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बच्चों का शोषण, समाधान मां का घर बैठना नहीं...बेहतर विकल्प तैयार करना है!

आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर मामलों में दुष्कर्म को अंजाम देने वाले अपराधी घर के ही सदस्य निकलते हैं

Ila Ananya

मेरी माँ नौकरीपेशा थीं और इसी माँ ने मेरी परवरिश भी की. मेरे तीन साल के होने तक मेरे माता-पिता यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे. वे काम पर चले जाते और मैं निर्मला अक्का के साथ घर पर रहती.

हमलोग दोपहर में एकसाथ शक्तिमान देखते. जिस दिन घर में सांप निकला और लगा कि मैं उससे खेल सकती हूं, उस दिन भी मैं निर्मला अक्का के ही साथ थी.


फिर हम हैदराबाद आ गये. मेरे माता-पिता का नौकरी पर जाना जारी रहा. मैं तकरीबन हर वीकेंड पर मां के साथ उनके ऑफिस जाती थी. मेरी मां जुलाहों के लिए काम करने वाले एक एनजीओ की नौकरी कर रही थी.

इसी कारण मां के साथ उनके दफ्तर जाने के कारण छह साल की उम्र में ही मैंने करघा चलाना सीख लिया.

जिन दिनों मेरे माता-पिता को किसी बैठक में शामिल होना होता तो मैं भी उनके साथ बैठती और एकतरफा कागज के टुकड़े पर क्रेयोन से चित्रकारी किया करती थी.

निर्मला अक्का को बाथरूम में बंद कर दिया

बच्चे के कोमल मन पर बचपन की बातों का असर

मेरे कुछ होश संभालने पर एक दिन मां ने मेरे छुटपन की बात बतायी कि कैसे मैंने गोवा के अपने घर में निर्मला अक्का को बाथरूम में बंद कर दिया था. मैं तब दो साल की थी. मैंने सिटकिनी लगाना सीख लिया था लेकिन खोलना नहीं सीख पायी थी.

खैर, जिस वक्त मैंने निर्मला अक्का को बाथरूम में बंद किया उस वक्त निश्चित ही मैं इन बातों से अंजान थी. निर्मला अक्का को बाथरूम में बंद करने के बाद मैं काफी डर गई थी, सो वहां से निकल कर छज्जे पर जाकर चुपचाप बैठ गई.

मां ने बताया कि निर्मला अक्का जब बाथरूम से निकली (दरअसल पड़ोसियों ने उसकी चीख-पुकार सुनकर दरवाजा खोल दिया था) तो उसे पक्का यकीन था कि बच्ची को किसी ने अगवा कर लिया होगा और इसका दोष उसके मत्थे पड़ेगा.

निर्मला अक्का का भय दरअसल नौकरीपेशा माता-पिता के मन में बैठे उस डर का ही जुड़वां कहलाएगा जो उन्हें अपने बच्चों को डे-केयर सेंटर में छोड़ते समय महसूस होता है.

12 फरवरी के दिन फिर से एक भयावह खबर आयी कि बंगलोर के एक डे-केयर सेंटर में 25 साल के एक व्यक्ति ने 3 साल की बच्ची के साथ यौन दुर्व्यवहार किया है.

यह आदमी डे-केयर सेंटर चलाने वाली महिला का बेटा था और उसके कुकर्म का पता तब चला जब बच्ची की दादी उसे घर ले जाने के लिए आयी. बच्ची उस वक्त रो रही थी.

डे-केयर सेंटर और क्रेच में बच्चों के साथ होने वाले यौन-दुर्व्यवहार की खबरें

डे-केयर कितना सुरक्षित?

आये दिन डे-केयर सेंटर और क्रेच में बच्चों के साथ होने वाले यौन-दुर्व्यवहार की खबरें आती हैं. ये बड़े भयावह मामले हैं और इनका एक अप्रत्याशित असर हुआ है. यह बात यकीनी तौर पर कही जा सकती है कि इन घटनाओं से मांओं के मन पर एक दबाव बनता है कि नौकरी छोड़ देना ठीक है.

चाहे किसी भी सामाजिक हैसियत की महिला हो वह मन ही मन एक अपराध-बोध से भरी रहती है कि बच्चे को उसने डे-केयर सेंटर या क्रेच में ‘छोड़’ रखा है.

निर्मला अक्का की इस कहानी से कुछ साल पहले का दिल्ली का वह वाकया याद आ सकता है जिसमें एक परिवार ने अपने बच्चे की देख-भाल के लिए घर में एक किशोरी को रखा था.

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बच्चे की देखभाल का जिम्मा किशोरी पर सौंप मां-बाप नौकरी पर चल जाते थे और वह जब भी कहती कि मुझे घर जाना है, दोनों उसकी बात को टाल जाते थे. शायद उनके मन में यह रहता होगा कि लड़की अपने घर चली गई तो बच्चे की देखभाल के लिए मां को घर पर रहना होगा.

कोई चारा ना देख (और बच्चे को अकेला छोड़ ना जा सकने की स्थिति में) किशोरी एक दिन अपने घर को निकल गई और साथ में बच्चे को भी लेती गई.

मेरी एक सहेली ने उन दिनों का एक वाकया सुनाया जब वह कॉलेज में थी. एक कंपनी के कुछ लोग उसकी क्लास में आये और बताने लगे कि हमने बच्चों के लिए एक घड़ी बनायी है. घड़ी में एक आपातकालीन बटन है और जीपीएस सिस्टम लगा है.

बच्चा अगर परेशानी में पड़ेगा तो घड़ी के आपातकालीन बटन को दबाएगा और मां-बाप उसे जीपीएस सिस्टम की मदद से खोज लेंगे.

इतना ही नहीं, बच्चे के मां-बाप एक और बटन दबाकर कुछ सेकेंड तक उन आवाजों को सुन सकते हैं जो बच्चे के आस-पास से आ रही हों. जाहिर है, इसका मतलब हुआ कि बच्चे की अपनी कोई प्राईवेसी नहीं है.

लेकिन, लगता है घड़ी बनाने वालों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया. उन्हें बच्चों के मां-बाप के मन में बैठा भय साफ-साफ दिखा. बच्चे कहां हैं, किसके साथ हैं- इस तरह की चिन्ताएं बड़ी वास्तविक हैं.

कामकाजी महिला अक्सर घर और  दफ्तर के बीच दुविधा में रहती है

दुविधा में कामकाजी औरतें

मैं यह सोच भी नहीं सकती कि मेरी देखभाल के लिए मां नौकरी छोड़कर घर बैठ जाती. लेकिन मैं यह भी नहीं सोच पाती कि कोई मुझे क्रेच में रखकर चल देता.

मेरी मां ने मुझसे कभी नहीं कहा कि उसे इस किस्म की दुविधा का सामना करना पड़ा या नहीं लेकिन ऐसी बहुत सी महिलाएं हैं जिन्हें ऐसी दुविधा में पड़कर लगता है कि कोई रास्ता नहीं है.

अगर वे नौकरी करना चाहती हैं और उनके परिवार के लोग डे-केयर के विकल्प से सहमत नहीं है तो इसका सीधा मतलब होता है कि मां को अपने बच्चे के देखभाल के लिए घर पर रहना होगा.

मेरे दोस्त की बहन एडवरटाईजिंग के काम में थी और अपनी नौकरी में बेहतर कर रही थी. फिर वह एक बेटी की मां बनी और नौकरी छोड़ दिया. उसने मुझे बताया कि अब मैं अपने बच्चे को एकटक निहारते हुए अपने दिन काटती हूं.

यह बात कहते हुए वह थोड़ा मुस्कुरायी फिर बताया कि एक रात खाने के मेज पर उसने जिक्र छेड़ा कि वह फिर से नौकरी ज्वाईन करने की बात सोच रही है. उसने कहा कि मैंने ऑफिस के पास ही एक डे-केयर सेंटर देख लिया है ताकि बच्चे पर नजर रख सकूं.

उसकी बात सुनकर पति तो चुप रहे लेकिन उसके ससुर एकदम से उखड़ गये, कहा कि तुम मेरी पोती के साथ यह बर्ताव नहीं कर सकती हो और खाने की मेज से उठकर चल दिए.

बच्चों की सुरक्षा की चिंता हर वर्ग की महिला को उठानी पड़ती है

कामवाली के बच्चे

अनीता बंगलोर के एक स्कूल में पढ़ाया करती थी. उसने बताया कि बेटे के जन्म से पहले उसे लगता था कि बच्चा एक साल का हो जायेगा तो वह निश्चित ही नौकरी पर जा सकेगी. वह बताती है- 'मैंने सोचा कि एक साल का समय इंतजार के लिहाज से काफी लंबा होता है.'

लेकिन, उसे वह बात भी याद थी जब उसे लगा कि बच्चा जब तक नौ साल का नहीं हो जाता तब तक वह नौकरी करने की बात नहीं सोच सकती. यह ख्याल उसे एक खबर पढ़कर आया था. उस खबर में लिखा था कि तमिलनाडु में एक बच्चे के साथ उससे ज्यादा उम्र के कुछ स्कूली बच्चों ने अप्राकृतिक यौन-दुष्कर्म किया था.

इस खबर का उसके मन पर ऐसा असर पड़ा कि उसने तय कर लिया कि बच्चे को डे-केयर में नहीं रखना है. अनीता की कहानी सुनकर मुझे अपने जान-पहचान की एक कॉलेज शिक्षिका की बात याद आयी. उसकी एक दो साल की बच्ची थी.

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वो शिक्षिका कॉलेज पढ़ाने तो जाती थी लेकिन वहां से हमेशा चिन्ता में लौटती. उसके मन में यह अपराध-बोध बैठा रहता कि बच्ची को डे-केयर सेंटर में छोड़कर आयी है.

अनीता ने बताया कि उसके घर में काम करने वाली महिला ने दो हफ्ते पहले उससे पूछा कि, क्या मैं आपके घर अपने दो साल की बच्ची को लेकर आ सकती हूं. वह चाहती थी कि जब तक वह दूसरे लोगों के घर के काम निबटाये तब तक उसकी बच्ची अनीता के घर पर रहे.

उस कामवाली महिला को अपनी बच्ची को अपने भाई के पास अकेला छोड़ना पसंद नहीं था. उसे यकीन था कि किसी दिन अपने घर पहुंचने पर उसे पता चलेगा कि बच्ची गुम हो गयी या फिर उसके भाई ने उसकी बेटी के साथ दुर्व्यवहार किया है.

अनीता ने कहा कि, 'उस दिन मुझे पता चला कि हमदोनों एक सी भय-भावना और अपराध-बोध में जी रहे हैं. अंतर, बस इतना है कि मैं तो अपने घर में रह सकती हूं जबकि उस औरत का परिवार इतना भरापूरा नहीं कि वह काम छोड़कर अपने घर में रह सके.

बच्चों के अपराधी

इस औरत की कहानी एक न एक तरीके से यह भी बताती है कि हमलोग भले ये मानकर चलें कि दुष्कर्म करने वाला कोई अंजान आदमी होता है, लेकिन अक्सर यह घटना परिवार के भीतर के ही लोग अंजाम देते हैं.

साल 2015 के एक शोध-अध्ययन (RAHAT) में कहा गया है कि पारिवारिक दायरे में होने वाले बलात्कार के 46 फीसद मामलों में दुष्कर्म करने वाला पीड़ित का पिता या सौतेला पिता निकला.

पारिवारिक दायरे में होने वाले बलात्कार के मामले बलात्कार के कुल मामलों का 7.2 फीसद थे, यानि तकरीबन उतने ही जितने कि अंजान लोगों के हाथों हुए   बलात्कार के मामले होते हैं यानि 9 फीसद.

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समस्या का समाधान ये नहीं है कि कोई बच्चा यौन-दुष्कर्म का शिकार होता है तो उसकी खबर ना छापें या फिर ऐसी खबरें कम संख्या में छापें. रास्ता ऐसा होना चाहिए जिसके जरिए हम जान सकें कि इन बातों का महिलाओं पर क्या असर होता है.

बच्चा डे-केयर सेंटर में दुष्कर्म का शिकार ना हो जाय, यह सोचकर महिला चिंता में नौकरी से घर लौटती है तो इस बात का एक इशारा यह भी है कि डे-केयर सेंटर या क्रेच को ज्यादा सुरक्षित बनाए जाने की जरूरत है.

मां के कामकाजी होने के कारण बच्चे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं

कुपोषण के शिकार

हाल ही में पत्रकार मेनका राव ने खबर लिखी थी कि धारावी में बच्चे गंभीर रुप से कुपोषण के शिकार हैं और इसकी वजह है उनका जंकफूड खाना.

नौकरीपेशा महिला के पास खाना बनाने के लिए समय की किल्लत होती है सो धारावी की ऐसी महिलाएं अपने बच्चों को मैगी खाने के लिए कह देती हैं. इस मामले में समाजसेवियों ने जोर लगाया कि धारावी में परिवारों की मदद के लिए क्रेच खोले जायें.

ठीक इसी तरह हमें यह भी सोचना होगा कि बच्चों के साथ होने वाले यौन-दुष्कर्म का समाधान यह नहीं है कि माताएं अपने मन में अपराध-बोध लेकर घर में बैठ जायें.

परिवार की सामाजिक हैसियत चाहे जो भी हो, हर तरह के परिवार के लिए ऐसी समस्या का समाधान यही है कि बच्चों की देखभाल के विकल्प ज्यादा होने चाहिए, उनमें विविधता हो और वे बेहतर गुणवत्ता के हों.

महिला नौकरीपेशा हो तो उसके पास अपनी आमदनी होगी. इस आमदनी के बूते वह अपने बच्चे को दुष्कर्म का शिकार होने से बचा सकती है.

खासकर, उस स्थिति में जब दुष्कर्म करने वाला घर का ही हो और आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर मामलों में दुष्कर्म को अंजाम देने वाले अपराधी घर के ही सदस्य निकलते हैं.