जेएनयू छात्र राजनीति का गढ़ माना जाता है. आमतौर पर जिस तरह से छात्रसंघ चुनाव देश के अन्य हिस्सों में होता है यहां इसका एक अलग ही रूप देखने को मिलता है. जेएनयू में धनबल और बाहुबल के जरिए नहीं बल्कि वैचारिक बहसों द्वारा चुनाव लड़ें और जीते जाते हैं.
जेएनयू वामपंथ का गढ़ माना जाता है लेकिन ऐसा कई बार हुआ है कि यहां वामदलों के अलावे निर्दलीय, फ्री थिंकर, समाजवादी और दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़े लोग भी छात्रसंघ में चुने गए हैं. जेएनयू में छात्रसंघ का चुनाव 1971 से हो रहा है. आम लोगों की निगाह में छात्र राजनीति व्यापक राजनीति की नर्सरी मानी जाती है. इस देश में छात्र राजनीति और आंदोलन से निकले हुए नेताओं ने राष्ट्रीय राजनीति में भी एक जगह बनाई है.
ऐसे में जेएनयू से निकले हुए राजनेताओं के बारे में जानना दिलचस्प होगा. खासकर तब जब जेएनयू छात्रसंघ के चुनाव होने वाले हैं और जेएनयू हमेशा सुर्खियों में बना रहता है. जेएनयू से पढ़े और यहां के छात्रसंघ में चुने गए कई नेता आज राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हैं.
वैसे जेएनयू अपने छात्र राजनीति के साथ-साथ अकादमिक उत्कृष्टता के लिए भी जाना जाता है. शायद यही वजह रही है कि यहां के छात्रसंघ के पदाधिकारी के रूप में चुने गए अधिकतर लोग अकादमिक जगत से जुड़े हुए हैं. इसके बावजूद ऐसे कई बड़े नाम हैं जो आज भी राजनीति में सक्रिय हैं.
वे नेता जो कभी जेएनयू छात्रसंघ में थे
इसमें सबसे पहला नाम सीपीएम के पूर्व महासचिव प्रकाश करात का आता है. प्रकाश करात 2005 से 2015 तक देश की सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी सीपीएम के महासचिव रहे. करात जेएनयू छात्रसंघ के तीसरे अध्यक्ष थे. वे सीपीएम की छात्र संगठन एसएफआई से चुने गए थे.
प्रकाश करात की जगह लेने वाले यानी सीपीएम के वर्तमान महासचिव सीताराम येचुरी 1976 से लेकर 1978 तक दो बार जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके हैं. उस वक्त देश में आपातकाल था और येचुरी के नेतृत्व में जेएनयू ने जबरदस्त प्रतिरोध किया था. येचुरी ने इंदिरा गांधी के सामने ही इंदिरा गांधी का इस्तीफा पत्र कैसा होना चाहिए इसे सबके सामने पढ़कर सुनाया था. करात और येचुरी दोनों राज्यसभा सांसद भी रह चुके हैं.
1974 में प्रकाश करात को हराकर अध्यक्ष बनने वाले आनंद कुमार जेएनयू में समाजशास्त्र के प्रोफेसर रह चुके हैं. वो आम आदमी पार्टी से 2014 में पूर्वी दिल्ली से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं. फिलहाल वे ‘स्वराज इंडिया’ पार्टी में सक्रिय हैं और इसके संस्थापक सदस्य हैं.
1975 में एसएफआई के बैनर से अध्यक्ष बने देवी प्रसाद त्रिपाठी फिलहाल शरद पवार के एनसीपी से जुड़े हुए हैं. वे एनसीपी से राज्यसभा के सांसद भी रह चुके हैं. देवी प्रसाद त्रिपाठी कभी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के करीबियों में शुमार किए जाते थे.
1979 में बांका के पूर्व सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री दिवंगत दिग्विजय सिंह जेएनयू छात्रसंघ के महासचिव चुने गए थे. जब तक दिग्विजय सिंह जीवित थे तब तक बिहार की राजनीति में उनका अच्छा खासा दखल था. वे समाजवादी विचारधारा के समर्थक छात्रसंगठन एसवाईएस से चुने गए थे. इस संगठन का आज कोई अस्तित्व नहीं है.
1992 में एसएफआई के बैनर से चुनाव लड़कर अध्यक्ष बनने वाले शकील अहमद खान फिलहाल कांग्रेस के नेता हैं. वे 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में कदवा, कटिहार से विधायक चुने गए हैं.
1990 के बाद जेएनयू में एक और वामपंथी छात्र संगठन आइसा ने सशक्त रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. यह छात्र संगठन भाकपा-माले से जुड़ा है. इसी छात्र संगठन से 1994 और फिर 1995 में चंद्रशेखर प्रसाद अध्यक्ष के रूप में चुने गए. जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में अपना कार्यकाल खत्म करके वे बिहार के सीवान में भाकपा-माले के कार्यकर्त्ता के रूप में काम करने गए.
31 मार्च, 1997 को बिहार में हो रहे जातीय नरसंहारों के खिलाफ भाषण देते समय कुछ अपराधियों उनकी हत्या कर दी. उनकी हत्या का आरोप आरजेडी के पूर्व सांसद शहाबुद्दीन के ऊपर लगा. चंद्रशेखर की मौत के बाद बिहार और दिल्ली के भीतर छात्रों ने जबरदस्त प्रतिरोध जताया. इस पूरी घटना के ऊपर ‘एक मिनट का मौन’ नामक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी बनी है.
चंद्रशेखर के दूसरी बार अध्यक्ष रहते हुए आइसा के बैनर से 1995 में कविता कृष्णन संयुक्त सचिव चुनी गई थीं. कविता कृष्णन महिला आंदोलन से जुड़ी जानी-मानी हस्ती हैं और भाकपा-माले की पोलित ब्यूरो मेंबर भी हैं. इसके अलावा 1998 में एसएफआई के बैनर से अध्यक्ष बने बीजू कृष्णन सीपीएम के किसान संगठन के सचिव हैं और केरल में सीपीएम के जाने-माने नेता हैं.
जेएनयू में एबीवीपी से अब तक के एकमात्र अध्यक्ष बने संदीप महापात्रा फिलहाल बीजेपी में सक्रिय हैं और सुप्रीम कोर्ट में काउंसल हैं.
इन चर्चित नामों के अलावा जेएनयू छात्रसंघ के कई पूर्व पदाधिकारी किसी न किसी राजनीतिक दल या विचारधारा से जुड़े हुए हैं. छात्रसंघ में चुना गया शायद ही कोई ऐसा पदाधिकारी हो जो राजनीतिक मुद्दों पर अपनी राय नहीं रखता हो या अराजनीतिक हो गया हो.
जेएनयू से निकले वे नेता जो छात्रसंघ में नहीं थे
इसके अलावा हाल ही में रक्षा मंत्री बनी निर्मला सीतारामण, केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी और उत्तर-पश्चिम दिल्ली से सांसद उदित राज भी जेएनयू के स्टूडेंट रह चुके हैं. निर्मला सीतारमण ने जेएनयू के सेंटर फॉर इकनॉमिक स्टडीज एंड पॉलिसी से एम.फिल किया है. उनके बारे में यह कहा जाता है कि वो जेएनयू में सीपीएम की छात्र इकाई एसएफआई से जुड़ी थीं.
मेनका गांधी ने जेएनयू से जर्मन भाषा की पढ़ाई की है. गांधी परिवार की सदस्य और केंद्रीय मंत्री होने के अलावा वे पशु अधिकारों से जुड़े आंदोलनों में भी काफी सक्रिय हैं. पशुओं पर होने वाले क्रूरता को रोकने के लिए बने कई कानूनों में मेनका गांधी का अहम योगदान है.
उदित राज ने भी जर्मन भाषा में जेएनयू से बीए और एमए किया है. जेएनयू में वे भी एसएफआई से जुड़े थे. 1988 में उन्होंने सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास की और इंडियन रेवेन्यू सर्विस के लिए चुने गए. बाद में नौकरी से इस्तीफा देकर उन्होंने इंडियन जस्टिस पार्टी भी बनाई थी. वे दलित मुद्दों पर अपनी सक्रियता के लिए जाने जाते हैं. फिलहाल वे बीजेपी से सांसद हैं.
इन तीनों के अलावा राजनीतिक विशेषज्ञ से राजनेता बने योगेंद्र यादव भी जेएनयू से पॉलिटिकल साइंस की पढ़ाई कर चुके हैं. फिलहाल वे ‘स्वराज इंडिया’ के संयोजक हैं. इससे पहले आम आदमी पार्टी के गठन और दिल्ली चुनावों में आम आदमी पार्टी के लिए रणनीति बनाने में उनकी अहम भूमिका थी.
2016 में केरल में हुए विधानसभा चुनावों में जेएनयू के दो छात्रों ने बाजी मारी. जेएनयू में एआईएसएफ के बैनर तले छात्र राजनीति कर चुके और कन्हैया कुमार के दोस्त मुहम्मद मोहसिन सीपीआई की टिकट पर इस बार पत्ताम्बी विधानसभा क्षेत्र से चुने गए.जेएनयू के दूसरे छात्र कांग्रेस के टिकट अंगामलय विधानसभा से जीते रोजी एम जॉन एनएसयूआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं और जेएनयू छात्रसंघ के सेंट्रल पैनेल के पदाधिकारी के रूप में नहीं लेकिन काउंसिलर के रूप में 2005 में चुने जा चुके हैं.
इस कड़ी में एक बड़ा नाम हरियाणा के कांग्रेस नेता अशोक तंवर का है. 2009 के लोकसभा चुनावों में वो सिरसा से सांसद बने. अशोक तंवर जेएनयू के सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज से एमए, एमफिल और पीएचडी हैं. मध्यकालीन इतिहास उनका अध्ययन क्षेत्र था.
इसी तरह बिहार के चकई, जमुई विधानसभा से 2010 में झारखंड मुक्ति मोर्चा से चुनाव जीतकर विधायक बनने वाले सुमित कुमार सिंह का संबंध भी जेएनयू से रह चुका है. वो कुछ समय तक जेएनयू में बीए के छात्र रहे हैं लेकिन यहां से अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए थे. सुमित कुमार सिंह बिहार के बड़े नेता नरेंद्र सिंह के पुत्र हैं. उन्हें जानने वालों के मुताबिक वो जेएनयू में एबीवीपी में सक्रिय थे.
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