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SP-BSP गठबंधन: 'बुआ-बबुआ' एक साथ, अकेला रह गया 'हाथ' लेकिन बीजेपी सबसे ज्यादा उदास

यूपी में महागठबंधन के एलान के साथ 2019 का चुनावी गणित पेचीदा और दिलचस्प हो गया है

Rakesh Kayasth

कहते हैं, राजनीति में ना कोई स्थाई दुश्मन होता है, ना कोई स्थाई दोस्त. फिर भी कुछ दुश्मनियां ऐसी होती हैं, जिनको भुलाने में बरसों लगते हैं. बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने समाजवादी पार्टी के साथ अपनी तीन दशक पुरानी दुश्मनी पर मिट्टी डालने का फैसला किया. लेकिन यह फैसला कितना मुश्किल था, यह बात बताने से वे नहीं चूकीं. अखिलेश यादव के साथ साझा प्रेस कांफ्रेंस के दौरान मायावती ने कहा कि देश की खातिर वे यूपी गेस्ट हाउस कांड को भुलाने को तैयार हैं. वही गेस्ट हाउस कांड जिसमें मायावती पर जानलेवा हमला हुआ था और उसके बाद एसपी-बीएसपी के रास्ते हमेशा के लिए अलग हो गए थे.

मायावती जिस वक्त गेस्ट हाउस को याद कर रही थीं, मंच पर साथ बैठे थे, गेस्ट हाउस कांड के खलनायक मुलायम सिंह यादव के साहबजादे और अब समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा बन चुके अखिलेश यादव. अखिलेश ने कहा- मैं बीएसपी के साथ समझौते के लिए दो कदम पीछे भी हटने को तैयार था. लेकिन मायावती जी ने बराबर सीटें देने का फैसला किया, इसलिए मैं इनका आभारी हूं. समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता यह बात याद रखें कि अगर कोई मायावती जी के बारे में कोई अपमानजनक बात कहता है, तो बहनजी का नहीं बल्कि मेरा अपमान होगा.


साफ है गोमती में पानी अब बहुत बह चुका है. 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के हाथों बुरी तरह पिटने के बाद से ही यह दिखना शुरू हो गया था कि अपना वजूद बचाने के लिए सपा-बसपा को एक साथ आना पड़ेगा. प्रयोग के तौर पर तीन लोकसभा उप-चुनावों में दोनों पार्टियों ने हाथ मिलाया और नतीजा आंखे खोलने वाला रहा. गोरखपुर और फूलपुर जैसी सीटों पर बीजेपी को समाजवादी पार्टी के हाथों हार का सामना करना पड़ा. ये दोनों सीटें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे के बाद खाली हुईं थीं और बीजेपी ने कभी कल्पना नहीं की थी, उसे उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ेगा. लेकिन गोरखपुर और फूलपुर के बाद सांप्रादायिक रूप से संवेदनशील कैराना में भी एसपी-बीएसपी के समर्थन से आरएलडी उम्मीदवार ने बीजेपी पर जीत हासिल की.

हर किसी की समझ में आ गया कि आक्रमक वोट बैंक वाले एसपी-बीएसपी अगर अलग रहे तो मिटा दिये जाएंगे लेकिन अगर साथ आए तो लखनऊ ही नहीं बल्कि दिल्ली का तख्त हिलाने का सपना भी देख सकते हैं. लेकिन क्या एसपी-बीएसपी का एक साथ आना इतना आसान था? अटकले लंबे समय से चल रही थीं. अखिलेश बोल रहे थे लेकिन मायावती चुप थीं. उनकी चुप्पी रहस्यमय थी. बीच-बीच में उन्होंने यह भी कहा कि अगर सम्मानजनक सीटें नहीं मिलीं तो वे अकेले लड़ना पसंद करेंगी.

2019 की आहट तेज हुई तो तब जाकर यह चुप्पी टूटी. समझौते के एलान से कुछ बातें बेहद साफ हैं. पहली बात यह है कि दोनो पार्टियों ने इस घोषणा से पहले लंबा होमवर्क किया है. दूसरी बात- एसपी-बीएसपी मानकर चल रही हैं कि किला फतह करने के लिए एक-दूसरे का साथ ही काफी है. किसी तीसरे या चौथे पक्ष को साथ लेने की जरूरत नहीं है. इसलिए यूपी की 80 में 76 सीटें दोनों पार्टियों ने बराबर-बराबर बांट लीं. बची चार सीटों में दो सीटें साझीदारों के लिए छोड़ी गई हैं.

यानी अगर अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल महागठबंधन में शामिल होना चाहे तो उसे अधिकतम दो सीटें दी जा सकती हैं. अमेठी और रायबरेली यानी राहुल गांधी और सोनिया गांधी की सीट पर महागठबंधन उम्मीदवार खड़े नहीं करेगा. यह इस बात का संकेत है कि महागठबंधन चुनाव के बाद समझौते का रास्ता खुला रखना चाहता है. लेकिन कांग्रेस के लिए मायावती की टिप्पणी खासतौर से गौर करने लायक है. मायावती का कहना है कि हमने कांग्रेस को महागठबंधन में शामिल नहीं किया है. मतलब यह है कि समझौते की कोशिश नाकाम नहीं हुई हुई है बल्कि कांग्रेस को साथ लेने का कोई इरादा ही नहीं था.

क्या यह एसपी-बीएसपी का अति-आत्मविश्वास है? बेशक यह अति-आत्मविश्वास लगे लेकिन राज्य के राजनीतिक समीकरण ऐसे हैं कि एसपी और बीएसपी के एक साथ आने से पलड़ा निर्णायक रूप से उनके पक्ष में झुक जाता है. महागठबंधन बनने से यह साफ हो गया है कि दोनों पार्टियां 2019 के नतीजों के बाद एक बहुत बड़ी राजनीतिक ताकत बनकर उभरेंगी. राजनीतिक विश्लेषक इस बात का अनुमान लगाने में जुटे हैं कि बीजेपी को कितना नुकसान होगा और वह यूपी में होनेवाले नुकसान की भरपाई किस तरह कर पाएगी.

मायावती और अखिलेश यादव ने लखनऊ में साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर 2019 चुनाव साथ लड़ने की घोषणा की

बुआ पीएम, बबुआ सीएम!

हालांकि कोई भी राजनीतिक विश्लेषण अंतिम नहीं होता है. लेकिन एसपी-बीएसपी के जनाधार को जोड़ने पर जो निष्कर्ष निकल रहे हैं, उससे यही लगता है कि यूपी की 80 सीटों में 60 सीटों पर महागठबंधन बहुत मजबूत स्थिति में है. ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक एक सुर में कह रहे हैं कि महागठबंधन मिलकर 2019 में 50 सीटें जीत सकता है, इतना ही नहीं ये आंकड़ा और आगे बढ़ सकता है.

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अगर सचमुच ऐसा हुआ तो इसका मतलब यह है कि 2019 में बीजेपी और कांग्रेस के बाद एसपी-बीएसपी देश की तीसरी बड़ी राजनीतिक शक्ति होगी. महागठबंधन की ताकत इतनी ज्यादा होगी कि उसे शामिल किए बिना दिल्ली में कोई सरकार नहीं बनेगी. राजनीति पर नजर रखने वाले यह मानते हैं कि बहनजी किंगमेकर नहीं बनना चाहती बल्कि उनका सपना क्वीन बनने का है. एसपी-बीएसपी का समझौता ही इसी बात को लेकर है कि अखिलेश मायावती की दिल्ली वाली महत्वाकांक्षा पूरी करने में मददगार हों और बदले में बहनजी उन्हें यूपी का सीएम बनने दें.

यही वजह है कि जो बीएसपी 2014 के चुनाव में खाता तक नहीं खोल पाई, उसे अखिलेश 2019 में साथ लाने के लिए ज्यादा सीटें देने को तैयार थे. अखिलेश ने एक सवाल के जवाब में यहां तक कहा कि अगर उत्तर प्रदेश से देश का प्रधानमंत्री बनता है तो उन्हें खुशी होगी. गठबंधन के लगातार चलते रहने और यूपी विधानसभा का चुनाव साथ मिलकर लड़ने की बात जिस तरह दोनों नेताओं ने दोहराई है, उससे लगता है कि `बुआ पीएम, बबुआ सीएम’ का फॉर्मूला दोनों नेताओं के दिमाग में है. यह खबर भी लगातार चल रही है कि अगर परिणाम सपा-बसपा के अनुकूल रहा तो शरद पवार जैसे नेता दलित महिला प्रधानमंत्री का शिगूफा छोड़ेंगे और इसके लिए बाकी क्षेत्रीय पार्टियों को राजी किया जाएगा और कांग्रेस पर भी दबाव बढ़ाया जाएगा.

क्या बहुकोणीय लड़ाई विपक्ष के लिए फायदेमंद है?

लेकिन क्या एसपी-बीएसपी के लिए खेल इतना आसान है? 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी की 71 सीटें जीतने वाली बीजेपी हाथ पर हाथ धरे बैठी रहेगी? इन सवालों पर आने से पहले बात कांग्रेस की कर लेते हैं. कांग्रेस के ज्यादातर नेता यह कह रहे थे कि यूपी में कोई महागठबंधन उन्हें लिए बिना नहीं बन सकता है. लेकिन मायावती ने उन्हें टका सा जवाब दे दिया है. क्या यूपी में 2014 की मोदी लहर में 7.5 परसेंट वोट हासिल करने वाली कांग्रेस को साथ ना लेना राजनीतिक रूप से कितना सही फैसला है? अगर एसपी-बीएसपी के साथ कांग्रेस मिल जाती तो क्या इससे निर्णायक समीकरण नहीं बनता?

इसका जवाब मायावती ने दे दिया है. उनका कहना है कि कांग्रेस के साथ गठबंधन करने पर उनकी पार्टी को कोई खास फायदा नहीं होता क्योंकि कांग्रेस के वोट बीएसपी को ट्रांसफर होने के बदले बीजेपी को चले जाते हैं. मायावती के इस एक जवाब में यूपी का अंकगणित छिपा है. यह सच है कि यूपी में कांग्रेस का परंपरागत वोटर ब्राह्मण जैसी अगड़ी जातियों के लोग हैं. मुसलमान वोटर कांग्रेस के पक्ष तभी वोट डालते हैं, जब उन्हें लगता है कि उसका उम्मीदवार बीजेपी को हराने की स्थिति में है.

photo courtesy- news18

यानी कांग्रेस अगर एसपी-बीएसपी गठबंधन से अलग लड़ती है तो परोक्ष रूप से इसका फायदा महागठबंधन को होगा, क्योंकि कांग्रेस को सर्वण वोट का एक हिस्सा मिलेगा जो परंपरागत रूप से बीजेपी को मिलता आया है. महागठबंधन में होने पर कांग्रेस का सवर्ण वोटर मजबूरी में बीजेपी की तरफ चला जाता. सवर्ण वोट बंटने और दलित-पिछड़ा-मुसलमान वोट के एकजुट रहने से बीजेपी को भारी नुकसान होगा और विरोधियों को फायदा.

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यह स्थिति बहुत दिलचस्प ढंग से कांग्रेस के लिए भी फायदेमंद है. अगर कांग्रेस महागठबंधन में शामिल हो भी जाती तो एसपी-बीएसपी उसके लिए बहुत ज्यादा सीटें नहीं छोड़तीं. ऐसे में दिल्ली की कुर्सी पर उसकी दावेदारी वोटरों को निगाह में कमजोर हो जाती है. जो पार्टी देश के सबसे बड़े राज्य में सिर्फ दस-बारह सीटों पर चुनाव लड़ रही हो, वह केंद्र में सरकार बनाने का दावा किस तरह कर सकती है?

यानी एसपी-बीएसपी के एकतरफा फैसले से कांग्रेस की इज्जत बच गई है. पार्टी ने फौरन सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान कर दिया है. पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस छह सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी, जबकि अमेठी और रायबरेली में उसे जीत हासिल हुई थी. यह देखते हुए कि इस बार माहौल 2014 जैसा नहीं है, कांग्रेस उम्मीद कर सकती है कि तिकोने संघर्ष में कई सीटों पर अप्रत्याशित रूप से परिणाम उसके पक्ष में जा सकता है. कांग्रेस को पूरी तरह खारिज करते वक्त यह भी याद रखना चाहिए कि 2009 में उसे उत्तर प्रदेश में 20 से ज्यादा सीटें मिली थीं.

महागठबंधन पर बेहद सधी हुई प्रतिक्रिया देकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने साफ कर दिया है कि वे चुनाव के बाद एसपी-बीएसपी के साथ राजनीतिक सौदेबाजी का रास्ता पूरी तरह खुला रखना चाहते हैं. दूसरी तरफ मध्य-प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ अब भी यह उम्मीद जता रहे हैं कि देर-सबेर महागठबंधन में कांग्रेस को भी जगह जरूर मिलेगी.

बीजेपी किस तरह करेगी यूपी में डैमेज कंट्रोल?

अब आखिर में सबसे अहम सवाल- महागठबंधन से होनेवाले वाले नुकसान की भरपाई बीजेपी आखिर किस तरह करेगी? मायावती-अखिलेश के बीच समझौता अप्रत्याशित नहीं था. इसकी भूमिका लंबे समय से बन रही थी. बीजेपी नेताओं ने इसे लेकर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं दी हैं, उनसे अंदाजा होता है कि पार्टी किस कदर बेचैनी है.

यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ

महागठबंधन ने बीजेपी के लिए कई स्तर पर संकट खड़ा किया है. यूपी का अंकगणित सबसे बड़ी चुनौती है. लेकिन महागठबंधन ने बीजेपी की पटकथा को भी उलझा दिया है. यह तय था कि बीजेपी 2019 में भी नमो मंत्र के सहारे मैदान में उतरेगी. कहानी यह बनाई जा रही थी कि मोदी की लोकप्रियता से घबराकर सारी पार्टियां एकजुट हो रही हैं. अगर कांग्रेस महागठबंधन में शामिल होती तो बीजेपी के लिए इस लड़ाई को मोदी बनाम राहुल बनाना आसान हो जाता है. लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकता है.

उत्तर प्रदेश में बीजेपी के लिए लड़ाई मोदी बनाम महागठबंधन है. बंगाल में मोदी बनाम ममता है और पश्चिमी और मध्य-भारत में मोदी बनाम राहुल है. यानी बीजेपी को हर क्षेत्र के हिसाब से अपना नैरेटिव बदलना पड़ेगा, स्लोगन कस्टमाइज करने होंगे. दूसरी तरफ पूरा विपक्ष अलग-अलग होकर भी लगातार मोदी और केंद्र सरकार पर ही हमला बोलेगा.

बीजेपी के गठबंधन साझीदार लगातार एक-एक करके छिटक रहे हैं. जो साथ हैं, वे लगातार ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने का दबाव बना रहे हैं. बिहार में बीजेपी को नीतीश और पासवान के आगे झुकना पड़ा. उत्तर प्रदेश में अब अपना दल ज्यादा सीटें छोड़ने के लिए दबाव बना रहा है. शिवसेना का एनडीए से अलग होना लगभग तय हो चुका है. इन सबके बीच यूपी में महागठबंधन की खबर है. अब तक देखना यह है कि आधुनिक भारत के सबसे लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी और सबसे बड़े रणनीतिकार अमित शाह इस चौतरफा चुनौती से किस तरह निटपते हैं.

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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