इस बार पेश 'संडे क्राइम स्पेशल' में हम एक ऐसे बेदाग-बहादुर पूर्व आईपीएस की जिंदगी के उन पहलूओं को छूने की कोशिश कर रहे हैं जिसने, तीन दशक से ज्यादा आईपीएस की नौकरी को 'भोगा' नहीं बल्कि, जी भर के सिर्फ और सिर्फ जीया है. हर लम्हा जिंदगी और मौत की सरहदों के इर्द-गिर्द रहकर. रुह कंपा देने वाली उस जिंदगी को, जिसमें झांकने भर से ही आम-आदमी की ‘घिग्घी’ बंध जाती है. आइए आगे सुनते-पढ़ते हैं उसी, बहादुर पूर्व आईपीएस और एक दबंग डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (पुलिस महानिदेशक) अफसर की बेबाक मुंहजुबानी बिना किसी काट-छांट के...
एक छोटे से गांव से हिंदुस्तान भर का सफर
अपने बारे में बताते हुए ये डीजीपी कहते हैं- ‘ऐसा नहीं है कि, गांव के बच्चे कुछ नहीं बनते. मैं खुद भी 22 मई सन् 1950 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कंहौली गांव में ही जन्मा था. गांव के बच्चों सी मजबूती और कुछ कर गुजरने की ललक हर किसी को आसानी से हासिल नहीं हो पाती है. बस जरुरत है सही वक्त पर उचित मार्गदर्शन की. सन् 1949 में पिता ठाकुर मार्कण्डेय सिंह अयोध्या के सिटी मजिस्ट्रेट थे. मां लक्ष्मी देवी घरेलू महिला थीं. छह भाई-बहन (तीन भाई और तीन बहन) में मैं सबसे छोटा था. मां जिद्दी और पिता समाज-परिवार में काल-पात्र-समय के हिसाब से खुद को ढाल कर चलने वाले थे. गांव से निकलने के बाद मैंने जमाना तो देखा मगर गांव को कभी भुलाया नहीं. ताकि कमजोर अतीत की यादें, वर्तमान में मजबूत भविष्य की नींव रख सकें. मेरे अब तक के इस तमाम सफर के पीछे मेरा कंहौली गांव कल भी जुड़ा था. आज भी जुड़ा है. आइंदा भी जुड़ा रहेगा. पढ़ा-लिखा पुलिस वाला हूं ‘ठेठ’ या ‘जुगाड़ू’ नहीं'
पुलिस महकमे या खाकी वर्दी का नाम जेहन में आते ही आम-आदमी के दिमाग में अक्सर ऊल-जलूल सा और बे-सिर-पैर का ‘ब्लू-प्रिंट’ सा उभर कर आने लगता है. मसलन पुलिस वाला है भला इसकी भी कोई कायदे की सोच होगी?
अत्याचारी ही होगा! समाज में उठने-बैठने का सलीका-सऊर भी भला कहां से आएगा इसमें? क्रूरता की पराकाष्ठा पार कर देता होगा! सिर्फ अपनी-अपनी ही हांकता होगा! मैं इन तमाम बाहियाद तकिया-कलामों का हमेशा विरोधी रहा हूं. वजह मैं खुद कभी इस कैटेगरी का इंसान (पुलिस अफसर तो बहुत बाद में बना हूं) नहीं रहा. समाज को पहले सोचना चाहिए कि बतौर, इंसान कोई शख्स कैसा है? न कि यह कि फलां पुलिस वाला है तो बुरा ही होगा. खाकी वर्दी के प्रति समाज में फैली यह नकारात्मक सोच, फोर्स को हतोत्साहित करने के लिए काफी है. इंसान खुद में अगर अच्छा है. उसे कुनबा-खानदान से संस्कार अच्छे मिले हैं. उच्च-शिक्षित है, तो भला वो सिर्फ इसलिए कैसे गलत हो सकता है कि, वो एक पुलिस वाला है? यह बिलकुल गलत है. मैंने वनस्पति विज्ञान, जुलॉजी और कैमिस्ट्री से स्नातक किया. उसके बाद इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से सन् 1972 में वनस्पति शास्त्र पर्यावरण में एमए किया. सन् 1974 में आईपीएस बन गया. फिर सन् 1990 में (आईपीएस बनने के कई साल बाद) डॉक्टरेट (पीएचडी) की उपाधि भी ली. हायर एजूकेशन और अच्छे संस्कार लेकर पुलिस में भर्ती हुआ, ऐसे में कुछ तो कहीं तो समाज की बेहतरी के ही बारे में सोचा होगा.
पहली पोस्टिंग में ही जी भर कर झोंकीं गोलियां
सन् 1976 में पुलिस ट्रेनिंग के बाद पहली पोस्टिंग हुई थी मिर्जापुर में बतौर असिस्टेंट पुलिस सुपरिंटेंडेंट (एएसपी). चार्ज लेने के कुछ दिन बाद ही मिर्जापुर (विंध्याचल) में उस जमाने के कुख्यात और 2 हजार रुपए के इनामी बखेड़ी डाकू को सर-ए-शाम जंगल में, सिर्फ तीन-चार पुलिस वालों (सब इंस्पेक्टर विजय बहादुर सिंह, ड्राइवर कांस्टेबिल गंगा विष्णु और 200 गोलियां एक साथ दागने वाली थॉमसन मशीन कार्बाइन यानी टीएमसी के साथ मौजूद हवलदार दीना नाथ) के बलबूते घेर लिया. सरेंडर को काफी कहा नहीं माना. कई घंटे गोलियां चलीं और बखेड़ी मारा गया. वो मेरी पुलिस सर्विस (आईपीएस) का पहला एनकाउंटर था, जिसमें मैंने भी जिद्दी और खूंखार बखेड़ी के ऊपर अपने पास मौजूद 0.32 बोर कोल्ट पिस्टल से जी-भर के गोलियां दागीं.
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अब एनकाउंटर के बाद ‘फाइलें’ खुलती हैं हम ‘फूलों’ से लाद दिए उस एनकांउटर के बाद बेतहाशा खुश हुई पब्लिक ने जंगल में ही मुझे और साथी पुलिसकर्मियों को फूल मालाओं से लाद दिया. मारे गए डाकू की लाश और उसे ढेर करने वाली हमारी पुलिस टीम के साथ फोटो खिंचाने की जिद पर घंटों गांव वाले अड़े रहे. आज अधिकांश पुलिस एनकाउंटर्स को पहले तो वही पब्लिक फर्जी करार देने पर उतरती है, जो अपराध और अपराधियों से पीड़ित होती है. रही-सही कसर जांच की मोटी-मोटी फाइलें खोलकर सरकारी हुक्मरान पूरी कर देते हैं. कुछ मुठभेड़ों में जाने-अनजाने इंसान होने के नाते पुलिस टीम से गलतियां हो सकती हैं. हर पुलिस एनकाउंटर पर घर बैठे-बिठाए ही सवालिया निशान लगा देना या बे-सिर-पैर का ज्ञान बघार देना तो कदापि उचित नहीं है. जब अपराधियों में पुलिस का खौफ ही नहीं होगा, तो फिर समाज शांतिपूर्वक भला कैसे रह पायेगा? पुलिस की किसी अपराधी से निजी दुश्मनी तो होती नहीं. वो समाज का दुश्मन होता है. इसलिए वो पुलिस और कानून का भी दुश्मन होता है.
मातहतों के चेताने के बाद भी मैंने मनमानी की
सन् 1990 में मैं कानपुर का एसएसपी (वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक) था. उन्हीं दिनों शहर में दंगा भड़क गया. दंगा काबू करने की हर कोशिश नाकाम होती जा रही थी. अंतत: एक वक्त वो आ गया जब लगा कि, फोर्स के साथ-साथ उसका लीडर होने के नाते अब मुझे खुद भी मोर्चा संभालना चाहिए. हालांकि शहर से आ रही खुफिया रिपोर्टों के हिसाब से हालात इतने ज्यादा खतरनाक हो चुके थे कि, मुझे शहर में हर जगह अपना पांव नहीं बढ़ाना चाहिए था. मैंने सोचा कि जब शहर जल रहा हो. जिंदगी की चाह में बेकसूर लोग बेबसी के आलम में घर छोड़कर यहां-वहां छिपने को लाचार हो चुके हों. ऐसे में भी अगर मैं बहैसियत शहर और फोर्स का ‘कमांडर’ होने के बाबजूद आग-पत्थरों के बीच नहीं कूदूंगा तो, फिर आखिर बचाएगा कौन किसको क्यों और कैसे? उस शहर में, जिस शहर के गुस्से में भरे लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो चुके हों. क्रूरता के पंजे बेबस मासूमों के चेहरों को नोंचने पर आमादा हों. सांप्रदायिकता की चिंगारी से भड़की दुश्मनी की आग, गली-मोहल्लों की सड़कों पर अट्टाहस करके खिलखिला रही हो. शांति-इंसानियत शहर के कोनों में दुबकी पनाह मांग रही हों. इन्हीं तमाम तर्क-कुतर्कों के बीच मैने महकमे में किसी की बात न मानने की ठानी. हालांकि मातहतों और खुफिया रिपोर्ट्स की अनदेखी-अनसुनी करना मुझे मंहगा साबित हो सकता था, फिर भी मैं शहर के उन इलाकों में जा पहुंचा, जिनमें दंगा चरम पर था.
बदन में हथगोला घुस चुका था फिर भी...
कई घंटे तक मैं आगजनी और पथराव के बीच खुद को बचाता हुआ संकरी गली-मुहल्लों में पैदल मार्च करता हुआ मारा-मारा फिरता रहा. एक गली में लोगों को समझाकर/चेतावनी देकर बाहर निकल कर दूसरी गली में पहुंचता, तब तक पीछे छोड़ी हुई गलियों में से ही किसी गली से पथराव-आगजनी की खबरें वायरलेस सेट पर सुनाई देने लगतीं. दंगों को काबू करने के भागीरथ प्रयास कर ही रहा था कि, एक जगह दंगाईंयों की भीड़ में फंस गया. पुलिस, पैरा-मिलिट्री फोर्स और दंगाई आमने-सामने थे. दंगाईयों की उग्र भीड़ में से आया एक हैंड-ग्रेनेड (हथगोला) आकर मेरे बदन में घुस गया. खून सनी उस हालत में साथ मौजूद फोर्स के जवानों ने मुझे वहां से हटाने के तमाम प्रयास किए. मैं मगर मोर्चे से नहीं हटा. सिर्फ यह सोच कर कि अगर, आज मैं यहां से हट गया तो, मेरे साथ मौजूद जवान-सिपाही सोचेंगे कि, हमारा ‘कमांडर’ मौके पर हमें मुसीबत में मोर्चे पर छोड़कर भाग गया. और मैं उनकी निगाह में जिंदगी भर के लिए बतौर ‘कायर-कमांडर’ अपना नाम दर्ज करवा बैठता. यह मुझे और मेरे खून को कतई कबूल नहीं हो सकता था. यह द़ाग सिर्फ मेरे नाम पर ही नहीं, उत्तर-प्रदेश राज्य पुलिस और भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के माथे पर भी हमेशा-हमेशा के लिए लग जाता.
उस बाबा से बराबरी जिसके सामने बेबस थी पुलिस
1980 के दशक में एटा, इटावा, मैनपुरी, शिकोहाबाद इलाके में खूंखार डाकू काशी बाबा गैंग का आतंक था. उन दिनो जो गोला-बारुद असलहा काशी गैंग के पास उपलब्ध था, वो पुलिस को भी मुश्किल से ही मयस्सर था. यही वजह थी कि, काशी बाबा गैंग की इलाके में मौजूदगी के बारे में पता लगने पर भी पुलिस अक्सर आमना-सामना करने से कन्नी काट जाती थी. परेशान हाल सूबे की सरकार ने काशी गैंग का काम-तमाम करने की उम्मीद में मुझे एटा का एसएसपी बनाकर भेज दिया.
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यह बात है सन् 1983 के आसपास की. एक रात सूचना आई कि, काशी बाबा गैंग पटियाली थाना क्षेत्र में पहुंच चुका है. मैने अधीनस्थ पुलिस अफसरों से कहा कि, जैसे भी हो आज रात काशी बाबा के दर्शन (काशी बाबा गैंग से आमना-सामना) जरूर करने हैं. इतना सुनते ही वे सब अवाक् होकर मेरा चेहरा देखने लगे. मैं उनकी चिंता समझ गया कि, काशी बाबा के नाम से इन सबकी (सामने मौजूद अधीनस्थ पुलिस अफसरों की) सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई है. फिर भी वे सब मेरे जिद्दी स्वभाव के चलते ‘मरता क्या न करता’ वाली बात सोचकर, चुपचाप ब-असलहा और गोला-बारुद बेमन से मेरे साथ चल दिए.
कोई नहीं कहेगा ‘कप्तान साहब’ गोली लगते ही भाग गए
तमाम पुलिस फोर्स के लटके चेहरों को देखकर मैं समझ चुका था कि, आज रात भी आगे-आगे चलकर काशी बाबा के दर्शनों का जोखिम मुझे ही उठाना पड़ेगा. हुआ भी वही जो सोच रहा था. रात में करीब 6 घंटे एटा पुलिस, जिसे मैं खुद लीड कर रहा था और काशी बाबा जैसे खूंखार डाकू गैंग के साथ खूनी मुठभेड़ हुई. एनकाउंटर में काशी बाबा तो मारा गया, लेकिन मेरी गर्दन में भी (कंधे के करीब) एक गोली आ घुसी थी. मुठभेड़ के दौरान फोर्स ने मुझे मौके से हटाने की कोशिश की तो, फिर मन में सवाल आया कि, जीती हुई बाजी (काशी बाबा को जब ढेर कर ही लिया है) अब मोर्चे से पीछे हटकर भला अपनी ही ‘हार’ में क्यों बदलूं? एक अदद उसी ‘फैसले’ के चलते मुझे बाद में काशी बाबा एनकांउटर के लिए राष्ट्रपति शौर्य पदक से नवाजा गया.
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आज 35 साल बाद कम से कम उस टीम का कोई बहादुर साथी अफसर-सिपाही-जवान यह तो नहीं कहता होगा बीबी-बच्चों और समाज के सामने कि, ‘कप्तान साहब (एसएसपी) गोली लगते ही मोर्चा छोड़कर भाग गए थे.’ एक बार तो इससे भी कहीं ज्यादा कर गुजरा था. वह किस्सा काशी बाबा गैंग को ठिकाने लगाने से एक दो साल पहले का है. जहां तक मुझे याद आ रहा है वो 1981 का वाकया है. पुलिस अधीक्षक हमीरपुर रहते हुए मैं एनकाउंटर के दौरान पेट में घुसी गोली सहित ही आधी रात को घर जाकर सो गया.
‘शांति’ की खातिर 36 साल ‘खून-गोलियों’ से खेलने वाला
पिता मार्कण्डेय सिंह ने अयोध्या के सिटी मजिस्ट्रेट रहते हुए अयोध्या की विवादित जमीन (राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद परिसर/ सम्पत्ति) को ‘कुर्क’ कर दिया था. इंटरमीडिएट परीक्षा पास करते ही खुद ने संन्यासी/ बैरागी होकर घर छोड़ दिया. विवाह के हमेशा खिलाफ थे. मगर जनवरी 1976 में शुरू से अंत तक पढ़ाई में टॉपर रहीं नेशनल स्कॉलशिप होल्डर पद्मा सिंह से शादी भी की. आईपीएस बनने के बाद इन्हें उन्हीं जिलों में नौकरी करने का मौका दिया गया, जहां की पोस्टिंग में चॉर्ज लेने के लिए अक्सर हवाई जहाज, हेलीकॉप्टर से ही आनन-फानन में भेजा जाता. क्योंकि वे जिले या उन जिलों के हालात बदतर हो चुके होते थे.
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उन स्थानों की पोस्टिंग में अमूमन किसी भी आला-पुलिस अफसर के वीरगति (मौत) को प्राप्त होने की ही आशंकाएं बलवती होती देखी-सुनी जाती थीं. सन् 1981 जब यूपी के पुलिस महानिदेशक थे नरेश कुमार वर्मा. तब नथुआपुर कांड का बदला लेने के लिए भी इसी जांबाज पुलिस अधिकारी को राज्य सरकार ने भेजा था. नथुआपुर कांड में अलीगंज थाने के इंस्पेक्टर राजपाल सिंह सहित पूरे स्टाफ (करीब 13 पुलिस कर्मी) थाने में बंद करके मार डालने वाले डाकू पोथीराम और महाबीरा गैंग का 6 महीने में नाम-ओ-निशान इसी बहादुर अफसर ने मिटा दिया था. जबकि नथुआपुर कांड में शामिल रहे छबिराम गैंग को उस समय मैनपुरी के एसएसपी रहे (यूपी के पूर्व पुलिस महानिदेशक) आईपीएस करमबीर सिंह ने मिटा दिया था.
सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के रिटायर्ड महानिदेशक और दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर आईपीएस अजय राज शर्मा ने जब भारत के किसी राज्य पुलिस (उत्तर प्रदेश) को पहली स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) सौंपी तो, उसके पहले आईजी (महानिरीक्षक) की बागडोर भी इसी दबंग के हाथों में थमाई थी. जानते हैं कौन है यह दबंग और पुलिस महकमे में हमेशा साफगोई के लिए मशहूर? उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह. वही विक्रम सिंह जिन्होंने, किसी के रहम-ओ-करम पर नहीं बल्कि खुद की जिदांदिली के बलबूते 35 साल से ज्यादा आईपीएस की नौकरी की. और 31 मई सन् 2010 को रिटायर हो गए. वही तेज-तर्रार पूर्व आईपीएस डॉ. विक्रम सिंह जो आज नोएडा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के प्रो. चांसलर हैं.
(लेखक वरिष्ठ और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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