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मां का एक वह झूठ! जिसने मनमौजी लड़के को दिल्ली पुलिस में ‘खानदानी-कोतवाल’ बनाकर छोड़ा

लड़के को काबिल बनाने के सपने संजोए घर वालों ने जब उससे दिल्ली पुलिस में भर्ती होने को कहा तो, वह दिल्ली शहर ही छोड़कर भाग गया. पहुंचा लखनऊ में रह रही मां विद्यावती सक्सेना के पास. इस उम्मीद में कि शायद, दिल्ली पुलिस में भर्ती होने से मां बचा लेगी

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

हर इंसान की जिंदगी में अल्हड़पन का कुछ वक्त जरूर आता है. उस उम्र की शैतानियां, नादानियां, मौज-मस्ती तमाम उम्र याद रहती हैं. इस बार 'संडे क्राइम स्पेशल' में हम आपको बीते कल के एक ऐसे ही हरफनमौला इंसान से मिलवा रहे हैं, जवानी में जिसकी जिंदगी का मकसद सिर्फ और सिर्फ मौज-मस्ती था. उस उम्र में  जिसे (1960 के दशक में) दिल्ली पुलिस की नौकरी के नाम से नफरत थी. लड़के को काबिल बनाने के सपने संजोए घर वालों ने जब उससे दिल्ली पुलिस में भर्ती होने को कहा तो, वह दिल्ली शहर ही छोड़कर भाग गया. पहुंचा लखनऊ में रह रही मां विद्यावती सक्सेना के पास. इस उम्मीद में कि शायद, दिल्ली पुलिस में भर्ती होने से मां बचा लेगी.

मां चार कदम आगे निकलीं. मां ने बेटे के कंधों पर अपने अरमानों को फलीभूत होते देखने का वो रास्ता अख्तियार किया कि, सांप भी मर गया और लाठी भी टूटी नहीं. मां के फॉर्मूले पर कालांतर में यही अल्लहड़ दिल्ली पुलिस में बहैसियत थानेदार भर्ती हुआ. 40 साल की नौकरी के बाद दिल्ली में असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर (एसीपी) के पद से रिटायर होने के बाद उसी मनमौजी लड़के के सिर ‘खानदानी-कोतवाल’ होने का सेहरा बंधा. हम उसी मस्तमौला युवक की यहां चर्चा कर रहे हैं जिसका नाम है दिल्ली पुलिस से रिटायर सहायक पुलिस आयुक्त (एसीपी) अशोक कुमार सक्सेना.


सन् 1948 में यूपी के अलीगढ़ जिले का मऊ गांव

थाना अकराबाद की तहसील सिकंदराराऊ में रघुनाथ सहाय रहते थे. कालांतर में रघुनाथ सहाय के दो बेटे मनोहर लाल सक्सेना और छन्नू लाल सक्सेना हुए. मनोहर लाल जब 13-14 और छन्नू लाल 8-10 साल के थे, तभी उनके सिर से पिता का साया उठ गया. मां और छोटे भाई, दो बहनों का बोझ 14 साल के बालक मनोहर लाल सक्सेना के कंधों पर आ गया. परिणाम यह हुआ कि, पढ़ाई-लिखाई की उम्र (14 साल) में मनोहर लाल ने दो जून की रोटी के जुगाड़ में मेहनत-मजदूरी छोटी-मोटी जो मिल गई, नौकरी करनी शुरू कर दी. पिता तुल्य बड़े भाई मनोहर लाल ने सोचा कि, छोटा भाई छन्नू लाल पढ़-लिख गया, तो दुनिया के झंझावतों से बच जाएगा.

सरदार पटेल के गृहमंत्री बनते ही पलट गई किस्मत

बड़े भाई की जिम्मेदारियों को पूरा करते हुए मनोहर लाल सक्सेना ने जैसे भी बन पड़ा, दोनो बहनों की शादी की. बड़े भाई की तपस्या का प्रतिफल छोटे भाई छन्नू लाल सक्सेना को मिला. छन्नू लाल उत्तर प्रदेश पुलिस में थानेदार (सब-इंस्पेक्टर) बन गए. जब छन्नू लाल की जिंदगी पटरी पर आ गई, तो उन्होंने बड़े भाई मनोहर लाल सक्सेना के बेटे ओम प्रकाश सक्सेना (दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड सहायक पुलिस आयुक्त अशोक कुमार सक्सेना के पिता) की जिंदगी संवारने की जिम्मेदारी खुद-ब-खुद कंधों पर ले ली. उसी दौर में सरदार बल्लभ भाई पटेल हिंदुस्तान के गृहमंत्री बन गए. पटेल के गृहमंत्री बनते ही सक्सेना परिवार की किस्मत पलट गई.

सरदार पटेल छन्नू लाल सक्सेना को उत्तर प्रदेश पुलिस से दिल्ली पुलिस में ले आए. दिल्ली पुलिस में पहुंचने के बाद छन्नू लाल सक्सेना ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. डिप्टी एसपी बने. नई दिल्ली के सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस (एसपी) रहे. छन्नू लाल के पोते (बड़े भाई मनोहर लाल के बेटे ओम प्रकाश सक्सेना के पुत्र) अशोक कुमार सक्सेना (दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड एसीपी) बताते हैं.

मैनपुरी शिकोहाबाद में महाबीरा गैंग ढेर करने के बाद यूपी के पूर्व गवर्नर बी.एस. दास से सन् 1965 में सम्मानित होते हुए अशोक सक्सेना के पिता ओम प्रकाश सक्सेना

चाचा को देख भतीजे ने भी पुलिस में किस्मत आजमाई

बकौल अशोक कुमार सक्सेना, ‘चाचा छन्नू लाल का पुलिस में रुतबा देखकर पिता ओम प्रकाश सक्सेना भी उत्तर प्रदेश पुलिस में सब-इंस्पेक्टर बन गए. सन् 1964-65 में शिकोहाबाद के पुलिस सर्किल अफसर (सीओ) रहते हुए ओम प्रकाश सक्सेना ने कई घंटे की मुठभेड़ में कुख्यात डाकू महाबीरा को ढेर कर दिया. पिता ओमप्रकाश गाजियाबाद जिले में रहते हुए डिप्टी एसपी के पद से रिटायर हुए. उधर चाचा छन्नू लाल सक्सेना के बड़े बेटे शील कुमार सक्सेना भारतीय सेना छोड़कर दिल्ली पुलिस में डायरेक्ट इंस्पेक्टर बन गए. यह बात है सन् 1950 की.’

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बाद में दिल्ली पुलिस में रहते हुए शील कुमार एसीपी सदर, एडिश्नल डीसीपी नई दिल्ली, डीसीपी विजीलेंस भी रहे. बकौल अशोक सक्सेना, ‘शील साहब को उस जमाने में आईपीएस निखिल कुमार और एमबी कौशल (दोनो दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर) ‘बड़े-साहब’ कहकर बुलाते थे. चाचा शील कुमार सक्सेना ही मेरी जिंदगी संवारने की उम्मीद में सन् 1969 में मुझे अपने साथ दिल्ली ले आए.’ गर्व से बताते हैं अशोक कुमार सक्सेना.

दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड अफसर चाचा शील कुमार सक्सेना के साथ खानदानी कोतवाल अशोक सक्सेना

वो बोले दिल्ली में दारोगा बन जाओ, मैं लखनऊ भाग गया

‘दिल्ली पहुंचते ही शील चाचा बोले कि दिल्ली पुलिस में सब-इंस्पेक्टर (दारोगा) की वैकेंसी निकली है. फार्म भर दो. चाचा के इरादे भांपते ही मैं बहाना बनाकर मां के पास लखनऊ चला गया. इस उम्मीद में, मां शील चाचा को समझा देंगी कि, अशोक पुलिस की नौकरी करने का इच्छुक नहीं है. मेरे स्वभाव और अल्हड़ इरादों से वाकिफ मां ने उस वक्त मुझसे कुछ नहीं कहा. इसके कुछ दिन बाद ही हमारे पारिवारिक मित्र आईपीएस सरदार बी.जे.एस. स्याल (अब रिटायर्ड डायरेक्टर जनरल नेशनल सिक्योरिटी गार्ड) का मुझे फोन आया.

मां के उस झूठ ने मुझे खानदानी-कोतवालबना दिया

स्याल अंकल बोले ‘दिल्ली पुलिस में भर्ती होना इज्जत की बात है. कोशिश करो अगर सलेक्ट हो गए तो जिंदगी बन जाएगी. अभी तुम्हारी उम्र 22 साल ही तो है. दिल्ली पुलिस की थानेदारी में मन न लगे तो छोड़कर कोई और नौकरी जॉइन कर लेना.’ स्याल अंकल की बात मानकर मैंने दिल्ली पुलिस में सब-इंस्पेक्टरी का फार्म भर दिया. खैर 22 अक्टूबर 1969 को मैं दिल्ली पुलिस का दारोगा बन गया. पहले से ही पुलिस में मौजूद पिता (ओम प्रकाश सक्सेना रिटायर्ड डिप्टी एसपी यूपी पुलिस), चाचा (शील कुमार सक्सेना रिटायर्ड एसएसपी दिल्ली), और बाबा (छन्नू लाल सक्सेना रिटायर्ड एसपी दिल्ली पुलिस) की तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा.

पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से हाथ मिलाते अशोक कुमार सक्सेना के चाचा पूर्व पुलिस अधिकारी शील कुमार सक्सेना

जब मैं दिल्ली पुलिस में दारोगा बन गया तो पता चला कि, स्याल अंकल से मुझको दिल्ली पुलिस में भर्ती के लिए फोन कराने वाली ‘रणनीति’ मां ने बनाई थी.’ यादों के पन्नों में दर्ज बीती जिदंगी के तमाम खट्टी-मीठे अनुभवों को सुनाते हुए ठहाका मारकर हंस पड़ते हैं दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड एसीपी अशोक कुमार सक्सेना.

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दिल्ली के दारोगा के पुलिस में लाजबाब 40 साल

‘बाबा (दादा), पिता, चाचा और फिर मैं. बिना किसी हील-हुज्जत के कह सकता हूं कि मैं ‘खानदानी-कोतवाल’ तो बन ही चुका था. जहां तक याद आ रहा है, उस वक्त दिल्ली में 7-8 जिले थे. दिल्ली पुलिस में कमिश्नरी सिस्टम लागू नहीं था. दिल्ली के पुलिस महानिरीक्षक (इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस) थे एल.एस. बिष्ट. दारोगा बनते ही पहली पोस्टिंग मिली आर.के. पुरम थाने में. उसके बाद वसंत विहार, साकेत, ओखला, अमर कालोनी (अब सब थाने बन चुके हैं) में चौकी-इंचार्ज रहा. 17 साल बाद प्रमोट होकर जनवरी 1986 में इंस्पेक्टर बना. पोस्टिंग हुई दिल्ली पुलिस की प्रधानमंत्री सुरक्षा विंग में. इसके बाद सुलतानपुरी, हौजखास, रूप नगर, गीता कालोनी थाने का एसएचओ रहा.

कुछ समय दिल्ली पुलिस की एंटी करप्शन शाखा में तैनाती के बाद उत्तरी दिल्ली जिले में कोतवाली का ‘कोतवाल’ बना दिया गया. 2005 फरवरी में सहायक पुलिस आयुक्त (एसीपी) बना. बतौर असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर पहली पोस्टिंग मिली उत्तरी दिल्ली जिला मुख्यालय प्रमुख के रूप में. इसके बाद सदर बाजार, उत्तरी दिल्ली जिले की ऑपरेशन सेल में एसीपी रहा. 30 अक्टूबर सन् 2008 को दरियागंज एसीपी रहते हुए दिल्ली पुलिस से रिटायर हुआ.’ करीब 40 साल की दिल्ली पुलिस सर्विस की यादें बेबाकी से बता-सुना जाते हैं खानदानी कोतवाल अशोक कुमार सक्सेना.

पूर्व गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी से सम्मानित होते अशोक सक्सेना, साथ में दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड कमिश्नर अजय राज शर्मा और वाई एस डडवाल

दिल्ली पुलिस के दस्तावेजों में दर्ज यादगार पड़ताल

‘सन् 1973 में देश को हिला देने वाले विद्या जैन हत्याकांड की पड़ताल से मैंने सीखा कि, ‘पुलिस और पड़ताल’ हकीकत में क्या और कितनी महत्वपूर्ण होती है. विद्या जैन हत्याकांड का मामला डिफेंस कालोनी थाने में दर्ज हुआ था. उसकी जांच में लोधी कालोनी थाने के एसएचओ प्रभाती लाल भी शामिल थे. 1983 में थाना बदरपुर की ओखला चौकी इंचार्ज था. उसी दौरान एक आईपीएस (अब रिटायर्ड) के साले का दिन-दहाड़े गोली मारकर तुगलकाबाद शूटिंग रेंज के पास मर्डर कर दिया गया. मेरी ही पड़ताल पर उस केस में मुख्य आरोपी को उम्रकैद की सजा हुई.

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मेरी करीब 40 साल की पुलिस नौकरी में 21 पुलिस कमिश्नर बदल गए. मेरे रिटायरमेंट के वक्त युद्दवीर सिंह डडवाल पुलिस आयुक्त थे. जुलाई 1985 में जब मैं अमर कालोनी चौकी इंचार्ज था, उस वक्त स्पीच थैरेपिस्ट आरती वेंकटरमन हत्याकांड हो गया. वो भी अदालत में अंजाम तक पहुंचाया.’ दिल्ली पुलिस सर्विस की यादों की फाइलों के पन्ने पलटते हुए बताते हैं अशोक कुमार सक्सेना. वहीं अशोक सक्सेना जो, कभी दिल्ली पुलिस में भर्ती होने से बचने के चक्कर में दिल्ली शहर ही छोड़कर भाग गए थे.

थानेदारी में हासिल तोहफेजिनका मोल नहीं

‘40 साल की पुलिस सेवा में जो बेशकीमती तोहफे मैंने हासिल किए, मेरी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी वह जस-के-तस कीमती ही रहेंगे.’ अशोक सक्सेना कई बार मन को झकझोरने वाले वाकयात बांटते हुए बताते हैं. अशोक सक्सेना जब एसएचओ रूप नगर थे, उस समय उन्हें आमजन (पब्लिक) का जो प्यार मिला. वो आज भी याद है. कई अफसरों को (आईपीएस) जिन्होंने अशोक सक्सेना के अंडर में थानेदारी (थाने की ट्रेनिंग कामकाज) सीखी वे अब डीसीपी, ज्वाइंट सीपी, स्पेशल पुलिस कमिश्नर बन चुके हैं. इन्हीं में हैं आईपीएस विवेक गोगिया, पुष्पेंद्र, करुणाकरण, पी. कामराज (पुन्नू स्वामी कामराज).

उनके मुताबिक, ‘एक बार दिल्ली के मावलंकर हॉल में आईपीएस पी. कामराज पुलिस वालों को लेक्चर दे रहे थे. मैं भी वहां शामिल था. उन्होंने पब्लिकी कहा कि, मैंने तो अशोक सक्सेना से खुद ही लेक्चर लिया है. आप सब इनका लेक्चर सुनें तो बेहतर होगा. जबकि विवेक गोगिया जब रूप नगर थाने में ट्रेनिंग लेने पहुंचे तो मैं उन्हें थाने का फुल-फ्लैश चार्ज देकर घरेलू काम से अवकाश पर चला गया था. बताते हैं अशोक सक्सेना. एक पुलिस अफसर को भला इससे बड़ा और क्या तोहफा चाहिए ?

खानदानी कोतवाल अशोक कुमार सक्सेना (बाएं) साथ में महिला आईपीएस गरिमा भटनागर, पत्नी कल्पना और बेटी गुंजन (दाएं) के साथ

वो ग़म जो सैकड़ों खुशियां एक लम्हे में लील गया

दो बेटियों शिल्पिका सक्सेना (कीनिया में), गुंजन सक्सेना और पुत्र अमन सक्सेना, पुत्रवधू प्रियंका सक्सेना, पोता-पोती सहित भरे-पूरे परिवार के मुखिया होने के बाद भी अशोक कुमार सक्सेना की जिंदगी में एक टीस और खालीपन है. वह खालीपन जिसे कल का यह ‘खानदानी-कोतवाल’ अपनी तमाम उम्र की कमाई लुटाकर भी नहीं भर पा रहा है. और वह खालीपन है जीवन संगिनी कल्पना सक्सेना का 16 जनवरी 1974 से चला आ रहा साथ, आंखों के सामने-सामने एक झटके में 14 मई 2013 को छोड़ जाना. एक अदद सदमे की आड़ (दिल्ली वाले फ्लैट में हुई बड़ी चोरी) में हासिल हुई अनाम-लाइलाज बीमारी का बहाना लेकर.