क्या किसी मातृसत्तात्मक समाज में भी महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए आरक्षण की जरूरत है? और क्या ऐसे समाज में भी महिला-आरक्षण का इतना व्यापक और हिंसक विरोध हो सकता है कि मुख्यमंत्री सहित पूरी कैबिनेट को जान का खतरा हो जाए और उन्हें दो दिनों तक अपने घरों से बाहर न निकलने दिया जाए?
नगालैंड में 28 जनवरी के बाद से जो कुछ सामने आया है, उसने ऐसे कई सवालों को जन्म दिया है जिनका उत्तर खोजा जाना चाहिए. इसी से जुड़े कुछ और सवाल भी हैं जो 28 जनवरी के पहले के घटनाक्रमों की पड़ताल करने पर सामने आते हैं.
इन सबके बीच ‘नेशनल गवर्मेंट’ व ‘नेशनल मीडिया’ का ‘नेशनल करेक्टर’ भी सवालों के घेरे में है, जो उत्तर-पूर्व राज्यों की सुलगती चिंगारियों को देखने की जहमत नहीं उठाता. वह वहां तभी देखता है जब आग भड़क चुकी होती है और देखता भी उतना ही है जितना ‘बाइसकोप’ में दिखाया जाता है.
लोकल बॉडी चुनावों का विरोध
नागालैंड फिर जल रहा है. दीमापुर में पुलिस फायरिंग में 31 जनवरी की देर रात मारे गए दो युवकों का अंतिम संस्कार काफी जद्दोजहद के बाद शुक्रवार 3 फरवरी को कर दिया गया. एक फरवरी को हुआ अर्बन लोकल बॉडी (यूएलबी) चुनाव फिलहाल रोक दिया गया है. इसी चुनाव का विरोध करते हुए दोनों युवकों को जान गंवानी पड़ी.
फौरी तौर पर बनी नागालैंड ट्राइबल एक्शन कमेटी (एनटीएसी) मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग के इस्तीफे की अपनी मांग पर अड़ी हुई है. इसी के साथ पुरानी मांग भी कायम है कि भारतीय संविधान के खंड 243 टी को राज्य में लागू न किया जाए. इसी कानून के तहत यूएलबी इलेक्शन में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान है. सामाजिक रूप से शक्तिशाली स्थानीय समूह इसे किसी भी कीमत पर मानने को तैयार नहीं है.
इससे सतही धारणा तो यही बनती है कि शक्तिशाली स्थानीय समूह महिला आरक्षण का विरोधी है. मीडिया की मुख्यधारा यही समझ रही है और देश की सरकार भी यही समझाना चाह रही है, पर हकीकत इससे कोसों दूर है.
पूर्वोत्तर में ज्यादातर जनजातीय समूह मातृसत्तात्मक हैं. यहां न सिर्फ पारिवारिक व सामाजिक बल्कि आर्थिक तौर पर भी महिलाएं ताकतवर हैं.
‘आंचल में दूध’ और ‘आंखों में पानी’ लिए घूमनेवाली महिलाएं यहां नहीं हैं. इसीलिए महिला-आरक्षण के मुद्दे को यहां उसी तरह नहीं देखा जा सकता जैसा देश के अन्य पितृसत्तात्मक इलाकों में दिखता है.
ताजा हिंसा की वजह
राज्य का प्रमुख अखबार ‘नागालैंड पोस्ट’ लिखता है कि ‘विरोध महिला आरक्षण का नहीं बल्कि, सरकार द्वारा दिए गए ‘धोखे’ का हो रहा है’. नागालैंड बैप्टिस्ट चर्च की मध्यस्थता में 30 जनवरी 2017 को चुनाव विरोधी ज्वाइंट को-आर्डिनेशन कमेटी (जेसीसी), आरक्षण मांगने वाले संगठन नागा मदर्स एसोसिएशन (एनएमए) और सरकार के प्रतिनिधियों में एक सहमति बनी थी.
एनएमए वही संगठन है, जिसने यूएलबी चुनाव में महिलाओं को आरक्षण देने के लिए 2012 में सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी. सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2016 में एनएमए के पक्ष में फैसला किया था. तभी से यहां यूएलबी चुनाव कराने पर राजनीति गर्म हो रही थी.
बहरहाल, 30 जनवरी को बनी सहमति में यह तय हुआ था कि महिला-आरक्षण का मुद्दा स्थानीय रीति-नीति (कस्टमरी लॉ) को ध्यान में रखकर आपसी सहमति से तय किया जाएगा. इसका रास्ता बनाने के लिए सरकार यूएलबी चुनाव दो माह के लिए टाल देगी. इसके बाद जेसीसी ने 01 फरवरी के बंद का निर्णय वापस ले लिया था.
लेकिन, 31 जनवरी को राज्य की नागा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) सरकार ने, जिसमें बीजेपी शामिल है, सहमति का उल्लंघन करते हुए चुनाव रोकने का निर्णय वापस ले लिया. इससे नाराज स्थानीय नागरिकों ने उपद्रव करना शुरू कर दिया. इस उपद्रव को उग्रवाद का रास्ता छोड़ने को तैयार हो चुके संगठन एनएससीएन(इसाक-मुइवा) का भी समर्थन मिला. नतीजा यह है कि पूरे नागालैंड में कर्फ्यू जैसी स्थिति है. राजधानी कोहिमा में सीमित आवाजाही की ही छूट है तो दीमापुर व आसपास के इलाके पूरी तरह बंद हैं.
सांसद की सलाह भी दरकिनार
राज्यपाल पीबी आचार्य जो घटना के समय इटानगर में थे, शुक्रवार 3 फरवरी को लौट आए और राज्य के एकमात्र सांसद व एनपीएफ नेता पूर्व मुख्यमंत्री नाइफ्यू रियो संसद के बजट सत्र को छोड़कर कोहिमा पहुंच गए. दोनों माहौल को शांत करने का प्रयास कर रहे हैं.
रियो ने ‘एशियन एज’ से बातचीत में यह खुलासा किया नवंबर 2016 में जब विधानसभा में केंद्रीय कानून 243 टी को पास किया जा रहा था, तभी उन्होंने पत्र लिखकर सरकार को सुझाव दिया था कि ऐसा करते समय स्थानीय आबादी के सेंटिमेंट का सम्मान जरूर किया जाना चाहिए. ऐसा करते हुए नगालैंड के लिए बनाए गए विशेष कानून खंड 371 ए पर पड़नेवाले असर का समाधान भी निकाला जाना चाहिए. उन्होंने केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह को भी ऐसा ही सुझाव दिया है.
आखिर सरकार ने क्यों दिया ‘धोखा’
स्थानीय दबाव को दरकिनार कर यूएलबी चुनाव कराने पर आमादा होने के पीछे सरकार की क्या मंशा थी? आखिर वह कौन-सा दबाव था जो स्थानीय सिविल सोसायटी के दबाव पर भारी पड़ गया? इसका उत्तर अपने-अपने नजरिये से निकाला जा रहा है.
पहला दबाव तो एनएमए की महिलाओं और कोर्ट के फैसले का ही था, जिसे लागू करने के लिए राज्य सरकार बाध्य थी. यूएलबी चुनाव 2006 से ही लंबित था. इसलिए यह कहा जा सकता है कि सरकार की यह संवैधानिक मजबूरी थी.
लेकिन, कुछ लोग मानते हैं कि सारा खेल सेंट्रल फंडिंग के लिए है. यदि सरकार केंद्रीय कानून 243 टी को लागू करते हुए यूएलबी इलेक्शन नहीं कराएगी तो उसे सेंट्रल फंड नहीं मिल पाएगी. उत्तर-पूर्व के राज्यों में सेंट्रल फंडिंग के लिए ही सारे पोलिटिकल ड्रामे होते हैं. इसी फंड की बंदरबांट पर सबकी नजर टिकी रहती है.
एक देश एक कानून का सिद्धांत
कुछ लोग यह मानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों के लोग पिछले कुछ सालों से यहां सोशल इंजीनियरिंग कर रहे हैं. वे स्थानीय जातीय समूहों में अपनी घुसपैठ करते हुए ‘एक देश एक कानून’ के अपने एजेंडे को अंजाम देने में जुटे हुए हैं.
भारतीय जनता पार्टी के महासचिव राम माधव इस ईसाई बहुल राज्य में विशेष रूप से सक्रिय बताए जाते हैं. बीजेपी के विधायकों तक राम माधव का यह संदेश पहुंचा दिया गया है कि ताजा घटनाक्रम में सीएम के साथ खड़े रहें. बीजेपी का स्थानीय नेतृत्व उलझन में है कि वे लोकल सेंटिमेंट का ध्यान रखें या पार्टी के नेशनल सेंटिमेंट का. यहां बीजेपी के चार विधायक हैं.
संघ की अतिराष्ट्रवादी सोच ‘उपराष्ट्रवाद’ के औचित्य पर सवाल खड़े करती रही है. यह विचारधारा क्षेत्रविशेष की भावनाओं का सम्मान करने व उनकी रक्षा करने के लिए संविधान में किए गए प्रावधानों के खिलाफ है. इसीलिए मौका मिलते ही केंद्रीय कानून लागू करने का उतावलापन सामने आ जाता है.
महिलाओं को अधिकार दिलाने के नाम पर संविधान के खंड 243 टी को नागालैंड में लागू कराकर ‘राष्ट्रवादी विचारधारा’ नागालैंड के गठन के समय 1962 में संविधान में किए गए संशोधन 371 ए में सेंध लगाना चाहती है.
एक दिसंबर 1963 को नगालैंड को भारत संघ का 16 वां राज्य बनाया गया था. तभी से राज्य को 371 ए के तहत विशेष अधिकार मिला हुआ है.
इस कानून में खासतौर से इसका उल्लेख है कि राज्य की सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं और रीति रिवाजों की पूरी सुरक्षा की जाएगी. यहां तक कि दीवानी और आपराधिक मामलों में न्याय करते समय भी कस्टमरी लॉ को शामिल किया जाएगा. इस कानून की रक्षा के लिए राज्यपाल को खासतौर पर दायित्व दिया गया है, जिसके फैसले को राष्ट्रपति के अलावा और कोई नहीं बदल सकता.
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