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द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर: इतिहास मनमोहन सिंह को ‘सिंह इज़ किंग’ के तौर पर याद जरूर रखता अगर...

राजनीति के महाभारत में अगर मनमोहन सिंह गांधी परिवार और पार्टी के प्रति अपनी निष्ठा के चलते भीष्म की भूमिका में थे तो संजय बारू भी महाभारत के 'संजय' की भूमिका में थे

Kinshuk Praval

किसी वास्तविक किरदार पर लिखी गई किताब के मुताबिक जब स्क्रीन-प्ले लिखा जाता है तो काल्पनिकता का सहारा लिया जाता है. शायद उसी काल्पनिकता के डर की वजह से फिल्म ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ को लेकर सियासी विवाद इतना गहरा गया कि फिल्म पर रोक की मांग की जाने लगी. लेकिन पूर्व पीएम डॉ मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब पर फिल्म बनाते वक्त निर्देशक विजय रत्नाकर गुट्टे ने जितनी सतर्कता बरती वो तारीफ के काबिल है.

फिल्म ने प्रतीकात्मक तौर पर संदेश देने का काम किया है बजाए सीधी बात और सीधा आरोप लगा कर विवाद पैदा करने के. इसके बावजूद सियासी विवाद हो गया क्योंकि कहानी के केंद्र में देश की राजनीति का ‘प्रथम परिवार’.


फिल्म में बारू की किताब के पन्नों को उतारने के लिए जो दृश्यांकन किया वो पर्दे के सीन और वास्तविक घटना को न सिर्फ एक दूसरे से खूबसूरती से जोड़ता है बल्कि आखिरी तक बांधे रखता है. फिल्म में ऐसा कुछ नया नहीं जो मीडिया की आंखों के सामने से न गुजरा हो. लेकिन फिल्म ने ‘इनसाइड स्टोरी’ की तरह उन तमाम राजनीतिक घटनाओं को एक कड़ी के तौर पर दिखाया जो अरसे तक सुर्खियां बन कर छाई रहीं. साथ ही उन घटनाओं के पीछे की कहानी को हल्के से छूने की कोशिश की.

लेकिन पूरी फिल्म में किसी भी राष्ट्रीय, राजनीतिक या सामाजिक मुद्दे पर किसी का किरदार नेगेटिव दिखाने की कोशिश नहीं की गई. जो घटनाएं दिखाई गईं वो राजनीति का आम हिस्सा हैं. हर पार्टी और उसके सिपहसलारों को अपनी रणनीति बनाने का अधिकार है इसलिए उन पर किसी बात पर बहस करना बेमानी है.

संजय बारू पर लगा पूर्व पीएम मनमोहन सिंह से विश्वासघात करने का आरोप 

संजय बारू ने जब किताब लिखी तो उन पर डॉ मनमोहन सिंह के साथ विश्वासघात करने का आरोप लगा. लेकिन बारू पर झूठ बोलने का आरोप नहीं लगा. विश्वासघात और झूठ अलग-अलग शब्द हैं. डॉ मनमोहन सिंह ने बारू पर विश्वास कर उन्हें मीडिया सलाहकार बनाया तो बारू ने जो देखा-समझा और जाना उसके आधार पर किताब में पीएमओ में अपने अनुभव का सच उतार कर किसी के 'विश्वास' पर 'घात' करने का काम किया. पार्टी और परिवार के प्रति जो निष्ठा मनमोहन सिंह ने यूपीए के दो शासनकाल में दिखाई वो संजय बारू नहीं दिखा सके. जिस वजह से मनमोहन सिंह अगर बारू से नाराज हुए तो 10 जनपथ ने कभी बारू को पसंद भी नहीं किया.

फिल्म में ये दिखाने की कोशिश की गई है कि राजनीति के महाभारत में अगर मनमोहन सिंह गांधी परिवार और पार्टी के प्रति अपनी निष्ठा के चलते भीष्म की भूमिका में थे तो संजय बारू भी महाभारत के 'संजय' की भूमिका में थे जो राजनीतिक चालों को पत्रकारिता की दूरदृष्टि से देख रहे थे और बतौर मीडिया सलाहकार वो डॉ मनमोहन सिंह को सचेत करने की भी कोशिश कर रहे थे.

बारू ने ये दिखाने की कोशिश की कि एक पत्रकार को सिर्फ भाषण लिखने का काम करने तक ही सीमित भी नहीं किया जा सकता है. हालांकि फिल्म ने ये भी दिखाने की कोशिश की कि पीएमओ में 10 जनपथ के बढ़ते दखल में ब्यूरोक्रैसी कितना बड़ा हथियार थी.

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लेकिन, फिल्म ने डॉ मनमोहन सिंह की 10 जनपथ से रिमोट-संचालित छवि को तोड़ने का काम शिद्दत से किया. कई घटनाओं का संदर्भ लेते हुए दृश्यों के जरिए दिखाया कि मनमोहन सिंह के भीतर भी एक प्रधानमंत्री था जिसने कई फैसले अपनी मर्जी, अपनी जिम्मेदारी और जिद से भी लिए.

अगर संजय बारू को पीएमओ में मीडिया सलाहकार बनाया तो ये मनमोहन सिंह का अपना फैसला था. अगर न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर मनमोहन सिंह ने लेफ्ट दलों को समर्थन वापसी की धमकी पर नसीहत दे डाली तो ये भी मनमोहन सिंह की निजी राय और फैसला था जिससे 10 जनपथ यानी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष का आवास इत्तेफाक नहीं रखता था.

मनमोहन सिंह कभी अंतरद्वंद तो कभी एक दुविधा के रूप में में दिखाई दिए

फिल्म में यूपीए सरकार के शासन के दस साल के वक्त पीएमओ बनाम दस जनपथ के बीच द्वंद दिखाया गया. मनमोहन सिंह कभी-कभी उस शख्स के रूप में नज़र आते जिसका अक्स आईने में झांकने पर पीएम का नहीं होता था. मनमोहन सिंह कभी एक अंतरद्वंद तो कभी एक दुविधा के रूप में पीएमओ में दिखाई दिए. फिल्म के मुताबिक पीएमओ के भीतर पीएम खुद को अकेला और अपनी ही पार्टी के लोगों की घेरेबंदी को महसूस करते दिखे.

फिल्म की शुरुआत का एक सीन है जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष वरिष्ठ कांग्रेसियों और सहयोगी दलों को ये सूचित कर रही हैं कि उन्होंने डॉ मनमोहन सिंह को पीएम बनाने का फैसला लिया है. ये फैसला चौंकाने वाला था क्योंकि उस वक्त कांग्रेस में ऐसे चेहरे भी मौजूद थे जो कई दशकों का राजनीतिक अनुभव समेटे थे और उनका जनाधार बहुत था.

इसके बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष के फैसले पर सवाल नहीं उठे क्योंकि गांधी परिवार के निष्ठावान लोगों ने साफ कर दिया था कि ये चुनाव कांग्रेस ने नहीं बल्कि सोनिया गांधी ने जीता है. फिल्म में बार-बार ये कहा गया कि सोनिया गांधी ने कांग्रेस को चुनाव जिताया है और मनमोहन सिंह को पीएम बनाया है. सोनिया के त्याग का नैतिक दबाव और पीएम पद पर ताजपोशी की कृतज्ञता का भार लिए मनमोहन सिंह यूपीए के पहले पीएम बन चुके थे.

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पहले कार्यकाल में मनमोहन सिंह इसी भाव के साथ रहे और दूसरे कार्यकाल में भी वो पीएम दिखे जो अपनी मर्जी से पीएमओ में संजय बारू को दोबारा चाह कर भी रख नहीं सके. संजय बारू पीएमओ में साल 2004 से साल 2008 तक रहे.

साल 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद सोनिया गांधी का पीएम न बनना और डॉ मनमोहन सिंह को सामने लाना राजनीति का मास्टर-स्ट्रोक था. डॉ मनमोहन सिंह के पीएम पद के लिए सबसे मुफीद उम्मीदवार होने की सबसे बड़ी तात्कालिक वजह एक ये भी रही कि अर्थशास्त्र और राजनीति के बीच की दूरी ही उनके बायोडाटा को मजबूती दे रही थी. तभी फिल्म में भी एक डायलॉग का इस्तेमाल हुआ है कि, पॉलिटिक्स इज नॉट इकोनॉमिक्स !

न्यूक्लियर डील करने के लिए मनमोहन सिंह ने अपनी कुर्सी और सरकार को दांव पर लगा दिया था

ऐसे में प्रधानमंत्री कार्यालय में एक भरोसेमंद, राजनीति से दूर रहने वाला, बिना कोई चुनाव लड़े और चुनाव न लड़ने वाला शख्स सर्वसम्मति से पीएम पद के लिए चुन लिया गया क्योंकि उस नाम पर न विरोध होता और न ही भविष्य में 10 जनपथ और पीएमओ के बीच के तालमेल और संपर्क में कोई बाधा आती.

इसकी बानगी फिल्म के उस सीन से समझी जा सकती है कि जब डॉ मनमोहन सिंह के पीएम बनने के बाद मीडिया की हेडलाइन ये बनने जा रही थी कि मनमोहन सिंह ही वित्त मंत्रालय भी अपने पास रखेंगे कि तभी राजनीतिक सौदेबाजी के चलते शपथ-ग्रहण से ऐन पहले ये मंत्रालय पी चिदंबरम को दे दिया

जाता है और इसका फैसला सोनिया गांधी को लेते हुए दिखाया गया है. यानी जो मनमोहन सिंह कभी वित्त सचिव, आरबीआई के गवर्नर और 1991 में वित्त मंत्री तक रहे वो ही अर्थशास्त्री पीएम अपने पास वित्त मंत्रालय तक नहीं रख सके.

फिल्म के जरिए मनमोहन सिंह की छवि को कांग्रेस में सबसे ऊपर रखने की कोशिश की गई है. ये बताया कि राष्ट्रवाद के चलते उन्होंने पार्टी हाईकमान की

नाराजगी मोल लेने की भी दिलेरी दिखाने की कोशिश की. देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील करने के लिए मनमोहन सिंह ने अपनी कुर्सी ही नहीं बल्कि सरकार को भी दांव पर लगा दिया था.

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दूसरी बात ये कि पद छोड़ने का उन्होंने दो बार प्रयास भी किया था. तीसरी बात ये कि वो तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद चाहकर भी 10 जनपथ के आवरण से बाहर नहीं निकल सके. फिल्म के मुताबिक पीएम पद का किरदार आखिर तक पीएमओ और पार्टी के बीच तालमेल की राजनीति से तालमेल नहीं बिठा सका इसलिए मौन रहना ही उनकी मजबूरी और जरूरत बन गई.

अब 10 जनपथ की वजह से मनमोहन सिंह के मौन पर सवाल न उठें इसलिए फिल्म के खिलाफ हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अर्जी दी जा रही है. लेकिन ये जनता के ऊपर है कि वो फिल्म देखने के बाद किसका किस तरह से आकलन करती है . हालांकि फिल्म ने मनमोहन सिंह को 'सिंह इज़ किंग' के तौर पर स्थापित करने की एक कोशिश जरूर की है.