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पत्थलगड़ीः कितना सफल और असफल रहा आदिवासियों का यह आंदोलन

19 जुलाई को सिलादोन पंचायत के चितरामू गांव में संविधान की व्याख्या वाली पत्थल को ग्रामीणों ने तोड़ दिया. चितरामू में पिछले साल ही पत्थलगड़ी की गई थी

Anand Dutta

साल 2018 में देशभर में जितने सामाजिक मगर राजनीति से प्रभावित आंदोलन हुए उसमें खूंटी जिले में चले पत्थलगड़ी आंदोलन ने देशभर का ध्यान अपनी तरफ खींचा. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जिले के कुल 756 गांवों में से 67 गांवों में पत्थलगड़ी हुई. बीते 19 जुलाई को सिलादोन पंचायत के चितरामू गांव में संविधान की व्याख्या वाली पत्थल को ग्रामीणों ने तोड़ दिया. चितरामू में पिछले साल ही पत्थलगड़ी की गई थी.

अब ग्रामीणों के एक गुट का मानना है कि नए स्वरूप की पत्थलगड़ी द्वारा लोगों को संविधान की गलत व्याख्या कर आदिवासी संस्कृति और परंपरा को दिग्भ्रमित किया जा रहा है. इस प्रकार के पत्थलगड़ी में सरकारी योजनाओं, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य विकास कार्यों से लोगों को दूर रखा जा रहा था. 21 जुलाई को राज्य सरकार इसी गांव में विकास मेला लगाने पहुंची. इसके माध्यम से गांव में जरूरत के हिसाब के पीसीसी सड़क, स्ट्रीट लाइट, सोलर लाइट, पीने के पानी, इंदिरा आवास आदि की व्यवस्था कराई जाएगी.


एक को छोड़ सभी नेता गिरफ्तार, नहीं मिला विपक्ष का साथ

युसूफ पुर्ति को छोड़ इस आंदोलन के सभी नेता गिरफ्तार कर लिए गए हैं. बीते एक माह से किसी भी नए इलाके में पत्थलगड़ी नहीं हुई है. यहां तक कि पत्थलगड़ी समर्थकों को विपक्षी पार्टियों का भी खुलकर साथ नहीं मिला. इसकी बानगी तो विधानसभा के मॉनसून सत्र में भी देखने को मिला, जहां इस पूरे प्रकरण में महज एक मिनट की चर्चा हेमंत सोरेन ने की. ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि यह आंदोलन कितना सफल रहा और कितना असफल.

आंदोलन अब तक सफल, सैन्य इस्तेमाल के बाद भी सरकार असफल

लेखक अश्विनी पंकज फ़र्स्टपोस्ट से अपनी बातचीत में कहते हैं कि पत्थलगड़ी आंदोलन को तीन तरह से देख सकते हैं. पहला सरकार के लिए क्या मायने हैं? दूसरा समाज के लिए क्या हैं? और तीसरा आंदोलन से जुड़े लोगों के लिए और एक वर्ग जो दूर से उनको देखता है उनके लिए क्या मायने है. इस तरह सरकार के लिए मामला असफल ही रहा है क्योंकि एक बड़े सैन्य कार्रवाई, विकासीय प्रलोभनों के बाद भी पत्थलगड़ी अभी तक मात्र एक गांव में टूटी है.

जिस जगह पर पत्थल गिराया गया है, उसे गिरानेवालों में महिलाएं शामिल नहीं है. जबकि जितनी जगहों पर पत्थलगड़ी हुई है, महिलाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया है. इस असहमति की प्रक्रिया में महिलाएं कहीं नहीं हैं. तोड़नेवालों को अपने ही गांव का जनसमर्थन हासिल नहीं है. जहां तक आंदोलन से जुड़े लोगों की बात है तो फिलहाल राजकीय दमन की वजह से वह शांत हैं. लेकिन अंदर ही अंदर काम हो रहा है.

कहां फंसी बीजेपी सरकार

पुलिसिया दमन के खिलाफ राज्य की विपक्षी पार्टियों सहित देशभर से प्रतिक्रियाएं आने लगी. सबने इसकी आलोचना की. बीजेपी के अंदर ही खूंटी के सांसद करिया मुंडा, पूर्व सीएम अर्जुन मुंडा ने सरकार की आलोचना की. यहां तक कि पुलिस विभाग के अंदर अधिकारियों के बीच इसको लेकर मतभेद उभर आए. मारपीट के बाद राज्यभर के आदिवासियों की सहानुभूति खूंटी के आदिवासियों के साथ जुड़ने लगी. विपक्षी पार्टियों और कई एनजीओ ने अपने दल भेजकर मामले की जांच के लिए कमेटियां भेजने लगीं.

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इसके साथ ही विकास के पैमाने पर खूंटी को आंकते हुए कई रिपोर्ट्स भी प्रकाशित होने लगे, जिसमें सरकार की बेइज्जती ही हो रही थी. इसको पाटने के लिए जब 11 जुलाई को अमित शाह झारखंड के एक दिवसीय दौरे पर पहुंचे तो उन्होंने आदिवासी बुद्धिजीवियों के साथ संवाद स्थापित किया था. जिसमें साफ कहा गया कि पत्थलगड़ी के बहाने कुछ लोग राजनीति कर रहे हैं और भोले-भाले आदिवासियों को विकास से दूर किया जा रहा है. हालांकि यह संवाद एकतरफा ही था, जिसमें केवल अमित शाह ने अपनी बात रखी.

इधर विकास का हाल ये है कि बीते 17 जुलाई को जिला मुख्यालय भवन से सटे खेत में दो महिलाओं की मौत करंट लगने से हो गई थी क्योंकि खेत में बांस के सहारे बिजली का तार लगाया गया था. यहां धान रोपने गई महिला की बच्ची उस बांस के नजदीक गई, उसे बचाने के चक्कर में बच्ची की मां और दादी की मौत हो गई.

यहां पिछड़ गए आंदोलनकर्मी

आंदोलनकर्मियों को सबसे बड़ा झटका लगा कोचांग गैंगरेप कांड के बाद. जिसमें गिरफ्तार आरोपी ने पुलिस को दिए बयान में कहा कि पत्थलगड़ी से जुड़े लोगों ने उसे ऐसा करने को उकसाया. इसके बाद प्रमुख नेता युसूफ पूर्ति के घर सरकारी कागजात (बैंक खाते, आधार कार्ड) का मिलना, गिरफ्तार लोगों के परिजनों का सरकारी नौकरी करना, अंडरग्राउंड चल रही बबीता कच्छप के पासपोर्ट का मिलना. सांसद करिया मुंडा के सुरक्षाकर्मियों का अपहरण करने का दांव तो बिल्कुल ही उल्टा पड़ गया. आंदोलन के खास रोडमैप का न होना. गुजरात के जिस व्यक्ति (कुंवर राजेंद्र सिंह) को यह असली भारत सरकार मानते हैं, उनका साफ कहना कि उन्हें इस आंदोलन से कोई मतलब नहीं.

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मानवाधिकार कार्यकर्ता और इस आंदोलन पर पैनी निगाह रखनेवाले ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं कि इस आंदोलन से राज्य से लेकर केंद्र सरकार तक हिल गई. इस लिहाज से तो यह जबरदस्त तरीके से सफल रहा. लेकिन रणनीति के स्तर पर कमजोरी की वजह से यह रुक गया है. जिस गुजरात के सती-पति आंदोलन का रेफरेंस दिया गया, उसे यहां के लोग समझ नहीं पाए. बजाए इसके पेसा कानून, विकास, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़ते तो सरकार जवाब देने की स्थिति में नहीं होती. चूंकि आंदोलन के माध्यम से सरकार की विफलता बाहर आ रही थी, ऐसे में सरकार द्वारा इसका दमन तो करना ही था.

कुछ वाजिब सवाल

जिनको गिरफ्तार किया गया है और जिनपर देशद्रोह और सरकारी कामकाज में बाधा पहुंचाने का मुकदमा लगा है, क्या सरकार इसे वापस लेगी? या फिर चुनाव के वक्त विपक्ष इसको मुद्दा बनाएगी? जिस जगह पर पत्थल गिराए गए हैं, या जिन जगहों पर गिराया जाएगा, वहां किस तरह की पत्थलगड़ी होगी? क्या सरकार पत्थलगड़ी वाले हर गांव में असंतुष्ट तबका तैयार कर लेगी जो उसे गिराएगी? क्या आंदोलन नए सिरे से खड़ा होगा जिसमें पेसा एक्ट को केंद्र में रखकर राजनीतिक दलों को घेरा जाएगा. ग्रामीण चंदे के अलावा आंदोलन के लिए पैसों का इंतजाम कहां से किया जाएगा? जिले में कुल 756 गांव हैं, जिनमें केवल 67 गांवों में पत्थलगड़ी हुई है. बाकि बचे गांवों में सरकार ने विकास काम के लिए मेला क्यों नहीं लगाया? जिन गांवों ने आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया, क्या वहां भी सरकार इतना ही ध्यान देगी?

इस पर खूंटी डीसी सूरज कुमार का कहना है कि यह गलत प्रचारित हो रहा है कि जिन गांवों में पत्थलगड़ी नहीं हुई है, वहां विकास काम नहीं हो रहा है. सरकार पहले से विभिन्न योजनाओं को वहां पहुंचाने में लगी है. पत्थलगड़ी प्रभावित गांवों के लिए स्पेशल टीम बनाकर जरूर योजनाएं पहुंचाई जा रही है. इसके तहत गांववालों से ही पूछा जाता है कि उन्हें क्या चाहिए. फिलहाल तो सड़क, खेती के सामान, पीने के पानी और सामुदायिक भवन की डिमांड मुख्य तौर पर सामने आ रही है.

सभी तस्वीरें आनंद दत्ता द्वारा ली गई हैं

ग्रामीणों ने जला दिए थे आधार और वोटरकार्ड

इससे पहले आंदोलनकर्मियों ने भारत सरकार का विरोध किया, खुद की सरकार चलाने की बात कही. जिले के 70 से अधिक गांवों में पत्थलगड़ी कर वहां बिना ग्रामसभा की अनुमति के प्रवेश वर्जित कर दिया. सरकारी योजनाओं, सुविधाओं को त्याग दिया. यहां तक कि आधार, वोटर कार्ड, बैंक अकाउंट संबंधित कागजात तक जला दिए. सरकार से ठन गई. आंदोलनकर्मियों और पुलिस के बीच हिंसक झड़प हुई.

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पुलिसिया दमन में बिरसा मुंडा नामक एक ग्रामीण की मौत हो गई, सरकार की ओर से इसे असंवैधानिक बता 50 से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. इस बीच जिले के कोचांग गांव में पांच महिलाओं के साथ गैंगरेप की घटना सामने आई. पुलिस ने कहा कि इसमें पत्थलगड़ी समर्थकों का हाथ है. झड़प के दौरान खूंटी के सांसद करिया मुंडा के आवास पर तैनात सुरक्षाकर्मियों का पत्थलगड़ी समर्थकों ने अपहरण भी कर लिया.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)