शनिवार को लखनऊ के फाइव स्टार होटल ताज में जब समाजवाद गठबंधन की नई करवट ले रहा था तो देश के बाकी हिस्सों की सियासत उसे गौर से देख रही थी. यह गठबंधन दरअसल मोदी सरकार के खिलाफ पहला औपचारिक आगाज था जो कि उत्तर प्रदेश में दिखा. इस गठबंधन की खातिर इतिहास की कई बातों को भुला दिया गया. खास तौर से लखनऊ गेस्ट हाउस कांड को भुला कर 24 साल पुरानी रंजिश की ‘हैप्पी-एंडिंग’ करने की कोशिश की गई.
इस गठबंधन की तासीर को इस तरह से समझा जा सकता है कि जब प्रेस-कॉन्फ्रेंस के वक्त गठबंधन के पोस्टर लगे तो उन पर से कांशीराम और मुलायम सिंह की तस्वीरें गायब थीं. दरअसल इन चेहरों की तस्वीरें कहीं लखनऊ गेस्ट हाउस कांड की यादें ताजा न करें, शायद यह भी एक वजह हो सकती है. वहीं यह भी संकेत था कि बीएसपी कांशीराम से आगे बढ़ चुकी है तो नए समाजवाद का झंडा बुलंद करने वाली अखिलेश की समाजवादी पार्टी अब मुलायम के नेतृत्व से दूर मार्गदर्शन तक सीमित रह गई है. तभी बीएसपी की तरफ से बाबा साहेब अंबेडकर तो समाजवादी पार्टी की तरफ से राम मनोहर लोहिया की तस्वीर दोनों पार्टियों की बुनियादी विचारधारा के प्रणेताओं को समर्पित थी. यह नए दौर की राजनीति ही नहीं बल्कि रणनीति का भी संकेत था.
देशहित में उन्होंने लखनऊ गेस्ट हाउस कांड के अपमान को भुलाया
बात जब शुरू हुई तो बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने 38-38 सीटों के बंटवारे का ऐलान किया. यह भी बताया कि देशहित में उन्होंने लखनऊ गेस्ट हाउस कांड के अपमान को भुलाया. तभी अखिलेश ने समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं को यह ताकीद किया कि बुआ का अपमान उनका खुद का अपमान होगा. अखिलेश ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के भीतर मायावती के प्रति सम्मान के संस्कार भरे. दोनों ने ही केंद्र और राज्य सरकार के खिलाफ जातिगत, द्वेषपूर्ण, सांप्रदायिक, अहंकारी, धार्मिक उन्माद फैलाने वाली और संकीर्ण राजनीति का आरोप लगाया. यूपी सरकार के एनकाउंटर से लेकर कई फैसलों पर सवाल उठाए. यह बताया कि किस तरह से एसपी-बीएसपी ने यूपी की जनता के लिए एक राजनीतिक विकल्प तैयार किया है. लेकिन इसके बावजूद यह गठबंधन कई सवालों के जवाब नहीं दे सका है.
सिर्फ मोदी सरकार को हराने के लिए आपसी रंजिश भुलाने वाले गठबंधन से यूपी की जनता आखिर किस तरह सहमत होगी? क्या वाकई यूपी में ‘योगी राज’ से हालात सूडान जैसे हो गए जो लोगों को अब एसपी-बीएसपी के गठबंधन में राहत दिखने लगी?
साल 2014 में एक सीट भी न जीत पाने वाली बीएसपी और केवल 5 सीटें जीतने और विधानसभा चुनाव हारने वाली समाजवादी पार्टी के सामने इसके अलावा दूसरा विकल्प था भी नहीं. क्या यह अपने सियासी वजूद को बचाने की कोशिश नहीं है?
यह तो लोकसभा चुनाव के बाद ही पता चलेगा कि गठबंधन (एसपी-बीएसपी) कितना कारगर साबित हुआ. यूपी की जनता तकरीबन दो वर्ष पहले ही समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच हुए गठबंधन के चलते ‘यूपी को साथ पसंद है’ और ‘काम बोलता है’ जैसे नारों को सुन चुकी है. लेकिन इस बार गठबंधन में कांग्रेस से किनारा कर नई दलील दी गई जिससे उठे सवालों का जवाब भी देना पड़ेगा. कांग्रेस को गठबंधन में शामिल न कर उसे बीजेपी जैसी पार्टी बताया. यह आरोप लगाया कि कांग्रेस ने घोषित इमरजेंसी लगाई तो बीजेपी ने अघोषित इमरजेंसी लगाई.
अमेठी-रायबरेली सीट छोड़ने का एलान कर जनता को क्या समझाना चाहते हैं?
साथ ही यह भी आरोप लगाया कि दोनों ही पार्टियों के वक्त रक्षा डील के घोटाले हुए हैं और दोनों ही पार्टियों से देश और यूपी का भला नहीं हुआ है. इसके बावजूद उसी प्रेस-कॉन्फ्रेंस से कांग्रेस के लिए अमेठी-रायबरेली की सीट छोड़ने का एलान कर यूपी की जनता को क्या समझाना चाहते हैं? एक तरफ कांग्रेस पर करप्शन के आरोप लगाए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार को समर्थन भी दिया जा रहा है. ऐसे में यह गठबंधन चुनाव के वक्त दोमुंहे चरित्र को कैसे जनता के बीच जायज साबित कर सकेगा? क्या अमेठी और रायबरेली की सीटें छोड़ने के फैसले ने बीजेपी को चुनावी रैलियों में इस गठबंधन पर हमला करने का बड़ा मौका नहीं दिया है?
यूपी में अवैध खनन के मामले में जब अखिलेश यादव पर सीबीआई पूछताछ की तलवार लटकी तो मायावती ने इसे केंद्र सरकार की द्वेषपूर्ण कार्रवाई बताया. साल 2016 में मायावती ही खनन घोटाले के मामले में अखिलेश यादव से सीबीआई पूछताछ की जोरशोर से मांग कर रही थीं. लेकिन राजनीतिक हालात ऐसे बदले कि जब यूपी में अस्तित्व पर ही सवाल उठने लगे तो दोनों पार्टियों को एक-दूसरे के साथ में सुरक्षा महसूस होने लगी. इसके बावजूद मायावती अभी भी यह साफ नहीं कर सकीं कि वो इस बार लोकसभा का चुनाव लड़ेंगी या नहीं और अगर लड़ेंगीं तो कहां से? मायावती इस सवाल का जवाब टाल गईं जिससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है दोनों ही पार्टियां कितना फूंक-फूंक कर कदम रख रही हैं.
इसी तरह अखिलेश भी प्रधानमंत्री पद पर समर्थन के मामले में पूछे गए सवाल को टाल गए. खास बात यह थी कि जब वो जवाब दे रहे थे तब बगल में बैठी मायावती मुस्कुरा रही थीं. एक अटकल यह भी लगाई जा सकती है कि गठबंधन की गुप्त शर्तों में कहीं एक शर्त मायावती को पीएम पद के लिए समर्थन करने की भी तो नहीं? तभी यह दावा किया गया कि इस बार यूपी देश को नया पीएम देगा?
गठबंधन ऐतिहासिक, इसने मोदी-शाह की नींद उड़ाने का काम किया
बहरहाल, बुआ-भतीजे ने दावा किया कि यह गठबंधन ऐतिहासिक है और इसने मोदी-शाह की नींद उड़ाने का काम किया है. दोनों ने ही एक-दूसरे के सियासी दर्द को भी साझा करने की कोशिश की. इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में मायावती जब शिवपाल यादव पर बरसीं तो अखिलेश के चेहरे पर खिली मुस्कुराहट को समझा जा सकता था. जो बात अखिलेश खुल कर अपने चाचा के खिलाफ नहीं बोल पा रहे थे वो सब मायावती ने बिना लाग-लपेट के साझा मांच से सुना दिया. अखिलेश के बगल में ही बैठकर उन्होंने शिवपाल को बीजेपी का एजेंट करार दिया ताकि समाजवादी पार्टी के वोट बैंक पर शिवपाल की नई पार्टी की वजह से असर न पड़े.
अखिलेश कह सकते हैं कि उनके पास अब भले ही चाचा नहीं हैं लेकिन बुआ हैं. तभी मायावती ने यह भी कहा कि यह गठबंधन लोकसभा चुनाव के बाद भी जारी रहेगा यानी यूपी के विधानसभा चुनाव में भी दिखेगा. तभी यह गठबंधन 90 के दशक के गठबंधन की यादों को भुलाकर अब आगे बढ़ गया है. पीएम मोदी को हराने के लिए विरोधी विचारधाराओं ने यूपी की सियासत में राम लहर और मोदी लहर के बाद अब एक नई धारा पैदा करने की कोशिश की है.
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