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मोदी-शी-ज़िनपिंग मुलाकात : फ्रंटफुट से बैटिंग करें मोदी, उनके हाथों में है तुरुप का पत्ता

चीन की हरकतें (सिर्फ शी-ज़िनपिंग के नेतृत्व में ही नहीं) बल्कि आमतौर पर फायदे और नुकसान की व्यवहारिक कसौटी पर आधारित होता है

Sreemoy Talukdar

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे ही चीन के शहर वुहान में अपने कदम रखेंगे, वैसे ही ये समझना भी ज़रूरी हो जाएगा कि आखिर, वो कौन से कारण हैं जिससे मजबूर होकर चीन भारत के साथ बातचीत की टेबल पर बैठने के लिए तैयार हो गया है. चीन की पहचान एक ऐसे देश की रही है जिसे अपनी आर्थिक और मिलिट्री ताकत का हमेशा से बहुत घमंड रहा है, वो इस बिना पर हमेशा से भारत को नीचा दिखाने की कोशिश करता रहा है. ऐसे में ये सोचना कि वो भलमनसाहत और पड़ोसी धर्म का निर्वाह कर अचानक भारत के साथ मधुर संबंध बनाने के लिए तैयार हो गया है तौर है वो न सिर्फ अतार्किक होगा बल्कि बहुत दूर की कौड़ी है.

चीन की हरकतें (सिर्फ शी-ज़िनपिंग के नेतृत्व में ही नहीं) बल्कि आमतौर पर फायदे और नुकसान की व्यवहारिक कसौटी पर आधारित होता है, इसके अलावा जिस चीज़ से उनको मतलब होता है वो चीन को केंद्र में रखकर भौगोलिक और राजनीतिक रणनीति होती है. इसके लिए वे अपने आक्रमक समुद्रीय धोखाधड़ी, विस्तार और संशोधनवादी नीतियों का भरपूर इस्तेमाल करते हैं ताकि उसके बलबूते वे एक बार फिर से इस इलाके में अपनी मध्यकालीन राजशाही के गुम हो चुके वैभव को दोबारा स्थापित कर सके.


जैसा कि स्ट्रैटफोर के कंट्रीब्यूटर शीज़िंग ज़ैंह्ग फोर्ब्स पत्रिका में लिखते हैं : 'बीजिंग की हठधर्मी समुद्रीय नीति का मकसद विदेशी बाजार पर अपना अधिपत्य जमाना तो है ही इसके साथ ही वो ये भी चाहता है कि उसे इसमें किसी और देश से चुनौती न मिले, ताकि वो अंतरराष्ट्रीय बाजार में एकछत्र राज कर सके. जैसा कि पूर्व में हैन और टैंग शासन के दौरान हो चुका है, चीन की नीति है कि वो आज भी ऐसे किसी देश या शासन के खिलाफ ठीक वैसे ही तन कर खड़ा हो जाएगा, जैसे वो पहले के समय में करता आया है. अपने पड़ोसी देशों के साथ उसकी भौगोलिक राजनीतिक कूटनीति हमेशा से इसी तरह से चलती आई है.

चीन हमेशा से एक शक्तिशाली देश बनने का सपना देखता आया है. वो चाहता है कि बस किसी भी तरह वो पूरी दुनिया में अमेरिका के वर्चस्व को खत्म कर दे और उसकी जगह ले ले. वो विचारधारा से लेकर संस्कृति, भौगोलिक राजनैतिक मुद्दे, सैन्य ताकत, तकनीकी क्षेत्र, राजनीति और आर्थिक परिदृश्य में हर जगह — अमेरिका का विकल्प बनना चाहता है. वो चाहता है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में अमेरिकी –डॉलर की जगह चीनी मुद्रा रेनमिनीबी का दबदबा बना रहे और रेनमिनीबी करेंसी में ही अंतरराष्ट्रीय कारोबार हो. ऐसे में ये सोच पाना मुश्किल है कि चीन, भारत जैसी ‘मिडिल पॉवर’ को सिर्फ सद्भावना के नाते महत्व दें. खुद चीन के प्रमुख शी-जिनपिंग अपने ऐसे कदम को एक कमजोरी के तौर पर देखेंगे.

चीन की बदली रणनीति को गहराई से समझना जरूरी है 

भारत को इस बात की जरा भी गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि चीन की ये बदली हुई रणनीति या यूं कहे कि उसका बदला हुआ मन भारत के प्रति उसकी बदली हुई भावना के कारण है. ये भी नहीं कि वो भारत की चिंताओं को जानना और समझना चाहता है, ताकि दोनों के बीच एक सौहार्दपूर्ण माहौल बन सके और दोनों साथ-साथ आगे बढ़ सकें. ये सारी बातें औपचारिक बातचीत से पहले माहौल बनाने के काम भले ही आ जाए लेकिन इसका असल मकसद जानने के लिए हमें दूसरी तरफ देखने की ज़रूरत है. इसका ताजा उदाहरण हाल फिलहाल के दिनों में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में होने वाली दो घटनाओं में देखा जा सकता है, जिनके होने के बाद शी ज़िनपिंग की राजनीतिक साख में कमी तो आई ही है, कोरियाई प्रायद्वीप में उनके सबसे ताकतवर नेता होने के दावे पर भी सवाल खड़ा हो गया है.

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पहला मामला वो है जिसमें डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका में इंपोर्ट किए जा रहे चीनी सामानों पर शुल्क लगाने का फैसला किया है ताकि दोनों देशों के बीच होने वाले द्विपक्षीय व्यापार में संतुलन स्थापित किया जा सके. इसके अलावा दूसरी अभूतपूर्व घटना वो हुई जिसमें उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से होने वाली अपनी मुलाकात से पहले अपने देश में होने वाले सभी परमाणु परीक्षण को स्थगित कर दिया था. किम जोंग उन का ये कदम ये बताने के लिए काफी था कि दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश कौन है. ये दोनों ही घटनाएं काफी ही जटिल हैं, जिन्हें समझने के लिए चीन को कुछ कठिन फैसले लेने पड़ सकते हैं.

ऐसे समय में अगर चीन अपने और भारत के बीच तनाव कम करने की कोशिश करता है तो उसके लिए हालात को संभालना आसान हो सकता है. इससे चीन को व्यापारिक फायदा भी होगा. उसके दुनिया के पांचवे सबसे बड़े और सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में पैर फैलाने के मौके मिलेंगे जिससे उसे आर्थिक फायदा होगा. पीएम मोदी के साथ एक टेबल पर बातचीन के लिए बैठना, शी-जिनपिंग की इसी मजबूरी के कारण संभव हुआ है.

इसमें एक बड़ा हाथ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के राजनीति तौर तरीके का भी है. ट्रंप घुमा फिरा कर या परोक्ष हमला करने में यकीन नहीं रखते, न हीं वे शांत कूटनीति में भरोसा करते हैं. उन्हें जो कहना होता है उसे वो सीधे-सीधे धमकी देकर कहते हैं, यही वो मजबूरी है जिसने शी-जिनपिंग के हाथ भी बांध कर रख दिये हैं, जिस कारण वे ज्यादा मोलभाव नहीं कर सकते हैं.

अमेरिकी राष्ट्रपति ने चीन से आयातीत सामानों पर 50 बिलियन डॉलर का शुल्क जड़ा है और आगे भी 100 बिलियन डॉलर का शुल्क लगाने की धमकी दी है अगर चीन उसकी कंपनियों को बेहतर मार्केट एक्सेस नहीं देता है. अमेरिका ये भी चाहता है कि चीन उसे अपने देश में ज्यादा कारें, एयरक्राफ्ट, सोयाबीन और प्राकृतिक गैस बेचने की मंजूरी दे जिससे अमेरिका अपने 375 बिलियन डॉलर की नुकसान की भरपाई कर सके. इस सब ने चीन को दुविधा में डाल दिया है.

जारी है चीन-अमेरिका में व्यापारिक युद्ध 

शी जिनपिंग ने अमेरिका को खुश करने के लिए उसकी कारों पर लगाए जाने शुल्क को कम करने के अलावा अपना घरेलू बाजार भी उसके लिए खोल दिया है. लेकिन इसके साथ-साथ उसने अपने यहां आयातीत अमेरिकी सामानों पर पलटवार करते हुए में 50 बिलियन डॉलर का सेवा शुल्क भी लगा दिया है, जिससे दोनों देशों के बीच एक बहुत बड़े ट्रेड वॉर की छाया मंडराने लगी है.

दोनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है. अमेरिका ने कहा है कि वो चीन के साथ इस मसले पर बातचीत करने को तैयार है, जिसको देखते हुए बीजिंग में एक मीटिंग भी आयोजित करने पर सहमति बनी थी. इस बैठक में चीन की तरफ से शी-जिनपिंग, उप-राष्ट्रपति वांग-किशान और चीनी अधिकारियों का दल शामिल होता. जबकि, अमेरिका के तरफ से अमेरिकी वित्त सचिव स्टीवन न्यूचिन और नेशनल इकोनॉमिक काउंसिल के प्रमुख लैरी कुडलॉ के शामिल होने की बात हुई. ये बैठक आगामी 3-4 मई को होना था. लेकिन, ताजा जानकारी के मुताबिक ये बैठक शायद न हो. ट्रंप ने इस मीटिंग में अपनी तरफ से दो और आक्रामक पैरोकारों को शामिल कर लिया था ताकि वे चीन के खिलाफ कड़ा रूख़ अपना सके.

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हॉंगकॉन्ग से निकलने वाली अखबार चायना मॉर्निग पोस्ट के अनुसार अमेरिकी डेलिगेशन में, अमेरिकी ट्रेड एनालिस्ट रॉबर्ट लाइटथाईजर और व्हाईट हाउस के ट्रेड एडवाईज़र पीटर नवार्रो को शामिल किया गया है. लाईटथाईजर और नवार्रो के बारे में कहा जाता है कि, वे दोनों ही ट्रेड डेफिशिट के मुद्दे पर बीजिंग की नीतियों के सख्त़ खिलाफ हैं. इस कदम का मकसद कहीं न कहीं यूएटीआर यानि (यूनाईटेड स्टेट्स ट्रेड रिप्रजेंटेटिव) द्वारा चीन की क्लाउट कंप्यूटिंग सेक्टर और यूएस ट्रेज़री डिपार्टमेंट के उस फैसले की जांच के लिए उठाया गया है जिसमें यूएस ट्रेजरी ने अमेरिका के कुछ संवेदनशील क्षेत्रों में चीन के निवेश का विरोध तो किया ही है, चीन में अमेरिका के निर्यात को भी कंट्रोल करने की कोशिश की है. इस रिपोर्ट के मुताबिक - चीन ने ट्रुंप के टैरिफ लागू करने वाले फैसले का विरोध करते हुए कहा था कि वो उसे इसका माकूल जवाब देगा और इससे निपटने के लिए कड़े कदम उठाएगा.

उसने ये भी कहा था कि अगर अमेरिका व्यापार के क्षेत्र में एकतरफा फैसले करता है और ट्रेन प्रोटेक्शनिज्म की नीति का इस्तेमाल करता है तो वो चुप नहीं बैठेगा. ताजा जानकारी के अनुसार ट्रंप प्रशासन ने लाईसेंस जारी करने, कस्टम क्लीयरेंस देने में देरी करनी शुरू कर दी है. उसने व्यापार से जुड़े अन्य फैसलों जिसमें विलय और अधिग्रहण शामिल है उसे भी मंजूरी नहीं दे रहा है. अमेरिकी कंपनियों पर चीन के स्मार्टफोन कंपनियों को अपना सामान बेचने पर रोक लगाने से चीन की ZTE, जैसी कंपनियों का काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है.

अमेरिका से बिगड़े संबंधों के बीच भारत और चीन खुद को ला रहे हैं नजदीक 

ZTE ने अपने सप्लायर को कहा है कि इसकी वजह ट्रंप और बीजिंग के बीच चल रहा व्यापारिक विवाद हो सकता है. हालांकि, अमेरिका ने सफाई देते हुए कहा है कि उसका ये कदम शुद्ध तौर पर एक ‘लॉ-इनफोर्समेंट’ कदम था जिसका मकसद ZTE को ईरान को सामान बेचने से रोकना था. क्योंकि ईरान पर प्रतिबंध के बावजूद ZTE उसे सामान बेच रहा था. रॉयटर्स के मुताबिक - अब वजह चाहे जो भी हो, ये तो साफ है कि व्यापारिक कारणों से ही सही लेकिन इस समय अमेरिका और चीन के आपसी संबंध काफी खराब हो चुके हैं, ऐसे समय में चीन भारत को अपनी तरफ करना चाहता है जिसके साथ इस मुद्दे पर उसकी काफी अच्छी समझ और सहमति पहले से है.

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ट्रंप ने भारत को भी अमेरिका के साथ अतिरिक्त व्यापार करने के लिए फटकारा है, उसने कई बार भारत पर व्यापार में चोरी का करने का भी आरोप लगाया है. ट्रंप की नीतियों के कारण भारत और चीन एक दूसरे के करीब आए हैं, ये कहना है चीन की सरकारी मीडिया का. हालांकि, ग्लोबल टाईम्स ने इसे भी कुछ इस तरह से पेश किया है कि भारतीय प्रधानमंत्री मोदी चीन के साथ संबंध बेहतर करने के लिए काफी उत्सुक हैं, लेकिन सच्चार्ई ये है कि शी जिनपिंग भी इन बिगड़े संबंधों को सुधारने के लिए उतने ही उतावले हैं. इसका सबसे बड़ा संकेत तब मिला जब सोमवार को चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने मीडिया के सामने कहा कि – अमेरिका के ट्रेड वॉर के असर को कम करने के लिए चीन को भारत की मदद की जरूरत है.

'हमारे बीच काफी साझा मुद्दे, चिंताएं और स्थितियां हैं,' टाईम्स ऑफ इंडिया में छपी एक खबर के अनुसार लू-कांग ने कहा, 'वे (मोदी और शी) दुनिया की ताज़ा स्थितियों पर चर्चा करेंगे ताकि पूरी दुनिया में एक स्थिर वैश्विक विकास हो सके. मुझे उम्मीद है कि इस मुलाकात के बेहतर नतीजे सामने आऐंगे. चीन और भारत दोनों ही तेज़ी से विकसित हो रहे बाज़ार हैं साथ ही एक बड़ी आबादी वाले देश के तौर पर भी इन दोनों का विकास हो रहा है, इसलिए हमें उम्मीद है कि दोनों ही देश वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया का न सिर्फ हिस्सा बने रहेंगे बल्कि एक दूसरे का साथ भी देंगे.'

अमेरिका के खिलाफ भारत का साथ लेने के पीछे चीन के दो स्वार्थ हैं. पहला स्वार्थ भारत के साथ व्यापार के लिए पुख़्ता और समतल ज़मीन तैयार करना है ताकि उनके व्यापारिक हित साधे जा सके( जो चीन के हक में ज्यादा है) दूसरा स्वार्थ भारत को अमेरिका के प्रभाव से राजनीतिक और कूटनीति के स्तर पर दूर करना है क्योंकि भारत और अमेरिका के बढ़ते संबंध हमेशा से बीजिंग के सिरदर्द का एक बड़ा कारण रहा है.

भारत-चीन बड़े बाजार पर करना चाहते हैं कब्जा, देना है अमेरिका को चैलेंज 

ऐसे समय में जब अमेरिका चीन की व्यापारिक चालाकियों के कारण उसपर रोज़ नए व्यापारिक प्रतिबंध लगा रहा है तब चीन चाहता है कि वो भारत के साथ बेहतर संबंध बनाकर इसके बड़े बाज़ार में अपना असर बनाए रखे. ये कहना है, हवाई के होनोलुलु स्थित एशिया-पैसिफिक स्टडी सेंटर के प्रोफेसर मोहन मलिक का. फोर्ब्स में छपी खबर के अनुसार, “भारतीय अधिकारी चीन की इस नीति को ‘बेगर दाई नेबर’ की नीति के तौर पर देखते हैं जहां चीन भारत की मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को न सिर्फ नीचा करके देख रहा है, बल्कि सब्सिडी वाली कीमत में अपने घटिया सामानों को भारतीय बाजार बेच रहा है, जबकि इन सामानों को बनाने के लिए वो कच्चा माल भारत से ही लेकर जा रहा है.

भारत के साथ बेहतर व्यापारिक संबंध बनाने के लिए बीजिंग को पता है कि उसे भारत की चिंताओं पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है, जिसमें भारत की लगातार बढ़ती ट्रेड डेफिशिट शामिल है, जो साल 2016-17 में 51.1 बिलियन डॉलर तक पहुंच चुका था. हालांकि, भारत को शांत करने के लिए चीन ने कुछ घोषणाएं तो की हैं लेकिन इसे कितना निभाया जाता है ये तो आने वाला समय ही बताएगा.

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शी जिनपिंग का पूरा ध्यान इस बात पर लगा होगा कि उसके और अमेरिका के बीच बढ़ती दूरियों और ट्रेड वॉर का फायदा किसी भी तरह से भारत को न हो. अगर वॉशिंगटन चीन की तरफ जरा भी दरवाज़ा बंद करते हुए उसके यहां से आयात कम करता है और तो उसका सीधा फायदा भारत को होगा, जो भारत लपक लेना चाहेगा.

इसके अलावा जिस तरह से कोरियन प्रायद्वीप में जिस तरह से चीन का असर कम हुआ है, जिनपिंग उससे भी चिंतित हैं. ट्रंप से मुलाकात से पहले किम जोंग ने जिस तरह से परमाणु परिक्षण स्थगित किए उससे जिनपिंग का कद काफी कम हुआ है. इससे ट्रंप का भी मनोबल बढ़ा है और वो बड़ी आसानी से चीन के खिलाफ जाकर उसके ट्रेड प्रैक्टिस का विरोध कर सकते हैं.

ट्रंप और दोनों कोरियाई प्रमुखों (दक्षिण-उत्तर) के साथ उनके बनते रिश्ते ने चीन को रास्ते पर ला खड़ा किया है, जो कल तक खुद को इस प्रायद्वीप के सबसे बड़े नेता के रूप में पेश कर रहे थे.

जैसा कि हॉन्गकॉन्ग के लिंगनान यूनिवर्सिटी के अंतरॉष्ट्रीय रिलेशंस के प्रोफेसर झांग बाउहुई ने न्यूयॉर्क टाईम्स को बताया, “चीन और शी-जिनपिंग के लिए सबसे बड़ा मुद्दा साख गंवाने का है, उनकी हमेशा से ये कोशिश रही है कि उन्हें दुनिया के अन्य देश एक बड़े ग्लोबर पॉवर के रूप में देखें, खासकर उत्तर-पूर्व एशिया के क्षेत्र में… अब अचानक से चीन का महत्व खत्म हो गया है.”

अगर दक्षिण और उत्तर कोरिया के बीच किसी भी तरह से बात बनती है या मेल होता है तो पूरी संभावना है कि कोरियन प्रायद्वीप क्षेत्र से अमेरिकी सैनिकों की तैनाती हटा ली जाए. न्यूयार्क टाईम्स ने लिखा है, 'उत्तर कोरिया ने पहले ही अपनी इस मांग को वापिस ले लिया है कि उसके परमाणु निशस्त्रीकरण के एवज में अमेरिका दक्षिण में स्थित अपने 28 हजार सैनिकों को हटा ले.' अगर ऐसा होता है तो ये चीन के लिए अच्छा नहीं होगा क्योंकि वो हमेशा से अपनी सीमा के आसापास अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी का विरोध करता रहा है.

आज जब पीएम मोदी शी जिनपिंग के साथ बातचीत करने बैठेंगे तो उन्हें इस बात का पूरा पता होना चाहिए कि ताश के इस खेल में तुरुप के पत्ते उनके पास हैं.