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सियासत में मुस्लिम फैक्टर न होता तो क्या होता?

देश में कभी कोई ऐसा नेता नहीं बन पाया जिसे भारतीय मुसलमानों का नेता कहा जाता.

Updated On: Jan 29, 2017 12:29 PM IST

Nazim Naqvi

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सियासत में मुस्लिम फैक्टर न होता तो क्या होता?

चुनावी मौसम में यूं तो कई सवाल हैं जो बिना पूछे आपसे भिड़ जाते हैं या फिर आप उनसे टकरा जाते हैं.

ऐसा ही एक शाश्वत सवाल है कि अगर हिंदुस्तान की सियासत में मुस्लिम फैक्टर न होता तो क्या होता? यह प्रश्न जैसे ही हमारी सोच में दाखिल होता है, जेहन में ऐसे-ऐसे जवाब आने लगते हैं जिन पर, लगता है, किसी ने कभी ध्यान भी नहीं दिया होगा.

यही खास बात है सियासत में मुसलमानों की. पार्टी कोई भी हो, विचारधारा कैसी भी हो, समर्थन और विरोध की पूरी जिम्मेदारी मुसलमान के नाम पर है. इसी को मुस्लिम फैक्टर कहते हैं और इसीलिए यह सवाल पैदा है कि सियासत में मुस्लिम फैक्टर न होता तो क्या होता?

विरोध या समर्थन की धुरी हमेशा मुसलमान ही क्यों?

प्रतापगढ़ निवासी और एएमयू के विद्यार्थी जफर भाई तो कहते हैं, 'ये जो अनेकता में एकता की बात की जाती है, इस जुमले की धुरी मुसलमान है. वर्गों, नस्लों, जातियों, रंगों, क्षेत्रों और धर्मों में बंटे हुए लोग अगर एकजुट हैं तो मुसलमान के नाम पर. चाहे वो समर्थन में हो या विरोध में.'

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मुसलमानों की सियासत करने वालों के लिए यह ‘बिल्ली के भाग से छींका टूटा’ वाली कहावत जैसा है. लेकिन समझदार मुसलमान इस स्थिति से बेचैन दिखता है. वह नहीं चाहता कि लोग उसके नाम पर सियासत करें.

स्थानीय हो या राष्ट्रीय, चुनाव चाहे कोई हो, अक्सर यही जुमला सुनने में आता है कि कुल मिलाकर इस त्रिकोणीय (या आमने-सामने) मुकाबले में सभी अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं. लेकिन जातीय आंकड़ों में उलझे हुए इस (‘इस’ शब्द की जगह किसी निर्वाचन क्षेत्र का नाम जोड़ दें) चुनाव में ‘इस बार’ उम्मीदवारों की जोड़-तोड़ का केंद्र मुस्लिम मतदाता है. वह जिधर झुक गया, उसी का पलड़ा भारी होगा.'

मजे की बात यह है कि ये ‘इस बार’, हर बार होता है फिर भी हमेशा ‘इस बार’ ही कहा जाता है.

हिंदू फैक्टर क्यों नहीं?

hindu-muslim voters

चलिए अब अपने दिमाग से एक दूसरा सवाल पूछिए कि हिंदू फैक्टर पर कोई बात क्यों नहीं होती? अब आप देखेंगे कि आपकी सोच कोई जवाब नहीं दे पा रही है. जानते हैं क्यों? क्योंकि इस देश में हिंदू फैक्टर नाम की कोई चीज है ही नहीं.

हिंदू फैक्टर के नाम पर बात हमेशा जातियों में फंस जाती है, ब्राह्मण वोट, बनिया वोट, ठाकुर वोट. हालांकि यह सारे वर्ग हिंदू धर्म के मानने वाले हैं लेकिन चुनाव के माहौल में ये अपनी जाति के हो जाते हैं.

इस वजह से ये हिंदू फैक्टर न होकर ठाकुर, बनिया और पंडित फैक्टर बन जाते हैं. पाठक यह न समझें कि यह समझ सबकी होती है लेकिन वोट देने से एक दिन पहले किसी भी जाति के एक बड़े वर्ग की सोच अमूमन यही होती है.

दलित फैक्टर 

इसके बाद आता है एक तीसरा फैक्टर- दलित फैक्टर. इसका मर्सिया कोई नहीं पढ़ता. आजादी के बाद एक लंबे समय तक ये कांग्रेस के बाड़े में खड़े रहते थे.

अब इन्हें, कांशीराम और मायावती जैसे रिंगलीडर मिल गए हैं. इनके बारे में कोई बात कैसे की जाए और किस मुंह से की जाए इन पर कोई बात.

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‘जे जे कालोनी' जैसी फैली हुई कॉलोनियां, जहां एक औसत कद का आदमी भी अगर इन गलियों से गुजरे तो इनकी छतों पर रखी हुई चीजें नजरों से टकराती हुई चलती हैं. यह सही है कि मुख्यधारा में आकर दलितों ने खुद सोचना शुरू कर दिया है लेकिन एक बड़ा वर्ग अभी भी ठेके पर उपलब्ध है.

भारतीय मुसलमान भी बंटे हैं जातियों में 

indian muslims

जिक्र है मुसलमानों का तो चलिए मुसलमानों की ही बात करते हैं. इनके यहां भी ऊंची जातियां और नीची जातियां हैं. सैयद हैं, खान हैं, बनिए हैं, जुलाहे हैं, नाऊ हैं, मेहतर हैं, काश्तकार हैं, बनिए हैं.

सिद्धांततः यही माना जाता है कि क्रिश्चियन हों या मुसलमान, मजहब के आईने में सब बराबर हैं. लेकिन हकीकत यह है कि सामाजिक ताने-बाने में, इनके यहां भी वर्ग-व्यवस्था है.

यह इसलिए है कि यह भारतीय मुसलमान हैं. इन्होंने सदियों पहले भले ही अपना मजहब किसी भी वजह से बदल लिया हो लेकिन वह मजहब इनके सामाजिक ताने-बाने को नहीं तोड़ पाया है. यहां भी हड्डी से हड्डी का जोड़ मिलाया जाता है. सैयद मेहतर के यहां शादी नहीं करता.

इस हकीकत से रु-ब-रु होने के बाद मुसलमानों के प्रतिनिधि और एक बड़े शायर ‘अल्लामा इकबाल’ का यह शेर याद कीजिए.

एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद-ओ-अयाज़ I

फिर कोई बंदा रहा, और ना कोई बंदा-नवाज़ II

वास्तविकता को देखने के बाद यह बात झूठी लगती है. हिंदुस्तान में आने वाले बाहरी मजहब, जैसे इस्लाम या क्रिश्चियनिटी, आए तो उनका स्वागत ही समानता के उनके सिद्धांतों को देखते हुए किया गया.

लेकिन इस त्रासदी को समझते-समझते सदियां बीत गईं कि जो, जिस वर्ग-व्यवस्था से इन धर्मों में गया था, वहां भी उसी श्रेणी में रहा. मतलब लोग ईसाई या मुसलमान तो बन गए लेकिन उनकी सामाजिक स्थिति वही रही. यह एक ऐसा सच है जिस पर पर्दा डाला जाता रहा है और आगे भी डाला जाता रहेगा.

चुनावी मौसम में सब मुसलमान 

muslim congess

लेकिन जब चुनाव आता है तो यह सब मुसलमान कहलाते हैं. सैयद से लेकर मेहतर तक सब मुसलमान कहकर बुलाए जाते हैं.

हालांकि बिहार में मुसलमानों के इस अंतर को मान्यता देने के प्रयास हुए और अति पिछड़े मुस्लिम-समाज को ‘पसमांदा-मुस्लिम’ कहकर उनके प्रति विशेष- ध्यान देने की कोशिशें हुईं.

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आइए, सियासत में इनके अनुपात पर भी एक नजर डाल लीजिए तो तस्वीर आपके जेहन में बिलकुल साफ हो जाएगी. यूपी में मुसलमानों की कुल आबादी करीब 40 करोड़ है, यानी करीब 19.3 फीसदी. इनकी मौजूदगी सीधे-सीधे 147 सीटों पर असर डालती है.

एक अनुमान के मुताबिक, जातियों में बंटे मुसलमानों की अगर बात की जाए तो ये 68 से ज्यादा जातियों में बंटे हुए हैं. इनमें अशराफ और अफजाल दोनों आते हैं. अशराफ यानी सैयद, शेख, पठान आदि. अफजाल में बाकी जातियां आती हैं, जिनमें 35 जातियां ओबीसी में शामिल हैं. हालांकि ये सरकारी आंकड़े नहीं हैं.

कोई मुसलमान एकछत्र मुसलमानों का नेता नहीं 

इन सारी वास्तविकताओं के साथ यह भी एक हकीकत है कि इस देश में कभी कोई ऐसा नेता नहीं बन पाया जिसे भारतीय मुसलमानों का नेता कहा जाता.

ऐसा नहीं कि लोगों ने इसके लिए प्रयास नहीं किया लेकिन खुद मुसलमान इतने बंटे हुए हैं कि यह कोशिश कभी कामयाब नहीं हो पायी.

दूसरी सच्चाई यह भी है कि भारतीय राजनीति की तरह ही भारतीय चुनाव भी उलझे हुए हैं. यहां कब वोटर किस ओर मुड़ जाए कहना मुश्किल है. खास तौर पर मुस्लिम वोटर तो अपना वोट किसी ऐसे उम्मीदवार की झोली में भी डाल आता है जिसे वह पसंद भी नहीं करता.

जानते हैं वो ऐसा क्यों करता है? सिर्फ इसलिए और इस सोच की वजह से कि वह उम्मीदवार किसी ऐसे उम्मीदवार को हराने में कामयाब होने वाला लगता है जिसका डर उनके दिलोदिमाग में बेठा दिया गया है.

पिछले 70 वर्षों में अनगिनत ऐसी किताबें आई हैं जिनमें उन कारणों पर इशारा किया गया है जिसने एक पूरी मुस्लिम सोच को चुनाव के वक्त की देश की सोच से अलग रखने का काम किया है.

खुद मुसलमान इसका कोई वाजिब हल नहीं ढूंढ पाता और बस यह सोचकर रह जाता है कि उसे एक साजिश के तहत ही पीछे धकेला जा रहा है.

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