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अपराजिता राजा: एबीवीपी के लगाए आरोप सामंतवादी सोच को दिखाते हैं

मुझे खुशी है कि मैं एक ऐसे मां-बाप की बेटी हूं जो जीवन भर संघर्षों में रहे हैं और मुझे विरासत में संघर्ष ही मिले हैं

Aparajitha Raja

किंवदंतियों और धर्मकथाओं में अवतरित होने की कहानियां मिलती हैं, लेकिन असल जिंदगी में लोग मां-बाप से ही पैदा होते हैं. मुझे खुशी है की मेरे मां बाप दोनों संघर्षों के भागीदार रहे हैं. असल में उन्होंने साथ जिंदगी जीने का फैसला ही संघर्षों में आपसी भागीदारी के दौरान लिया.

मेरे मां-बाप (एन्नी राजा और डी राजा) दोनों के ही एक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य होने के नाते मेरा बचपन सामान्य तो नहीं ही रहा है. यहां तक कि मेरे बचपन के सारे दोस्त भी किसी-न-किसी राजनीतिक कार्यकर्ता के ही बेटे-बेटियां ही थे.


आज उनमे से कई अपने-अपने क्षेत्र में सफल और बेहतर कर रहे हैं. हममें से कुछ बचपन के साथी एक बार फिर से आंदोलनों के साथी बन चुके हैं. क्योंकि हमारे पास संघर्षों के अलावे कोई विकल्प नहीं था. साथ ही, शोषित और वंचित तबके की पढ़ी-लिखी दूसरी पीढ़ी होने के नाते ये जिम्मेवारी भी थी जो कहीं न कहीं एक संघर्षरत मां-बाप को देखकर और बढ़ जाती है.

आज हमारे कई साथी अलग-अलग राजनीतिक संगठनों के साथ, लेकिन शोषितों और वंचितों की लड़ाई लड़ रहे हैं जो पहली या दूसरी पीढ़ी के कार्यकर्ता हैं. मुझे यकीन है कि आने वाली हमारी अगली पीढ़ी हमसे भी ज्यादा जुझारू होगी.

दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करने के बाद साल 2012 में मैंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में दाखिला लिया. हालांकि इसके पहले भी दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्र आंदोलन का हिस्सा रही थी. लेकिन जेएनयू के इन 5 सालों में छात्र आंदोलनों से लेकर देश भर में चल रहे जन आंदोलनों के बारे में एक बेहतर समझदारी विकसित हुई. जेएनयू के छात्र आंदोलन की एक खासियत यह भी रही है की मुख्तलिफ़ विचारधाराओं के बावजूद न्यूनतम एथिक्स बरकरार रहती हैं.

यही वजह है कि विचारधाराओं की इस लड़ाई में व्यक्तिगत आरोप और ओछी राजनीति इस कैंपस का हिस्सा नहीं रहा हैं. लोग राजनीतिक रूप से एक-दुसरे के ऊपर जितने भी आरोप-प्रत्यारोप लगा लें, चाय की प्याली के साथ एक दुसरे से हंसते बात करते नजर आते हैं, क्योंकि इन आरोपों में किसी की पर्सनल डिग्निटी पर सवाल नहीं उठाया जाता. अगर ऐसा होता है तो सर्वसम्मति से उसकी निंदा की जाती रही है.

अलग है इस बार का चुनाव

इस बार का चुनाव कुछ अलग है. बीजेपी ने पूरे देश भर में और एबीवीपी ने इस कैंपस में जो किया है, उससे यह तो तय है की कैंपस के छात्र एबीवीपी को करार जवाब देंगे. शायद एबीवीपी को इस बात का इल्म है, इसलिए इस कैंपस में संघी और ब्राह्मणवादी-सामंती मानसिकता के लोग वैचारिक दिवालियापन पर उतर आए हैं. इनके लिए आज भी किसी महिला का स्वतंत्र वजूद नहीं हो सकता, इसलिए ये लोग मुझ पर व्यक्तिगत छींटाकशी पर उतर आए हैं.

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केवल इस कैंपस में ही 5 साल लगातार छात्र आंदोलनों में रहने और स्कूल लेवल पर 2 बार काउंसलर पद के लिए चुनाव लड़ने के बाद अगर मैं यूनियन के नेतृत्व के लिए चुनाव लड़ रही हूं, तो ये लोग मेरे वजूद को मेरे मां बाप की निजी पहचान के साथ जोड़ रहे हैं.

जिनके यहां नेतृत्व को ऊपर से थोपने की रवायत है, वो इससे ज्यादा और कर भी क्या सकते हैं. अगर इसमें भी थोड़ी-सी इमानदारी होती तो ये मेरी मां का भी नाम लेते. आज जो मैं हूं, या कोई भी बच्चा जो बड़ा होता है, उसमे मां का योगदान ज्यादा होता है.

लेकिन इन पित्तृसत्ता लोगों को मैं केवल डी राजा की बेटी दिख रही हूं. मुझे खुशी है कि मैं एक ऐसे मां-बाप की बेटी हूं जो जीवन भर संघर्षों में रहे हैं और मुझे विरासत में संघर्ष ही मिले हैं. मैं किसी प्रिविलेज के रूप में राजनीति में नहीं नहीं आई हूं, बल्कि आज भी और जीवन भर वाम–प्रगतिशील जनांदोलनों में साथ संघर्ष करने की जवाबदेही के साथ हूं.

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भले ही अभी कुछ ब्राह्मणवादी सामंती मानसिकता के लोग इस वैचारिक दिवालियेपन पर उतर आये हों लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है की इस कैंपस का छात्र समुदाय ऐसी ओछी राजनीति को दरकिनार करेगा. एक बार फिर साबित होगा की एक महिला केवल किसी की बेटी, बहन, बहू, मां नहीं है, बल्कि उसका भी अपना एक स्वतंत्र वजूद है और चाहे हमें इसे रोज़ ही क्यों न साबित करना हो, हम करेंगे, लड़ेंगे, जीतेंगे.

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