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केरल मॉडल के जरिए किसान कर्ज माफी को टालना चाहती है राजस्थान सरकार

वसुंधरा राजे सरकार ने करीब 50 लाख किसानों के कर्ज को माफ करने की घोषणा की थी लेकिन अब रामप्रताप कमेटी की चली तो सभी किसानों का कर्ज तत्काल माफ नहीं हो सकेगा

Mahendra Saini

राजस्थान के किसान अब राज्य की बीजेपी सरकार की बहानेबाजी और टालमटोल वाले के शिकार बनते नजर आ रहे हैं. पिछले साल सीकर में किसान आंदोलन को वसुंधरा राजे सरकार ने ये कहकर शांत किया था कि सभी किसानों का कर्ज माफ कर दिया जाएगा. लेकिन कर्जमाफी का रोडमैप तैयार करने के लिए बनी कमेटी अब दांव-पेंच खेलती लग रही है.

कमेटी ने साफ कर दिया है कि सभी किसान कर्जमाफी का सपना न देखें. जल संसाधन मंत्री रामप्रताप की अध्यक्षता में बनी इस कमेटी ने केरल मॉडल का अध्ययन कर लौटे दल की सिफारिशों के आधार पर सुझाव मांगें हैं.


सरकार ने करीब 50 लाख किसानों के कर्ज को माफ करने की घोषणा की थी. लेकिन अब रामप्रताप कमेटी की चली तो सभी किसानों का कर्ज तत्काल माफ नहीं हो सकेगा. ऐसा लगता है जैसे मौजूदा सरकार केरल मॉडल के नाम पर कर्जमाफी के 'सिरदर्द' को आने वाली सरकार के माथे डालना चाहती है.

क्या है केरल मॉडल?

केरल में किसान आयोग निर्धारित करता है कि किस किसान का कितना कर्ज माफ किया जाए. इसके लिए किसान को इस आयोग के सामने पेश होना पड़ता है. आयोग, किसान और उसके कर्ज की स्थिति के साथ-साथ फसल और मौसम जैसी रिपोर्टों का विस्तृत अध्यन करता है. इसके बाद औसतन 11 से 20 हजार तक का कर्ज ही माफ किया जाता है.

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केरल में कर्जमाफी के विभिन्न पैमाने बने हुए हैं. अधिकतम सीमा 1 लाख रुपए है. 50 हजार तक के कर्ज का 75% तक माफ किया जा सकता है. 50 हजार से 2 लाख तक के कर्ज का 50% माफ किया जा सकता है. 2007-08 के बाद वहां 4 लाख से ज्यादा किसानों ने कर्जमाफी का आवेदन किया. लेकिन एक-एक किसान की अलग-अलग सुनवाई की वजह से 7 साल में सिर्फ 183 करोड़ रुपए का कर्ज ही माफ किया जा सका है.

सीकर किसान आंदोलन का एक दृश्य

वैसे भी, वहां नकदी फसलों की खेती ज्यादा होती है जैसे रबर, कॉफी, नारियल या मसाले. इसी वजह से वहां के किसान अपेक्षाकृत समृद्ध हैं. फिर वहां पहले से आयोग बना हुआ है और उसकी कार्यशैली से किसान अच्छी तरह परिचित हैं. इसलिए किसान कर्ज़ ही कम लेने लगे हैं.

लेकिन राजस्थान में हालात अलग हैं. मोटे तौर पर माना जा रहा है कि यहां 30 लाख किसानों ने सहकारी बैंकों से कर्ज ले रखा है जबकि करीब 20 लाख से ज्यादा किसानों ने दूसरे बैंकों और संस्थाओं से कर्ज ले रखा है. ऐसे में केरल मॉडल को उसी रूप में लागू करने की कोशिशें किसानों को भड़काने का काम ही करेंगी न कि मसले को सुलझाने का.

राजस्थान में कर्जमाफी का रोडमैप

जैसा कि सरकार की मंशा है, सभी किसानों का कर्ज एक साथ माफ नहीं किया जाएगा. इस मुद्दे पर केरल की तरह एक आयोग गठित किए जाने की कवायद चल रही है. कर्जदार किसानों को जयपुर आकर एक-एक कर इस आयोग के सामने आवेदन करना होगा. इससे पहले खुद को डिफॉल्टर भी घोषित करना होगा.

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डिफॉल्टर घोषित होने के बाद आयोग उसके कर्ज के गुण-अवगुण के आधार पर फैसला करेगा कि कर्जमाफ किए जाने लायक है भी या नहीं. इससे फायदा ये होगा कि सरकार पर तत्काल वित्तीय भार नहीं पड़ेगा. लेकिन नुकसान ये है कि चुनावी साल में ये किसानों को भड़का सकता है. ऐसा हुआ तो पहले से ही लोकप्रियता के निचले पायदानों पर पहुंच चुकी राजे सरकार के लिए इससे निपटना बहुत बड़ी चुनौती बन जाएगा.

Photo. news india 18.

किसान इस बात की अच्छी समझ रखता है कि खुद को डिफॉल्टर घोषित करना उसके लिए खतरे से खाली नहीं है. एकबार डिफॉल्टर घोषित होने के बाद वो अपने वर्तमान कर्ज़ का कुछ हिस्सा चाहे माफ़ करवा ले. लेकिन भविष्य में उसे दूसरा कोई कर्ज या तो मिलेगा नहीं या फिर बहुत ही भारी दिक्कतों और महंगे ब्याज पर ही मिलेगा. ऐसे में किसान अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी क्यों मारेगा?

किसान फिर होने लगे लामबंद

यही वजह है कि आयोग की सुरसुराहट होते ही राजस्थान का किसान एकबार फिर लामबंद होने लगा है. फरवरी में बजट सत्र के दौरान विधानसभा पर पड़ाव डालने की तैयारी की जा रही है. किसान नेता और पूर्व विधायक अमराराम ने चेतावनी दी है कि चार अलग-अलग दिशाओं से किसान विधानसभा पहुंचेंगे. इससे पहले उनके सहयोगी 184 संगठन हर पंचायत में जाकर किसान संसद का आयोजन करेंगे.

अमराराम और कांग्रेस विधायक गोविंद सिंह डोटासरा ने किसान आयोग के फॉर्मूले को सिरे से खारिज कर दिया है. सीपीएम नेता होने के बावजूद अमराराम ने साफ कर दिया है कि वे किसी भी सूरत में राजस्थान में केरल मॉडल लागू नहीं होने देंगे.

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ये समझ से परे है कि विचारधारात्मक रुपू से धुरविरोधी होने के बावजूद बीजेपी केरल की वामपंथी सरकार के मॉडल को क्यों अपनाना चाहती है? हो सकता है कि इसकी वजह वही हो, जो ऊपर बताई गई है- गुर्जर आरक्षण की तरह इस मुद्दे को भी लटकाना और आने वाली सरकार के माथे पर डालना. हालांकि ये स्वस्थ परंपरा नहीं कही जा सकती.

वामपंथी मॉडल अपनाने की वजह ये भी हो सकती है कि महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में किसानों के कर्जमाफी के बीजेपी के मॉडल लगभग फेल हो गए हैं. महाराष्ट्र में ये योजना बैंको और आधार नंबरों के बीच उलझ कर रह गई है तो यूपी में किसानों को मिले एक-एक, दो-दो रुपयों के चेक ने भारी फजीहत कराई है.

निश्चित रूप से कर्जमाफी का ये मुद्दा ऐसे समय में बीजेपी के गले की फांस बन गया है जब बैंकों का NPA लगातार बढ़ रहा है, कृषि विकास दर गिर रही है और प्रधानमंत्री 2022 तक किसानों की आय दो गुना कर देने का दावा लगातार दोहरा रहे हैं.