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शिवसेना-बीजेपी: तुम्ही से मोहब्बत, तुम्ही से लड़ाई....

इसका अगले तीन साल और उसके बाद की राजनीति पर भी गहरा असर पड़ेगा.

Kumar Ketkar

भगवा रंग और हिंदुत्व का नारा तो एक है लेकिन भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना कभी एक-से नहीं रहे. बेशक भगवा रंग और हिंदुत्व का नारा एक सा है लेकिन दोनों पार्टियों के लिए इसके अलग-अलग अर्थ निकलते हैं. इसके बावजूद दोनों दल 25 सालों से संग-साथ हैं और कौन जाने, हाल की पुरजोर तकरार के बाद भी दोनों का यह संग-साथ जारी रहे.

दोनों के रिश्ते में खटाई तो पड़ी है (दरअसल तीन सालों में दो दफे) लेकिन रिश्ता अभी तक अंतिम रुप से टूटा नहीं है. रिश्ते का हमेशा-हमेशा के लिए टूटना कई और बातों पर निर्भर है और इन बातों का दोनों दलों के हिन्दुत्व के नारे या झंडे के भगवा रंग से कोई नाता नहीं है. भले ही दोनों कहते आए हों कि उनका साथ आना विचाराधारा के मेल की वजह से संभव हुआ.


दोनों पार्टियां चौकन्नी हैं. उनके मन में यह भी चल रहा है कि बंटे तो औंधे मुंह गिरेंगे. साथ रहे तो विपक्ष से टकराने की जगह एक-दूसरे से जमकर लड़ेंगे. इसलिए दोनों दलों के सामने सवाल यह आन खड़ा है कि एक-दूसरे का साथ छोड़कर राज्य में मध्यावधि चुनाव का सामना किया जाए या फिर 23 फरवरी तक रुककर बीएमसी चुनाव के नतीजों का इंतजार किया जाए.

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दोनों दल अपने लिए जितनी सीट जुटाते हैं उनकी कमी-बेशी के आधार पर आपसी रिश्ते के भविष्य तय होगा कि चलताऊ किस्म का ऐसा नाता बनाए रखना है या नहीं जिसमें जोर एक-दूसरे की गलतियों को ‘भूलने’ पर हो मगर ‘माफ’ करने पर कतई नहीं.

खटपट नई बात नहीं

शिवसेना और बीजेपी के रिश्ते में हमेशा ही खटपट रही है. अस्सी के दशक में अपने वजूद को कायम रखने की सियासी सच्चाइयों के बरक्स दोनों पार्टियों ने एक-दूसरे का हाथ थामा.

1979 में जनता पार्टी के ढहने पर जनसंघ को कांग्रेस-विरोधी गठबंधन से बाहर होना पड़ा और इंदिरा गांधी 1980 में भारी जीत के साथ सत्ता में वापस आईं. पूरे विपक्ष को हताशा ने घेर लिया.

भारतीय जनता पार्टी के बनने की यही पृष्ठभूमि है. पार्टी के नाम में 'जनता' शब्द रखा गया ताकि लोगों को लगे कि वह जेपी आंदोलन के विरासत की वाहक है और 'भारतीय' शब्द रखने के पीछे मंशा यह जताने की थी कि नई पार्टी ‘भारतीय जन संघ’ की राजनीति जारी रखेगी. लेकिन राजनीतिक एकांतवास बना रहा.

इंदिरा की अगुवाई में कांग्रेस के दोबारा उभार के बीच ‘मराठी मानुष’ की पहचान पर जोर देने वाला आंदोलन तक अपनी चमक गंवा चुका था. 1984 का साल और भी खराब साबित हुआ. राजीव गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ने 414 सीटें जीतीं. बीजेपी को लोकसभा की बस दो सीटें हासिल हुईं.

बालासाहेब को दिखा मौका

अटलबिहारी वाजपेयी तक ग्वालियर में माधवराव सिंधिया से हार गये. कोई और पार्टी बीजेपी से हाथ मिलाने के लिए तैयार नहीं थी. बीजेपी के इस वनवास में बालासाहेब ठाकरे की अगुवाई वाली शिवसेना ने सियासी मौका देखा. मराठी प्रमोद महाजन और बालासाहेब ठाकरे के बीच सियासी अकेलेपन को लेकर चर्चा हुई, फैसला हुआ कि यह एकांतवास अब खत्म होना चाहिए. दोनों ने सोचा कि हिंदुत्व का विचार दोनों दलों को एक साथ करने का आधार साबित हो सकता है.

विडंबना कहिए कि बीजेपी ने गांधीवादी समाजवाद का रास्ता अपना रखा था - कुछ तो गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण के प्रति सम्मान जताने के लिए और कुछ संविधान का लिहाज रखने के गरज से. इन बातों पर न तो आरएसएस को यकीन था ना ही शिवसेना को.

दोनों को यह साफ-साफ दिख रहा था कि साथ नहीं आए तो सत्ता में आने की बात तो दूर कहीं सियासी वजूद ही ना मिट जाए. इसी सोच से दोनों 1989 में एक साथ हुए ताकि बोफोर्स-घोटाले और राम मंदिर आंदोलन का अधिक से अधिक फायदा उठाया जा सके. राजीव गांधी शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद के रास्ते पलटकर भारी भूल कर चुके थे. इसे मुल्ला-मौलवियों के जोर के आगे घुटने टेकने वाली बात माना गया.

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बहरहाल, बीजेपी और शिवसेना के बीच भगवा मनमिजाज वाले इस हेलमेल के बावजूद 1989 की वी पी सिंह सरकार को समर्थन देने की बात पर सहमति नहीं बन पायी. बालासाहेब ठाकरे वीपी सिंह के सख्त विरोधी थे. बीजेपी ने वीपी सिंह की सरकार को बाहर से समर्थन दिया.

1987 में राम मंदिर आंदोलन के शुरु होने के बाद हिंदुत्व की राजनीति कहीं ज्यादा मुखर और उग्र हो चली थी. शिवसेना ने हवा का रुख भांप लिया और रणनीतिक चतुराई दिखाते हुए मराठी मानुष की राजनीति को पीछे कर उग्र हिन्दुत्व की राजनीति की राह पर चल पड़ी.

ऐसे में शिवसेना, बीजेपी के भीतर मौजूद उग्र हिन्दूवादी तत्वों के और ज्यादा करीब आई. एलके आडवाणी और प्रमोद महाजन इस तेवर के नुमाइंदे थे. जबकि अटल बिहारी वाजपेयी की अपनी लकीर लचीली और मध्यमार्गी थी.

(यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि एक साल बाद 1990 में वीएचपी-बीजेपी ने आडवाणी को साथ लेकर रथयात्रा की शुरुआत की तो वाजपेयी उसमें शामिल नहीं हुए और न ही इसका समर्थन किया)

बहरहाल, दोनों पार्टियों को अलग करने वाले वर्गभेद पर नजर रखना जरुरी है. संघ परिवार की जड़ें शहराती, अगड़ी जाति, मध्यवर्गीय और नौकरीपेशा बाबुओं में है. दूसरी तरफ, शिवसेना का जन्म ही नव बेरोजगार, उपद्रवी और गुस्सैल मराठी मजदूर वर्ग के बीच सड़कों पर हुआ.

(डोनाल्ड ट्रंप के साथ भी कुछ ऐसा ही है. उनका सामाजिक आधार वही है जो शिवसेना का. इस सामाजिक आधार के साथ अमेरिकी गोरी आबादी की हताशा का भी मेल है).

संघ से अलग सेना

शिवसेना सिर्फ कड़वे बोल बोलने में ही पारंगत नहीं, सड़कों पर उत्पात मचाना भी उसे खूब आता है. संघ परिवार ऐसी राजनीति का खुलेआम समर्थन नहीं कर सकता था. लेकिन जल्दी ही संघ परिवार को समझ में आया कि ‘बच-बचाकर खेलने और महीनी से मार करने’ की जो राजनीतिक शैली उसने अपना रखी है उसे कुछ बाहुबल की भी जरुरत है और शिवसेना के साथ जुड़ने पर यह बाहुबल उसे हासिल हो सकता है.

संघ परिवार ने अपने को गुरू-ज्ञानी के पद पर रखा जो दिमाग से काम लेता है. रणनीति बनाता है और शिवसेना को बाहुबल का प्रतीक मान लिया. बालासाहेब ठाकरे इस बात को समझते थे और इस बात पर नाराज रहते थे कि बीजेपी का नेतृत्व उनके शिवसैनिकों को 'ओछा' समझने का पाखंड करता है.

हुल्लड़बाजी से दूर रहने की संघ की राजनीति की वे हमेशा मजाक उड़ाते थे. कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियन के दम तोड़ने के बाद शिवसेना ने कपड़ा मिल के मजदूरों को संगठित किया था. बीजेपी की इस तबके में कोई पैठ नहीं थी. बीजेपी का मुख्य समर्थक तबका नौकरीपेशा बाबू-वर्ग और व्यापारी थे.

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भगवा गठबंधन के भीतर इस वर्गभेद से अघोषित युद्ध की स्थिति थी. मौजूदा टूट के भीतर भी इस वर्गभेद की झलक देखी जा सकती है. लेकिन असल सवाल यह है कि टूट आगे और कितनी देर तक खींचेगी?

गठबंधन की टूट

अगर बीजेपी मुंबई में शिवसेना से ज्यादा सीट जीतती है तो शिवसेना के भीतर चुनावी लड़ाई को 'भूलने' और 'हिन्दुओं को बचाने' के लिए बीजेपी के साथ आने का दबाव बढ़ेगा. दूसरी तरफ, अगर शिवसेना को ज्यादा सीटें हाथ लगती हैं तो जीत हिंदुत्व से ज्यादा ‘मराठी मानुष’ वाले मुहावरे की मानी जाएगी.

यह कहने का भी खतरा उठाया जा सकता है कि बीजेपी और शिवसेना में किसी को भी बहुमत नहीं मिलेगा. चुनावी जीत की ऐसी त्रिशंकु-दशा आन खड़ी होती है तो भगवापंथी एक साथ रहेंगे.

बहरहाल, तीन हफ्ते बाद अगर बीजेपी यूपी और पंजाब के चुनावों में मुंह की खाती है तो शिवसेना मुंबई नगर निगम में ज्यादा सीटें जीतने की बात पर इतरा सकती है. ऐसे में वह सूबे की सरकार से अपना समर्थन वापस लेगी और मामला मध्यावधि चुनाव का बन पड़ेगा.

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शरद पवार की अगुवाई वाले एनसीपी ने सरकार को बाहर से समर्थन देने की चालाकी दिखाई है. सो इस समर्थन के बूते सरकार का टिके रहना मुश्किल है. एनसीपी का सामाजिक आधार मराठा समुदाय के बीच है और यह समुदाय पहले से ही आंदोलन के मूड में है.

पवार की पार्टी किसी ब्राह्मण मुख्यमंत्री को छह महीने भी समर्थन नहीं दे सकती. मोदी ने पवार को पद्म विभूषण देकर पटाने की चाल चली. यह फडनवीस के खिलाफ एनसीपी के गुस्से को ठंढ़ा रखने का दांव था. लेकिन समाज में अगर बदलाव की लहर तेज चल रही हो तो ऐसे चतुराई भरे दांव से उसे नहीं रोका जा सकता.

एक बात पक्की है—शिवसेना और बीजेपी की टूट अगर अपने तार्किक नतीजे पर पहुंचती है और शिवसेना राज्य तथा केंद्र की सरकार से अपने हाथ वापस खींच लेती है तो इसका अगले तीन साल और उसके बाद की राजनीति पर भी गहरा असर पड़ेगा.