सद्गुरू जग्गी वासुदेव तमाम मुद्दों पर अपनी बेबाक बयानी के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने अपने बेहद व्यस्त कार्यक्रम में से वक्त निकालकर फ़र्स्टपोस्ट से बात की. अपनी नई किताब 'इनर इंजीनियरिंग: अ योगीज गाइड टू जॉय' में सद्गुरू ने अध्यात्म को नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश की है. वह अपने आपको एक सामान्य गुरू नहीं मानते.
पहले तो वह गुरू को सिर्फ चार अक्षरों का शब्द भर कहते थे. अब वह गुरू के साथ सद् शब्द जोड़कर इसे नया रूप दे चुके हैं.
वह केंद्रीय दिल्ली के एक बागीचे में टहलते हुए हमसे बात करते हैं. जहां पर सूरज की रोशनी बमुश्किल आती है. उन्होंने पगड़ी बांध रखी है जो उनके बालों के रंग को छुपा लेती है. मगर उनकी कपास जैसी सफेद दाढ़ी उनकी उम्र का राज खोल देती है.
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वह हेलिकॉप्टर उड़ाते हैं. उन्हें गेंद खेलना पसंद है. वह या तो पैंट पहनते हैं या जींस. फिर वह अध्यात्म को एक तकनीक कहकर आपको चौंका भी देते हैं. हालांकि वह किसी खास नेता या राजनीतिक विचारधारा से नहीं जुड़े हैं, लेकिन वह नोटबंदी के बारे में ये ख्याल रखते हैं कि सरकार लोगों की भलाई के लिए सख्त कदम उठा रही है, जो कि जरूरी हैं. पेश हैं उस बातचीत के प्रमुख अंश.
फ़र्स्टपोस्ट: आपकी किताब इनर इंजीनियरिंग के जरिए आत्मा का इलाज करने की बात करती है. क्या आप इसको विस्तार से समझा सकते हैं?
सद्गुरू: ये कोई सबक नहीं है. ये कोई प्रवचन कोई दर्शन या धर्म भी नहीं. यह लोगों की बेहतरी की तकनीक है. आप एक इंसान बता दें जो अपनी भलाई के लिए तकनीक पर न निर्भर हो.
भारत में ये किताब तमाम दर्जों में खूब बिक रही है. बल्कि कई मामलों में तो ये फिक्शन की किताबों से भी ज्यादा बिक रही है. और ये इस बात की मिसाल है कि लोगों को इसकी जरूरत है. जब जिंदगी के तमाम मोर्चों की बात आती है तो हमें विज्ञान की जरूरत होती है. हम तकनीक की मदद से चीजें दुरुस्त करते हैं. लेकिन धर्म की बात आते ही हम वही पुराने और बेकार हो चुके दर्शन और सिद्धांत आजमाते हैं. आखिर क्यों?
फ़र्स्टपोस्ट: 2016 में आए राजनीतिक बदलावों से लगता है कि तमाम देश अपने दरवाजे बंद कर रहे हैं. तो क्या कोई ऐसा तरीका है जिससे हम अपनी कला-संस्कृति और पहचान के अंदर झांकें और इसे किसी के मुकाबले न खड़ा करें?
सद्गुरू: अपने अंदर झांकने का ताल्लुक संस्कृति से नहीं. ये राजनीति का मुद्दा भी नहीं. हम दुनिया के तमाम मसलों पर अपने ख्याल रखते हैं इसका भी अंदर झांकने से कोई ताल्लुक नहीं. हम ये इसलिए करते हैं क्योंकि आप जो तजुर्बा करते हैं उसकी बुनियाद आपके भीतर है.
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कोई असुरक्षित और कमजोर इसीलिए महसूस करता है कि उसका अपनी कमजोरियों पर काबू नहीं होता. ऐसी असुरक्षा और जिंदगी के खराब तजुर्बों की वजह से हम जिंदगी में बहुत सी चीजें उसकी प्रतिक्रिया में करते हैं. अपने भीतर झांककर आपका जिंदगी का तजुर्बा बदल जाता है. आप इसे खूबसूरत या बदसूरत बना सकते हैं. इसे शानदार या खराब बना सकते हैं.
फिलहाल लोग अपने अंदर झांकने का काम नहीं कर रहे हैं. लोगों के अंदर डर है, फिक्र है और एक दूसरे के प्रति गुस्सा है. हम अभी प्रतिक्रियाओं को दुरुस्त करने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि हमें जरूरत उसकी जड़ में जाने की है.
फ़र्स्टपोस्ट: नोटबंदी के बारे में आप क्या सोचते हैं? क्या आज देश के लोग अपनी सरकार की ज्यादा आलोचना कर रहे हैं? क्या ज्यादातर लोग ये सोचते हैं कि ये उनके लिए नुकसानदेह है?
सद्गुरू: हम सरकार की आलोचना इसलिए कर रहे हैं कि हम ऐसी सरकारों के आदी हैं जो फैसले नहीं लेती थीं. अब कोई फैसला लिया जाता है तो लोग सोचते हैं कि ये गलत है. हम पिछले सत्तर सालों से इसीलिए विकासशील देश हैं क्योंकि हम बुनियादी दिक्कतों को दूर नहीं कर पाए हैं. देश में कुछ गंभीर समस्याएं हैं. क्या आप उन चुनौतियों से सीधे निपटना चाहेंगे या फिर उनके इर्द-गिर्द गोल-गोल घूमते रहना चाहेंगे?
नोटबंदी से हम एक बड़ी चुनौती से निपटने की कोशिश कर रहे हैं. देश में साठ फीसदी से ज्यादा लेन-देन गैरकानूनी तरीके से होता है. सरकार की जानकारी के बगैर होता है. जब देश की केवल दो फीसदी आबादी टैक्स देती हो, तो आप देश को कैसे चला पाएंगे? बिना पैसे के किसी देश का प्रशासन कैसे चल सकता है? ये व्यवस्था अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही है. इस दौरान सिर्फ नाम बदले हैं. हाल ये है कि आज भी जिलाधिकारियों को कलेक्टर बुलाया जाता है, क्योंकि अंग्रेजों के जमाने में उनका काम सरकार के लिए राजस्व वसूल करना था.
इसके लिए कुछ ऐसे कदम उठाने होंगे जो तकलीफ देंगे. आज ये हालात हैं कि मुझे अपना कारोबार शुरू करने के लिए अपनी खुद की सड़क बनानी होगी, बिजली पैदा करनी होगी और सीवेज के निपटारे का इंतजाम भी करना होगा.
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ये टैक्स न भरने का बहाना नहीं हो सकता. हम टैक्स भरेंगे तभी हम सुविधाओं की मांग कर सकते हैं. लोकतंत्र कोई तमाशे का खेल नहीं. हम इसमें तमाम तरीकों से भागीदारी करके नतीजों की मांग कर सकते हैं. अगर अगले दस सालों में हमारी तीस फीसदी आबादी टैक्स के दायरे में नहीं आएगी तो हम विकसित देश नहीं बन सकते. बिना तकलीफ के किसी का भला नहीं हो सकता.
फ़र्स्टपोस्ट: आपको क्या लगता है, मौजूदा सरकार अच्छा काम कर रही है?
सद्गुरू: मौजूदा सरकार बहुत अच्छा काम कर रही है. खास तौर से उन लोगों के साथ सख्ती से पेश आ रही है जो देशहित में काम करने को राजी नहीं. लेकिन किसी लोकतांत्रिक देश में कई बार जनता को लुभाने के लिए भी कई चीजें करनी पड़ती हैं.
मैं किसी राजनीतिक दल या नेता का फैन नहीं हूं. मगर मैं एक लोकतांत्रिक देश की भलाई के बारे में सोचता हूं. अगर आपके दिल में देशहित के सिवा किसी और वादे का खयाल है तो ये अपराध है. जो लोग बेहतर हालात में रहकर ये कर रहे हैं वह ये नहीं समझ रहे हैं कि उनकी करनी से उन लोगों का हक मारा जा रहा है जिन्हें खाने को भी बमुश्किल मिलता है.
आप अफ्रीका के सुदूर इलाकों में जाते हैं और देखते हैं कि वहां के बच्चे स्वस्थ हैं और खेलकूद रहे हैं. भारत में तजुर्बे और सामाजिक ताकत की कमी नहीं है, फिर भी हम जमीनी हालात नहीं सुधार पा रहे हैं.
फ़र्स्टपोस्ट: क्या हम राष्ट्रवाद को कुछ ज्यादा ही परिभाषित करने की कोशिश करते हैं? ये साबित करना क्यों जरूरी हो गया है कि हम भारतीय हैं?
सद्गुरू: फिलहाल सबसे बड़ा मुद्दा सिनेमाघरों में राष्ट्रगान के बजने का है. अब चूंकि आपके एक हाथ में पॉपकॉर्न है और दूसरे हाथ में कोला है तो आप खड़े नहीं हो सकते. अगर आपके दिल में देश के लिए अभिमान नहीं है तो आप राष्ट्र का निर्माण कैसे करेंगे?
अभी हम बुनियादी चीजों में ही हैं. हमें ये समझना होगा. मैं कोई सनकी राष्ट्रवादी नहीं. मेरा काम किसी एक देश के दायरे से बड़ा है, किसी जाति समूह से परे है और किसी धर्म के दायरे में नहीं बंधा है.
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मानवता से मेरा मतलब इस धरती पर रहने वाले सात अरब से ज्यादा लोगों के लिए है. मगर राष्ट्र इंसानों का सबसे बड़ा समूह है. इतने बड़े समूह को एक सूत्र में पिरोने और उसे तरक्की के रास्ते पर ले चलने के लिए राष्ट्रीय पहचान होनी जरूरी है. देश के प्रति भावनात्मक जुड़ाव जरूरी है.
फ़र्स्टपोस्ट: क्या ये सामूहिक गुस्से, विचारों के टकराव और कोई कदम न उठाने का दौर है?
सद्गुरू: ये गुस्सा न, सिर्फ मीडिया तक सीमित है. इस वक्त सबसे ज्यादा खुश इस देश का गरीब है. उसे लगता है कि पहली बार किसी ने अमीरों पर चोट की है. मैं सोचता हूं कि काश ये डिजिटाइजेशन का काम आज से एक साल पहले शुरू हो गया होता. ऐसा होता तो आज तीस से चालीस प्रतिशत आबादी कैशलेस लेन-देन कर रही होती. लोग हमेशा विरोध करते रहते हैं.
यहां एक्टिविज्म यानी विरोध ज्यादा है, एक्टिविटी यानी काम कम होता है. हमें ज्यादा एक्टिविटी की जरूरत है. हमने ये आजादी के दौर से पहले की विरासत को ही आगे बढ़ाया है, जब हम विरोध के लिए बंद बुलाया करते थे. जब हम बिजली की सप्लाई रोक देते थे. रास्ता रोको, रेल रोको आंदोलन चलाते थे.
उस दौर में गांधी के ये तरीके कारगर थे, क्योंकि उस वक्त कोई और हम पर राज कर रहा था. अब हम अपने ही देश को कैसे बंद कर सकते हैं? मैं कट्टरपंथी पागलपन के खिलाफ हूं. लेकिन मैं पूछता हूं कि बिना राष्ट्रभक्ति के आप लोगों को आगे चलने के लिए कैसे प्रेरित कर सकते हैं?
फ़र्स्टपोस्ट:अभी हाल में आई बॉलीवुड फिल्म डियर जिंदगी में कहानी का केंद्रबिंदु दिमागी सेहत थी. क्या लोग मन में ये बात पाले रखना चाहते हैं कि वह अवसाद में हैं और उन्हें बचाये जाने की जरूरत है? क्या देश का युवा राष्ट्र निर्माण के लिए तैयार है? अगर वह खुद में ही मशगूल हैं तो ये कैसे होगा?
सद्गुरू: भारत में अपने में ही मगन युवाओं की तादाद बेहद कम है. वह शहरी रईसों के परिवार से आने वाले युवा हैं. बाकी देश का युवा ऐसा नहीं है. यहां लोग समुदायों पर आधारित हैं. ऐसे में लोग इतने अवसादग्रस्त नहीं हैं जितने यूरोपीय देशों के लोग हैं. पश्चिमी देशों में सबसे बड़ी दिक्कत अकेलापन है.
भारत में अकेलेपन की समस्या नहीं है क्योंकि कोई न कोई आपसे जुड़ा ही रहता है, टकरा ही जाता है. कई बार इससे खीझ भी होती है, लेकिन ये लोगों को दिमागी तौर पर सेहतयाब रखने में बहुत मददगार है. लेकिन अब हम सामुदायिक भावना से दूर हो रहे हैं. हमें इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी.
फ़र्स्टपोस्ट: क्या अब आध्यात्मवाद, पूंजीवाद से प्रेरित जरूरत हो गई है, एक जोड़ी जींस खरीदने जैसी?
सद्गुरू: इस बात के तमाम वैज्ञानिक और मेडिकल सबूत हैं कि आपका शरीर और दिमाग तभी सबसे अच्छा काम करते हैं जब वह अच्छा महसूस करें. अगर आप इस दुनिया में कामयाब होना चाहते हैं तो जरूरी है कि आप अपने शरीर और दिमाग से अच्छे से अच्छा काम ले सकें. आप कामयाबी से ऐसा कर लेते हैं, तो क्या आप दुनिया में नाकाम रहेंगे? दुखी लोग कामयाब नहीं हो सकते.
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आध्यात्मिक प्रक्रिया अपनी ताकत का इस्तेमाल करना है. आप किसी फोन के बारे में पूरी जानकारी रखते हैं तो आप इसका बेहतर इस्तेमाल कर सकेंगे. यही बात हमारे दिमाग पर भी लागू होती है. हमारा दिमाग पूरी दुनिया का सबसे पेचीदा और ताकतवर गैजेट है.
ये कुछ वैसा ही है जैसे आपके पास पूरी जानकारी है तो फोन से आप पूरा ब्रह्मांड पा सकते हैं. और उसकी खूबियां नहीं जानते तो आप अपने दोस्त को बस कॉल या मैसेज कर पायेंगे.
फ़र्स्टपोस्ट: क्या सोशल मीडिया की वजह से डिप्रेशन बढ़ रहा है क्योंकि लोगों को दूसरों की उपलब्धियां ज्यादा मालूम होती हैं? क्या हम लगातार सच से इनकार करते रहते हैं?
सद्गुरू: आपको दिया गया हर तोहफा आपके लिए मुसीबत बन गया है क्योंकि आप दुनिया में खुशियों की तलाश कर रहे हैं. आपको समझना होगा कि हर इंसानी तजुर्बा भीतर से आता है. अगर आप फेसबुक से खुशी तलाश कर रहे हैं, तो आप दुखी ही रहेंगे क्योंकि आप सारे चेहरे ही गलत देखेंगे.
हर तकनीक जो आपके पास है वह आपकी जिंदगी बेहतर बनाने के लिए है, आपकी खुशी छीनने के लिए नहीं. आपको मजबूरी से जागरूकता की तरफ बढना होगा. आपका दिमाग ही आपकी मुसीबतों की जड़ है. क्या आप एक कीड़े वाला दिमाग चाहते हैं? क्यों?
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हमें विकास की करोड़ों साल की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा तब जाकर हम यहां तक पहुंचे हैं. जब लोग अपने आप में मगन हैं, खुश हैं तभी उनकी बुद्धिमत्ता बेहतर काम करेगी. अभी तो तकलीफ के डर ने ही आपको जकड़ रखा है. आप फेसबुक को, फोन को, तकनीक को दोष दे रहे हैं. क्योंकि आपकी अपनी बुद्धि ही आपके खिलाफ हो गई है.
अगर आपका अस्तित्व आपके हाथ में हो, तो आप अपने लिए खुशी ही चुनेंगे.
फ़र्स्टपोस्ट: ऐसा क्यों है कि पहले हमें अपनी खुशियां गंवानी होंगी फिर उन्हें तलाश करके वापस हासिल करना होगा?
सद्गुरू: हमारी शिक्षा व्यवस्था अंग्रेजों के दौर की देन है. उन्होंने ऐसा सिस्टम बनाया कि इससे निकले लोग आदेश मानें. ये अंग्रेज हुकूमत की जरूरत थी. हमें देखना चाहिए था कि आजाद देश को कैसी शिक्षा व्यवस्था की जरूरत है.
हमें आजाद लोग चाहिए जिनके दिमाग भी तमाम बंदिशों से स्वतंत्र हों. हमारे देश की बड़ी आबादी भयंकर गरीबी में रहती आ रही है. ऐसे में शिक्षा व्यवस्था का मकसद एक अदद नौकरी हासिल करने तक सीमित रह गया. ऐसे में किसी को जिंदगी की जरूरियात के लिए शिक्षित ही नहीं किया गया.
2015 में 18 हजार बच्चों ने खुदकुशी कर ली थी. जब तक हम ये नहीं मान लेते कि हम कुछ तो गलत कर रहे हैं, तो हम सही जिंदगी नहीं हासिल कर सकेंगे.
हम भारतीयता के बारे में कुछ भी कहेंगे तो लोग उसे राष्ट्रवादी पागलपन करार देने लगेंगे. हमारे यहां 120 तरह के हथकरघे थे. किसी दौर में हम दुनिया के सबसे अच्छे कपड़ा उद्योग वाले देश थे. आज हम इस खूबी को खत्म कर रहे हैं क्योंकि हमारे लिए ब्रिटिश कपड़ा उद्योग मिसाल बन गया. हम ग्रीनविच मीन टाइम में अटककर रह गए हैं.
साथ ही मैं ये भी कहूंगा कि हमें भारतीयता को लेकर कट्टर रवैया नहीं अपनाना चाहिए. इतिहास हमें बताता है कि हम भारतीयों ने बाहर से जो भी आया उसे स्वीकार किया, उसे अपना लिया. फिर भी हम अपनी पहचान बचाये और बनाये रखने में कामयाब रहे.
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ये ऐसा देश है जिसने इंसान के भीतर के सिस्टम को जाना समझा. हमारी खूबी यही है कि हम जानते हैं कि इंसान किस तरह खुश रह सकता है. ये ऐसी जानकारी है जिसे हम बाकी दुनिया को सीख के तौर पर दे सकते हैं. लेकिन पहले हम हिंदुस्तानियों को खुद इस बात को जानना समझना होगा.
फ़र्स्टपोस्ट: तो मतलब ये कि आर्थिक तरक्की ही विकास के लिए पर्याप्त नहीं है?
सद्गुरू: सिर्फ आर्थिक बेहतरी से इंसान की भलाई नहीं हो सकती. मिसाल के तौर पर तमिलनाडु के तिरुपुर में हर शख्स पास के कस्बे के किसी भी इंसान से दोगुना-तिगुना कमाता है. पिछले साल दीवाली पर तमिलनाडु में 36 करोड़ की शराब बिकी.
इसमें से 24-25 करोड़ की शराब अकेले तिरुपुर में खरीदी गई. ये सिर्फ आठ लाख की आबादी वाला शहर है. जहां भी आर्थिक तरक्की हुई है, 40 फीसद आबादी डायबिटीज की शिकार हो गई है. इसीलिए हम योग की बात करते हैं.
फ़र्स्टपोस्ट: क्या आध्यात्मिक गुरू राजनैतिक स्टैंड ले सकते हैं?
सद्गुरू: अगर आप चुनाव लड़ सकते हैं तो मैं क्यों नहीं? मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा, मगर ये मेरा फैसला होगा. चुनाव लड़ने का मेरा भी उतना ही अधिकार है जितना आपका है.
फ़र्स्टपोस्ट: आप 2017 में किस तरह के भारत की तस्वीर देखते हैं?
सद्गुरू: इस वक्त तो देश की साठ प्रतिशत आबादी कुपोषण की शिकार है. हम आधे अधूरे इंसान ही पैदा कर रहे हैं.
दूसरी चीज है सशक्तीकरण. हम लोगों को बेहतर खेती के लिए तैयार कर सकते हैं. लोगों को नए नए ढंग सिखा सकते हैं. इंसान को इस तरह से ताकतवर बनाना चाहिए कि वह जो चाहे वह कर सके.
दूसरी चीज पर्यावरण है. ये एक बड़ी चुनौती है जिसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया. कुछ तजुर्बे बताते हैं कि भारतीय नदियां सालाना 8 फीसद की दर से घट रही हैं. मतलब अगले पंद्रह-बीस सालों में ज्यादातर नदियां बरसाती होकर रह जाएंगी. मिसाल के तौर पर कावेरी नदी साल के ढाई महीने समंदर तक नहीं पहुंच पाती है.
हम अपने बच्चों के लिए कैसी दुनिया छोड़कर जाएंगे? बंजर जमीन? दिल्ली से चेन्नई के हवाई सफर पर निकलिए और आप हर पांच मिनट में सूखे इलाके देखेंगे.
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जब लगातार सूरज की रोशनी का कहर बरपेगा, खेती-बाड़ी और दूसरे काम नहीं होंगे, तो जिसे आप मिट्टी समझते हैं वह कुछ सालों में रेत में तब्दील हो जाएगी.
1947 में हर नागरिक को जितना पीने का पानी हासिल था, आज उसका 19-20 फीसद ही मिलता है. 2020 में आपको उसका सात फीसद ही मिल सकेगा. ऐसे में हमें पर्यावरण को बचाने के लिए कई सख्त कदम उठाने की जरूरत है. उन कदमों को लोग उसी तरह नापसंद करेंगे, जैसे नोटबंदी को कर रहे हैं.
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