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किसानों का मार्च (पार्ट-1): जितना गहरा है कृषि संकट, उतनी ही हल्की है इससे निपटने की समझ

किसानों की बेचैन कोशिश है कि उनकी आवाज सुनी जाए और परेशानियों से निजात दिलाने के लिए लंबे अरसे की नीतियां बने, योजना चले और रणनीति अमल में लाई जाए

Prasanna Mohanty

भारत के कई हिस्सों में इन दिनों किसानों, भूमिहीनों और आदिवासियों के विरोध-प्रदर्शनों की मानो एक लहर चल रही है. सत्ता की नगरी कही जाने वाली दिल्ली-मुंबई जैसी जगहो पर यह लहर कुछ खास ही उफान पर है.

बीते कुछ महीनों के भीतर ऐसे चार विरोध-प्रदर्शन देखने को मिले हैं और ऐसा ही एक और मार्च देश की राजधानी दिल्ली में 29-30 नवंबर को हो रहा है. इसकी मांग है कि संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए और उसमें कृषि-संकट पर चर्चा की जाए. ये ‘मार्च’ चुनाव के वक्त होते हैं या फिर उस घड़ी, जब विधानसभा/लोकसभा का सत्र चल रहा हो. यह एक बेचैन कोशिश है कि उनकी आवाज सुनी जाए और परेशानियों से निजात दिलाने के लिए लंबे अरसे की नीतियां बने, योजना चले और रणनीति अमल में लाई जाए! आधे-अधूरे मन से कुछ उपाय कर चुप्पी ना साध ली जाए, बात राजनीतिक चालबाजियों में उलझकर ना रह जाए.


 नीति निर्माताओं को मामले की गहरी जानकारी ही नहीं

विडंबना कहिए कि जान पड़ता है नीति-निर्माता, अर्थशास्त्री और जनमत तैयार करने की जिम्मेदारी निभा रहे लोगों को इस बात का भान ही नहीं कि कृषि-क्षेत्र से सबसे ज्यादा यानी 49 फीसद लोगों को रोजगार हासिल है और खेती-बाड़ी के सहारे देश की 70 फीसद आबादी को जीविका चलाने में मदद मिलती है लेकिन इसी कृषि की राष्ट्रीय आय (या कह लें जीडीपी) में महज 16 फीसद की हिस्सेदारी है.

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यह तथ्य संकेत करता है कि देश का तकरीबन 50 फीसद कार्यबल और दो तिहाई से ज्यादा आबादी किस तरह कम आमदनी के घेरे में बंधकर हाशिए का जीवन जीने को बाध्य है. यहां जो आंकड़े दर्ज किए गए हैं, उन्हें कहीं से मनमाने ढंग से नहीं लिया गया है. रोजगार मुहैया कराने और आमदनी के मामले में कृषि क्षेत्र के योगदान का आंकड़ा इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण (2017-18) से लिया गया है और जीवन-यापन के लिए कृषि पर निर्भर आबादी का आंकड़ा राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति (2013) के मसौदे से है. इस मसौदे पर कभी गंभीरता से विचार-विमर्श नहीं हुआ, ना ही इसे पारित करने के बारे में सोचा गया.

किन चुनौतियों से गुजर रही है कृषि

देश की अर्थव्यवस्था का सबसे अहम मोर्चा किन बड़ी चुनौतियों का सामना कर रहा है, जरा उनपर गौर कीजिए-

भूमिहीन, सीमांत और छोटे किसानों को मिलाकर देखें तो साल 1971-72 में ग्रामीण इलाके में औसतन 2 एकड़ से कम जमीन वाले परिवारों की तादाद 77.53 प्रतिशत थी जो 2013 में बढ़कर 92.18 प्रतिशत हो गई. यह तथ्य नेशनल सैम्पल सर्वे (एनएसएसओ) की एक रिपोर्ट (2015 में जारी) में दर्ज है. इसी तरह, 2 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन वाले परिवारों की तादाद 1971-72 में 21.89 प्रतिशत थी जो 2013 में कम होकर 7.81 प्रतिशत रह गई; साल 1971-72 में औसत जोत का आकार 1.53 हेक्टेयर था जो 1992 में घटकर 1.01 हेक्टेयर रह गया और साल 2013 में कम होकर 0.59 हेक्टेयर पर पहुंच गया था. किसानों के जोत के आकार में आई यह कमी एक बड़ी वजह है जो आज खेती-बाड़ी का काम व्यावहारिक नहीं रह गया है.

इसके अतिरिक्त, 1951 के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि आज कृषि-क्षेत्र में किसानों की नहीं बल्कि खेतिहर मजदूरों की भरमार है. साल 2017 के कृषि संबंधी आंकड़े (एग्रीकल्चर स्टेटिस्टिक्स) बताते हैं कि 2011 में खेतिहर मजदूरों की तादाद किसानों से कहीं ज्यादा थी- 2011 में किसानों की संख्या 118.8 मिलियन (45.1 प्रतिशत) थी जबकि खेतिहर मजदूरों की तादाद 144.3 मिलियन (54.9 प्रतिशत).

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साल 2001 से 2011 के बीच किसानों की संख्या में 8.5 मिलियन की कमी आई जबकि इसी अवधि में 37.5 मिलियन अतिरिक्त लोग कृषि-क्षेत्र में मजदूर के रुप में आ जुड़े. कोई अचरज नहीं कि 1951 में जिस कृषि क्षेत्र का योगदान जीडीपी में 51.8 प्रतिशत का था वो साल 2013-14 में घटकर 13.94 प्रतिशत रह गया. यह तथ्य रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के दस्तावेज में आया है (इसमें गणना के लिए फैक्टर कॉस्ट और स्थिर मूल्यों पर आधार वर्ष 2004-05 लिया गया है).

फिलहाल के लिए आधार-वर्ष 2011-12 के जीडीपी/ जीवीए के आंकड़े को चर्चा से बाहर रखें क्योंकि आधिकारिक रूप से अभी पूर्ववर्ती श्रृंखला (बैक सीरीज) के आंकड़े जारी नहीं हुए हैं.

किसानी न भी करे तो कहां जाएं

आइए, किसानों की घटती आमदनी की चर्चा को यहीं विराम दें क्योंकि यह बात तो लगभग जग-जाहिर हो चली है.

यह कहना तो खैर बड़ा आसान है कि खेती-बाड़ी का काम अब फायदेमंद नहीं रह गया है सो ज्यादा से ज्यादा लोग खेती-बाड़ी छोड़कर कुछ और करें तो अच्छा रहे. लेकिन सवाल ये है कि इतनी बड़ी तादाद में लोग काम के लिए किस क्षेत्र में जाएं? यूपीए सरकार के समय जीडीपी की वृद्धि के बीच रोजगारविहीन विकास हुआ और वही दौर मौजूदा एनडीए के भी समय में जारी है.

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बेरोजगारी की दर बढ़ी है. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की 2018 की रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2017 में 18.3 मिलियन भारतीय बेरोजगार थे और 2019 में बेरोजगारों की संख्या बढ़कर 18.9 मिलियन होने का अनुमान है. ओईसीडी के 2017 के इकॉनॉमिक सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट से पता चलता है कि 15-29 आयुवर्ग के 30 फीसद भारतीय नौजवान ना तो किसी रोजगार में हैं ना ही शिक्षा या किसी किस्म का प्रशिक्षण ही हासिल कर रहे हैं-  इससे नौजवानों में बेरोजगारी की तस्वीर साफ हो जाती है.

तो फिर जाहिर है कि भूमिहीन, सीमांत और छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों के सामने अब कोई और रास्ता नहीं बचा. दूसरी तरफ, कृषि-संकट या यों कहें कि इसकी उपेक्षा से समस्या और भी ज्यादा जटिल होते जा रही है और अर्थव्यवस्था पर विकल्प ढूंढने या जीविका के अन्य स्रोत और रास्ते तलाशने का दबाव बढ़ता जा रहा है. नीति आयोग की 2017 की रिपोर्ट ‘डबलिंग फार्मर्स इनकम’ से पता चलता है कि कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर की सुस्ती 1991-92 से ही जारी है. साल 1991-92 तक अर्थव्यवस्था के खेतिहर और गैर खेतिहर क्षेत्र तकरीबन समान रफ्तार से बढ़े लेकिन उदारीकरण के बाद के दौर में गैर-खेतिहर क्षेत्र की बढ़वार बढ़कर 8 फीसद और इसके ऊपर तक जा पहुंची जबकि कृषि-क्षेत्र में बड़े लंबे समय तक 2.8 फीसद की वृद्धि दर कायम रही.

कृषि पर कम नहीं ज्यादा ध्यान देने की ही जरूरत

समाधान इसी बात में है कि कृषि पर कम नहीं बल्कि ज्यादा ध्यान दिया जाए, भूमिहीन, सीमांत और छोटे किसानों की जीवन-दशा सुधारी जाए और इसके साथ ही साथ अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों मसलन औद्योगिक क्षेत्र और सेवा क्षेत्र में तेज आर्थिक वृद्धि के लक्ष्य की तरफ गति बनाए रखी जाए.

पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अक्सर कहा करते थे कि कृषि-क्षेत्र में किसान कुछ ज्यादा ही संख्या में लगे हुए हैं और इन अधिशेष किसानों को गैर-खेतिहर क्षेत्र से जोड़ दिया जाए तो खेती-बाड़ी का काम फिर से फायदेमंद हो जाएगा. वे कहा करते थे कि 'जब खेती-बाड़ी पर कम लोगों की निर्भरता रहेगी तो कृषि में प्रति व्यक्ति आय में पर्याप्त और उल्लेखनीय इजाफा होगा और खेती-बाड़ी एक आकर्षक पेशे के रूप में दिख पड़ेगा.'

वे सत्ता में 10 सालों तक रहे लेकिन उनके शासन में रहते इस दिशा में शायद ही कोई प्रगति हुई हो लेकिन साल 2014 में जो नई सरकार बनी उसमें भी यही पुरानी सोच दिखी. अपने पहले ही आर्थिक सर्वेक्षण ( 2014-15) में मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने संरचनागत बदलाव के लेवीसियन मॉडल की बात उठाई. उन्होंने कहा कि 'कृषि क्षेत्र/ परंपरागत क्षेत्र से संसाधनों को विनिर्माण क्षेत्र/ गैर-परंपरागत क्षेत्र में' ले जाने की जरूरत है. मुख्य आर्थिक सलाहकार ने कहा था कि भारत के सामने रास्ता यही सोचने का है कि वह 'लेवीसियन इकॉनॉमी में कैसे बदले यानी एक ऐसी अर्थव्यवस्था जिसमें श्रमिकों की बहुतायत हो.'

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उनका निष्कर्ष था कि 'मेक इन इंडिया अगर सफल रहा तो यह भारत को अकुशल श्रमबल के संदर्भ में लेवीसियन अर्थव्यवस्था में तब्दील करेगा लेकिन ‘स्किल इंडिया’ में भारत को कुशल श्रमबल के संदर्भ में लेवीसियन इकॉनॉमी में बदलने की संभावना है. भारतीय अर्थव्यवस्था का भावी विकास इन दोनों ही बातों पर निर्भर हो सकता है.'

मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया उतने सफल नहीं हो पाए जितनी कि नई सरकार ने उम्मीद बांधी थी और ढांचागत बदलाव या फिर वैकल्पिक नीति को लेकर कोई सोच भी अभी निकलकर सामने आती नहीं दिखती. ऐसे में व्यापक फलक पर कृषि-संकट का समाधान निकल पाना अभी बाकी है.

लेकिन मसला सिर्फ इतने भर तक सीमित नहीं हैं. अगर समस्या को छोटे फलक पर रखकर देखें तो लगेगा कृषि-संकट के समाधान के लिए समय-समय पर ढेर सारे नीतिगत कदम उठाए गए हैं. इन उपायों पर हुए अमल के बारे में लेख की अगली कड़ी में विचार किया जाएगा.