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राहुल गांधी को लानी होगी सोनिया जैसी टीम

अध्यक्ष पद की बड़ी जिम्मेदारी मिलते ही राहुल गांधी को देश की सबसे पुरानी पार्टी को सही दिशा में ले जाने की भारी जिम्मेदारी मिल जाएगी

Syed Mojiz Imam

गुजरात चुनाव ने राहुल गांधी की छवि को नई धार दी है, इस लिहाज से गुजरात चुनाव कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण है. पार्टी को लगने लगा है कि गुजरात में चुनाव जीता भी जा सकता है. ऐसा हुआ तो ये जीत राहुल गांधी के लिए संजीवनी बन जाएगी. खासकर पार्टी के कार्यकर्ताओं में ये विश्वास बनेगा कि राहुल गांधी चुनाव जितवा सकते हैं क्योंकि निजी कारणों से सोनिया गांधी गुजरात चुनाव से दूर रही हैं.

सबकुछ अच्छा चल रहा था तभी आत्मघाती चेन रिएक्शन शुरू हो गए. मणिशंकर अय्यर के सनसनाते बयान ने पहले दौर के मतदान के ऐन पहले बड़े ही नाजुक मौके पर पार्टी को अचानक अनचाहे विवाद के भंवर में फंसा दिया. कांग्रेस इस भंवर से निकलने के लिए फड़फड़ा रही थी कि तभी सलमान निजामी नाम का धमाका हो गया. पीएम मोदी ने महिसागर की एक रैली में आरोप लगाया कि यूथ कांग्रेस के नेता सलमान निजामी ने उनके माता-पिता को लेकर अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया है.


पीएम ने इसे अपने अंदाज में मेहनतकश गरीब के खिलाफ अमीर प्रभुद्ध वर्ग के हमले की अगली कड़ी के तौर पर पेश किया. कांग्रेस एक बार फिर सिर खुजाने लगी कि इस संकट से कैसे निकले. ऐसे भावनात्मक संकट चुनावी भविष्य के क्षितिज पर दिख रही रोशनी की क्षीण किरण को भी दोबारा अंधेरे में डुबो सकता है.

वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर ने जब जुबान खोली तो खुद राहुल गांधी ने दखल दिया. उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया गया ताकि राजनीतिक नुकसान से बचा जा सके. अय्यर को निलंबित करने के फैसले का स्वागत शीला दीक्षित जैसी सीनियर नेता ने भी किया. ये वही मणिशंकर हैं जिन्होंने मोदी को 2014 के आम चुनाव से पहले चायवाला कहा था, और माना जाता है कि इसके बाद कांग्रेस की बची-खुची उम्मीद भी खत्म हो गई थी.

सलमान निजामी का कद मणिशंकर अय्यर वाला नहीं है, लिहाजा इस बार राहुल गांधी को आने की जरूरत नहीं पड़ी. राजीव शुक्ला और प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी ने तो उन्हें कांग्रेस का प्राथमिक सदस्य तक मानने से इंकार कर दिया.

कांग्रेस में आत्मघाती चेन रिएक्शन जल्दी खत्म हो जाएगा, ये कहना अब संभव नहीं रहा है. लेकिन इनसे इन सवालों का भी विस्फोट हुआ है कि क्या कांग्रेस में गुजरात चुनाव से पहले आपसी तालमेल पर कोई बात नहीं हुई? क्या ये तय नहीं हुआ कि क्या बोलना है क्या नहीं? फिलहाल इनका जवाब भी ये सवाल बन कर खड़ा है. राहुल गांधी की सबसे बड़ी समस्या ये है कि वे अपनी कोर टीम कैसे खड़ी करें? किस तरह से विश्वासपात्र लोगों को अपने साथ लाएं?

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पार्टी के प्रवक्ता डॉ. अजॉय कुमार ने इस सवाल पर जवाब दिया, 'हर पार्टी चुनौती के दौर से गुजरती है. कांग्रेस भी इससे गुजर रही है. सोनिया गांधी ने पार्टी को बेहतर लीड किया लेकिन तमाम चुनौती के बाद राहुल गांधी भी कांग्रेस को सही दिशा में ले जाएंगे और अपनी योग्य टीम खड़ी करेगें.' सोनिया गांधी ने 1998 में जब पार्टी की कमान संभाली थी वो राजनीति में नई थीं, लेकिन अपनी कोर टीम की बदौलत ही वे 2004 के आम चुनाव में वाजपेयी जैसे बड़े नेता को मात दे पाई थीं.

कौन है राहुल की टीम में

राहुल गांधी को जब पार्टी की कमान मिल रही है तब उन्हें सांसद बने 13 साल हो जाएगें. राहुल गांधी पहली बार 2004 में संसद बने थे तब से अब तक वे अपनी स्थाई, विश्वासपात्र और संकटमोचक कोर टीम नहीं खड़ी कर पाएं.

फिलहाल राहुल गांधी के दफ्तर की बात करें तो उनके ऑफिस में कौशल विद्यार्थी, अलंकार, सचिन राव और एसपीजी में काम कर चुके के. बी बैजू प्रमुख हैं. विगत में राहुल का काम काज देखने वाले कनिष्क सिंह अब जवाहर भवन में बैठते हैं. वो अब ट्रस्ट का काम देख रहे हैं.

इन नामों के बारे में सरसरी पड़ताल से ही ये गुत्थी सुलझने लगती है कि राहुल अब तक स्थाई कोर टीम क्यों नहीं बना सके? दरअसल, इनमें से कोई भी राजनीतिक बैक ग्राउंड से नहीं है. राजनीतिक फैसले लेने की इनकी क्षमता भी संदेह के घेरे में है. हालांकि राहुल ने हाल में ही कई नए नेताओं को राज्यों मे कमान देकर संतुलन बनाने की कोशिश की है.

मसलन झारखंड में अजॉय कुमार को अध्यक्ष बनाया. यहां प्रभारी आरपीएन सिंह को बनाया गया जो पूर्व में यूपीए सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं. छत्तीसगढ़ में पीएल पुनिया को प्रभारी बनाया गया. इस तरह से संचार विभाग की कमान रणदीप सुरजेवाला को दी गई. हालांकि सभी राहुल की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे. सुरजेवाला के विभाग से कई बड़ी गलतियां हो चुकी हैं.

हाल फिलहाल में पहला ममला सोमनाथ मंदिर वाला है, दूसरा पीएम का गलत तरीके से 'मेमे' बनाने का है. इससे पहले चीनी दूतावास में राहुल गांधी के जाने के बाद भी वे मीडिया के सामने सही तथ्य नहीं रख पाए थे. इसके बाद सोनिया गांधी को सीनियर नेताओं की एक टीम बनानी पड़ी जिसे मीडिया में परोसी जाने वाली सामग्री पर सलाह मशविरा देने और उस पर ढीला नियंत्रण रखने की जिम्मेदारी दी गई.

गुजरात विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी के सोमनाथ मंदिर दर्शन की तस्वीर

हालांकि सोशल मीडिया का काम बेहतर हुआ है. दिव्या स्पंदाना रम्या के आने के बाद इस प्लेटफार्म पर राहुल गांधी की धमक बढ़ी है. जिससे बीजेपी की पेशानी पर बल पड़ा है. बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह को कहना पड़ा कि सोशल मीडिया पर भरोसा ना करें.

राजीव गौड़ा के रिसर्च हेड बनने के बाद से पार्टी के प्रवक्ता थोड़ा होमवर्क करके आने लगे हैं. ये गिनती के कुछ मामले हैं जिनमें मिली सफलता ने मुस्कुराने भर का ही मौका दिया है.

कांग्रेस से ज्यादा बाहरी लोगों पर किया यकीन

वहीं कांग्रेस में राहुल गांधी ने जितने भी प्रयोग किए वे सफल नहीं हो पाए. 2012 में यूपी में सपा के बागी नेता बेनी प्रसाद वर्मा और अपने सहयोगी कनिष्क सिंह के भरोसे चुनाव लड़ा और बुरी तरह मात खाई. बाद में वर्मा से भी रिश्ते खराब हो गए. बेनी प्रसाद वर्मा एसपी में वापस चले गए.

2017 में कांग्रेस के नेताओं के अंदरूनी विरोध के बाद भी प्रशांत किशोर के कहने पर समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर लिया. नीतीश कुमार के साथ भी गठबंधन का अंजाम सबके सामने है. गुजरात चुनाव से ऐन पहले शंकर सिंह वाघेला ने पार्टी छोड़ दी. असम में हेमंत बिस्वा सर्मा के बागी होने से सत्ता हाथ से चली गई.

गोवा और मणिपुर में सही समय में फैसला नहीं लिया गया तो सत्ता हाथ से चली गई. इस घटना के बाद दिग्विजय सिंह की राहुल गांधी के साथ दूरी बढ़ गई. कांग्रेस में दूसरे दलों के लोगों पर राहुल गांधी को ज्यादा यकीन रहा है. समाजवादी बैकग्राउंड के मोहन प्रकाश को पार्टी का महासचिव बनाया.

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महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश जैसे राज्य का प्रभार दिया लेकिन मोहन प्रकाश कामयाबी नहीं दिला पाए. मधुसूदन मिस्त्री को महासचिव बनाया जो गुजरात में अहमद पटेल के विरोधी माने जाते हैं. मुबंई में बीएमसी चुनाव हारने के बाद भी संजय निरूपम इसलिए टिके हैं क्योंकि वो राहुल गांधी के करीबी हैं.

दिल्ली में अजय माकन पर भी मनमानी का आरोप लगता रहा. कुछ नेताओं ने दिल्ली में विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस की हार के बाद राहुल से मुलाकात की तो राहुल गांधी ने कहा कि वोट पर्सेंट बढ़ा है और बात टाल दी. कांग्रेस के पूर्व नेता हेमंत बिस्वा सर्मा ने जब राहुल गांधी से कहा कि असम में नेता बदलना चाहिए तो हेमंत से राहुल ने कहा कि चुनाव हार जाएंगे तो क्या हुआ?

इस तरह ही पंजाब के एक विधायक ने राहुल से प्रदेश नेतृत्व की शिकायत की और कहा कि इन हालात में वे पार्टी में रह नहीं पाएंगे तो राहुल गांधी ने उनको गुडलक कह दिया. इसके बरअक्स 2012 में वीरभद्र सिंह की नाराजगी दूर करने के लिए सोनिया गांधी ने भरसक कोशिश की.

पहले दिग्विजय सिंह को भेजा फिर अहमद पटेल और शीला दीक्षित को भेजा. शीला दीक्षित वही नेता थीं जिनकी सदारत में कांग्रेस ने दिल्ली में 1998 का विधानसभा चुनाव जीता और कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद वो सोनिया गांधी के लिए भी बड़ी जीत थी.

सोनिया की टीम

सोनिया गांधी ने जब 1998 में कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं तो उनके पास कोई टीम नहीं थी. सिर्फ वी. जॉर्ज उनका काम देखते थे. लेकिन सोनिया गांधी ने ऐसे नेताओं की टीम खड़ी की जो उनको हर मसले पर सलाह देती रही. कांग्रेस के एक सीनियर नेता ने कहा कि कश्मीर पर कोई फैसला लेना हो तो सोनिया डॉ. कर्ण सिंह और माखनलाल फोतेदार को जरूर सुनती थीं.

इस तरह राजनीतिक फैसले भी सलाह के बाद किए जाते थे. जिनमें प्रणब मुखर्जी, अर्जुन सिंह, एके एंटनी, अंबिका सोनी से सलाह लेती थीं. पार्टी के काम काज को चलाने के लिए मोतीलाल वोरा और जनार्दन दिवेदी को टीम में थे. अहमद पटेल को राजनीतिक सचिव बनाया जो सोनिया गांधी के फैसलों को सही ढंग से पार्टी के भीतर और बाहर लागू करवाते थे.

गठबंधन की राजनीति में अहमद पटेल की भूमिका अहम रही. वित्त संबधी मामलों में सरकार आने से पहले मनमोहन सिंह के सलाह को अहमियत मिलती रही. बहुत से मामलों में एके एंटनी सोनिया के विश्वासपात्र सलाहकार थे. कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि सोनिया गांधी हमेशा तल्ख फैसला लेने से बचती रहीं. सबको साथ लेकर चलने की कोशिश ज्यादा करती रहीं.

टीम सोनिया और राहुल गांधी की टीम में फर्क

सोनिया गांधी के साथ जो टीम थी वो राजनीति में मंझी हुई थी. प्रणब मुखर्ज इंदिरा गांधी की कैबिनेट में मंत्री रह चुके थे. अर्जुन सिंह राजनीति के माहिर खिलाड़ी थे, राजीव गांधी ने उनको पंजाब का गवर्नर बनाया था.

पार्टी का उपाध्यक्ष भी राजीव गांधी ने ही बनाया. इससे पहले वे मध्यप्रदेश के सीएम रह चुके थे. अंबिका सोनी संजय गांधी के जमाने से राजनीति में थीं. यूथ कांग्रेस की नेता रही थीं और पार्टी में काफी लंबा वक्त भी बिताया.

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मोतीलाल वोरा टीम सोनिया में शामिल होने से पहले एमपी के सीएम और यूपी के गर्वनर का पद संभाल चुके थे. अहमद पटेल राजीव गांधी के संसदीय सचिव थे. सीताराम केसरी ने उन्हें पार्टी का कोषाध्यक्ष बनाया था. एके एंटनी केरल के कई बार मुख्यमंत्री रहे. कई मामलों में टीम संकट मोचक बनी, और शक न रहा कि इस टीम के पास बड़े संकट से निपटने की क्षमता और तजुर्बे को साथ रणनीति भी थी.

वहीं, राहुल गांधी के टीम में शायद राजनीतिक फैसला लेने वालों की कमी है. राहुल की टीम यंग जरूर है लेकिन अभी तक चुनाव के फ्रंट पर फेल है. राहुल के दफ्तर में काम करने वाले प्रोफेशनल हैं जिनको पार्टी से वेतन मिलता है. इसलिए राहुल गांधी ने सुशील कुमार शिंदे और अशोक गहलोत को अहम जिम्मेदारी दी, सच है जहां नौजवानी की हिम्मत भी नाकाम होने लगे वहां तजुर्बा ही संकट से निपटने की राह सुझाता है. हालांकि अब भी कांग्रेस के पुराने नेता अंदर खाने राहुल गांधी की टीम बनाने की सलाहियत को लेकर संशकित रहते है.