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दो मुल्कों के बीच हजारों किलोमीटर भटकने के बाद फिर वहीं पहुंची मौत, जहां मौजूद थे बेखबर उसके 5 शिकार!

शक्ल-ओ-सूरत से देखने में ‘मासूम’ आखिर उस मौत के पंजे, अचानक क्यों हो उठे थे एक ही रात में पांच-पांच इंसानों के खून में डूबने को व्याकुल?

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

अक्सर बुजुर्गों के मुंह से यही सुना है कि मौत, ‘बेजुबान’ होती है. मौत के पांव नहीं होते. मौत, शिकार और स्थान खुद चुनती है. मौत कभी भी खुद के पहुंचने की आहट नहीं देती..आदि-आदि! ‘पड़ताल’ की इस कड़ी में लेकिन मैं, एक ऐसी अविश्वसनीय मगर, सच्ची पुलिसिया तफ्तीश का जिक्र कर रहा हूं कालांतर में जो, कानून की नजर में मील का पत्थर साबित हुई. जिसमें ‘मौत’ करीब तीन साल, दो देशों के बीच इधर से उधर भटकती रही. भटकाव के उस दौर में ‘मौत’ ने चार हजार किलोमीटर से ज्यादा का सफर भी तय किया.

बजरिए पैदल, रिक्शा, बस और रेलगाड़ी. क्या कभी आपने भी ऐसी चलती-फिरती मौत के बारे में सुना है? इस इंसानी दुनिया में? क्या वर्षों बाद खुद की भयावह ‘मौत’ को कोई इंसान अपने करीब बुलाकर उसे, साथ सुला-बैठा खिला-पिला या पाल-पोस सकता है? कई साल बाद भटकने के बाद आखिर कैसे मौत वहीं पहुंच गई जहां, मौजूद थे उसके पांच ‘निवाले’ (शिकार)? कौन थे उसके इरादों से बेखबर वो पांच निवाले?


शक्ल-ओ-सूरत से देखने में ‘मासूम’ आखिर उस मौत के पंजे, अचानक क्यों हो उठे थे एक ही रात में पांच-पांच इंसानों के खून में डूबने को व्याकुल? जैसे तमाम सवालों के जबाब देगी कालांतर में, अपराध की दुनिया में और कानून की नजर में ‘नजीर’ बन चुकी यह ‘पड़ताल’. 13 जनवरी सन् 1996 यानी करीब दो दशक (करीब 22 साल) बाद आज.

14 जनवरी 1996 की वो भयानक रात और खून से भरा फ्लैट

रात करीब साढ़े दस बजे दिल्ली पुलिस कंट्रोल रूम को खबर मिली कि, वसंतकुज स्थित बंद पड़े फ्लैट नंबर सी-1/ 1396 (टॉप-फ्लोर) के अंदर से कुत्ते के भौंकने की आवाजें आ रही हैं. एक कमरे में से फ्लैट के बाहर पानी सा बहकर निकल रहा है. सूचना मिलते ही वसंत कुंज थाने के तत्कालीन एसएचओ इंस्पेक्टर सुरेंद्र शर्मा (अब रिटायर्ड असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर), सब-इंस्पेक्टर दीवान चंद, सिपाही सुभाष चंद्र (वर्तमान में दिल्ली पुलिस की सातवीं बटालियन में असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर यानी एएसआई) को लेकर फ्लैट पर पहुंच गए.

फ्लैट के बाहर अखबार पड़ा हुआ था. पता चला कि, जिसे आसपास के लोग पानी समझ रहे थे, वो खून था. पुलिस फ्लैट के अंदर पहुंची तो उसके होश फाख्ता हो गये. ज्यादातर कमरों में खून फैला था. अलग अलग कमरों में पांच लाशें पड़ी थीं. खबर मिलते ही, दक्षिण-पश्चिम जिले के तत्कालीन डिप्टी पुलिस कमिश्नर यू.एन.वी. राव, सहायक पुलिस आयुक्त ओ.पी. मिश्रा को साथ लेकर मौके पर पहुंच गए. दिल्ली पुलिस के फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट कामाख्या नारायण सिंह (के.एन. सिंह वर्तमान में इंस्पेक्टर हैं) और फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट सब-इंस्पेक्टर अमर पाल वर्मा (अब इंस्पेक्टर) भी मौके पर बुला लिए गए.

कमजोर दिल तमाशबीन पड़ोसी जब चीख कर भागे

लाशें, आगरा यूपी के मूल निवासी और लंबे समय से गंभीर बीमारी से परेशान घर के मुखिया सत्य प्रकाश शर्मा, उनकी पत्नी शोभा शर्मा (45 साल, बेडरूम में बिस्तर पर), बेटी चारु (20 साल,बेडरूम में), बेटा पुनीत (15 साल, ड्राइंग रूम) और 10-12 साल के घरेलू नौकर दिनेश की थीं. शोभा और उनकी बेटी-बेटे के चेहरे और सिर को, सत्य प्रकाश शर्मा और उनके नौकर दिनेश से कहीं ज्यादा बुरी तरह से कुचला गया था. जमीन पर खून इस कदर फैला था कि, चलना मुश्किल हो रहा था. कई तमाशबीन, फिंगर प्रिंट ब्यूरो एक्सपर्ट्स, पुलिसकर्मी खून पर फिसले भी. तमाम कमजोर दिल दहशतजदा तमाशबीन, फ्लैट के भीतर का खूनी मंजर देखते ही चीख कर भाग गए.

इकलौता चश्मदीद (गवाह) जो रो रहा था लेकिन...

पांच हत्याओं के खूनी मंजर का इकलौता जीवित गवाह था शर्मा परिवार का चेहता मासूम डॉग ब्रेंडी. बेबस ब्रेंडी दो दिन से भौंक-भौंक कर थक चुका था. ब्रेंडी की आंखों से गालों तक मौजूद आंसूओं की सूखी धारा के निशान गवाही दे रहे थे उसकी लाचारी की. अगले ही दिन थाना वसंतकुंज में एफआईआर नंबर 32 पर हत्या का मामला दर्ज करके पड़ताल शुरू कर दी गई.

दस्तावेज जो थाने के बजाए मिला खूनी फ्लैट में

मामले के जांच अधिकारी सुरेंद्र शर्मा के मुताबिक, ‘घरेलू नेपाली नौकर टीकाराम (18) गायब था. टीका राम का पुलिस वेरीफिकेशन शर्मा परिवार ने नहीं कराया था. इसका सबूत था, डायनिंग टेबल पर रखा मिला दिल्ली पुलिस की ओर से भेजा गया नौकर का वेरीफिकेशन-फार्म. जो वसंतकुंज थाने में जमा ही नहीं कराया गया था. जिसका परिणाम यह हुआ कि, टीकाराम तक पहुंचने के लिए पुलिस ने फ्लैट के सामने ही पार्क में तंबू लगाकर घरेलू नौकरों का वेरीफिकेशन कैंप शुरू कर दिया. महज एक अदद टीकाराम तक पहुंचने की उम्मीद में. 8 सौ से ज्यादा नौकरों के वेरीफिकेशन के दौरान एक टीका राम का पता-ठिकाना पुलिस को मिल पाया.'

मुलजिम की कुंडली पुलिस की जेब में, फिर भी…

टीकाराम के बारे में पता चला कि वो, जिला डांग राप्ती, नेपालगंज (नेपाल) का रहने वाला है. तो पुलिस को सांप सूंघ गया. वजह कि, टीकाराम को नेपाल से दिल्ली (भारत) लाने के लिए कौन अपने गले में घंटी बांधेगा? इसके पीछे दो वजह थीं. पहली वजह, कुछ साल पहले ही मुंबई पुलिस की टीम नेपाल में कई दिन तक ‘कैद’ रहकर जैसे-तैसे छूटी थी.

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दूसरी वजह, माफिया डॉन बबलू श्रीवास्तव को दबोचने पहुंची, दिल्ली पुलिस की टीम को ही नेपाली पुलिस द्वारा दबोच लिया जाना. इनाम-इकराम की बात तो दूर की कौड़ी रही. दिल्ली लौटते ही पूरी पुलिस टीम (रिटायर्ड एसीपी हरणचरण वर्मा, राजेंद्र बख्शी, अब दोनों रिटायर्ड एसीपी, सहित पूरी टीम) को तत्कालीन पुलिस कमिश्नर एम.बी. कौशल ने सस्पेंड कर डाला था.

वीभत्स हत्याकांड था सब्र और समझदारी के बिना हम फिर कहीं उलझ सकते थे- दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर निखिल कुमार

दिल्ली पुलिस ने जब हीरे से ‘लोहा’ भी कटवा लिया!

उस वक्त दिल्ली के पुलिस कमिश्नर रहे निखिल कुमार के मुताबिक, ‘मैंने जिला और थाना पुलिस को कह दिया था कि, नेपाल का मामला होने की वजह से अगर, केंद्रीय गृह-मंत्रालय (भारत सरकार) और मेरे (दिल्ली पुलिस कमिश्नर) स्तर से कोई जरुरत महसूस हो तो तुरंत मुझे बताया जाए.’

बकौल मामले के पड़ताली रहे सुरेंद्र शर्मा, ‘मैने तय किया कि, वसंतकुंज थाने में तैनात हवलदार नरहरि शर्मा को दिल्ली पुलिस से लंबी छुट्टी देकर नेपाल भेजा जाए. हवलदार नरहरि नेपाल के ही मूल निवासी थे (सूझबूझ के धनी हवलदार नरहरि शर्मा की कुछ साल पहले मृत्यु हो चुकी है).'

हमेशा याद रहेंगे देश और दिल्ली पुलिस को नेपाली नरहरि

टीकाराम नेपाल से भारत की सीमा में (रुपहड़िया) जैसे ही घुसा वैसे ही उसका इंतजार कर रही इंस्पेक्टर सुरेंद्र शर्मा और सुभाष चंद्र की टीम ने उसे दबोच लिया. करीब एक महीने के लंबे इंतजार के बाद. एक अदद दिल्ली पुलिस के वफादार और सूझबूझ वाले हवलदार, नरहरि शर्मा की सूचना पर. करीब 22 साल पुरानी बेमिसाल मगर उन दिनों बबाल-ए-जान बन गई उस, पड़ताल के पन्ने पलटते हुए बताते हैं सुरेंद्र शर्मा, ‘मैं सुभाष चंद्र के साथ दिल्ली से 10 मार्च 1996 को रुपहड़िया (भारत-नेपाल की भारतीय सीमा में) पहुंच गया था, जबकि शर्मा परिवार के पांच सदस्यों का कातिल टीकाराम हाथ आया 8 अप्रैल 1996 को.करीब 24-25 दिन बाद.’

आरोपी नेपाली नौकर टीका राम के इंतजार में एक महीने तक नेपाल बार्डर पर उसके भारत में घुसने की उम्मीद में वहीं रहे पड़ताली टीम के सदस्य एएसआई सुभाष चंद्र

कत्ल से ज्यादा हैरतंगेज थी कत्ल-ए-आम की वजह

भारत से नेपाल के बीच करीब दो महीने तक हजारों किलोमीटर के सफर में, पांच कत्ल का बोझ सिर पर ढोते रहे टीकाराम ने दिल्ली पुलिस की पड़ताली टीम को बताया कि, मालकिन शोभा शर्मा और उसके बच्चे छोटी-छोटी बातों पर बुरी तरह मारपीट करते थे. नौकरी छूट जाने के डर से वह विरोध नहीं करता था. एक दिन कार में नुकसान मालकिन के बेटे ने किया. जिम्मेदारी का ठीकरा मगर टीकाराम के सिर ही फूटा. परिणामस्वरूप मालकिन के हाथों टीकाराम को मिली बेइंतहा मारपीट. यह बात थी शक्ल-ओ-सूरत से बेहद शरीफ और हमेशा शांत रहने वाले टीकाराम द्वारा, खून-खराबे को अंजाम देने से दो तीन दिन पहले की.

इंतजार में दो रात छुरा-हथौड़ा सिराहने लेकर सोया

उसी के बाद टीका राम के मन में मगर बदले की आग धधक उठी. वो आग जो अंतत: दो दिन और डेढ़ रात बाद, शर्मा परिवार का नाम-ओ-निशान मिटाने के लिए लोहड़ी की रात (13 जनवरी 1996) खेली गई खून की होली से ही शांत हो सकी. जिस दिन शोभा शर्मा द्वारा टीकाराम के साथ मारपीट की गई, बौखलाए टीकाराम ने उसी रात शर्मा परिवार को ठिकाने लगाने की सोची थी, लेकिन मौका हाथ नहीं लगा. लिहाजा हथौड़ा-खुखरी (विशेष किस्म का छुरा) सिराहने लगाकर ही वो सोता रहा.

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13 जनवरी को आधी रात के बाद उठा और एक-एक करके उसने लंबे समय से बिस्तर पर पड़े बीमार और बेबस-बेकसूर सत्य प्रकाश शर्मा, बेसुध सो रही शोभा शर्मा, बेटी चारु और बेटे पुनीत शर्मा के सिर हथौड़े से कुचल कर उन्हें मार डाला. बाकी जो गुस्सा बचा उसे टीकाराम ने शोभा, चारु और पुनीत की लाशों को खुखरी से चीर-फाड़कर शांत कर लिया. इस खून-खराबे के दौरान ही शर्मा परिवार के नौकर बच्चे दिनेश की आंख खुल गयी. लिहाजा कहीं दिनेश की गवाही फांसी के तख्ते पर न पहुंचा दे! इस आशंका से टीका राम ने, जिंदगी की भीख मांग रहे बेबस और बेकसूर दिनेश को भी बेरहमी से हलाक कर दिया.

जघन्य हत्याकांड के पड़ताली दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड सहायक पुलिस आयुक्त सुरेंद्र कुमार शर्मा

हजारों किलोमीटर भटकने के बाद फिर वहीं पहुंची ‘मौत’

कभी बेहद शरीफ रहा और बाद में खूंखार हुआ टीकाराम, सन् 1993 में भी कुछ वक्त सत्य प्रकाश शर्मा के यहां नौकरी करके नेपाल वापस जा चुका था. इस बीच वो नेपाल, मुंबई, पंजाब में कुछ जगहों पर नौकरी करता रहा, लेकिन टीका, टिका कहीं नहीं. उसके बाद सन् 1995 के आखिरी दिनों में वो शोभा शर्मा से बात करके दुबारा नौकरी पर उन्हीं के यहां लौट आया था. जाने-अनजाने इसे शोभा शर्मा की भूल कहें या, फिर शर्मा परिवार की विधाता द्वारा लिखी जा चुकी रुह कंपा देने वाली मौत. जिसके चलते टीकाराम को शोभा शर्मा ने दुबारा अपने यहां पनाह दे दी घरेलू नौकर के रूप में.

13 तारीख 14 फिंगर प्रिंट्स, फांसी को एक ही काफी!

13 जनवरी की रात हुए खून-खराबे वाले घटनास्थल से फिंगर प्रिंट ब्यूरो की दो सदस्यीय टीम को ब-मशक्कत कुल जमा 14 फिंगर प्रिंट्स नसीब हुए. 12 फिंगर प्रिंट सब-इंस्पेक्टर कामाख्या नारायन सिंह और दो फिंगर प्रिंट सब-इंस्पेक्टर अमर पाल वर्मा को (अब यह दोनों पड़ताली फिंगर प्रिंट एक्सपर्टस पदोन्नत होकर इंस्पेक्टर बनाए जा चुके हैं). फिंगर प्रिंट्स का क्रॉस-एग्जामिनेशन सब-इंस्पेक्टर (अब इंस्पेक्टर) अवधेश कुमार ने किया. बकौल इंस्पेक्टर ए.पी. वर्मा (दिल्ली पुलिस फिंगर प्रिंट ब्यूरो सेक्शन इंचार्ज), ‘क्रॉस-एग्जामिनेशन रिपोर्ट में मुलजिम टीकाराम के हाथ के अंगूठे का 14 मे से मात्र एक निशान मैच कर गया. मैच हुआ निशान फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट की टीम ने घटनास्थल पर मौजूद अलमारी से लिया था.

बायें से दायें फिंगर प्रिंट ब्यूरो सेक्शन इंचार्ज इंस्पेक्टर अमर पाल वर्मा और इंस्पेक्टर कामाख्या नारायण सिंह

अभूतपूर्व लेकिन ‘अंधा’ करने वाली तकनीक का इस्तेमाल!

उस रात मौजूद विपरीत हालातों में भी फिंगर प्रिंट लेने के लिए दिल्ली पुलिस एक्सपर्ट्स ने 'पॉली-लाइट' हाई इंटेसिटी जैसी अभूतपूर्व और अत्याधुनिक तकनीक अपनाने का फैसला किया. फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट्स कामाख्या नारायण सिंह और ए.पी. वर्मा के मुताबिक, ‘फिंगर प्रिंट लेने के लिए यह तकनीक जितनी ज्यादा कामयाब है, इंसान की आंख के लिए उससे ज्यादा खतरनाक है. इस तकनीक के इस्तेमाल में ऑरेंज कलर का (बैंडपास फिल्टर) चश्मा इस्तेमाल करना जरूरी होता है. क्योंकि फिंगर प्रिंट लेने के लिए अमूमन इस्तेमाल होने वाले पाउडर से इस तकनीक की ताकत (रोशनी की किरणें) 500 गुना ज्यादा होती है. चश्मा बिना लगाए इस तकनीक का इस्तेमाल करने का मतलब एक्सपर्ट्स की आंखों की रोशनी भी जा सकती है.’

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22 साल पहले उस पड़ताल की यादों की किताब में झांकते हुए मौके के गवाह बने इंस्पेक्टर कामाख्या नारायण सिंह बताते हैं कि, ‘दिन भर मैं आर.के. पुरम् थाने में ड्यूटी करता रहा था. जैसे ही घर पहुंचा तुरंत वसंतकुंज उस घटनास्थल पर पहुंच गया. पूरी रात और अगले दिन लगातार 24 घंटे जागकर रिपोर्ट फाइल करने के बाद ही दूसरी रात घर पहुंचा था.’

कम-उम्र ने मुजरिम को मौत के फंदे से बचा लिया

पेश तमाम परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के मद्देनजर, दिल्ली की पटियाला हाउस ट्रायल कोर्ट ने टीकाराम को मुजरिम करार दिया. साथ ही मामले को ‘रेअर ऑफ रेअरेस्ट’ की श्रेणी में भी रखा. ऐतिहासिक पुलिस तफ्तीश के बलबूते मंजिल तक पहुंचे मामले में, ट्रायल कोर्ट ने टीका राम को सजा-ए-मौत यानी फांसी मुकर्रर कर दी. बचाव पक्ष मामले को दिल्ली हाईकोर्ट में ले गया. कालांतर में दिल्ली हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने तमाम पहलूओं और एक ही रात में 5 हत्याओं के मुजरिम की कम उम्र के मद्देनजर सजा को उम्रकैद में बदल दिया.

शर्मा परिवार हत्याकांड के पड़ताली अफसर दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड एसीपी सुरेंद्र कुमार शर्मा ने टीकाराम को उसकी मांद से खींचकर बाहर निकाला

पड़ताली, जो कानून की नजर में ‘नजीर’ बन गया

टीकाराम को उसकी मांद (नेपाल स्थित घर से) से बाहर खिंचवाकर, तिहाड़ जेल की काल-कोठरी के भीतर डलवाने वाले हैं दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड सहायक पुलिस आयुक्त सुरेंद्र कुमार शर्मा. 3 सितंबर सन् 1954 को हरियाणा के जिला हिसार के मायर गांव में जय नारायण शर्मा और वसंती देवी शर्मा के यहां सुरेंद्र शर्मा का जन्म हुआ था. पिता जय नारायण शर्मा 31 जनवरी 1984 को बीएसएफ (सीमा सुरक्षा बल) से इंस्पेक्टर पद से रिटायर हो चुके थे. अगर यह कहा जाए कि, सुरेंद्र को वर्दी और जाबांजी पिता से विरासत में मिली, तो अतिशयोक्ति नहीं.

सुरेंद्र शर्मा ने बी.एस.सी. (मेडिकल) किया डीएवी कॉलेज जालंधर (पंजाब) से. यह बात है सन् 1975 की. सन् 1977 में सुरेंद्र शर्मा को दिल्ली पुलिस में डायरेक्टर सब-इंस्पेक्टरी मिल गई. उस जमाने में तनख्वाह थी 750 रुपए महीना. 30 अगस्त सन् 1987 को उत्तरी दिल्ली के तिमारपुर इलाके से सुरेंद्र शर्मा ने देश के सबसे खतरनाक आतंकवादी को जीवित ही दबोच लिया. लिहाजा अपने बैच के बाकी तमाम थानेदारों से सात साल पहले ही दिल्ली पुलिस ने बतौर बेशकीमती तोहफा उन्हें, आउट-आफ-टर्न देकर थानेदार से इंस्पेक्टर बना दिया.

सन् 2006 में उन्हें दिल्ली पुलिस में सहायक पुलिस आयुक्त बना दिया गया. दिल्ली पुलिस की नौकरी के दौरान ही उन्हें एक साल यूएन मिशन के अंतर्गत कोसोवो में रहने का भी मौका मिला. कानून की नजर में बेमिसाल पड़ताली साबित होने के बाद, सन् 2014 में सुरेंद्र शर्मा दिल्ली पुलिस से उस वक्त रिटायर हो गये जब वे, सफदरजंग एन्क्लेव सब-डिवीजन के एसीपी थे.

इस संडे क्राइम स्पेशल में पढ़िए वो खतरनाक फौजी 'सुंदर' जो खुद मरने के बाद भी, देश के दो आईपीएस सहित 13 आला पुलिस अफसर डलवा गया जेल की काल कोठरी में!

(लेखक वरिष्ठ और स्वतंत्र पत्रकार हैं)