कर्नाटक चुनाव से पहले जिस तरह की उम्मीद तमाम एक्जिट पोल में जताई जा रही थी उसी के अनुसार राज्य की जनता ने राज्य में त्रिशंकु विधानसभा का फैसला सुनाया है. 104 सीटों के साथ बीजेपी राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है लेकिन बहुमत से वो भी सात सीट पीछे है. इसके तुरंत बाद 78 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर रही कांग्रेस और 38 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर रही जेडीएस प्लस ने बिना देरी किए बीजेपी के खिलाफ़ पोस्ट पोल एलाएंस बनाने में देरी नहीं की, इसके साथ ही उन्होंने सरकार बनाने का दावा भी ठोंक दिया.
राज्य की जनता उसी जोड़-तोड़ का दीदार कर रही है जो उसने साल 2004-2008 के चुनाव के दौरान तब देखा था जब लोगों ने किसी एक पार्टी पर भरोसा न करते हुए किसी भी एक दल को बहुमत देने से मना कर दिया था. पहली नजर में देखने पर राज्य की जनता ने जो मैन्डेट यानी जो फैसला सुनाया है वो सत्ता में बैठे मुख्यमंत्री सिद्धारमैय्या के खिलाफ दिया गया फैसला नजर आता है. ऐसा लगता है कि ये फैसला भी अमूमन सत्ता में बैठी सरकार के काम-काज के विरोध में बने लहर का ही नतीजा है. लेकिन ऐसा नहीं है, हम अगर ध्यान से आकलन करें तो जनता के इस फैसले के पीछे छिपे कई गहरे बिंदु को समझ पाएंगे.
बेंगलुरू की प्रतिष्ठित सीट कांग्रेस के पास बची रही, शहरी मतदाताओं में बीजेपी को लेकर नाराज़गी?:
कर्नाटक एक विविधताओं से भरा राज्य है, ये एक ऐसा प्रदेश है जिसमें कम से कम छह छोटे-छोटे राज्य बसे हैं. एक तरफ जहां बीजेपी को कोस्टल या तटीय कर्नाटक के छह इलाकों जैसे- सेंट्रल कर्नाटक, कोस्टल कर्नाटक, ग्रेटर बेंगलुरु, हैदराबाद कर्नाटक, बॉम्बे कर्नाटक और ओल्ड मैसुरू में सीटें हासिल हुईं वहीं कांग्रेस को शहरी क्षेत्र बेंगलुरु में बढ़त मिली, जो कि (15/11) रहा. ये थोड़ा अजीब सा है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि बीजेपी की शहरी इलाकों में अच्छी पकड़ रही है.
बेंगलुरु में वोट देने के निकले लोगों का प्रतिशत भी काफी कम रहा. ये तकरीबन 50 % के आसपास था जबकि पूरे राज्य का वोटिंग प्रतिशत तकरबीन 72 % रहा. ये मुमकिन है कि राज्य का शहरी मतदाता का बीजेपी से मन उठ रहा है, वो अब उसके बिछाए जाल में फंसने को तैयार नहीं है इसलिए वो वोट देने के लिए वोटिंग बूथ तक नहीं पहुंचा. पेट्रोल कीमतों में बढ़त, टैक्स में कोई खास राहत न दिया जाना, बेरोज़गारी की समस्या जैसे मुद्दे उनका लगातार बीजेपी से मोहभंग कर रहा है.
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मुस्लिम बहुत इलाकों में बीजेपी को बढ़त, ध्रुवीकरण का असर:
कर्नाटक में कुल 33 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम आबादी 15 प्रतिशत से भी ज्यादा है. इन इलाकों में बीजेपी की सीट दोगुनी होते हुए 6-15 तक पहुंच गई हैं. यहां बीजेपी के हक में दो बातें गईं हैं. पहला, ये कि जाति भेद को दरकिनार करते हुए लगभग हिंदू धर्म के मतदाताओं ने बड़ी संख्या में बीजेपी के पक्ष में वोट डाला है. मुड्डेबीहल जैसी सीट पर, अल्पसंख्यकों का वोट भी दो हिस्सों यानी कांग्रेस और जेडीएस में बंटने के कारण भारतीय जनता पार्टी के हक में चला गया.
माइनॉरिटी सी ट्स | 2013 | 2018 |
INC | 19 | 15 |
BJP | 6 | 15 |
JDS | 5 | 3 |
OTH | 4 | 0 |
एससी-एसटी अत्याचार निरोधी अधिनियम जैसे बड़े विवाद के बावजूद, बीजेपी कर्नाटक के एससी-एसटी सीटों पर बड़ी सेंध लगाने में कामयाब:
कर्नाटक में 64 सीटें ऐसी हैं जहां अनुसूचित जाति की आबादी 15 प्रतिशत से भी ज्यादा है. इन सीटों पर बीजेपी की सीट-संख्या पहले से दोगुनी हुई है, वे 11 से 22 तक पहुंच गईं हैं. उन 29 सीटों पर जहां अनुसूचित जनजाति का प्रभाव ज्यादा रहा है (हालांकि, उनमें कुछ सीटों पर ओवरलैपिंग यानि अन्य जातियों का भी प्रभाव है), वहां बीजेपी की सीट संख्या 6-9 तक पहुंच गया है. ये बहुत ही दिलचस्प है क्योंकि इन इलाकों में दलितों ने बीजेपी के खिलाफ भारी विरोध प्रदर्शन किया था. ऐसा करने के पीछे ये माना जाना था बीजेपी ने सुप्रीम कोर्ट के एससी-एसटी अत्याचार निरोधी अधिनियम के संबंद्ध आदेश पर जानबूझ कोई कार्रवाई नहीं की थी. इसके अलावा गौ-रक्षा, कथित तौर पर देशभर में बीजेपी के शासन वाले राज्यों में दलितों के खिलाफ अत्याचार जैसे मुद्दों पर राज्य के दलित समुदाय में पार्टी के खिलाफ गुस्सा था.
हालांकि, दो बातें यहां भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में रहीं. पहला, केजीपी और बीएसआरसीपी का पार्टी में लौटकर आना. तब जब बीएसआरसीपी राज्य के एक बहुत ही असरदार अनुसूचित जनजाति नेता माने जाते हैं. जिन्हें पार्टी ने अप्रत्यक्ष तौर पर पार्टी के उप-मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर जनता के सामने पेश किया. इलाके की दक्षिणपंथी (होलिया) पार्टी, वामदलों (माडिगा) पार्टी के द्वारा चलाए जा रहे कई कल्याणकारी योजनाओं पर सवाल खड़े कर रहे थे. जिससे वामदल काफी नाराज थे, बीजेपी यहां इस असंतोष का फायदा लेने में सफल रही.
SC Seats | 2013 | 2018 |
INC | 36 | 26 |
BJP | 11 | 22 |
JDS | 14 | 15 |
OTH | 3 | 1 |
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भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं, माइनिंग इलाकों की सीटें वापस बीजेपी के पास:
बेल्लारी और उसके आस-पास के कच्चे लोहे वाले इलाके में कुल 26 सीटें हैं. यहां कुख्यात रेड्डी भाईयों और उनकी कारस्तानियों की वजह से ही साल 2011 के अगस्त महीने में येदुर्रप्पा को अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी थी. साल 2013 के चुनाव में पार्टी यहां तब तहस नहस हो गई थी जब बीजेपी का वोट केजीपी और बीएसआरसीपी उम्मीदवारों के बीच बंट गई थी. लेकिन, रेड्डी भाईयों की वापसी के साथ बीजेपी ने फिर से इलाके में अपना खोया वर्चस्व दोबारा पा लिया और 26 में से 15 सीटों पर जीत हासिल कर ली. कांग्रेस ने चुनाव में भ्रष्टाचार को अपना मुद्दा बनाया था और रेड्डी बंधुओं के मुद्दे को बार-बार उछाला था ताकि वे मोदी सरकार द्वारा लगाए गए 10 प्रतिशत के कमिशन शुल्क को नकार दें लेकिन वे ऐसा कर नहीं पाए क्योंकि राज्य के नतीजों को देखकर ऐसा लगता है कि ये कारगर साबित नहीं हुआ.
Mining Seats | 2013 | 2018 |
INC | 18 | 11 |
BJP | 4 | 15 |
JDS | 3 | 0 |
OTH | 1 | 0 |
कई सीटों पर पूर्वानुमान और कांटे की टक्कर की बात गलत साबित हुई:
चुनाव से पहले ऐसी भविष्यवाणी की गई थी कि इन चुनावों में किसी तरह की कोई लहर या आंधी नहीं है. कई सीटों पर ये भी कहा गया था कि मुकाबला त्रिकोणीय है लेकिन नतीजों में ऐसा कुछ भी नजर नहीं आया. ऐसी सिर्फ 29 सीटें थीं जहां जीत का अंतर पांच हजार से कम था, जो कि 2013 से 40 प्रतिशत कम है. इससे कहीं ज्यादा सीटों पर जीत का अंतर कम से कम 20 हजार पाया गया है. ये नीचे के टेबल में देखा जा सकता है.
Margin Seats | 2013 | 2018 |
<5000 | 49 | 29 |
>20000 | 76 | 78 |
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लिंगायत का मुद्दा उठाना कांग्रेस पार्टी के विरोध में गया, बीजेपी की सीट संख्या 2008 जितनी हुई:
ये 2018 के चुनाव नतीजों का सबसे बड़ा फैसला है. सिद्धारमैय्या ने लिंगायत वोट पाने के लिए उन्हें एक अलग धर्म का दर्जा देने का पासा फेंका, जो शुरू में एक मास्टरस्ट्रोक लगा था लेकिन, जैसे- जैसे चुनाव नजदीक आते गए ये मुद्दा मरता चला गया. सिद्दारमैय्या को ये मुद्दा साफ तौर पर नजर आ गया था और वे ज्यादा वोट पाने की लालच में बीजेपी के मजबूत वोटबैंक पर हाथ मारना चाहते थे. लेकिन चुनाव के नतीजे बताते हैं कि बीजेपी ने उन इलाकों या सीटों में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है जहां लिंगायतों की बहुलता है.
बीजेपी ने न सिर्फ इन इलाकों की ज्यादातर सीटों पर जीत दर्ज की है बल्कि अपने 2008 के प्रदर्शन को दोहराने में भी सफल रही है. येदियुरप्पा ने एक बार फिर से अपनी स्थिति बनाए रखने में सफलता हासिल की और खुद को समुदाय का सबसे बड़ा नेता साबित करने में भी सफल रहे. बीजेपी की लिंगायत बहुल सीटों पर सीट संख्या उसकी कुल सीट संख्या का एक-तिहाई है.
लिंगायत सीट्स | 2008 | 2013 | 2018 |
INC | 25 | 47 | 21 |
BJP | 38 | 11 | 38 |
JDS | 5 | 11 | 10 |
OTH | 2 | 1 | 1 |
किसानों का कर्ज माफ करने के वादे ने काम कर दिया:
कृषि समस्या/ किसानों की कर्ज माफी से बीजेपी को प्रभावित इलाकों में फायदा
कर्नाटक में देश भर में होने वाले किसान आत्महत्याओं में तीसरे नंबर पर आता है. राज्य में अप्रैल 2013 के बाद से नवंबर 2017 तक 3,515 किसानों ने आत्महत्या की है. राज्य के किसान उनकी समस्याओं का निपटारा न कर पाने और उन्हें सूखे से होने वाले नुकसान की भरपाई न कर पाने या माकूल मुआवजा न देने के कारण सिद्धारमैय्या से नाराज थे.
ये चुनाव नतीजे इस बात की तसदीक करते हैं कि बीजेपी ने अपने चुनावी वायदे में राज्य के किसानों की कर्ज माफी का जो वादा किया है उससे उनको काफी फायदा हुआ है क्योंकि ये किसान न सिर्फ राज्य का बड़ा और महत्वपूर्ण वोट बैंक था बल्कि राज्य के 50 प्रतिशत से ज्यादा का वर्क-फोर्स यानी कि कामगार भी इनसे ही बनता है. राज्य के सूखा प्रभावित इलाकों में बीजेपी की सीट संख्या पहले से दोगुनी हुई है.
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कृषि समस्या वाली सीट्स | 2013 | 2018 |
INC | 40 | 25 |
BJP | 18 | 34 |
JDS | 14 | 14 |
OTH | 2 | 1 |
कावेरी जल विवाद पर आए फैसले से कांग्रेस को नुकसान, जेडीएस को फायदा:
फरवरी 2018, में सुप्रीम कोर्ट ने कावेरी जल के बंटवारे में कर्नाटक का अधिकार 14.75 tmcft इकाई से बढ़ाकर 284.75 tmcft कर दिया था. कोर्ट का ये फैसला 126 साल पुराने विवाद के निपटारे को लेकर आया था. कांग्रेस ने इसके लिए क्रेडिट लेने की कोशिश की और उन्हें उम्मीद था कि इसका उन्हें चुनाव में फायदा भी होगा लेकिन उम्मीद के उलट कांग्रेस को यहां भी मुंह की खानी पड़ी और जेडीएस को इसका फायदा मिला. इन इलाकों में पड़ने वाली 80 प्रतिशत से ज्यादा सीटें ओल्ड मैसुरू के इलाके में पड़ती हैं, जो वोक्कालिगा का गढ़ है, यहां पर जेडीएस का प्रदर्शन पहले से काफी अच्छा हुआ है. मान्ड्या इलाके में जहां कावेरी विवाद का सबसे ज्यादा असर हुआ वहां जेडीएस के उम्मीदवार की आसानी से जीत हुई.
कावेरी विवाद से प्रभावित सीट्स | 2013 | 2018 |
INC | 24 | 11 |
BJP | 3 | 11 |
JDS | 20 | 27 |
OTH | 2 | 0 |
अन्य या स्वतंत्र उम्मीदवारों की सबसे कम सीट मिली:
कर्नाटक की राजनीति में पहले छोटी पार्टियों और निर्दलीय उम्मीदवारों का काफी असर हुआ करता था लेकिन साल 2018 के चुनाव में ऐसा पहली बार देखा गया है कि उनकी सीट संख्या घटकर 02 तक पहुंच गई है, जो साल 2013 में 12 हुआ करती थी. साल 2008 में भी उनकी सीट 06 हुआ करती थी. उन्हें इसी साल सबसे कम वोट शेयर भी मिला है- जो सिर्फ 6.5% है.
इससे पहले उनका सबसे कम वोट प्रतिशत साल 1978 में था 8.6%. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ज्यादातर प्रभावशाली स्वतंत्र प्रत्याशियों ने किसी न किसी पार्टी का हाथ थाम लिया है और इसलिए भी अब मतदाता पार्टी और नेतृत्व के आधार पर वोट डाल रहा है न कि उम्मीदवार को देखकर.
इतिहास का दोहराव, मतदाताओं का बड़ी संख्या में वोट डालना और नोटा का बटन दबाना:
कर्नाटक एक ऐसा राज्य रहा है जहां राज कर रही सरकार को हमेशा सत्ता से उठाकर बाहर फेंका गया है, जो इस बार भी हुआ. इस बार के चुनाव में रिकॉर्ड संख्या में लोग वोट डालने के लिए अपने-अपने घरों से बाहर आए. वोट का प्रतिशत 72.36% रहा जो औसत से ज्यादा है. जब भी चुनावों में इस तरह से बड़ी संख्या में लोग घर से बाहर निकलते हैं तो उससे उनके मूड का पता चलता है, वो मूड हमेशा पदाधिकारी सरकार को सत्ता से बाहर फेंकने का होता है. 2014 के आम चुनावों के बाद जिन 12 बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं उनमें से 8 राज्यों की सरकारें बदल गई हैं, उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया गया है और इनमें से 7 राज्यों में वोटिंग का प्रतिशत काफी ऊंचा रहा है. कर्नाटक चुनाव में नोटा का इस्तेमाल काफी कम हुआ है जो 1% से भी कम रहा. इन सभी 12 राज्यों के विशलेषण से पता चलता है कि जहां नोटा का इस्तेमाल ज्यादा होता है मसलन 1.5%-2% वहां सत्तासीन पार्टी या सरकार को फायदा होता है, अन्यथा विरोधी या चुनौती देने वाले विपक्ष को.
कुल मिलाकर हम ये कह सकते हैं कि कर्नाटक चुनाव में बीजेपी की जीत किसी एक कारण से नहीं हुई बल्कि इसके लिए कई कारण एक साथ जिम्मेदार हैं. इन सभी कारणों ने मिलकर बीजेपी को राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनाने में मदद की है. हर अलग इलाके और हर अलग समुदायों ने अलग-अलग वोटिंग ट्रेंड दिखाया है जो अब खत्म हो गया है. अब समय है गहन विवेचना, विचार-विमर्श, तोल-मोल और जोड़-तोड़ का जिसके बाद कर्नाटक राज्य की जनता को अपनी नई सरकार हासिल होगी.