कुछ हफ्तों पहले बैंगलोर में महिलाओं के साथ छेड़खानी की घटना के बाद मैं हिडेन पॉकेट्स द्वारा आयोजित एक वॉक पर गई. इसका आयोजन हिडेन पॉकेट्स की तरफ से किया गया था. हिडेन पॉकेट्स शहरों में यौन समानता और सुरक्षित जगहों की तलाश के लिए काम करती है.
हम क्राइस्ट यूनिवर्सिटी के पास उन जगहों की तलाश कर रहे थे, जहां महिलाएं बिना किसी संकोच के आ-जा सकती हैं और सुरक्षित महसूस कर सकती हैं. जिन जगहों के बारे में वो दिन या रात किसी भी समय सोच सकती हैं, वहां जाकर वो मौज-मस्ती कर सकती हैं. इस दौरान लोगों से तमाम तरह की बातें हुईं. महिलाओं ने बताया कि वो टहलना कितना पसंद करती हैं. कई बार उनका रात में टहलने के लिए जाने का मन होता है. मगर, स्ट्रीट लाइट न होने की वजह से वो ऐसा नहीं कर पातीं हैं.
इस बात पर भी चर्चा हुई कि सार्वजनिक जगहों पर किस करने की आजादी होनी चाहिए या नहीं. ऐसे आदमियों से भी मुलाकात हुई जिनका मानना था कि सड़कों पर सीसीटीवी कैमरे होने से महिलाएं ज्यादा सुरक्षित महसूस करेंगी.
पूरे वॉक के दौरान लोगों से बातचीत सामान्य ही रही थी. मगर बहस तब गर्म हो गई जब एक शख्स ने ये कहा कि नए साल की पूर्व संध्या पर वो ताज में जश्न मनाया था, उसने पूरा जोर लगाते हुए कहा कि बैंगलोर में नए साल पर छेड़खानी की जो बड़े पैमाने पर वारदात हुई, वो ‘शिवाजीनगर’ और उस जैसे अन्य इलाकों के लोगों ने की.
निचले और मध्य वर्ग
जो महानुभाव ये बात कह रहे थे, उन्होंने नए साल का जश्न ताज होटल में मनाया था. वो सड़कों पर सीसीटीवी कैमरे लगाने की भी जोर-शोर से वकालत कर रहे थे. उनके कहने का मतलब था कि शिवाजी नगर जैसे इलाके जहां निचले और मध्यम वर्ग और मुस्लिम समुदाय के लोग रहते हैं और उन्होंने ही छेड़खानी की वारदातों को अंजाम दिया.
उनका ये सब कहने का मतलब ये भी था कि बैंगलोर के पॉश इलाके जैसे इंदिरानगर या लैवेल रोड में रहने वाले और ताज होटल में पार्टी करने वाले उन जैसे लोग ऐसी घटिया और छिछोरी हरकतें नहीं करते.
जब वो आदमी ये सब तर्क दे रहा था तो वहां मौजूद महिलाएं भड़क उठीं. उन्होंने कहा कि वो आदमी कुछ भी नहीं जानता.
पूरी बहस के दौरान मुझे जॉन स्नो नाम के शख्स की याद आई. तभी पता चला कि 22 जनवरी को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में जावेद अख्तर एक सेशन में बोल रहे थे. इसका विषय था, ‘After the Angry Young Man, the Traditional Woman, What? (हममें से किसी को भी इसका मतलब समझ में नहीं आया). ये सेशन इस बात पर होना था कि बॉलीवुड में महिलाओं को किस तरह के किरदारों में पेश किया जाता है.
मगर तभी जावेद अख्तर एक सवाल पर ऐसे भड़के कि वो बहस को दूसरी तरफ ही ले गए. ये छोटा सा सवाल हॉलीवुड, बॉलीवुड और भारत में पाकिस्तानी कलाकारों के विरोध को लेकर था. जावदे अख्तर ने बेहद गुस्से में कहा, 'एक औसत भारतीय शहर में 20-21 साल की उम्र तक का नौजवान अपनी बहन के सिवा किसी और लड़की से पांच मिनट से ज्यादा बात नहीं कर पाया होता है. ऐसे में उसे कैसे मालूम होगा कि उस लड़की के पास उसके शरीर के सिवा और भी बहुत कुछ है'.
अमीरी-गरीबी का फर्क
जावेद अख्त़र ने वहां मौजूद लोगों से सवाल पूछने के अंदाज में कहा, 'कस्बों से शहरों में आने वाले लोगों के पास रहने की जगह नहीं होती. उनसे जानवरों जैसा बर्ताव होता है. वो अपने इर्द-गिर्द चकाचौंध भरी जिंदगी देखते हैं. ये चमक-दमक देखकर उसे कोफ्त होती है कि वो अमीरी वाली जिंदगी उसे हासिल क्यों नहीं है. फिर जब इस गुस्से को बाहर आने का मौका मिलता है, तो ये वहीं निकलता है जहां निकल सकता है. कई बार ये महिलाओं के खिलाफ अपराध के तौर पर बाहर आता है'.
जावेद अख्तर का बयान चौंकाने वाला है. अपने बयान पर उन्हें इस कदर यकीन है कि वो बार-बार इसे दोहराते हैं. कहते हैं कि लोगों में गुस्सा है. उनके अंदर जहर भरा है. आमदनी और पैसे के मामले में अमीर-गरीब का बढ़ता फर्क इस गुस्से की वजह है और इसी गुस्से की वजह से महिलाओं का बलात्कार होता है. अब या तो जावेद अख्तर ने हाल के दिनों में खबरें नहीं देखीं है या जिस तरह के मर्दों का जिक्र वो कर रहे हैं, उन्हीं लोगों की तरह उन्होंने भी महिलाओं से ज्यादा बातें नहीं की हैं, तभी वो ऐसे बयान दे रहे हैं.
ये तय है कि ऐसा बयान देने से पहले जावेद अख्तर ने यौन हिंसा की शिकार महिलाओं से न तो कभी बात की है, न ही उनकी ऐसी घटनाओं से जुड़े अनुभव को जानने की कोशिश की है या फिर दोनों ही. तभी वो ऐसे बड़े-बड़े बयान दे रहे हैं.
मगर जावेद अख़्तर के बयान से एक बात साफ है कि जावेद अख्तर ने अपने तबके के मर्दो पर से यौन हिंसा का इल्जाम हटाने की कोशिश की है और शायद वो ये बताना चाह रहे हैं कि गांव और कस्बों से आए निचले तबके के गरीब लोग ही शहरों में आकर महिलाओं से बलात्कार और दूसरी तरह की यौन हिंसा करते हैं. और ये यौन अपराध एक तरह का काम वासना और वर्ग संघर्ष का परिणाम है.
ताज होटल और यौन हिंसा
जावेद अख्तर हों या बैंगलोर के ताज होटल में पार्टी करने वाला वो आदमी दोनों की बातों से एक बात तो साफ है कि यौन हिंसा वर्ग संघर्ष का ही एक रूप है. लेकिन दोनों ने ही गलती से छड़ी का दूसरा सिरा पकड़ लिया है. शायद उन्होंने उन महिलाओं के बारे में नहीं सुना है जो घरों में मेड या कामवाली के तौर पर काम करती हैं और अक्सर यौन हिंसा का शिकार होती हैं.
पिछले साल दिसंबर के आखिरी दिनों में खबर आई थी कि मुंबई में घरेलू काम करने वाली एक महिला के साथ चार वकील पिछले छह महीने से बलात्कार कर रहे थे. पीड़ित महिला ने इनसे बचने के लिए अपने घर में सीसीटीवी कैमरे लगवाए ताकि उनका अपराध कैमरे में कैद हो जाए.
कैमरे में कथित तौर पर आरोपी वकीलों में से एक को चाकू की नोंक पर उससे बलात्कार करने की तस्वीरें कैद भी हुईं. महिला ने ये रास्ता इसलिए निकाला क्योंकि वकीलों ने उस महिला को ये कहकर डराया हुआ था कि अगर उसने शिकायत की तो वे बच निकलेंगे क्योंकि वे कानून के जानकार हैं.
और जिस शो-बिजनेस की दुनिया से जावेद अख्त़र ताल्लुक रखते हैं, उसी से जुड़े शाइनी आहुजा को अपने घर में काम करने वाली नौकरानी से बलात्कार के मामले में दोषी पाए जाने पर सात साल कैद की सजा हुई थी.
पिछले साल अक्टूबर में तमिलनाडु की एक फैक्ट्री में काम करने वाली छह महिलाओं की चिट्ठी सामने आई थी जिसमें उन महिलाओं ने बताया था कि कैसे कारखाने में उनका यौन उत्पीड़न हो रहा था. उन महिलाओं ने अपनी चिट्ठी में कारखाने के एक पुरुष सुपरवाइजर के बारे में लिखा था, 'वो हमें रोज जबरदस्ती बाहों में भर लेता है. हमें चूमता है और हमारे स्तन दबाता है.'
चिट्ठी ने किया शर्मसार
इस चिट्ठी ने हमें बेंगलुरु में बाहर से आकर काम करने वाली फैक्ट्री कर्मचारी की याद दिला दी जिसने साल 2007 में अपने सुपरवाइजरों के शोषण से तंग आकर खुदकुशी कर ली थी.कुछ महीनों बाद बेंगलुरु की ही एक और कपड़ा फैक्ट्री में एक महिला कर्मचारी ने खुदकुशी कर ली थी.
और अगर हम अधिकारियों द्वारा महिलाओं के यौन शोषण की बात करें तो हमें ज्यादा दूर तक जाने की जरूरत नहीं है. हाल ही में जिस तरह से छत्तीसगढ़ में पुलिसवालों के 16 महिलाओं के यौन शोषण का जो मामला सामने आया है वो आंखें खोलने वाला है.
बेंगलुरु में ही एक हफ्ते पहले एक सब-इंस्पेक्टर को एक दिमागी रूप से बीमार महिला के साथ बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार किया गया है.
ये साफ है कि यौन हिंसा वर्ग से जुड़ा मुद्दा है, ये जाति का मुद्दा है, जेंडर का भी मुद्दा है और ताकत के बेजा इस्तेमाल का भी. जब जावेद अख्तर अपना बयान दे रहे थे तो उन्हें फिल्मी दुनिया की ऐसी घटनाओं का भी जिक्र करना चाहिए था, जहां इस तरह की घटनाएं घटी हैं.
उदाहरण के तौर पर इतिहासकार और फिल्म निर्माता महमूद फारुकी को जुलाई 2016 में एक विदेशी महिला के साथ बलात्कार का दोषी पाया गया था. अभिनेत्री रेखा की जीवनगाथा पर आई किताब में भी इस बात का जिक्र है कि कैसे उन्हें बताये बगैर एक बेहद अंतरंग फिल्मी सीन शूट किया गया था.
रेखा ने बताया है कि, कैसे जब ये सीन फिल्माया जा रहा था तो सेट पर मौजूद लोग तालियां और सीटियां बजा रहे थे. इस घटना से लास्ट टैंगो इन पेरिस फिल्म का किस्सा भी याद आ गया, जिसमें मारिया श्नाइडर और बर्नार्डो बर्तोलुची के साथ कुछ ऐसा ही वाकया पेश आया था.
महिला कर्मचारियों का शोषण
जिन दफ्तरों में यौन अपराधों से निपटने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है, वहां आरके पचौरी जैसे लोग अपनी मातहत महिला कर्मचारियों का यौन उत्पीड़न करते हैं. आर के पचौरी नोबेल अवार्ड जीतने वाले IPCC से जुड़े रहे थे और पर्यावरण के लिए काम करने वाली संस्था TERI के प्रमुख रहे थे.
पचौरी ने अपनी मातहत कई महिला कर्मचारियों का यौन शोषण किया था. हालांकि उनकी संस्था में यौन उत्पीड़न से निपटने वाली सेल थी मगर वहां भी शिकायतों की जांच में हर नियम की धज्जियां उड़ा दी गईं थीं. क्योंकि मर्दों को बलात्कार करने से न तो संस्कृति रोक पाती है और न ही वैज्ञानिक सोच या मनोदशा.
शायद जावेद अख्तर के कहने का ये मतलब था कि अगर आप किसी बड़े शहर में पैदा हुए हैं तो फिर आप बलात्कार नहीं कर सकते. बलात्कार कुछ खास जगहों के लोग ही करते हैं. एक और मामले में पिछले साल नवंबर में पुणे में 52 बरस के एक शख्स ने एक बस कंडक्टर से छेड़खानी की थी.
यहां तक कि यौन हिंसा की आदत शायद गुरुत्वाकर्षण के नियमों से भी परे है. तभी तो शायद उन्होंने वो खबर नहीं पढ़ी जिसमें बताया गया था कि एयर इंडिया के विमानों में सीटों की एक कतार महिलाओं के लिए आरक्षित होगी. क्योंकि बिजनेस क्लास में सफर कर रहा एक शख्स इकोनॉमी क्लास में सफर कर रही एक महिला के बगल में जाकर बैठ गया था और जब उस महिला की आंखें लग तो उसने उसे ज़बरदस्ती पकड़ने की कोशिश की.
जब अख्तर ने यौन हिंसा के बारे में अपनी ये सामाजिक थीसिस पेश की थी, तो उनसे एक और असहज करने वाला सवाल किया गया था कि क्या फेमिनिज्म का मतलब महिलाओं का सशक्तीकरण है. जावेद अख्तर ने इसके जवाब में कहा था कि, 'हां बिल्कुल. ये कुछ उसी तरह है जैसे कोई आपसे एस्किमो और इग्लू के बीच के रिश्ते के बारे में पूछे'. अच्छा होता कि जावेद अख्त़र महिलाओं के बारे में अपनी राय इस छोटी सी मिसाल तक ही सीमित रखते और इसके बाद दिए गए उनके एक के बाद एक ऊटपटांग जवाबों से हम बच जाते.
(The Ladies Finger) महिलाओं की एक ऑनलाइन पत्रिका है. जो राजनीति, संस्कृति, स्वास्थ्य, सेक्स और काम-धाम समेत तमाम मसलों पर नया नजरिया पेश करने की कोशिश कर रही है)
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