view all

नगालैंड विवाद में भारतीय संघ के लिए सीखने लायक बहुत कुछ

यदि भारत का भविष्य संघीय शासन में है तो उसे छोटे-छोटे राज्यों की भावनाओं का सम्मान करना होगा.

Mukesh Bhushan

एक केंद्रीय कानून लागू करने में नगालैंड की हिचकिचाहट इन दिनों सुर्खियों में है. इनमें प्रकाशित हो रहा है कि स्थानीय जनजातीय समुदाय महिलाओं को वह अधिकार नहीं देना चाहता जो शेष भारत में उन्हें मिल रहा है.

ये सुर्खियां स्थानीय लोगों को बेचैन कर रही हैं. उन्हें लगता है कि इससे नगालैंड की संस्कृति बदनाम हो रही है. मामला अर्बन लोकल बॉडी इलेक्शन (यूएलबी) में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का है.


वे पूछते हैं कि जो समाज विलेज डेवलपमेंट बोर्ड (वीडीबी) में महिलाओं को 25 फीसदी आरक्षण पहले से ही दे रहा हो, उसे यूएलबी में महिलाओं से क्या परहेज हो सकता है?

विवाद इतना बढ़ चुका है कि मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग की कुर्सी खतरे में है. जनता सड़क पर है और शासन करीब दो सप्ताह से निष्क्रिय बना हुआ है. यह तो आने वाला समय बताएगा कि जेलियांग अपनी कुर्सी कैसे बचाएंगे.

प्रकृति-पूजा पर भारी पड़ती शक्ति-पूजा

अपनी संस्कृति के बारे में इनकी चिंता बेवजह नहीं है. जनजातीय संस्कृति पर खतरा सिर्फ नगालैंड में ही नहीं है. पूरी दुनिया में वह संस्कृति खत्म होती जा रही है जहां ‘प्रकृति की पूजा’ होती है.

भारत में करीब 11 करोड़ लोग ही ऐसे बचे हैं जिनके जीवन-यापन के केंद्र में प्रकृति है. देश की बाकी आबादी ‘शक्ति की पूजा’ ही करती है. सत्ता ऐसी ही शक्तियों का केंद्र है. जबकि, जनजातीय दर्शन में सत्ता अमूल्य हसरत नहीं, व्यवस्थागत जरूरत भर है. संस्कृतियों के मिलन से यह दर्शन लुप्तप्राय होता जा रहा है. शक्ति केंद्रित जीवन-दर्शन को ‘ग्लोबल मार्केट’ का भी साथ मिला हुआ है.

आदिवासी समुदाय में भी ऐसे लोगों की अब कोई कमी नहीं रह गई है जो शक्ति की अराधना में लीन हो चुके हैं. ऐसे लोग किसी भी तरह स्वयं को सत्ता के केंद्र में रखने की जुगत लगाते रहते हैं. सीएम जेलियांग भी केंद्र की सत्ता पर आसीन बीजेपी के साथ मिलकर ऐसी ही जुगत में लगे हैं.

उन पर आरोप है कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘यूनिफार्म सिविल कोड’ के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए रास्ता बना रहे हैं. महिला अधिकारों की आड़ में वे संविधान में नगालैंड को मिले विशेष दर्जे को कमजोर कर रहे हैं. जबकि, बिना किसी बाहरी दबाव (केंद्रीय कानून) के भी महिलाओं के लिए प्रावधान किए जा सकते हैं.

पूर्वोत्तर के ही राज्य मेघालय में तीन प्रमुख जनजातीय समाज खासी, जयंतिया और गारो औपचारिक तौर पर मातृसत्तात्मक हैं. जहां शादी के बाद पुरूष महिला के घर रहने जाता है. जहां परिवार की मुखिया मां होती है और संपत्ति का उत्तराधिकार छोटी बेटी को मिलता है.

वहां भी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है. पिछले विधानसभा चुनाव में 60 में सिर्फ चार महिलाएं विधायक चुनी जा सकीं.

अब तक एक भी महिला विधायक क्यों नहीं

नगालैंड में भी महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को इसी लिहाज से देखा जाना चाहिए. पिछले विधानसभा चुनाव में यहां दो महिलाएं मैदान में उतरीं पर जीत नहीं सकी. भारतीय संविधान की छठी अनसूची में शामिल पूर्वोत्तर के इस छोटे से राज्य में अबतक एक भी महिला विधायक नहीं चुनी जा सकी हैं. सिर्फ 1977 में एक महिला रानो एम शाइजा लोकसभा के लिए चुनी गई थी.

समाजशास्त्री और नार्थ-ईस्ट हिल यूनिवर्सिटी, शिलांग के रिटायर्ड प्रोफेसर महेंद्र नारायण कर्ण इस बात पर जोर देते हैं कि पूर्वोत्तर की जनजातियों को उत्तर भारतीय नजरिए से नहीं समझा जा सकता. अलग-अलग जनजातियों के अलग-अलग रीति रिवाज हैं. उनके एकदम अलग ‘कस्टमरी लॉ’ हैं. महिलाओं की स्थिति वैसी नहीं है जैसी देश के अन्य हिस्सों में नजर आती है.

यह भी पढ़ें: नागालैंड में महिला आरक्षण पर इतना हंगामा क्यों बरपा है?

हालांकि, वे कहते हैं कि मेघालय की तीन जनजातियों को छोड़कर पूर्वोत्तर की अन्य जनजातियों को हम ‘डाइंग मैट्रीआर्कल’ समाज कह सकते हैं. इसके बावजूद समाज में महिलाओं की प्रधानता है. पढ़ाई-लिखाई, कामकाज सबमें महिलाओं की अच्छी भागीदारी है. महिलाओं के प्रति अपराध नहीं के बराबर हैं. उनके प्रति समाज का नजरिया सम्मानजनक है.

महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी नहीं होने की वजह को वह इस उदाहरण से समझाने की कोशिश करते हैं कि ‘यह ठीक वैसे ही है जैसे कोई समाज शिक्षा की जरूरत को पहले समझकर उसमें आगे बढ़ जाता है. वह तमाम सरकारी नौकरी हथिया लेता है. बाकी ऐसा नहीं कर पाते. यहां भी ऐसा ही है. महिलाओं की प्रधानता के बावजूद उनकी रुचि राजनीति में नहीं है’.

राजनीति में पुरुष बनाम महिला

हालांकि, ‘नगा मदर्स एसोसिएशन’ की सलाहकार व नगालैंड यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर रोजमेरी ऐसा नहीं मानतीं. वे कहती हैं कि हमेशा से पुरुष यही चाहते हैं कि महिलाएं घरेलू काम करें, पानी लाए, कपड़े बनाए और कपड़े साफ करे.

नगा मदर्स एसोसिएशन वही संगठन है जिसने म्युनिसिपल चुनावों में महिलाओं को आरक्षण देने के लिए बनाए गए केंद्रीय कानून को नगालैंड में लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी.

उसी की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के खंड 243 टी को लागू करते हुए यूएलबी इलेक्शन में महिलाओं को आरक्षण देने का निर्देश दिया था. इस एसोसिएशन का सत्ता के साथ नजदीकी रिश्ता जगजाहिर है.

रोजमेरी मानती है कि नगा पुरुषों को अपना कैरियर चुनने की आजादी है. यह आजादी परंपरागत आदिवासी समाज महिलाओं को नहीं देता. इसलिए चुनाव में महिलाओं का आरक्षण बहुत जरूरी है. सामान्य तौर पर चुनाव लड़कर वे नहीं जीत सकतीं.

यह भी पढ़ें: नागालैंड में हिंसा, प्रदर्शनकारियों ने सीएम का घर फूंका

उनके विरोधियों का तर्क है कि देश के उन इलाकों की स्थिति भी देखना चाहिए जहां महिलाओं को आरक्षण मिला हुआ है. कैसे आरक्षित सीटों पर जीतने के बावजूद सत्ता पर उनके पतियों का कब्जा है. और चुनावी भागीदारी के बावजूद राजनीति में महिलाओं को सम्मानित नजरिए से नहीं देखा जाता.

यह सच है कि विभिन्न आदिवासी समूह महिलाओं के राजनीति में आने को अपनी परंपरा के खिलाफ मानते हैं. पर, यह भी सच है कि राज्य विधानसभा से पारित कानून के अनुसार ही वीडीबी में एक चौथाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित है. इसका कोई विरोध भी नहीं है. अपने गांवों की जरूरतों के लिए महिलाएं उन अधिकारों का बखूबी उपयोग कर रही हैं जैसा पुरुष करते हैं.

विरोधाभासों के बावजूद मानवीयता का सम्मान

प्रदर्शनकारियों ने कोहिमा म्युनिसिपल कौंसिल के दफ्तर को जला दिया (पीटीआई)

नगालैंड में करीब 32 आदिवासी समुदायों का निवास है, जिनमें 16 प्रमुख माने जाते हैं. सभी समुदायों के अपने सुप्रीम संगठन हैं, जिन्हें होहो कहा जाता है. विभिन्न आदिवासी समुदाय अपने-अपने होहो के दिशा-निर्देश का पालन करते हैं. होहो अपने-अपने कबीलों के रीति-रिवाजों और प्रथाओं के प्रति संवेदनशील रहते हैं.

किसी कबीले में बहुपत्नीक शादी की प्रथा है तो किसी में एक पत्नी रखने की ही इजाजत है. किसी में शादी से पहले यौन संबंध बनाना सामान्य बात है तो किसी में इसे अच्छा नहीं माना जाता. किसी में अपने वंश में शादी की इजाजत है तो किसी में नहीं है.

तमाम विरोधाभासों के बीच जो बात सामान्य है वह यह कि शादी के मामले में महिलाओं की इच्छा का सम्मान किया जाता है. न तो शादी जबरन होती है और न ही जबरन सेक्स संबंध बनाए जाते हैं. इसके लिए दोनो की सहमति जरूरी शर्त है. यहां तक कि तलाकशुदा और विधवा विवाह को सामाजिक मंजूरी है.

सबसे महत्वपूर्ण यह कि अपने रीति-रिवाजों को तोड़कर की गई शादियों को भी मान्यता दी जाती है. यानी व्यक्तिगत इच्छाओँ और सामाजिक प्रतिबद्धताओं के बीच अनोखा तालमेल है.

विधानसभा चुनाव संबंधी खबरों को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें 

यह तालमेल प्रकृति का सम्मान करनेवाले समाज में ही संभव है. संभवतः यही वजह है कि महिलाओं के लिए यह राज्य पूरे देश में सबसे सुरक्षित माना जाता है. यही एक राज्य है जहां महिलाओं के खिलाफ अपराध के आंकड़े सिंगल डिजिट में हैं.

इसके विपरीत हम पाते हैं कि गैर-जनजातीय समाज में सबसे पहले महिला की इच्छाओं पर ताला लगाया जाता है. इज्जत के नाम पर महिला की इच्छा का दमन तो आम बात है, हत्या तक की जा सकती है. तलाक और विधवा विवाह को कानूनी मंजूरी जरूर मिली हुई है पर सामाजिक मान्यता मिलना अब भी बाकी है.

पूरे देश के लिए सीखने लायक बातें

दरअसल नगालैंड के ताजा विवाद में पूरे देश को सीखने के लिए बहुत कुछ है. सबसे पहले तो यही कि यदि भारत का भविष्य संघीय शासन में है तो उसे छोटे-छोटे राज्यों की भावनाओं का सम्मान करना होगा.

सत्ता के विकेंद्रीकरण की जो माला मुख्यधारा के राजनीतिज्ञ जपते रहते हैं, वह नगालैंड की सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था में काफी हदतक पहले से ही मौजूद है. सामाजिक व्यवस्था पर असर डालनेवाले केंद्रीय कानून के विरोध की एक प्रमुख वजह भी यही है.

दूसरी सीखनेवाली बात ग्रामस्वराज की अवधारणा से संबंधित है. यदि सचमुच ग्राम-स्वराज्य चाहिए तो हम सीख सकते हैं कि कैसे यहां विकास की योजनाएं नीचे से ऊपर की ओर यात्रा करती हैं. ऊपर से नीचे थोपी नहीं जाती. गांव की जरूरतों के लिए सरकारी निर्भरता लगभग नहीं है.

हालांकि, यह ‘ग्लोबल विलेज’ की अवधारणा के अनुकूल नहीं है. ग्लोबल लीडरों को विक्रेंद्रित सत्ता से निपटने में ज्यादा ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है. ईस्ट-इंडिया कंपनी को इसी कारण पूरे भारत में पांव पसारने में काफी समय लगा था.

यह भी पढ़ें: मणिपुर चुनाव 2017: सीएम इबोबी के खिलाफ मैदान में इरोम शर्मिला

लेकिन, अब ऐसा नहीं होता. केंद्र सरकार ने काम काफी आसान कर दिया है. इसे ‘इज ऑफ बिजनेस’ कहा जाता है. नगालैंड जैसे आदिवासी बहुल राज्य बाजार के अनुकूल नहीं बन पाए हैं. उन्हें ऐसा बनाने के हर संभव प्रयास जारी हैं.

तीसरी बात जो सीखी जा सकती है वह यह कि असंवेदनशील और अतार्किक परंपराओं व रीति-रिवाजों को खत्म करने के लिए कानून का हथौड़ा चलाने से पहले शिक्षा और संवाद को मौका देना चाहिए. खासकर वैसे समाज के लिए जहां अनंत हसरतों से ज्यादा बुनियादी जरूरतों को महत्व दिया जाता हो.

यदि महिलाएं राजनीति में आने की जरूरत समझेंगी तो उन्हें नगालैंड में ऐसा करने से कौन रोक पाएगा? चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि वहां महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों से ज्यादा है. राज्य में 76.11 फीसदी महिलाएं शिक्षित भी हैं. राज्य का साक्षरता दर 79.55 फीसदी है, जो राष्ट्रीय औसत (70.04 फीसदी) से कहीं ज्यादा है.

सबसे जरूरी यह सवाल है कि क्या नगालैंड को सिखाने के बदले, हम उससे कुछ सीखना चाहते हैं? इसके लिए ताकत का इस्तेमाल बंद करना ही पहली शर्त है.