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Rangbaaz Review: आखिर क्यों दूसरी वेब सीरीज से बेहतर है रंगबाज....

वैसे तो अपराध पर आधारित सभी वेब सीरीज का अपना दर्शक वर्ग और प्रशंसक हैं लेकिन यूपी के कुख्यात अपराधी रहे श्री प्रकाश शुक्ला की जिंदगी पर आधारित वेब सीरीज रंगबाज कई मायनों में दूसरी वेब सीरीज से बेहतर है

Arun Tiwari

बगल में बैठे छुटभैये के ये सवाल पूछते ही कि 'भैया आज दिन कौन सा है' फैजल खान अपनी कुर्सी से उठता है और तीन गोलियां उस छुठभैये को ठोंक देता है. फिर उसके बाद बिना कुछ बोले निकल जाता है. आस-पास बैठे दो-तीन लोग बिल्कुल सन्न रह जाने वाले अंदाज में फैजल खान को देखते रह जाते हैं. छोटे कद का फैजल खान पीछे से जाता हुआ ऐसे दिखाया जाता है जैसे उस पूछे गए रह बेजा सवाल का जवाब उसकी पिस्तौल से निकली गोलियां हैं.

साल 2012 में आई अनुराग कश्यप निर्देशित गैंग्स ऑफ वासेपुर ने भारतीय सिनेप्रेमियों, विशेष तौर पर कॉलेज से निकले युवाओं, को बेहद गहरे तक प्रभावित किया. फिल्म एडल्ट सर्टिफिकेट के साथ रिलीज हुई थी. कई जगह गालियों का इस्तेमाल किया गया था. डायलॉग लोगों की जुबान पर चढ़ गए. इसके बाद छोटे-बड़े शहरों के अपराधों पर केंद्रित अनुराग स्टाइल की कई फिल्में आईं. इस फिल्म के प्रभाव को और गहरा करने का काम कुछ महीने पहले आई वेब सीरीज सैक्रेड गेम्स ने किया. नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई सैक्रेड गेम्स एक वेब सीरीज थी सो उस पर वो कई पाबंदियां नहीं थीं जो 70 एमएम के पर्दे पर रिलीज होने वाली फिल्मों पर होती हैं. गालियां, हिंसात्मक सेक्स सीन, खून-खराबा वेब सीरीज में भरे हुए थे. इस वेब सीरीज के दो निर्देशकों में विक्रमादित्य मोटवानी के अलावा अनुराग कश्यप भी थे. इस वेब सीरीज के बाद मिर्जापुर, अपहरण और अब रंगबाज जैसी वेब सीरीज बाजार में आ चुकी हैं.


वैसे तो इन सभी वेब सीरीज का अपना दर्शक वर्ग और प्रशंसक हैं लेकिन यूपी के कुख्यात अपराधी रहे श्री प्रकाश शुक्ला की जिंदगी पर आधारित वेब सीरीज रंगबाज कई मायनों में दूसरी वेब सीरीज से बेहतर है.

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इन खूबियों की वजह से दूसरी वेब सीरीज से बेहतर है रंगबाज

पहली बात, जो रंगबाज को दूसरी वेब सीरीज से बेहतर बनाती है वो है कि इसमें अनावश्यक गालियां, हिंसात्मक दृश्य नहीं ठूंसे गए हैं. इससे पहले रिलीज हुई वेब सीरीज में अकारण हिंसात्मक दृश्यों में वीभत्स रस ठूंसे गए.

मसलन मिर्जापुर का एक सीन. अपराधी अखंडानंद का बेटा मुन्ना अपने दोस्त के साथ टॉयलेट जाता है जहां बगल में खड़े एक आदमी को दोनों मिलकर मजे-मजे में उस्तरे से काट डालते हैं. मुन्ना का दोस्त डेमो देता है कि किस तरीके से उस्तरे से गला काटा जाता है. पूरा दृश्य बेहद वीभत्स तरीके से फिल्माया गया है. इसी तरह से सारे एपिसोड में अकारण गालियां और हिंसात्मक सीन भरे गए हैं, जिनके बिना भी या कम इस्तेमाल करके भी बात कही जा सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं किया गया.

ज्यादा स्वतंत्रता, बड़ी जिम्मेदारी भी लेकर आती है. अगर अभी इंटरनेट की दुनिया सेंसरशिप की परिधि में पूरी तरह नहीं आ रही है तो फिल्मकारों को भी इस बात का खयाल रखना होगा कि वो बिना मतलब की गालियां और हिंसा अपने दर्शकों को न परोसें.

दूसरी बात, जो रंगबाज की खासियत है वो है हिंसात्मक सेक्स सीन्स से परहेज. कुख्यात अपराधी श्री प्रकाश शुक्ला की जिंदगी में गर्ल फ्रेंड्स और लड़कियों की लंबी कतार का जिक्र अगर दूसरी वेब सीरीज में किया गया होता तो कई सीन जबरदस्ती ऐसे जरूर डाल दिए जाते जो रियलिटी दिखाने के नाम पर महज मसाला कंटेंट होता है. इससे ठीक उलट इस वेब सीरीज में प्रोटैगनिस्ट का संबंध उसकी गर्लफ्रेंड के साथ बेहद भावनात्मक ढंग से फिल्माया गया है. दोनों के बीच लगातार होती हुई बातचीत एक कुख्यात अपराधी के अंतर्मन की परतें भी उधेड़ती है.

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मतलब अगर किसी छोटी उम्र के बच्चे को भी आप ये वेब सीरीज इस नाते दिखाना चाहें कि अपराध की दुनिया का परिणाम क्या होता है, तो ये निराश नहीं करेगी.

हकीकत के करीब

तीसरी बात जो इस फिल्म को खास बनाती है वह बिना गाली-गलौज वाले और इंटरनल कॉन्फ्लिक्ट से जूझते पुलिस वाले. सेक्रेड गेम्स के पुलिस अधिकारी मंजुलकर को याद कीजिए. उसकी भाषा याद कीजिए और एक बार रंगबाज के पुलिसिया किरदारों की भाषा देखिए. इस वेब सीरीज के पुलिसवालों की भाषा आपको सच्चाई के ज्यादा करीब लगेगी. फिल्म के क्लाइमेक्स में जब पुलिस अधिकारी (रणवीर शौरी) शिव प्रकाश शुक्ला को गोली मारता है तो उसे उसमें 23 साल का वह लड़का नजर आता है, जो उनकी टीम में है. एक बार को ट्रिगर पर उसकी उंगलियां थम सी जाती हैं. आम फिल्मों की तरह चश्मा चढ़ाए देशभक्ति में डूबे पुलिस वाले की जगह पुलिस वालों के भीतर बसे एक आम आदमी का चित्रण इस फिल्म को हकीकत के करीब लेकर आता है.

कमियां भी कई हैं

ऐसा नहीं है कि रंगबाज फिल्म में कमियां नहीं हैं. इसकी सबसे बड़ी कमी इन्स्पायर्ड बाइ ट्रू इवेंट्स लिखकर तथ्यों के साथ खेलना है. फिल्म कई जगहों पर तथ्यों के साथ खिलवाड़ करती है. वीरेंद्र शाही की हत्या से लेकर बिहार के पूर्व मंत्री बृजबिहारी प्रसाद की हत्या तक का स्थान और तरीका फिल्म में बदल दिया गया है.

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श्री प्रकाश शुक्ला को उत्तर प्रदेश के आपराधिक इतिहास में ऐसे अपराधी के तौर पर जाना जाता है जिससे दूसरे बड़े अपराधी भी भय खाते थे. वो टेरर भी फिल्म में दिखा पाने में निर्देशक नाकामयाब रहे हैं. पूरी वेब सीरीज में कहीं भी शिव प्रकाश का रोल वो भय पैदा ही नहीं कर पाता जो असलियत में था. जिस अपराधी के लिए पहली बार स्पेशल टास्क फोर्स गठित करना पड़ा, जिसने पहली बार एके-47 जैसे हथियार को अपराध की दुनिया में इस्तेमाल किया, उस 25 साल के अपराधी का आतंक पूरी फिल्म में कहीं नजर नहीं आता. इसके अलावा गहरी रिसर्च की कमी भी इस वेब सीरीज का बेहद कमजोर पक्ष है. लेकिन फिर भी इन कमियों के साथ रंगबाज में कई ऐसी खूबियां हैं (जिनके बारे में ऊपर बताया गया है) जो इसे दूसरी वेब सीरीज से अलग बनाती हैं.