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DP की DIARY (Part 3): 'अब ‘विकास’ की उम्मीद नहीं, करोड़ों की ‘विरासत’ किसे सौंपूं?'

मर्डर केस में जेल में बंद डीपी यादव की कहानी और उनकी डायरी के अंश

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

‘कभी तिहाड़ और कभी देहरादून की सुद्धोवाला जेल के चक्कर काटते जैसे-तैसे जिंदगी बसर कर रहा हूं. बदतर हालातों की भीड़ में थकान तो महसूस करता हूं, लेकिन मैं अभी थकना नहीं चाहता. जेल की चार-दीवारी के अंदर बैठकर भी, मुझे खुद की डायरी लिखने के पीछे की असल ताकत शायद यही हो. जेल की कोठरी में इंसान कैद रहता है. सलाखों में अनुभव कर रहा हूं कि ब्रह्माण्ड में इंसान की जुबान तो बंद की जा सकती है. उसकी सोच पर पाबंदी लगा पाना नामुमकिन सा है! कैद में कभी-कभी सोचता हूं कि आखिर वो कौन सी दैवीय शक्ति है जो मुझे, मेरे सिर पर दो-दो भाईयों की असमय मौत, नौजवान बहनोई की हत्या का बोझ ढोने की ताकत दे रही है? यह भी कटु सत्य है कि आज मैं सलाखों में बैठा सोचता हूं कि मेरे पास करोड़ों की विरासत तो है, मगर इस विरासत को आखिर सौंपूं किसके हाथों में?'

पढ़िए ‘DP की DIARY’ PART-3 में. बजरिए 'संडे क्राइम स्पेशल' की इस खास किश्त के. बिना किसी अपराध और अपराधी के महिमा-मंडन के. सजायाफ्ता द्वारा ही जेल में लिखी गयी डायरी (जेल संस्मरण) और इलाज के लिए चंद दिन को जेल से बाहर आने पर उनसे हुई बातचीत के आधार पर.


कश्मीर में जिंदगी का करिश्मा

दिल्ली की तिहाड़ जेल 4 जून सन् 2017:  ‘किस्सा 1980 के आसपास का है. जनवरी का महीना था. कश्मीर घाटी बर्फ में दबकर पूरी तरह सफेद झक दिख रही थी. मैं गाजियाबाद से श्रीनगर (कश्मीर) जा रहा था. कार खुद ड्राइव कर रहा था. साथ में थे हमनवां सतीश शर्मा, वीर सिंह और हरीश खन्ना. चारों ओर घना सफेद बर्फीला कोहरा था. बनिहाल से कुछ पहले मेरी कार का अगला पहिया बर्फ के गढ्ढे में जा घुसा. ब-मुश्किल कार को उठाकर बाहर निकाला. एक बार को तो लगा था कि जिंदगी खत्म हो गई. रात को अनंतनाग के सरकारी गेस्ट हाउस में जाकर ठहर गए. उस रात हम सबने चरस भरी सिगरेट पी ली. ज्यादा चरस के कारण रात को सतीश शर्मा की तबियत खराब हो गई. हम सब घबरा गए. दूसरी बार मौत ने हमें श्रीनगर के एक गांव में रात के वक्त घेर लिया. ठंड से बचने के लिए हम सब कांगड़ी (कश्मीर घाटी में ठंड से बचने के लिए इस्तेमाल में आने वाली विशेष डिजाइन की गर्म-अंगीठी) के पास सो गया. हाड़तोड़ ठंड से बचने के लालच में कांगड़ी को रजाई के भीतर छिपा लिया. रात में कांगड़ी रजाई के अंदर पलट गई, जिससे आग लग गई. यानी खूबसूरत कश्मीर में बदसूरत मौत से दो-तीन बार मुकाबला हुआ.’

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मैं माफिया! वे अरबों की दारू डकार के भी ‘शुद्ध’!

‘मैं मानता हूं कि सरकारी ठेकेदार होने के बाद भी मेरे माथे पर 'शराब-माफिया' का काला 'टैग' लगा है. ऐसे में कोफ्त इस बात की होती है कि जब, अरबों की दारू पीने वाले माफिया नहीं तो फिर, सरकारी शराब बेचने वाला ‘माफिया’ कैसे और क्यों? चलिए छोड़िए इस वाहियात मुद्दे को. आगे बात करता हूं सन् 1996, 97 और 1998 के आसपास की. जब मैं लोकसभा में सांसद था. इटावा कुनबा और कभी उस परिवार के सबसे खास सलाहकार रहे (अब पार्टी और इटावा कुनबे से बाहर निकाल फेंके गए) सिंह साहब मुझे करीब-करीब निपटा ही चुके थे. मेरे और इटावा कुनबे की बीच टकराव की बात जग-जाहिर हो चुकी थी.’

पत्नी और यूपी की पूर्व MLA उमलेश के साथ डीपी यादव

नहीं पढ़ सका ‘राजनीति’ का ‘काला-सच’

‘किस्सा उन दिनों का है जब, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार एक मत की कमी के चलते संसद में हार चुकी थी. उसके साथ ही देश में लोकसभा चुनाव की घोषणा हो गई. बीएसपी से अब तक मेरी अनबन हो चुकी थी. उसके बाद ही मेरे दिल्ली स्थित 15 बलवंत राय मेहता लेन वाले एम.पी. हाउस (सांसद निवास) पर एसपी कुनबा मय ठाकुर साहब सहित मुझे पार्टी में शामिल करने आ पहुंचा, मेरे करीब 5 हजार समर्थकों की मौजूदगी में. एसपी प्रमुख ने उस दिन सार्वजनिक रूप से वहीं घोषणा की कि संभल लोकसभा सीट से डीपी यादव चुनाव लड़ेंगे. राजनीति क्या होती है? कैसे होती है? यह मेरे पल्ले तब पड़ा जब, मेरे नाम की घोषणा करके संभल लोकसभा सीट से उस जमाने में इटावा कुनबा प्रमुख खुद इलेक्शन लड़ने के लिए पर्चा दाखिल कर आया.’ सर्फाबाद गांव के गलियारों से होते हुए संसद और फिर वहां से सलाखों के अंदर पहुंचने तक के सफर के बारे में इस लेखक द्वारा पूछे जाने पर ख़ुमार बाराबंकवी की दो लाइनें सुनाकर शांत हो जाते हैं डीपी....

‘हटाये थे जो राह से दोस्तों की, वो पत्थर मेरे फर में आने लगे हैं

हवाएं चलीं और न मौजें ही उठीं, अब ऐसे भी तूफ़ान आने लगे हैं’

भाई के कत्ल की सीबीआई जांच नहीं करा सका!

‘मेरे साथ यह सब तमाशा चल ही रहा था कि 9-10 दिन बाद गाजियाबाद में मेरे बड़े भाई महाशय राम सिंह यादव की गोली मारकर हत्या कर दी गई. जानता तो हूं मगर पुष्टि न होने के कारण मैं रामसिंह की हत्या में शामिल नेताओं के नाम नहीं लेना चाहता. हां इतना जरूर है कि जो लोग राम सिंह को मार गए वे मुझे मारना चाहते थे. मैं उस दिन गाजियाबाद वाले घर पर नहीं था. अगर मैं उस दिन मौजूद होता तो, कोई न कोई निर्णायक फैसला जरूर होता. या तो मैं मारा जाता या फिर हत्यारे अपने पांवों पर चलकर वापिस नहीं जाते! कहने को राम सिंह की शोकसभा में चंद्रशेखर (पूर्व प्रधानमंत्री), उस वक्त रक्षामंत्री रहे और पूर्व एसपी प्रमुख सरीखे नेता पहुंचे थे. इस सबके बाद भी राजनीतिक सपोर्ट के अभाव में भाई की हत्या की जांच मैं सीबीआई के हवाले नहीं करा पाया.’

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‘फोन-कॉल’ जिसने दिमाग सुन्न कर दिया

‘उन्हीं दिनों तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी के मुंह-बोले दामाद का फोन आया. फोन मैंने अटैंड किया तो, मुझे खुद पर ही विश्वास नहीं हो रहा था कि मुसीबत के उन दिनों में (जब एक ओर मेरे भाई राम सिंह का कत्ल किया जा चुका हो और दूसरी ओर मुझे खिलौना दिखाकर, इटावा कुनबे का मुखिया मेरी जगह संभल लोकसभा सीट पर खुद चुनाव लड़ने का पर्चा दाखिल कर आया हो) मुझे अटल जी के यहां से भी कोई टेलीफोन कर सकता है. दूसरी ओर फोन लाइन पर अटल जी थे. वे बोले 'यादव जी चुनाव लड़ना चाहते हो या नहीं?' मैंने जबाब में कहा, 'सर अंधे को क्या चाहिए दो आंखें? आप तो मुझे एक ही 'आंख' दे दो तब भी काम चला लूंगा.' खैर अटल जी से मुलाकात के बाद मुझे संभल से ही मुलायम सिंह यादव के खिलाफ बीजेपी ने चुनाव लड़वा दिया.’

मैं अटल जी से बोला अंधे को क्या चाहिए दो आंखें आप एक ही आंख मुझे दे दोगे तो काम चला लूंगा....अटल बिहारी वाजपेयी के साथ धर्मपाल सिंह यादव.

एक तरफ कुंआ दूसरी ओर खाई थी

‘उन दिनों बिना राजनीति के मेरा जिंदा रहना दुश्वार था. उसी दौरान उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार गिरा दी गई. जगदंबिका पाल मुख्यमंत्री बना दिए गए. मुझे मेरे धनारी (बदायूं) वाले फार्म हाउस में आधी रात को नजरबंद कर दिया गया. यूपी में उस राजनीतिक उथल-पुथल का परिणाम यह रहा कि मैं  2 लाख 90 हजार वोट लेने के बाद भी धुर-विरोधी मुलायम सिंह से संभल लोकसभा सीट हार गया. यह अलग बात है कि इसके बावजूद मैं 6-7 महीने बाद ही राज्यसभा का सदस्य बन गया. रिकॉर्ड जीत के साथ. यह सब लिखते वक्त मुझे बुलंदशहर की उस जनता के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करना नहीं भूलना चाहिए जिसने, लगातार 3 बार मुझे यूपी विधानसभा में चुनकर भेजा और एक बार मंत्री भी बनाया.’

झूठे दुश्मन थे, जेल में मुझे ठूंस दिया!

‘सच तो यह है कि सत्ता के गलियारों में बैठकर लिखी गई ‘ओछी-नीति’ का खुद को चाणक्य नहीं बना सका. लिहाजा राज्यसभा का सांसद होने के बाद भी मैं, भारतीय राजनीति में फेल हो गया. इसी बीच यूपी में विधानसभा चुनाव हुए. मेरी पार्टी भी मैदान में उतरी.  विधानसभा चुनाव में बूथ-कैप्चरिंग और धांधली के आरोप में मुझ पर 4-4 झूठे मुकदमे थानों में लाद दिए गए. मैं बदायूं की जेल में ठूंस दिया गया. मजे की बात यह है कि जिस पोलिंग-बूथ (पतई कायस्थ गांव का बूथ) पर मेरे ऊपर कैप्चरिंग का आरोप लगा. चुनाव-परिणाम आने पर वहां से 15 वोट मुझे और 5 वोट दूसरी पार्टी के उम्मीदवार को मिले. जबकि फर्जी मुकदमा दर्ज कराने वाले इटावा कुनबे के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे नेता को 700 में से 680 वोट मिले. इसे क्या कहा जाए? बूथ कैप्चर किसने कराए? डीपी ने या डीपी पर बूथ-कैप्चरिंग के फर्जी मुकदमे लदवाने वालों ने? फिर भी 'मीसा' लगाकर जेल में ठूंसा डीपी यादव ही गया.’ आज सजायाफ्ता मुजरिम के रूप में जेल में बंदी के दौरान बाकी तमाम सवालात के जवाब देने के बजाय धर्मपाल, नीरज की दो लाइनें सुनाकर चुप लगा जाते हैं,

मुझको उस वैद्य की विद्या पे तरस आता है,

भूखे लोगों को जो सेहत की दवा देता है

अब प्रधानमंत्री निवास में नहीं रह पाऊंगा!

‘बात तब की है जब चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री थे. बहैसियत सांसद एक दिन मैं उन्हें, होली की बधाई देने प्रधानमंत्री आवास जा पहुंचा. तब उन्होंने कहा, 'डीपी लगता है कि मैं ज्यादा दिन इस प्रधानमंत्री आवास (6 रेसकोर्स रोड) में अब रहूंगा नहीं.' उनके मुंह से यह अल्फाज सुनते ही मुझे काठ मार गया. मुंह खुला रह गया. मैंने पूछा कि, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? वे बोले, 'बस इस्तीफा देने का मन बना रहा हूं. राजीव गांधी और मेरे मध्य मतभेद हैं.' जब मैं विदा लेने लगा तो वे बोले, 'कोई काम हो तो बताओ?' मैंने कहा अगर आप कहें तो, दो पेट्रोल पंप ले लूं! उन्होंने एक कागज पर मुझसे वहीं चार-पांच लाइनों का आवेदन लिखवाया. उसके ऊपर अपने हाथ से सतप्रकाश मालवीय और नीचे खुद का नाम लिख दिया. सतप्रकाश जी उन दिनों पेट्रोलियम मंत्री थे. अगले दिन वो पर्ची जेब से गायब थी. यह अलग बात है कि आज तक न वो पर्ची मिली न ही पेट्रोल पंप.’

प्रधानमंत्री निवास में (चंद्रशेखर) शायद मैं अब और ज्यादा दिन न रह पाऊं!... मुझे काफी पहले ही चंद्रशेखर जी ने आगाह कर दिया था. बायें से दायें डीपी यादव के साथ पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर.

पिता ने पूछा यही ‘तिहाड़’है, मैंने कहा ‘हां’

14 जून सन् 2017 दिल्ली की तिहाड़ जेल: ‘कल मुझसे तिहाड़ में पिताजी (महाशय तेजपाल सिंह यादव) मिलने आए थे. मेरे साथ ही उनसे विकास (बेटा) भी मिला था. उनकी आवाज में ठसक नहीं थी. चेहरा भी बुझा हुआ था. लग रहा था मानो वे, अपने कसरती गठीली बदन की ताकत लम्हा-लम्हा खुद ही क्षीण करते जा रहे हों. उस दिन से चिंतित और खोए-खोए से पिताजी कभी मैंने अपनी आंखों से नहीं देखे थे. उन्होंने पूछा, 'कितना वक्त और लगेगा अभी बाहर (जेल से) आने में?' मैंने उन्हें समझाने के लिए झूठ बोल दिया. मैं बोला कोर्ट की छुट्टियां हैं. एक महीने बाद अदालत खुलेगी तभी मेरे बाहर आने के मुद्दे पर सुनवाई हो पाएगी. हांलांकि मेरी जमानत का मसला सुना उत्तराखंड (नैनीताल) हाईकोर्ट में जाना था, मगर मैंने उन्हें छुट्टियों की बात दिल्ली कोर्ट की बताकर झूठी दिलासा दे दी. उन्होंने मुझसे पूछा...'इस जगह का ही नाम तिहाड़ है?' फिर उन्होंने पूछा, 'तुम दोनों (मैं और बेटा विकास) यहां एक संग ही रहते हो?' तो मैं उनके दो सवालों के एक जबाब, 'हां' देकर चुप्पी लगा गया. क्योंकि मैं खुद को उनके सामने और उन्हें खुद के सामने कमजोर होने देना नहीं चाहता था.’

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‘विकास’ की उम्मीद नहीं, ‘विरासत’ किसे सौंपू?

‘बड़े भाई महाशय राम सिंह यादव और मात्र 30-35 साल की उम्र में बहन सत्यवती के पति कमल राज (बहनोई) की हत्या से मुझे बहुत बड़ा सदमा लगा. मेरी मौत से हारे, मेरे दुश्मनों ने उन दोनों निर्दोषों को मार डाला. जबकि बड़े भाई श्याम सिंह प्रधान जी को बीमारी और वक्त ने छीन लिया था. एक परिवार में तीन-तीन अकाल मौतों के बाद मुझे जिंदगी में सबसे बड़ा सदमा लगा, हत्या के मामले में विकास (उम्रकैद की सजा काट रहा बड़ा बेटा, डीपी ने डायरी में नहीं लिखा है मगर, इंटरव्यू के दौरान बताया नीतीश कटारा हत्याकांड में) का उलझ जाना. चीनी मिल से लेकर खेती-किसानी तक से, मैंने जो कुछ विरासत संजोई है. भविष्य में मैं उस विरासत को समाज के हाथों में आखिर कैसे और किस रूप में सौंप सकूं? ताकि आने वाली पीढ़ियों का तो कम से कम भला हो सके. जेल की कोठरी में मेरे सामने मुंह बाए सौ टके का यही 'यक्ष-प्रश्न' हर लम्हा खड़ा रहता है. क्योंकि, विकास तिहाड़ जेल में बंद है. और खुद मैं देहरादून की सुद्धोवाला जेल में.’

अगले संडे क्राइम स्पेशल में पढ़ना न भूलें-

डीपी की डायरी: यूं ही खैरात में दुपट्टे से कोई अजनबी लड़की, किसी लड़के का खून नहीं पोंछती है! जिसकी जेब में मौजूद नहीं थी ‘चवन्नी. उसी शख्स की आँखों में पल रहे थे ‘चीनी-मिल’ मालिक बनने के सपने...! और एक पिता की वो हसरत जिसने, बीते कल में सोहबत बिगाड़कर रोक दी थी, विकास के पांवों के जीवन की रफ्तार!

(लेख डीपी यादव की जेल में लिखी डायरियों और इलाज के लिए जमानत पर कुछ दिनों के लिए बाहर आने पर उनसे हुई बातचीत पर आधारित है. ‘फ़र्स्टपोस्ट हिंदी और लेखक किसी भी दावे या बयान की पुष्टि नहीं करते)

(लेखक वरिष्ठ खोजी पत्रकार हैं)