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जम्मू कश्मीर: अपनी सरकार गिराकर BJP अब नैतिक जीत का श्रेय ले सकती है

बीजेपी नेतृत्व ने भले ही अब जा कर महबूबा मुफ्ती सरकार से हटने का फैसला किया, लेकिन शासन करने की उनकी क्षमता पर बीजेपी का भरोसा बहुत पहले खत्म हो गया था

Sanjay Singh

1 मार्च, 2015 को स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास के एक सबसे विवादास्पद अध्याय की नींव रखी गई थी. पीडीपी और बीजेपी जैसे दो असामान्य सहयोगी जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने के लिए एक साथ आ रहे थे. जम्मू-कश्मीर में अपनी तरह की पहली सरकार बनने जा रही थी.

19 जून, 2018 भी राजनीतिक इतिहास का उतना ही महत्वपूर्ण अध्याय होगा. इस दिन बीजेपी ने अपनी तरफ से जम्मू-कश्मीर की गठबंधन सरकार से बाहर निकलने का फैसला किया था. यह एक ऐसा राज्य था, जहां बीजेपी पहली बार सत्ता का हिस्सा बनी थी. जाहिर है पीडीपी, बीजेपी द्वारा अचानक उठाए गए इस कदम को पसंद नहीं करेगी और अपना रास्ता खुद तय करने की कोशिश करेगी. लेकिन अभी के लिए वह कुछ ज्यादा नहीं कर सकती है. उनकी सरकार गिर गई है और इसके बाद राज्यपाल शासन की अधिसूचना जल्द ही जारी किए जाने की उम्मीद है.


बीजेपी नेतृत्व, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और खास कर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के लिए यह एक कठिन फैसला था. बीजेपी के सभी श्रेणी के नेताओं, केंद्र और राज्य के मंत्रियों, संगठनात्मक ढांचे के पदाधिकारी और जम्मू-कश्मीर के बीजेपी कार्यकर्ताओं के बीच इस गठबन्धन को ले कर बेचैनी थी. पार्टी कार्यकर्ता और नेता, खास कर जम्मू क्षेत्र के, जहां पार्टी ने 2014 के चुनावों में 25 सीटें (11 सीटें अधिक) जीती थी, वो भी बेचैन थे. केंद्रीय नेता वहां की जमीनी समस्या और राज्य में पीडीपी-बीजेपी गठबंधन सरकार की अस्थिरता को ले कर चिंतित थे. लेकिन कल तक कोई भी अपने कार्यकर्ताओं को निर्णायक प्रतिक्रिया देने की स्थिति में नहीं था.

राष्ट्र प्रथम का दर्शन!

2015-16 का समय बीजेपी के लिए राज्य में एक बोझ बनता जा रहा था. हर गुजरते दिन के साथ बीजेपी के लिए ये बोझ बढ़ता ही जा रहा था. जम्मू-कश्मीर के प्रभारी और बीजेपी महासचिव ने जैसा कि बताया भी, 'आतंकवाद, हिंसा और कट्टरपंथ' की घटनाएं बढ़ रही थीं और इसने घाटी में 'मौलिक अधिकार, जीवन के अधिकार और शांति' को खतरे में डाल दिया था. ईद की पूर्व संध्या पर आतंकवादियों ने पत्रकार शुजात बुखारी की हत्या कर इस स्थिति को और बदतर बना दिया.

जमीन पर बनती परिस्थितियां ऐसी थीं, जिसे बीजेपी नेतृत्व अनदेखा नहीं कर सका और उसे यह कठिन निर्णय लेना पड़ा. जमीनी परिस्थितियों को देखते हुए बीजेपी को सरकार से बाहर निकलना और उस निर्वाचित सरकार को गिराना पड़ा, जिसमें यह पिछले तीन वर्षों से हिस्सेदार थी. ऐसा कर बीजेपी अब एक नैतिक जीत का श्रेय ले सकती है और ये कह सकती है कि उसने राष्ट्र प्रथम (नेशन फर्स्ट) के अपने दर्शन की खातिर जम्मू-कश्मीर में अपनी सरकार का बलिदान कर दिया.

प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री राजनाथ सिंह हाल ही में कश्मीर गए थे और उन्होंने स्थिति का अपने तौर पर मूल्यांकन किया था. बीजेपी नेतृत्व ने भले ही अब जा कर महबूबा मुफ्ती सरकार से हटने का फैसला किया, लेकिन शासन करने की उनकी (महबूबा मुफ्ती) क्षमता पर बीजेपी का भरोसा बहुत पहले खत्म हो गया था. और यही सवाल बीजेपी नेताओं, कार्यकर्ताओं और साथ ही साथ पार्टी से सहानुभूति रखने वालों को उत्तेजित भी कर रहा था.

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महबूबा के खिलाफ लगातार ये शिकायतें आ रही थीं कि वह केंद्रीय खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा एजेंसियों के इनपुट पर काम नहीं कर रही थी. बताया जा रहा था कि वे समाज विरोधी और राष्ट्र विरोधी तत्वों के प्रति नरम रूख अपना रही थी. एक अनुभवी नेता गृह मंत्री राजनाथ सिंह भले महबूबा मुफ्ती के साथ या कश्मीर दौरे पर सार्वजनिक रूप से शांत दिखते थे, लेकिन सूत्रों के मुताबिक वे घाटी में घट रही घटनाओं को ले कर काफी परेशान थे. राजनाथ सिंह वास्तव में राज्य में पीडीपी-बीजेपी सरकार की निरंतरता स्वीकार नहीं कर पा रहे थे.

संघर्षविराम: एक असफल कदम

रमज़ान के पवित्र महीने के दौरान संघर्षविराम या एनआईसीओ (नन इनिशिएशन ऑफ कॉम्बेट ऑपरेशन) की घोषणा, केंद्र द्वारा सद्भावना बनाने के लिए एक आखिरी प्रयास था. ये निर्णय यह देखने के लिए था कि क्या अलगाववादियों, आतंकवादी संगठनों या लोगों ने इसका समर्थन किया या नहीं. इस तथ्य के बावजूद कि वाजपेयी सरकार द्वारा लागू इसी तरह के संघर्षविराम का प्रतिकूल असर हुआ था, केन्द्र सरकार ने संघर्षविराम का निर्णय लिया.

शुजात बुखारी और सैनिक औरंगजेब की हत्या के साथ-साथ अन्य कई घटनाओं से यह साबित हुआ कि संघर्षविराम एक असफल कदम था और इस प्रकार मोदी सरकार को अमरनाथ यात्रा से पहले इसे रद्द करने के लिए मजबूर होना पड़ा.

मंगलवार को जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल नई दिल्ली में बीजेपी प्रमुख अमित शाह के निवास पर गए, तब बहुत से लोगों को इसके महत्व का एहसास नहीं हुआ. लोग यह अंदाजा नहीं लगा सके कि अगले कुछ घंटों में क्या होने वाला है. अधिकांश लोगों ने यही समझा कि अमरनाथ यात्रा की तैयारी को ले कर कोई महत्वपूर्ण बैठक हो रही है.

हालांकि यह सामान्य नहीं है, लेकिन अभूतपूर्व भी नहीं है, जब शीर्ष सरकारी अधिकारी विशिष्ट विषयों पर इनपुट साझा करने के लिए विभिन्न पार्टियों के शीर्ष राजनीतिक नेताओं से मिलते हैं. लेकिन यह बात सार्वजनिक करने की जिम्मेवारी राम माधव पर छोड़ दी गई थी कि डोभाल और शाह के बीच क्या बातचीत हुई.

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ऐसा लगता है कि अमित शाह अंतिम निर्णय करने से पहले स्थिति के बारे में पूर्णरूप से जानकारी लेना चाहते थे. उन्होंने नई दिल्ली पार्टी मुख्यालय में सभी वरिष्ठ बीजेपी नेताओं को एक विस्तृत बैठक के लिए बुलाया था. निर्णय ले लिया गया था और अंतिम मिनट तक इसकी स्पष्टता सुनिश्चित की गई.

घाटी में अब नॉर्मेल्सी आएगी!

राम माधव के शब्दों पर ध्यान दे, जब उन्होंने जम्मू-कश्मीर गठबंधन सरकार से बाहर निकलने को ले कर सभी महत्वपूर्ण घोषणाएं की: गृह मंत्रालय, एजेंसियों (खुफिया और सुरक्षा) से आवश्यक इनपुट लेने के बाद प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने फैसला किया कि अब बीजेपी के लिए जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन सरकार में बने रहना मुश्किल है. उन्होंने कहा कि उन्हें  'अफसोस' के साथ कहना पड़ रहा है कि मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती स्थिति को संभालने में सक्षम नहीं थी और आवश्यकतानुसार काम नहीं कर पा रही थी.

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अब यह उम्मीद की जा सकती है कि कश्मीर घाटी में सुरक्षा एजेंसियां आतंकवादियों के खिलाफ कड़ा रूख अपनाएंगी और सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए कड़ा कदम उठाएंगी. सुरक्षा एजेंसियों को पिछले कुछ महीनों में आतंकवादियों के खिलाफ जो बढ़त मिली थी, वह संघर्षविराम के दौरान कम हुई. लेकिन अब राज्यपाल शासन में सुरक्षा एजेंसियां आतंकवादी समूहों और उनके गुप्त समर्थकों के खिलाफ कड़ा रवैया अख्तियार करेंगी. युवाओं का कट्टरपंथीकरण का मुद्दा खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा बलों के एजेंडे पर प्रमुख रहेगा.