‘संडे क्राइम स्पेशल’ के पाठकों ने आज तक यही देखा-सुना-पढ़ा होगा कि, मुठभेड़ में मारे गये अपराधी की लाश कानूनी खानापूर्ति के बाद पुलिस, उसके वारिसान (परिवार) के हवाले कर देती है. इस खास कड़ी में मैं लेकिन एक ऐसे पुलिसिया इंस्पेक्टर की रुह कंपा देने वाली अविश्वसनीय मगर सच्ची कहानी पढ़वा रहा हूं जो, पहले तो खूंखार डाकूओं को घेरकर ‘खूनी-मुठभेड़’ में मार डालता था. उसके बाद, मारे गये डकैत के गांव-घर जाकर उसके अंतिम संस्कारों (दसवां-तेरहवीं) के लिए चंदा इक्ट्ठा करके/ करवाकर बाकी तमाम उन तमाम संस्कारों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता था. है न हैरत की बात.
इतना ही नहीं. इसी जांबांज इंस्पेक्टर की खातिर सूबे के मुख्यमंत्री ने एक मर्तबा तो, तमाम ‘पुलिसिया-कानून’ ही तोड़-मरोड़ और बदल डाले! यही वो इंस्पेक्टर था जिसे, सड़क हादसे में घायल होने के बाद भी, कड़ी सुरक्षा में रात के अंधेरे में ‘गहन सुरक्षा’ में छिपाकर, पुलिसिया-वाहनों’ से थाने का चार्ज लेने आधी रात को पहुंचाया गया. किसी जमाने में एटा-मैनपुरी में हुए ‘नथुआपुर’ जैसे दिल-दहला देने वाले नरसंहार का बदला लेने के लिए. अब आपको उत्सुकता होगी खाकी वर्दी के इस ‘दिलावर’ शख्सियत से मिलने की. उसका नाम-पता-ठिकाना जानने की. तो धीरज रखकर ध्यान से पढ़िए ‘संडे क्राइम स्पेशल’ की यह ‘विशेष-किश्त’. इसी कहानी में कहीं न कहीं लिखा मिल जाएगा आपको उस रणबांकुरे का नाम, पता और ठिकाना. आज 75 साल के हो चुके इस दिलेर इंस्पेक्टर को पुलिस महकमे से रिटायर हुए तीन दशक बीत चुके हैं.
1980 के दशक में एटा का ‘नथुआपुर-नरसंहार’
‘जहां तक मुझे याद आ रहा है यह बात है अब से करीब 37 साल पहले यानी सन् 1981 की. उन्हीं दिनों एटा जिले के सराय अगहत इलाके में डाकूओं के गैंग ने मिलकर एक सुनार के यहां डाके की वारदात को अंजाम दे डाला. वारदात में नाम सामने आया उस जमाने में सिर पर एक-एक लाख के पुलिसिया इनाम का बोझ ढो रहे खूंखार डाकू पोथीराम, छबिराम, महाबीरा-करुआ आदि का. डाके में शामिल डाकूओं का नाम सुनते ही पुलिस के तमाम कथित बहादुर एनकाउंटर स्पेशलिस्टों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई! रोड एक्सीडेंट में बुरी तरह घायल होने के कारण मैं उन दिनों मेडिकल-रेस्ट पर था. हालांकि मेरी पोस्टिंग उन दिनों थी सीबीसीआईडी बरेली में. डाके की वारदात का खुलासा करने में लगे अलीगंज थाने के इंस्पेक्टर राजपाल सिंह, दो सब-इंस्पेक्टर रावत और पाण्डेय तथा पीएसी के कई जवानों सहित तीन ग्रामीण डाकूओं के साथ हुई मुठभेड़ में शहीद हो चुके थे. पुलिस और पीएसी के एलएमजी जैसे तमाम स्वचालित हथियार लूट लिए गए थे. ‘नथुआपुर-कांड’ में मिली हार से यूपी पुलिस और सूबे की सरकार बुरी तरह बौखलाई हुई थी. उस वक्त सूबे के मुख्यमंत्री थे विश्वनाथ प्रताप सिंह. और यूपी के आईजी पुलिस थे नरेश कुमार.’
‘नथुआपुर-कांड’ ने तमाम ‘दिलावर’ नंगे कर दिए!
‘नथुआपुर कांड में डाकूओं से मिली हार से खार खाए बैठी यूपी पुलिस और राज्य सरकार ने खाकी वर्दी में उस ‘दिलावर’ की तलाश शुरू की जो, डाकूओं से बदला लेकर आगे-पीछे का सब हिसाब-किताब बराबर कर सके. आगरा रेंज के अंतर्गत फिरोजाबाद दक्षिण में तैनात इंस्पेक्टर को तलब किया गया. डाकू छबिराम, पोथीराम का नाम सुनते ही उसे सांप सूंघ गया. उन दिनों चर्चा तो यह भी थी कि नथुआपुर कांड का बदला लेने से खुद का पल्ला छुड़ाने के लिए उस इंस्पेक्टर ने अपने तबादले के विरोध में फिरोजाबाद शहर ही बंद करा दिया! ताकि पब्लिक की बढ़ी हुई डिमांड के चलते नथुआपुर कांड की जिम्मेदारी का नारियल उसके सिर फूटने से बच जाए. बाद में हुआ भी वही जो वह चाहता था. पब्लिक के विरोध के चलते उसे नथुआपुर कांड का बदला लेने के लिए अंतत: नहीं चुना गया.'
'उसके बाद गाजियाबाद में तैनात एक दबंग इंस्पेक्टर का जब नाम सामने लाया गया. तो वो इंस्पेक्टर भी अपनी बेटियों को लेकर आला पुलिस हुक्मरानों के सामने जाकर पेश हो गया. गाजियाबाद वाले इंस्पेक्टर की दलील थी कि उसकी पत्नी की मौत हो चुकी है. ऐसे में नथुआपुर-कांड का बदला ले पाने में वो असमर्थ है. एक इंस्पेक्टर तो नथुआपुर कांड का बदला लेने से बचने के लिए बाकायदा अस्पताल में दाखिल हो गया. उसने मेडिकल-सर्टिफिकेट की बैसाखियों पर बहानेबाजी करके अलीगंज थाने का इंस्पेक्टर बनने से इंकार कर दिया.’
बे-दिल ‘बहादुरों’ ने मुझे ‘नजरों’ में ला दिया!
आगरा रेंज की पुलिस में मौजूद तमाम कथित दिलेरों की, नथुआपुर कांड का बदला लेने के नाम से सांस फूलती और हांफी चलती बेहद खतरनाक साबित हुई. बुजदिल मातहतों की हालत पतली देखकर आला-पुलिस-अफसरानों का भी हलक सूखने लगा. बात पुलिस महकमे की इज्जत बचाने की थी. यह अलग बात है कि जिनसे इज्जत बचाने की उम्मीद की जा रही थी वे, सब के सब शेर ‘मिट्टी’ के निकल गए. उन दिनों तुषार दत्त घोष आगरा रेंज के पुलिस उप-महानिरीक्षक (डीआईजी), जबकि डीआईजी ‘एंटी-डकैती दस्ता’ थे बीपी सिंघल. जबकि यूपी पुलिस की बागडोर थी नरेश कुमार वर्मा के हाथों में. एटा जिले के पुलिस अधीक्षक (एसपी) थे दबंग युवा आईपीएस विक्रम सिंह. पेंच फंसता देखकर किसी तरह विक्रम सिंह ने समस्या के समाधान स्वरुप एक दबंग इंस्पेक्टर का नाम बजरिये आईजी और एडिश्नल आईजी मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के कानों तक मेरा नाम पहुंचाया. मैं उन दिनों ऐसी पोस्टिंग काट रहा था जिसमें, किसी भी कीमत पर ट्रांसफर नहीं हो सकता था.
मुख्यमंत्री ने रातों-रात बदल डाला ‘पुलिसिया-कानून’!
मुख्यमंत्री तक जब मेरा नाम पहुंचा. सीएम साहब को बताया गया कि जिस ‘नॉन डिस्ट्रिक्ट स्टेवलिशमेंट फोर्स’ में मेरी तैनाती है. वहां या उस अनुभाग में राज्य पुलिस नियमावली के मुताबिक मेरा तीन साल से पहले ट्रांसफर नहीं किया जा सकता. इस सबके बावजूद चीफ-मिनिस्टर ने यूपी पुलिस के उस कानून को भी तोड़ने में गुरेज नहीं की. लिहाजा मुझे तमाम कायदे-कानून कुछ समय के लिए ही सही नजरंदाज करके, बरेली सीबीसीआईडी से सिविल पुलिस में ट्रांसफर कर दिया गया. साथ ही आदेश हुए कि मैं तुरंत उस अलीगंज थाने का चार्ज लेकर वहां इंस्पेक्टरी ज्वाइन करूं, जिसके इलाके में नथुआपुर नरसंहार हुआ था. मैं अभी एक्सीडेंट के बाद से ठीक भी नहीं हुआ था. मैंने विक्रम सिंह साहब को बताया कि वे मुझे इस मुसीबत से उबार लें. उन्होंने खुद ही कह दिया कि, ‘तुम अभी फिलहाल अलीगंज थाने का चार्ज जाकर ले लो. एक डेढ़ महीने में जब ठीक हो जाओ तो नथुआपुर नरसंहार का हिसाब बराबर करने की सोचना.’
इंस्पेक्टर के लिए ही संतरी ने थाना नहीं खोला!
'मरता क्या नहीं करता. मैं जमाने में हर किसी की बात टालने की कुव्वत रखता था. विक्रम सिंह साहब से मेरे संबंध आईपीएस एसपी और इंस्पेक्टर वाले नहीं थे. लिहाजा आगे पीछे पीएसी की गाड़ियों के बीच में चल रही पुलिस वैन में मुझे छिपाकर जैसे-तैसे सुरक्षित रात में ही बरेली से अलीगंज थाना (एटा) पहुंचाया गया. अलीगंज थाने का मुझे रात में ही चार्ज लेना था. आधी रात के वक्त मैं कड़ी सुरक्षा में लाव-लश्कर के संग अलीगंज थाने पहुंचा. थाना पहले से ही पीएसी के तमाम जवानों के कब्जे में (सुरक्षा घेरे में) था. नथुआपुर कांड की दहशत के चलते उन दिनों शाम ढले ही पुलिस वाले डर के मारे थाने की बत्तियां बुझा देते थे. दरवाजों पर ताले लगाकर संतरी और बाकी पुलिसकर्मी खुद को थाने के अंदर ब-हिफाजत इधर-उधर छिपा लेते. थाने पर पहुंचे मेरे काफिले ने वहां मौजूद पीएसी और पुलिस के संतरी को लाख समझाया कि, मैं ही अलीगंज थाने का चार्ज लेने आया नया इंस्पेक्टर हूं. इसके बाद भी मेरे लिए थाने का मुख्य द्वार नहीं खोला गया. काफी जद्दोजहद और लखनऊ से बातचीत कराने के बाद ही मैं थाने का गेट खुलवा पाने में सफल हो पाया. रात को ही फिर अलीगंज थाने का चार्ज लिया. चारो ओर धुप्प अंधेरे में डूबे थाने में एक मोमबत्ती की रोशनी में.जहां तक मुझे याद आ रहा है यह बात है 15-16 दिसंबर सन् 1981 की.’
हल्दीघाटी-पानीपत की लड़ाई से इंतजाम देख दंग रह गया
‘अगले दिन मैंने सोचा कि इलाके का मुआयना कर आऊं. जिधर गया उधर की बीएसएफ, सीआरपीएफ, पीएसी और एंटी डकैती प्रकोष्ठ के जवानों के तंबू गड़े दिखाई दिए. इसके अलावा बरेली, आगरा, एटा सहित और न जाने कौन-कौन से जिलों की पुलिस भी अपने-अपने तंबू ताने हुए थी एक ‘नथुआपुर-कांड’ का बदला लेने की गफलत पाले हुए. पहली नजर में तो लग रहा था मानो हल्दीघाटी या पानीपत की एतिहासिक लड़ाई सा कोई दूसरा संग्राम दोहराए जाने के इंतजाम हों. इस तमाम फोर्स को लीड कर रहे थे बरेली रेंज के दबंग डीआईजी प्रकाश सिंह. साथ में मौजूद थे एसपी बदायूं गिरिराज शाह, एसपी शाहजहाँपुर रणबहादुर सिंह (आरबी सिंह, इस समय देश में चर्चित प्रवर्तन निदेशालय के आला अफसर राजेश्वर सिंह के पिता और यूपी पुलिस कॉडर के वरिष्ठ आईपीएस राजीव कृष्ण के ससुर) अलीगंज के गेस्ट-हाउस यानी डाक-बंगला में डेरा डाले हुए थे.’
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अफसरान की मीटिंग में मातहत पर ‘महाभारत’!
‘अलीगंज थाने में ‘इंस्पेक्टरी’ संभालने के तीन-चार दिन बाद ही नथुआपुर कांड का बदला लेने की रणनीति बनाने के लिए आला-पुलिस-अफसरों ने मातहतों की मीटिंग बुला ली. मीटिंग थी मैनपुरी के शिकोहाबाद में. मीटिंग में अफसर पहुंचे एडिश्नल आईजी तुषार दत्त घोष, एसएसपी मैनपुरी करमवीर सिंह (यूपी के रिटायर्ड पुलिस महानिदेशक), आगरा, मथुरा के एसएसपी और एटा के एसपी आईपीएस विक्रम सिंह (कुछ दिन बाद ही विक्रम सिंह को एटा का ही एसएसपी बना दिया गया).
मीटिंग में मौजूद अधिकांश पुलिस अफसरों ने मेरी ओर मुखातिब होते हुए फरमाया कि, 'एक दो महीने तुम्हें देखेंगे (ट्रायल पर). अगर कुछ ठीक-ठाक जमे तो सही वरना वापिस भेज देंगे.' इतना सुनते ही मेरा माथा ठनक गया. मैंने तुरंत ही कह दिया कि, 'अभी वापिस भेज दो. बाद की किसने देखी है. मैं तो वैसे ही गंभीर बीमार हूं. ऐसे में सिविल पुलिस में रहने की मेरी भी कोई हसरत नहीं है!' मेरी साफगोई ने पहले तो साहबों की मीटिंग में “मातमी-सन्नाटा” ला दिया. कुछ देर बाद औरतों की सी कानाफूसी शुरु हो गयी.’
बाकी फोर्स वापिस भेजें, मय अकेला निपट लूंगा
‘मेरी बेबाकी और हाजिर-जवाबी से मीटिंग में असल मुद्दे का मटियामेट होता देख एटा जिले के कप्तान (पुलिस अधीक्षक) विक्रम सिंह ने बात संभालने की कोशिश की. मेरा नाम भरी मीटिंग में तेज आवाज में पुकारते हुए वे बोले....इंस्पेक्टर.....बताओ आखिर तुम नथुआपुर कांड का बदला कैसे ले सकते हो और तुम आखिर इस काम को सर-ए-अंजाम पहुंचाने के लिए चाहते क्यो हो? विक्रम साहब की आवाज पर ही मैने जवाब दिया कि, 'एटा जिले की चौहद्दी (सीमा-रेखा)में मौजूद बाकी जिलों की पुलिस फोर्स को बराए-मेहरबानी तुरंत रवाना कर दिया जाए. नथुआपुर कांड में शहीद पुलिस-पीएसी के जवानों की शहादत का शिकवा मैं दूर कर दूंगा.' दरअसल मुझे आशंका थी कि नथुआपुर कांड का बदला तो मैं लूंगा. जान मैं अपनी जोखिम में डालूंगा. उसके बाद श्रेय का सेहरा बांधने के लिए एटा में मौजूद अन्य जिलों की पुलिस फोर्स सिर-फुटव्वल पर उतर आएगी. उस लड़ाई में कुछ पुलिस अफसरान 'धृतराष्ट्र और गांधारी' की सी भूमिका में आ जायेंगे जोकि, मुझे कदापि मंजूर नहीं था. जैसे ही मीटिंग में अफसरों ने 'हामी' भरी मैं उठकर थाना अलीगंज वापिस लौट आया.’
साथियों की शहादत का बदला ‘गोली’ खाकर लिया
‘उन दिनों एसपी विक्रम सिंह साहब लखनऊ मीटिंग में गए हुए थे. लखनऊ रवाना होने के वक्त एसपी साहब जिले के तमाम क्षेत्राधिकारियों को हिदायत दे गए थे कि डाकउओं के बारे में खबर मिलते ही मुझे (थाना अलीगंज इंस्पेक्टर) को सूचित किया जाए. उसके एकदम बाद ही क्षेत्राधिकारी (जैथरा) नेगी की सूचना आई कि, इलाके में एक लाख का इनामी शिवराज सिंह यादव डाकू का गैंग है. 3 फरवरी सन् 1982 को पीछा करके शिवराज सहित 6 डकैत मार डाले. उस मुठभेड़ में एक सिपाही की “3-NOT-3” राइफल से चार डाकू अकेले मैने ही भून डाले. उस एनकाउंटर में मेरे बदन में डाकूओं ने अंधाधुंध गोलियां भर दीं. किस्मत से मैं फिर भी जीवित बच गया.
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उस एनकाउंटर की बात लखनऊ में मौजूद एसपी विक्रम सिंह सुनकर हवाई जहाज से तुरंत मौके पर पहुंच गए. वे बोले, 'अरे तुमने मेरे पीछे यह क्या कर डाला?' मैं उनसे बोला... 'आपको खबर करने के चक्कर में या आपके आने का इंतजार करना हम सबकी मौत बन जाता.' इसके कुछ दिन बाद ही 30 मार्च सन् 1982 को जहान नगर इलाके (थाना अलीगंज) में एक लाख का इनामी डाकू महाबीरा मार डाला. महाबीरा के साथ हुई मुठभेड़ में एसपी होने के बाद भी विक्रम सिंह ने सिपाही-हवलदारों के कंधे से कंधा मिलाकर जी भरकर गोलियां डकैतों के बदन में उतारीं.’
एनकाउंटर के दौरान सिगरेट पीते पकड़ा इंस्पेक्टर!
‘किस्सा है शिवराज या महाबीरा से खूनी मुठभेड़ के दौरान का. घंटों चली मुठभेड़ में हमने कई डकैत मार गिराए थे. इसके बाद भी डकैत थे कि गोलियां चलाना बंद नहीं कर रहे थे. डाकूओं द्वारा रुक-रुककर की जा रही गोलीबारी ने पुलिस टीमों को बुरी तरह थका दिया था. खेतों में जमीन पर पेट के बल लेटकर लंबे समय से फायरिंग करते करते पुलिसिया जवानों की हिम्मत जवाब देती जा रही थी. लगातार घंटों गोलियां चलाने से मेरे हाथों की उंगलियां बुरी तरह बेदम हो चुकी थीं. बदन पसीने से तर था. मुझे लगा कि काफी देर से फायरिंग नहीं हुई है. इसका मतलब सब डकैत या तो मारे गए या फिर भाग गए हैं. लिहाजा बदन को दम देने के लिए मैं मुठभेड़ स्थल पर ही सिगरेट सुलगा कर पीने लगा. उसी दौरान मुझ पर पुलिस कप्तान विक्रम सिंह की नजर पड़ गई. उन्होंने देखा तो कहा, क्या कर रहे हो यह कोई सिगरेट पीने की जगह है. मैने उनसे कहा साहब बदन बेदम है. वर्दी पसीने में भीग चुकी है. डाकूओं की तरफ से फायरिंग बंद है. सिगरेट के कुछ कश शायद बदन में जान लौटा दें. यह सुनकर कप्तान साहब ने मुझे अपने करीब बुलाया. उन्होंने अपने बदन पर मौजूद जैकेट को उतार कर मेरे पसीने से तर-ब-तर बदन को उढ़ा दी. मैने तो ऐसा नेकदिल आईपीएस या पुलिस कप्तान अपनी 24 साल की पुलिसिया नौकरी में विक्रम सिंह सा दूसरा देखा नहीं. बाकी की कह नहीं सकता.’
पहले गोलियों से भूना फिर, डाकू की तेरहवीं कराई
‘कई महीनों तक पीछा करने के बाद मेरी और एटा के पुलिस कप्तान विक्रम सिंह की टीम ने डाकू पोथीराम को घेरकर आधी रात के वक्त बिथरा गांव जोकि, ठाकुर लाल सिंह के गांव के नाम से मशहूर था, के जंगल में मार गिराया. डाकू पोथीराम को घेरने वाली टीम में मेरे साथ दो सब-इंस्पेक्टर अशोक कुमार रावत (रिटायर्ड डिप्टी एसपी), रविंद्र कुमार सिंह (रिटायर्ड इंस्पेक्टर), हवलदार नत्थू सिंह, सिपाही जयवीर, सुरेंद्र सिंह भी थे. पोथी से हुई उस मुठभेड़ में साथी डाकू पुन्ना भी मारा गया था. पोथी और पुन्ना दोनों ही खूंखार डाकू सन् 1978 से फरार चल रहे थे. पोथीराम डाकू की लाश उसके परिवार वालों के हवाले कर दी. बाद में पता चला कि पोथी के परिवार के पास गरीबी के चलते उसके दसवां-तेरहवीं जैसी रस्में निभाने के लिए भी पैसे नहीं थे. लिहाजा मैंने कुछ चंदा इकट्ठा किया/कराया. उसके बाद उन्हीं पैसों से डाकू पोथीराम की तेरहवीं कराई. उसके तेरहवीं-संस्कार में मैं खुद भी शामिल हुआ.’
पड़ोसी ‘कोतवाल’ कहते हैं वरना मेरा असली नाम तो....
‘मेरा जन्म 3 जनवरी सन् 1943 को दिल्ली से सटे यूपी के बुलंदशहर जिले के गाव चरौरा में हुआ था. मेरी मां का नाम मुख्त्यार कौर और पिता का नाम चौधरी रिसाल सिंह था. हालातों के चलते मुझे अपनी पढाई ननिहाल (गांव सैदपुरा) के छप्पर वाले घर में रहकर करनी पड़ी थी. सन् 1966 में यूपी पुलिस में सब-इंस्पेक्टर भर्ती हुआ. सीबीसीआईडी बरेली में बतौर इंस्पेक्टर रहते हुए गंभीर एक्सीडेंट के बाद मैंने सन् 1990 में पुलिस विभाग से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली. अब भी 75-76 साल की उम्र में यूं तो पड़ोसी मुझे ‘कोतवाल-साहब’ कहकर बुलाते हैं. यह अलग बात है कि, यूपी पुलिस के दस्तावेजों में मेरा नाम 'रामचरन सिंह' दर्ज था है और रहेगा.’
(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र खोजी पत्रकार हैं)
हंदवाड़ा में भी आतंकियों के साथ एक एनकाउंटर चल रहा है. बताया जा रहा है कि यहां के यारू इलाके में जवानों ने दो आतंकियों को घेर रखा है
कांग्रेस में शामिल हो कर अपने राजनीतिक सफर की शुरूआत करने जा रहीं फिल्म अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर का कहना है कि वह ग्लैमर के कारण नहीं बल्कि विचारधारा के कारण कांग्रेस में आई हैं
पीएम के संबोधन पर राहुल गांधी ने उनपर कुछ इसतरह तंज कसा.
मलाइका अरोड़ा दूसरी बार शादी करने जा रही हैं
संयुक्त निदेशक स्तर के एक अधिकारी को जरूरी दस्तावेजों के साथ बुधवार लंदन रवाना होने का काम सौंपा गया है.