कोर्ट-कचहरी, थाना-पुलिस, फांसी, जज-जेल, पुलिस मुठभेड़ और चंबल का बीहड़. इन अल्फाजों के जेहन में आते ही अच्छे-अच्छों को पसीना आ जाता है. हम आपको एक ऐसे इंसान से मिलवा रहे हैं, जिसकी जिंदगी के सच की कहानी लिखी ही इन्हीं अल्फाजों के बलबूते गई है. इस इंसान का इन शब्दों से तमाम-उम्र दोस्ती और अपनेपन का सा ही रिश्ता कायम रहा है.
चंबल के बीहड़ से जेल पहुंचने पर इसी शख्स ने मध्य-प्रदेश पुलिस के एक एसपी/डिप्टी एसपी को मुठभेड़ (एनकाउंटर) की खुली चुनौती जेल की चार-दिवारी के भीतर ही दे डाली थी. यही वो इंसान भी है जो, सन् 1960 के दशक में अपनी गिरफ्तारी पर पुलिस का सबसे महंगी (दो लाख का इनामी) रकम का बोझ ढोकर, कई साल तक चंबल के बीहड़ों में पुलिस को अपने पीछे भटकाता रहा. इस ‘संडे क्राइम स्पेशल’ में हम आपको मिला रहे हैं कभी आतंक के पर्याय रहे उसी पूर्व खूंखार बागी (डाकू) मोहर सिंह गुर्जर उर्फ दद्दा से.
1960 के दशक की चंबल घाटी से संबंध
चंबल घाटी में जब मान सिंह राठौर, तहसीलदार सिंह (मानसिंह और तहसीलदार पिता-पुत्र), डाकू रूपा, लाखन सिंह, गब्बर सिंह, लोकमान दीक्षित उर्फ लुक्का पंडित, माधो सिंह (माधव), फिरंगी सिंह, देवीलाल, छक्की मिर्धा, रमकल्ला और स्योसिंह (शिव सिंह) जैसे खूंखार बागी-गैंग (डकैत और उनके गिरोह) अपने चरम या फिर खात्मे (उतार/ समाप्ति) की ओर थे. डाकू फिरंगी सिंह, देवीलाल और उसका पूरा गिरोह, छक्की मिर्धा और गैंग, स्यो सिंह और रमकल्ला मारे जा चुके. उसी वक्त सन् 1958 में एक नौसिखिया मगर उस जमाने का सबसे ज्यादा खतरनाक और खून-खराबे पर उतरा बागी (डाकू) मोहर सिंह चंबल के बीहड़ में बंदूक लेकर कूदा था. पुराने गैंगों की चिंता किए बिना मोहर सिंह ने 150 से ज्यादा खूंखार डाकूओं को अपना गिरोह चंबल घाटी में उतार दिया.
श्रापित चंबल का बीहड़ और जिंदगी का वो पहला कत्ल
इतिहास गवाह है कि, चंबल की जमीं ने अपने घने कांटेदार बबूल के साए में सैकड़ों डाकूओं को पनाह दी. चंबल घाटी ने अनगिनत दुश्मन पहले तो पाल-पोसकर बड़े किए. फिर उन्हीं दुश्मनों ने दुश्मन और दुश्मनी को बंदूकों के बलबूते नेस्तनाबूद करके चंबल की गहरी डरावनी घाटियों में हमेशा-हमेशा के लिए जमींदोज कर दिए. फिर भला ऐसी श्रापित चंबल के असर से कभी गांव के अखाड़े में अल-सुबह ‘जोर’ (पहलवानी) करने वाला बीते कल का हट्टा-कट्टा गबरू जवान मोहर सिंह गुज्जर भी कैसे बच पाता? भिंड जिले के महगांव में रह रहे चंबल घाटी के इस पूर्व बागी के मुताबिक पुश्तैनी जमीन को लेकर कुछ लोगों ने उन्हें पीट दिया. बदले में मोहर सिंह ने दुश्मन को गोलियों से भून डाला. इसके बाद बंदूक उठाई और बागी होकर चंबल के जंगल में कूद गया. बाद में यही मोहर सिंह गुज्जर उस एक अदद कत्ल की बदौलत चंबल घाटी के उस वक्त के सबसे खूंखार डाकू मानसिंह राठौर के बाद दूसरे नंबर के क्रूर बागी की कुर्सी पर काबिज हो गया.
वो बंदूक जिसने चंबल में कोहराम मचा दिया
चंबल में मोहर सिंह की बंदूक गरजी तो उसकी आवाज से तीन राज्यों (उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य-प्रदेश) की पुलिस के कान बहरे होने लगे. पुलिस चंबल में एक ओर मोहर गैंग से लोहा ले रही होती, तब तक गैंग के दूसरे सदस्य चंबल के ही किसी और कोने में पुलिस वालों को ढेर करके जा चुका होता. यूं तो चंबल घाटी में मौजूद तमाम गिरोह के सरगनाओं के कानों में भी मोहर सिंह गैंग के हथियारों की तड़तड़ाहट पहुंची, मगर मोहर सिंह गैंग का लोहा सबसे पहले माना चंबल में उस वक्त दो नंबर की कुर्सी पर काबिज माधो सिंह (माधव उर्फ माधो सिंह पूर्व फौजी बागी) ने. माधो-मोहर गैंग की दोस्ती ने चंबल के बीहड़ में कहर बरपा कर पुलिस के होश फाख्ता कर दिए.
कत्ल कम किये, पुलिस ने मोहर के सिर ज्यादा मढ़ दिए
मोहर सिंह के मुताबिक बागी रूप में चंबल के जंगल में रहते हुए उन्होंने और उनके गैंग ने ज्यादातर पुलिस वाले और पुलिस-मुखबिर ही गोलियों से भूने थे. 84 साल की उम्र में अब कत्लों की सही संख्या तो याद नहीं, मगर 15-20 हत्याओं की याद है मोहर सिंह को. जबकि पुलिस रिकॉर्ड में मोहर सिंह और उनके गैंग के नाम 80 से ज्यादा हत्याएं और 350 से ज्यादा लूट. अपहरण, डकैतियां और हत्या की कोशिशों के मामले दर्ज रहे.
डाकू, जिसकी गोली ‘फैसला’ और आवाज ‘कानून’ बनी!
चंबल के दिनो की यादों को बांटते हुए मोहर सिंह बताते हैं कि, ‘जब मैं चंबल में कूदा उस वक्त उम्र बहुत कम थी. उम्र के हिसाब से समझ भी कम रही. अगर यह कहूं कि ‘दिमाग’ से जीरो और दिलेरी में हीरो था तो गलत नहीं होगा. सोचा कि घाटी में किसी बड़े गैंग में पहले शामिल होकर महारत हासिल कर लूं, मगर किसी गैंग ने नौसिखिया और छुटभैय्या होने के कारण सीधे मुंह बात नहीं की. बाद में उस जमाने में 150 आदमी का अपना खुद का गैंग खड़ा कर दिया. मोहर सिंह गैंग पर उस समय का सबसे ज्यादा 12 लाख इनाम पुलिस ने घोषित कर दिया. मेरे सिर पर दो लाख का इनाम घोषित करके पुलिस ने मुझे चंबल का सबसे महंगा वांछित/भगोड़ा डाकू (बागी) बना डाला. बस इस सबके बाद ही बाकी बागी और उनके गिरोह की समझ में आ गया कि, चंबल के जंगल में अब मोहर सिंह की आवाज ही फैसला होगी और मोहर सिंह गैंग की बंदूकों की गोली चंबल का कानून होगा.’
इसलिए मैं आज जिंदा हूं और गैंग भी बचा रहा था
चंबल बीहड़ के इस पूर्व खूंखार दस्यु सरगना के मुताबिक, ‘मैं आज तक जिंदा बचा हुआ हूं या मेरा गैंग कभी भी पुलिस की गोलियों की भेंट चढ़कर नेस्तनाबूद नहीं हो सका. इसकी एक प्रमुख वजह है कि, मैंने और मेरे गैंग ने कभी भी किसी औरत (मां-बहन-बेटी) के साथ बदसलूकी नहीं की. गैंग के सदस्यों को हिदायत थी कि, जो भी बागी/डाकू किसी औरत के संपर्क में जाएगा उसे गोली से उड़ा दिया जाएगा. आज भी मेरा नाम समाज में लोग इसी वजह से इज्जत के साथ लेते हैं.’
चंबल का पन्ना जो मोहर से पहले कोई नहीं लिख सका
चंबल घाटी के अच्छे-बुरे इतिहास में एक पन्ना जोड़ने का पूरा श्रेय बीते कल के इसी खूंखार डाकू मोहर सिंह और उसके साथी डाकू नाथू सिंह को जाता है.
मोहर के मुताबिक, - ‘चंबल घाटी में डाकू/बागी सैकड़ों आए-गए. किसी भी गैंग या डाकू सरगना ने मगर चंबल के बीहड़ में बैठकर दिल्ली के किसी रईस की ‘पकड़’ (अपहरण) करने की हिम्मत कभी नहीं जुटाई. मैंने उस जमाने के दिल्ली कुख्यात चोरी की मूर्तियों के तस्कर को प्लानिंग के तहत डाकू नाथू सिंह के साथ मिलकर (सन् 1972 में सरेंडर के बाद डाकू नाथू सिंह ग्वालियर जेल में मोहर सिंह के साथ कैद भी रहे) दिल्ली से ग्वालियर (हवाई जहाज से) बुलाया. फिर ग्वालियर से चंबल के बीहड़ में बुलाकर बंधक बना लिया. चंबल के इतिहास में ऐसा अपहरण पहले कभी नहीं हुआ न आज तक भी कोई कर पाया है. 26 लाख फिरौती वसूलने के बाद ही उस मूर्ति तस्कर और उसके साथी को जंगल से रिहा किया.’
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मोहर सिंह के मुताबिक, पूरे भारत की पुलिस और चंबल से दिल्ली तक की सरकारी मशीनरी को खुली चुनौती देकर हिला देने वाली अपहरण की इस घटना को हमारे गैंग ने सन् 1965 में अंजाम तक पहुंचाने की हिम्मत दिखाई थी.
चंबल के जंगल ने मुसीबतों में जीतना सिखा दिया
पूर्व दस्यु सरगना के शब्दों में, - ‘बीहड़ में उतरा तो कम-उम्र, कम-अक्ल और जिद्दी था. 14 साल तक चंबल के बीहड़ की जिंदगी ने जीना सिखा दिया. पुलिस से हुई मुठभेड़ों ने मुसीबत में भी दिलेरी के साथ दिमाग से काम लेने का हुनर सिखाया. रोज-रोज कीड़े-मकोड़ों की मानिंद इंसानों की हत्याओं से आजिज आ गया. माथे पर कलंक, लोगों की बद्दुआओं के सिवाए और कुछ जिंदगी में हासिल होता नहीं दिखा. 1960 के आसपास विनोबा भावे डाकू लोकमान दीक्षित उर्फ लुक्का पंडित (मानसिंह राठौर गैंग का राइट हैंड) का सरेंडर करा चुके थे. चंबल में मिले और बाद में जिगरी दोस्त साबित हुए डाकू माधो सिंह एक दिन हमारे ‘अड्डे’ पर आए. उनके मश्विरे पर सन् 1972 में जौरा के गांधी मैदान (आश्रम) में 500 से ज्यादा बागियों (डाकू) के साथ मैंने जयप्रकाश नारायण की गोद में अपने हथियार डालकर ‘सरेंडर’ कर दिया.
जेल में खुलेआम खाया मुर्गा-मटन-देसी घी
सरेंडर के बाद दद्दा माधो सिंह, नाथू सिंह और सरु सिंह (सभी बागी) के साथ सैकड़ों बागी ग्वालियर जेल ले लाए गए. जेल में ही अदालत लगती थी. 15 महीने ग्वालियर जेल में रहा. 8 महीने नरसिंहगढ़ जेल और उसके बाद मुगावली (खुली जेल) में बंद रहा. सरेंडर के बाद जब हम जेल ले जाए जा रहे थे तो, पुलिस की 50-60 बड़ी-बड़ी गाडियां आगे पीछे चल रही थीं. आगे पीछे चल रही गाड़ियों को देखकर सोचा कि चलो बीहड़ के भीतर न सही बाहर ही सही पुलिस लाड़-प्यार से तो पेश आ रही है.
जेल के भीतर लगी अदालत में जब सन्नाटा छा गया!
जेल में लगी अदालत में मुझे फांसी (सजा-ए-मौत) और साथ में 10 हजार का जुर्माना भी जज ने सुना दिया. अदालत (जज) का वो फैसला मुझे अजीब लगा. मैंने अदालत से कहा- ‘साहिब जब मैं फांसी पर लटका दिया जाऊंगा तो तुम्हारा 10 हजार का जुर्माना कौन भरेगा. मेरे घर वालों के पास 10 हजार का इंतजाम नहीं है.’ मेरा तर्क सुनते ही अदालत में सन्नाटा पसर गया.
पुलिस को जेल दरवाजे पर दे दी एनकाउंटर की चुनौती
सरेंडर के बाद एक दिन जेल में उस समय जिला मुरैना (मध्य प्रदेश) के डिप्टी एसपी या एसपी (याद नहीं पूरी तरह से) ग्वालियर जेल पहुंचे थे. वो डिप्टी एसपी मुझसे जेल की देहरी पर बोला- ‘मोहर सिंह आठ दिन और मिल गए होते तो हम तुम्हें जेल के बाहर ही मार लेते या पकड़ लेते. मैंने उस डिप्टी को चुनौती दे दी – ‘अब क्या बिगड़ गया है. चलो अब कर लो मुठभेड़. पहले जेल के बाहर रहते हुए तुमसे (पुलिस) जिदंगी भर सैकड़ों मुठभेड़ हुईं, तब तो तुम मोहर सिंह की शक्ल तक देखने को तरस गए. अब जब हमने सरेंडर कर दिया तो तुम एनकाउंटर और पकड़ लेने की गीदड़ भभकी दे रहे हो.’
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जब जेल सुपरिंटेंडेंट पर जेल के अंदर ही हमला बोल दिया
एक जेल सुपरिंटेंडेंट ने ऐसे हालात जेल के अंदर पैदा कर दिए कि, हम लोगों (बागियों) को उसकी पिटाई कर देनी पड़ी. मामला इस कदर उछला कि, बात सूबे के मुख्यमंत्री तक पहुंची. मुख्यमंत्री ने जेल स्टाफ को समझाया कि, यह सब खूंखार बागी हैं. बड़ी मशक्कत के बाद जैसे-तैसे इन्हें अभी जंगल (चंबल बीहड़) से बाहर लाया गया है. जेल स्टाफ धीरज रखे धीरे-धीरे या बागी खुद-ब-खुद ही सुधर जाएंगे.
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