के पहनावे से ऊपर नहीं उठाया जाएगा, उनको जज करना बंद नहीं किया जाएगा, बेंगलुरु जैसी घटनाएं होती रहेंगी और हम राष्ट्रगान गाते रहेंगे फिल्में देखने से पहले!'
लड़कियों को संस्कार सिखाने संबंधी शोहदों के शोर के बीच निष्ठा ने लिखा, 'गुण सिखाने थे लड़कों को, हम लड़कियों को ही सिखाते रह गए. नतीजा है यह अन्यायपूर्ण समाज.'
जेएनयू की रिसर्च स्कॉलर अनुराधा ने अपने उद्गार व्यक्त किए, 'एक मित्र ने कहा था कि हमें अपनी लड़कियों को लड़कों की तरह नहीं, बल्कि लड़कों को लडकियों की तरह शिक्षा देनी चाहिए. होता यह है कि हम लड़कियों को तो आज्ञाकारी, संस्कारी, विनम्र, रिश्तों की अहमियत समझने वाली और दूसरों का सम्मान करने वाली बनाना चाहते हैं, लेकिन लड़कों की ओर इतना ध्यान नहीं देते.'
अनुराधा आगाह करती हैं, 'बेंगलुरु की घटना सिर्फ कुछ शराबी युवकों की बदतमीजी नहीं है बल्कि सभ्य और सुशिक्षित समझे जाने वाले समाज के लिए खतरे की घंटी भी है कि यदि अभी से हमने अपने लड़कों की परवरिश पर ध्यान नहीं दिया तो आने वाली पीढ़ी की लड़कियां भी पूरी तरह से असुरक्षित हैं. अपने दिमाग से यह बात निकाल देनी चाहिए कि हमारे घर की लडकियां सुरक्षित हैं. बारी हमारी और आपकी भी आ सकती है.'
राजनीति, सामाजिक और अन्य मसलों पर बेबाक राय रखने वाली युवा पत्रकार सर्वप्रिया सांगवान ने लिखा, 'लड़कियों, तुम्हें कामयाब होने तक भी लड़ना है, कामयाब होने के लिए भी लड़ना है, कामयाब होने के बाद भी उसे जस्टिफाई करना है. पहले घरवालों से लड़ों, सारे बंधनों के बाद जैसे तैसे तुम बाहर निकल लेती हो तो फिर पड़ोसियों और रिश्तेदारों से भी लड़ना है, बाहर बैठे अनजान लड़कों से भी बचना है, फिर तुम जैसे तैसे सौ इल्जाम सहन कर, दसियों बार छेड़खानी सहन कर, मेहनत कर लड़कों से आगे निकल भी जाती हो तो तुम्हें अपनी कामयाबी को साबित करने के लिए भी लड़ना है.
सर्वप्रिया की पोस्ट काफी लंबी है. वे आगे लिखती हैं, 'आपके साथ कोई बुरा बर्ताव करता है तो आपको अब बताना पड़ता है कि मैंने कपड़े भी सही पहने थे, मैंने शराब भी नहीं पी थी, मैं दोपहर में घर से बाहर थी. अब जाकर घर में भी बता नहीं सकते क्योंकि उसके बाद भी बंधन तो आप ही को झेलने पड़ेंगे. लड़कों, ये कोई खुद को विक्टिम या पीड़ित दिखाने की कोशिश कतई नहीं है. ये आपको परिस्थितियां दिखाने की कोशिश हैं जो किसी भी सूरत में बराबर नहीं हैं. आप सब बेशक छेड़खानी नहीं करते होंगे लेकिन ऐसा गंदा और गैर-बराबरी का समाज बनाने के लिए आप सब जिम्मेदार हैं.'
एक अन्य फेसबुक यूजर मधूलिका चौधरी आप बीती सुनाती हुए लिखती हैं, 'बेंगलूरु की घटना सिर्फ एक स्थान विशेष की घटना नहीं है. यही उस समाज का असली चेहरा है जिसमें हम रहने को बाध्य हैं. इलाहाबाद में विश्वविद्यालय में मेरा पहला दिन था. साइको से भूगोल विभाग की ओर जाते हुए चार पांच मुस्टंडों का समूह सामने से आ रहा था. उनके शब्दों ने एक पल में यूनिवर्सिटी में होने के मेरे गौरव को खत्म कर दिया. मुझे वे शब्द बीस सालों बाद भी ज्यों के त्यों याद है. उनके द्वारा कहे गए वाक्य लिख पाने का हौसला अब भी नहीं है.'
मधूलिका सवाल करती हैं, 'जाने वो लड़के अब कहां होंगे. किन पदों पर होंगे. शायद बड़ी होती बच्चियों के पिता भी हों. उन्हें याद भी नही होगा कि उनकी एक हरकत की स्मृति कितनी स्थायी है. इस एक पल के बाद चार सालों में अपने विश्वविद्यालय में अकेले घूमने का हौसला फिर नहीं जुटा. यह अलग बात है कि बाद में बहुत अच्छे मित्र भी मिले. लड़के और लड़कियां दोनों ही. पर पहली याद यही थी.'
बेंगलुरु की घटना अनोखी नहीं है. यह गली मोहल्ले में घटने वाले हादसे का सामूहिक प्रदर्शन था. मधूलिका शेयर करती हैं, 'मेरी एक दोस्त जो रात की पार्टी के लिए अपनी कजिन के साथ रिक्शे से जा रही थीं. हिन्दू हॉस्टल के सामने दो लड़के बाइक से थे उनमें से एक ने पैंट की जिप खोलकर लिंग अपने हाथ में ले लिया और बेहद धीमी रफ्तार से रिक्शे के साथ चलने लगे. उन दिनों शायद ममफोर्ड गंज थाने में एक लेडी दरोगा तैनात थीं जो कि लुच्चों के लिए कहर ही थीं. मोबाइल चलन में नहीं थे. मेरी दोस्त ने रिक्शेवाले को गाली देते हुए रुकने को कहा और फिर कजिन की ओर मुड़कर बोलीं. कहा था ना कि वर्दी में चलने दो पर तुम नहीं मानीं. उनकी गरज सुनकर बाइक वालों ने बाइक बढ़ा ली तो उनकी हिम्मत लौटी. उन्होंने दरोगा वाली आवाज में ललकार कर गाली दी. लड़के भाग गए. ऐसी अनगिनत कहानियां हैं हम जैसी हर लड़की के पास.'
मधुलिका की कहानियां उस सभ्य शालीन माने जाने वाले इलाहाबाद की हैं जो बेंगलुरु नहीं है. वह अदब की उर्वर जमीन है, वह गंगा जमुनी तहजीब का सबसे विख्यात शहर है. लेकिन शोहदों से मुक्त वह भी नहीं है.
मधुलिका अंत में अपनी राय रखती हैं, 'ये सब इसी समाज की पैदाइश हैं. हर जगह हैं. रात के अंधेरे में सड़कें इनके बाप की हो जाती हैं. लड़कियां कूड़ेदान सी हैं जिन पर ये अपनी हवस कुत्सित शब्दों और हरकतों के माध्यम से उड़ेल सकें. यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि मै सलवार कमीज और दुपट्टे में थी और दूसरी घटना में मेरी दोस्त शुद्ध भारतीय परिधान यानि साड़ी पहने थी और हममें से कोई भी नशे में नही था.
बेंगलुरु में रहने वाली पत्रकार शोभा सामी अपने शहर की ऐसी भयावह हालत देखकर विचलित होकर लिखती हैं, 'एक शहर जहां सुकून की सांस ली जा सकती थी. अचानक वहां अपने बचाव में कोई हथियार लेकर घूमने की कल्पना कितनी भयावह है.'
उन्होंने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा, 'कई बार अपने आसपास देखती हूं तो लगता है कोई जंग चल रही है. ऐसा लगता है कि हमेशा तैयार रहना चाहिए. ऐसी घटनाएं देखती हूं तो अचानक कोर्ट कचहरी पुलिस और न्यास से भरोसा उठ जाता है. मेरे दिमाग में ख्याल आने लगते हैं कि शायद सारे समय मजबूत जूतों-बैग के साथ रहना चाहिए. ताकि वक्त पर भाग सकूं, अपने जरूरी सामान बचा सकूं. कई तरह के हथियारों के बारे में सोचने लगती हूं जिसे कैरी किया जा सके.'
उनका गुस्सा उनके शब्दों से समझा जा सकता है कि 'मुझे लगता है कि संभव हो तो लड़कियों को जान मार देना चाहिए लड़कों को ऐसे मौकों पर. जिस तरह की स्थितियां बन रही हैं. लड़ाई ही होगी. आपको क्या लगता है लड़कयां पिटती रहेंगी? आप उन्हें फेंक कर जाते रहेंगे? दिमाग से सारे लॉजिक लापता हो जाते हैं हर ऐसी स्थिति में.'
डीयू में अध्यापक सुजाता अपने एक लेख में लिखती हैं, 'स्त्री लिखती ही क्यों है? अपनी जगह बदलने के लिए. अपनी जगह पाने के लिए. खुद को समझने के लिए. वह लिखती है, क्योंकि वह मनुष्य है.'
हमारे इस हिंसक समाज में स्त्री को कितनी तेज चीख कर बताना होगा कि वह मनुष्य है! और उसकी चीख गूंजेगी तब भी कितने पुरुषों को यह समझ में आएगा कि वह देह नहीं, मनुष्य है! आखिर बेंगलुरु जैसे पढ़े लिखे शहर में नये साल की पार्टी मनाने सारे अनपढ़ और जाहिल लोग नहीं रहे होंगे. वे शराब में डूबे आधुनिक मर्द होंगे जिनके सर पर उनके योग्य होने का कॉरपोरेट बिल्ला भी चस्पा है!
एक भयानक घटना की मर्दवादी प्रतिक्रिया आखिर इस रूप में सामने आई है कि लड़कियां शक्कर हैं, चींटे तो आएंगे! क्या इस आरोप में कोई दुविधा है कि भारतीय मर्द का मानस अपने मूल रूप में महिलाओं के प्रति हिंसक है?
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