साल का समापन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन के साथ हुआ. एक बढ़िया मौका था. लेकिन प्रधानमंत्री ने अपने तीखे बयानों से देश का ब्लड प्रेशर बढ़ाने की बजाय शांत और संयमित रास्ता चुना.
यह कोई झकझोर देने वाला भाषण नहीं था, बल्कि लगा कि कोई सबक सुना रहा है.
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उन्होंने कोई बड़ा धमाका नहीं किया और न ही कुछ ऐसा कहा जो लोग सुनना चाहते थे. भ्रष्टाचारियों से कैसे निपटा जा रहा है, इसका भी जिक्र नहीं था. भाषण बहुत ही परिपक्व या कहिए नीरस था. ऐसा मोदी के आलोचक कहेंगे.
जैसे ही 2016 का आखिरी सूरज डूबा, पूरे देश में अजीब सी बेचैनी थी कि देखते हैं, प्रधानमंत्री क्या कहते हैं. मानो यह साल का सबसे बड़ा आयोजन बन गया.
लेकिन मोदी को तो देश को ‘हैप्पी न्यू ईयर' भी याद नहीं रहा.
भाषण से पहले हायतौबा
देश की जनता इस नाजुक समय में किस जादू की उम्मीद लगाए बैठी थी? सिर्फ इसलिए तो चीजें बदल नहीं जाएंगी कि यह संबोधन नए साल की पूर्व संध्या पर दिया गया है. साथ ही भाषण से पहले मीडिया में मची हायतौबा भी ठीक नहीं थी.
भाषण के बाद अगले दिन से कुछ नहीं बदलने वाला है. लोग पहले की तरह की जीएंगे और मरेंगे.
यह मान लेना भी थोड़ी ज्यादती थी कि मोदी कोई बड़ी रूपरेखा पेश करेंगे. उन्होंने पिछले 50 दिन की कोशिशों को ही दोहराया और आम लोगों की तारीफ की जो नोटबंदी के युद्ध में मोर्चे पर डटे हैं. 1.2 अरब मित्रों के असंतोष पर मरहम लगाने की कोशिश की गई है जो परेशानियों को बर्दाश्त कर रहे हैं.
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प्रधानमंत्री बेहद शांत थे. इतने ठंडे और गंभीर कि अंदाजा लगाना ही मुश्किल हो जाए कि वह एक महान वक्ता हैं या फिर कोई शांत चित्त विजेता. जिसने भ्रष्टाचार की कमर तोड़ दी है. जो हर तरफ से मिल रही प्रशंसाओं से अभिभूत है.
पहला तीर
बीस मिनट तक बोलने के बाद उनके तरकश से पहला तीर निकला. उन्होंने घरों के निर्माण पर मिलने वाले कर्ज पर ब्याज में छूट की बात कही.
हम ऐसे और तीरों की उम्मीद कर रहे थे. तभी किसानों की तारीफ होने लगी. हमें वह तारीख नहीं बताई गई जब बैंकों में कामकाज सामान्य हो जाएगा.
उनकी नई योजनाएं मुख्य रूप से ग्रामीण इलाकों के लिए हैं और वे ज्यादातर कर्ज की ब्याज दर घटाने और 60 दिन के ब्याज से राहत देकर ग्रामीण क्षेत्र को आगे बढाने के बारे में ही हैं.
मोदी जनता की प्रशंसा करते करते एकदम ग्रामीण क्षेत्र में दाखिल हो गए. उन्होंने को-ऑपरेटिव बैंकों से ब्याज दर कम करने को कहा. साथ ही प्रधानमंत्री ने यह भी घोषणा की कि अगले 90 दिन के भीतर तीन करोड़ किसानों का किसान कार्ड रूपे कार्ड में तब्दील हो जाएगा, जिससे उन्हें लेन-देन करने में आसानी होगी.
सब पर मरहम
छोटे स्तर पर चलने वाले कई उद्योगों को भी राहत दी जाएगी. छोटे उद्योगपतियों को भी कम ब्जाय दर वाले कर्जों का फायदा मिलेगा.
इसके अलावा महिला उत्थान, मातृत्व स्वास्थ्य योजनाएं और वरिष्ठ नागरिक, भाषण में सबका जिक्र किया. आभार और विनम्रता के साथ समाज के हर वर्ग को शांत करने की कोशिश की गई.
कुछ ठोस करने के लिए जमीन तैयार करने का यह अच्छा तरीका है. इससे पहले, प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कई बार ‘एक साथ’ आगे बढ़ने की बात कही और दो महीनों से आम लोगों को परेशानी और पीड़ा को भी माना.
भाषण में कोई उल्लास और उत्साह नहीं था. न ही वह तंज और खिचाई करने वाला अंदाज था जो मोदी की रैलियों में खूब दिखाई देता है.
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नोटबंदी का फैसला एक जोखिम हो सकता था. लेकिन बात जब बड़ी मछलियों को पकड़ने की हो, विदेशों में जमा धन को वापस लाने की हो, नौकरशाही, सरकार और राजनीति से भ्रष्टाचार को खत्म करने की हो, अंडरवर्ल्ड से राजनीति की साठगांठ की हो तो कहना ही पड़ता है कि हां, सरकार सही कर रही है. ऐसा होना ही चाहिए था. लेकिन यह कौन बताएगा कि कल क्या होने वाला है.
किस पर पड़ी मार
उन्होंने घोषणा की कि सिर्फ 24 लाख भारतीय ऐसे हैं जिनकी सालाना आमदनी दस लाख रुपए से ज्यादा है. हमने सोचा कि हां, अब कुछ बड़ी बात आने वाली है. लेकिन नहीं आई. उन्होंने बैंकरों और अधिकारियों को चेतावनी दी, लेकिन किस बात के लिए, यह समझ नहीं आया.
वह हमारे साथ यह बात साझा कर सकते थे कि आरबीआई क्यों जानकारी देने बच रही है और पारदर्शी क्यों नहीं है. वह बता सकते थे कि बैंकों में जमा होने वाले लाखों करोड़ रुपए से देश की वित्तीय तस्वीर में क्या बदलाव आया है और भूमिगत चलने वाली समांतर अर्थव्यवस्था को किस हद तक ध्वस्त किया गया है.
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मीडिया में जो रकम बताई जाती है उसमें तो दर्जनों शून्य है. लेकिन हमें किसी ने यह नहीं बताया है कि वह कौन है जिस पर मार पड़ी है. कितने बुरे लोगों को पकड़ा गया है या उनके कितने खोटे कामों को बंद कराया गया है.
लाइन में लगाने का औचित्य
आखिर हम यह जानना चाहते हैं कि घंटों तक लोगों को लंबी लंबी लाइनों में क्यों लगाया गया. जिसकी वजह से अब तक परेशानियां हो रही हैं. इस बारे में भी कुछ नहीं बताया गया.
किसी लोढ़ा और किसी वकील टंडन पर छापे मारने या उन्हें हिरासत में लेने भर से बात पूरी नहीं हो जाती. इन लोगों को तो पकड़ा ही जाना चाहिए था. इन लोगों को नोटबंदी की वजह से नहीं, बल्कि इसलिए पकड़ा जाना चाहिए कि वे रडार पर थे.
इन लोगों के खिलाफ आठ नबंवर से पहले क्यों आयकर विभाग के छापे क्यों नहीं पड़े. क्यों शिकंजा नहीं कसा गया.
समस्या हमारी है
मोदी को अपने भाषण में लोगों को बताना चाहिए था कि उन्होंने जो कुर्बानी दी है और जो अब भी दे रहे हैं, उसका फायदा मिलना शुरू हो गया है. उन्हें एक एक कर बताना चाहिए था कि यह फायदा कैसे हो रहा है.
मुझे लगता है कि अब आंकड़ों का ज्यादा मतलब नहीं रह गया है. वे अपनी अहमियत खोते जा रहे हैं. शायद मोदी भी ऐसा ही सोचते हों और इसीलिए उन्होंने तुरत फुरत घोषणाओं की बजाय ठोस कदमों पर ध्यान दिया हो.
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भाषण का अचानक से खत्म हो जाना भी हैरान करने वाला रहा. हम तो इंतजार कर रहे थे कि वह अभी कुछ और कहेंगे.
लेकिन यह हमारी समस्या है, उनकी नहीं.