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गुर्जर आरक्षण: फिर जलेगा राजस्थान या निकलेगा समाधान

राजस्थान में इस साल के अंत में चुनाव होने वाले हैं ऐसे में गुर्जर आरक्षण की ये चिंगारी बीजेपी सरकार के लिए बड़ी आग साबित हो सकती है

Mahendra Saini

कहते हैं इतिहास एक बार तो खुद को दोहराता ही है. लेकिन एक बार फिर वही होने जा रहा है जो बीते 10 साल में कई बार हो चुका है. लगता है राजस्थान एकबार फिर सुलगने वाला है. देश के इस सबसे बड़े राज्य में इस समय मौसम गरम हवाओं यानी लू का होता है. ऐसे गरम मौसम में गुर्जर एक बार फिर 'गरमी' दिखाने की तैयारी कर चुके हैं.

गुर्जरों ने आरक्षण के मुद्दे पर राज्य सरकार को चेतावनी दे दी है. चेतावनी वही पुरानी है लेकिन चुनावी साल में ये चेतावनी सरकार के लिए ज्यादा खतरनाक साबित हो सकती है. वजह ये है कि गुर्जर जिस आरक्षण की मांग कर रहे हैं, दूसरे कई समुदाय भी या तो अपने लिए वैसी ही मांग करने की तैयारी कर रहे हैं या फिर गुर्जरों का विरोध करने की तैयारी.


आरक्षण की मांग में अंधविश्वास!

इतिहास खुद को इस तरह भी दोहरा रहा है कि एकबार फिर गुर्जर आरक्षण बयाना के पीलूपुरा-कारवाड़ी गांव से ही शुरू किया गया है. अब तक 3 बार गुर्जर इसी गांव से आरक्षण आंदोलन की शुरुआत कर चुके हैं. यहां से शुरू किए आंदोलन ने हर बार गुर्जरों को आरक्षण दिलाया है. ये अलग बात है कि हर बार ही आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा हो जाने के चलते कोर्ट से खारिज हो चुका है. अब चौथी बार फिर इसी गांव को आंदोलन के लिए चुना गया है.

इसी रविवार यानी 6 मई को इस संबंध में गुर्जर आरक्षण समिति की यहां बैठक हो चुकी है. बैठक में कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला समेत गुर्जर समाज और आंदोलन से जुड़े रहे बड़े नेताओं ने शिरकत की है. आंदोलन में मरने वालों को श्रद्धांजलि के नाम से बुलाई गई इस बैठक में 15 मई को बयाना के अड्डा गांव में महापंचायत की घोषणा की गई. सभा में जिस तरह से बीजेपी की आलोचना की गई, उसने आंदोलन की शक्लो-सूरत के संकेत दे दिए हैं.

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गेहूं की फसल कटने के बाद गांवों में लोग अब खाली हैं. इसी के मद्देनजर ज्यादा से ज्यादा लोगों को आंदोलन में शामिल होने का आह्वान किया गया है. आंदोलन की रूपरेखा 15 मई को बनेगी लेकिन लोगों को जोड़ने और आंदोलन को बड़ा रूप देने के लिए 24 मई को दौसा के सिकंदरा, 29 मई को पाटोली-पीपलखेड़ा और 30 मई को सवाई माधोपुर के कुशालीदर्रा में श्रद्धांजलि सभाएं आयोजित की जाएंगी. ये वे जगह हैं जहां पुलिस फायरिंग में मौतें हुई थी.

ये आरक्षण जानलेवा है!

गुर्जर आरक्षण को देश का सबसे रक्तरंजित आरक्षण आंदोलन कहा जाए तो ज्यादा गलत न होगा. आंदोलन में हिंसा का प्रवेश 2007-08 में हुआ. अब बयाना के जिस कारवाड़ी गांव से दोबारा आरक्षण की शुरुआत की जा रही है, इसी गांव में 2008 में 18 लोगों की मौत हुई थी. आरक्षण आंदोलन उग्र हो जाने की वजह से पुलिस को कारवाड़ी के अलावा कई और जगह भी फायरिंग करनी पड़ी थी.

पूर्वी राजस्थान में ही सिकंदरा में आंदोलन के दौरान 20 लोगों की मौत हुई थी. 2007-2008 के 2 साल सबसे ज्यादा रक्तरंजित रहे. इस दौरान कुल मिलाकर 72 लोगों की जान गई. पिछले 10 साल से हर साल गर्मियों में आरक्षण की मांग पर गुर्जर दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग को जाम कर देते हैं. दौसा से भरतपुर तक पूरे पूर्वी राजस्थान की स्थिति बंधक जैसी हो जाती है. अब तक करोड़ों-अरबों रुपयों का नुकसान इस आंदोलन के चलते हो चुका है.

दरअसल, गुर्जरों का कहना है कि मूल रूप से वे उसी तरह खानाबदोश और पशुपालक यानी आदिवासी जाति हैं, जिस तरह मीणा जाति. जम्मू-कश्मीर और हिमाचल में गुर्जरों को इसी आधार पर अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल है. लेकिन राजस्थान में गुर्जरों को ओबीसी में रखा गया है. गुर्जरों को ये भी मलाल है कि राज्य में करीब 8% जनसंख्या होने के बावजूद उन्हे उतनी तवज्जो नहीं दी जाती जितनी कि जाटों को दी जाती है. गुर्जर नेताओं का मानना है कि मीणा और जाट समुदायों से उनके पिछड़ने की एकमात्र वजह आरक्षण ही है.

अब ओबीसी में विभाजन की मांग क्यों?

चूंकि सुप्रीम कोर्ट राजस्थान सरकार को निर्देश दे चुका है कि आरक्षण की व्यवस्था 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. इसलिए गुर्जर अब ओबीसी के वर्गीकरण की मांग कर रहे हैं. मांग की जा रही है कि ओबीसी का वर्गीकरण इस तरह कर दिया जाए कि जाट, यादव, जैसी ज्यादा फायदा उठा रही जातियों का दबदबा कम हो सके. गुर्जर समेत जिन 5 जातियों को विशेष पिछड़ा वर्ग (SBC) में 5% आरक्षण दिया गया था, उन्हें ओबीसी का वर्गीकरण कर ये 5% आरक्षण दिया जाए.

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गुर्जर अब ओबीसी के वर्गीकरण पर इसलिए भी जोर दे रहे हैं क्योंकि केंद्र सरकार ने इस मामले में एक कमिटी का गठन किया है. उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने भी ओबीसी के वर्गीकरण की दिशा में काम शुरू कर दिया है. गुर्जरों का अब यही कहना है कि जब बीजेपी उत्तर प्रदेश में ऐसा कर सकती है तो फिर राजस्थान में क्यों नहीं? चुनावी साल में गुर्जरों ने अल्टीमेटम दे दिया है कि या तो राजस्थान में ओबीसी का वर्गीकरण किया जाए या फिर नतीजे भुगतने के लिए तैयार रहें.

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लेकिन राजस्थान में बीजेपी के लिए ऐसा करना किसी दो धारी तलवार पर चलने जैसा खतरनाक हो जाएगा. उत्तर प्रदेश में ओबीसी का वर्गीकरण एसपी-बीएसपी से गठजोड़ का मुकाबला करने के लिए किया जा रहा है. बीजेपी की नजर ओबीसी में शामिल उन जातियों पर है जिन्हे वास्तविक रूप में आरक्षण का अब तक कोई फायदा नहीं मिल पाया है. बिहार की तरह पिछड़े में महापिछड़ा बनाकर बीजेपी इन्हें अपने पाले में करना चाहती है. ये वोट मायावती और अखिलेश यादव के गठजोड़ से टूटने वाले वोटों की भरपाई कर सकेंगे.

ओबीसी के वर्गीकरण की मांग इसलिए भी की जा रही है क्योंकि अब यही आखिरी रास्ता बचा है. सबसे पहले गुर्जरों ने अनुसूचित जनजाति में शामिल किए जाने की मांग की. लेकिन इसे एसटी आरक्षण का सबसे ज्यादा फायदा उठा रही मीणा जाति ने खुद के खिलाफ माना और पूर्वी राजस्थान में जहां गुर्जर-मीणा प्रभावी जातियां हैं, वहां वर्ग संघर्ष के हालात बन गए. इसके बाद गुर्जरों ने अलग से विशेष पिछड़ा वर्ग बनाने की मांग की. लेकिन SBC का आरक्षण 50% की तय सीमा से ऊपर जाने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया.

कद्दावर ओबीसी जातियां नहीं चाहती वर्गीकरण

राजस्थान में ओबीसी में करीब 100 जातियां हैं जिन्हे 21% आरक्षण दिया गया है. अनुसूचित जातियों को 16% और अनुसूचित जनजातियों को 12% आरक्षण दिया जा रहा है. हालांकि आबादी के अनुपात में ये कम है इसलिए सभी आरक्षित जातियां पहले से ही आरक्षण का अनुपात बढ़ाए जाने की मांग दोहराती रही हैं. विपक्ष के मुताबिक आरक्षण बढ़ाए जाने की इस मांग को दबाए रखने के लिए ही मोदी सरकार ने सामाजिक और आर्थिक जातीय जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए.

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देखा जाए तो राजस्थान में अनुसूचित जाति और जनजाति की कुल आबादी 31% से ज्यादा है जबकि दोनों वर्गों का कुल आरक्षण 28% ही है. इसी तरह ओबीसी वर्ग की आबादी 50% से कुछ ऊपर बताई जाती है लेकिन इन जातियों को सिर्फ 21% आरक्षण ही दिया जा रहा है. ऊपर से सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार नई भर्तियों में रोस्टर प्रणाली लागू कर दी गई है. इसका नुकसान ये है कि पहले सामान्य जाति की कट ऑफ से ऊपर आने वाले आरक्षित वर्गों के अभ्यर्थियों को सामान्य ही माना जाता था. लेकिन अब रोस्टर प्रणाली के तहत ऐसा नहीं हो रहा है. ऐसे में वर्गीकरण की मार इन जातियों को भड़का सकती है.

ओबीसी आरक्षण का सबसे ज्यादा फायदा जाटों को

2 साल पहले सामने आए एक सर्वे में देखा गया था कि ओबीसी आरक्षण का सबसे ज्यादा फायदा जाट समुदाय को मिला है. राजस्थान में जाट जाति की जनसंख्या करीब 10% है लेकिन 1999-2000 में आरक्षण मिलने के बाद से नौकरी लगा हर चौथा कर्मचारी जाट है. इसका कारण बाकी जातियों की तुलना में जाटों की शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति का कमोबेश बेहतर होना है. जाटों की तरह सैनी, यादव, कुमावत जैसी जातियां भी ओबीसी का वर्गीकरण बिल्कुल नहीं चाहेंगी जिन्हें इससे तुलनात्मक रूप में अच्छा फायदा मिला है. इसके बावजूद ये मांग जोर पकड़ती है तो ये सरकार और समाज दोनों के लिए खतरनाक हो सकता है.

दूसरी ओर, बीजेपी से पहले से ही खफा चल रहे राजपूतों ने भी ओबीसी में शामिल किए जाने की मांग तेज कर दी है. मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के क्षेत्र झालावाड़ में राजपूतों ने एक बैठक आयोजित कर आंदोलन शुरू करने की चेतावनी दी. राजपूतों का कहना है कि जब जाटों को ओबीसी में शामिल किया जा सकता है तो राजपूतों को क्यों नहीं. ऐसे में लगता है आरक्षण की ये चिंगारी बीजेपी सरकार के लिए बड़ी आग साबित हो सकती है.

आरक्षण आंदोलन के राजनीतिक मायने भी हैं

गुर्जर आरक्षण की मांग यूं तो पुरानी है लेकिन 2003 विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने ही सबसे पहले गुर्जरों को एसटी में शामिल करने का वादा किया था. इसके बाद गुर्जरों की महत्वाकांक्षा ने और ज्यादा जोर पकड़ा. कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला, हिम्मत सिंह जैसे नेता शुरुआत से ही आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं. हालांकि पिछले 10 साल में बैंसला पर बीजेपी और कांग्रेस, दोनों ही पार्टियों से राजनीतिक-आर्थिक फायदा उठाने के आरोप भी लगते रहे हैं.

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2009 में जब राज्य में कांग्रेस सरकार थी, तब कर्नल बैंसला ने बीजेपी के टिकट पर टोंक-सवाईमाधोपुर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव भी लड़ा था. हालांकि वे हार गए लेकिन आलोचकों ने बाद में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से नजदीकियों के आरोप भी लगाए. अब एक बार फिर कुछ लोग आंदोलन के रास्ते आने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सरकार से किसी 'डील' की चाहत का आरोप लगा रहे हैं.

राजनीतिक वर्चस्व के लिए शुरू हुई थी आरक्षण की मांग!

विश्लेषकों का ये भी कहना है कि नौकरियों से ज्यादा गुर्जर नेताओं ने राजनीतिक वर्चस्व के लिए आरक्षण की मांग शुरू की थी. बताया जाता है कि गुर्जर भी पूर्वी राजस्थान में अपनी समकक्ष मीणा जाति की तरह विधानसभा और लोकसभा में अच्छा-खासा प्रतिनिधित्व चाहते हैं. विधानसभा में अनुसूचित जाति के लिए 24 सीटें आरक्षित हैं. इनमें से अधिकतर पर मीणा विधायक ही जीत कर आते हैं.

आंदोलन के पीछे महत्वाकांक्षा कुछ भी हो लेकिन ये तय है कि पिछले 10 साल में इस आंदोलन ने राजस्थान के साथ ही दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग के यात्रियों को भी भारी परेशानी में डाला है. लगभग हर बार नुकसान के अलावा अभी तक कुछ भी हासिल नहीं किया जा सका है. शायद खुद गुर्जर युवाओं के जेहन में भी फैज अहमद फैज का ये शेर बार-बार आता होगा-

कब ठहरेगा दर्द ए दिल, कब रात बसर होगी

सुनते थे वो आएंगे, सुनते थे सहर होगी.