राजस्थान में सरकारी डॉक्टरों की जानलेवा हड़ताल आखिर खत्म हो गई है. बुधवार को दिनभर रही गहमागहमी के बाद शाम को सरकार और डॉक्टरों के बीच समझौता हो गया. सरकार ने हड़ताली डॉक्टरों की लगभग सारी मांगें मान ली हैं. करीब 10 दिन बाद आज से डॉक्टर काम पर लौट भी आए हैं.
बुधवार को 7-8 घंटे तक दोनों पक्षों के बीच बातचीत के कई दौर चले. वार्ता में सरकार की तरफ से चिकित्सा मंत्री कालीचरण सर्राफ, परिवहन मंत्री युनूस खान, सहकारिता मंत्री अजय सिंह किलक, चिकित्सा राज्यमंत्री बंशीधर बाजिया और बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी मौजूद थे. बातचीत के बाद दोनों पक्षों के सभी लोगों ने इसे सौहार्द्रपूर्ण बताया. हालांकि ये पूरा सच नहीं है.
सरकार की तरफ से एकबार फिर युनूस खान संकटमोचक साबित हुए. 2 महीने में दूसरी बार हुई हड़ताल और चिकित्सा मंत्री की हठधर्मिता के बाद बिगड़ते हालात के बीच खान ने दखल दिया और आखिरकार समझौता कराने में सफल रहे. हालांकि ये इतना आसान नहीं था.
बुधवार को वार्ता के दौरान भी चिकित्सा मंत्री रूठे से नजर आए. कुछ देर के लिए वे अलग कमरे में जाकर भी बैठ गए. मीडिया रिपोर्ट्स में बताया जा रहा है कि कुछ मांगों पर वे तैयार नहीं थे. इसी को लेकर उनकी अन्य मंत्रियों से नोंकझोंक भी हुई थी.
डॉक्टरों के आगे झुकी सरकार
नवंबर के पहले 2 हफ्ते और दिसंबर के इन आखिरी 2 हफ्तों में करीब 25 दिन की हड़ताल रही. इस दौरान राजस्थान की जनता बहुत ही बुरे दौर से गुजरी. इलाज न मिल पाने की वजह से 100 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई. हजारों ऑपरेशन टाले गए. गरीब लोगों को मजबूरन महंगे निजी अस्पतालों में दौड़ना पड़ा. जिंदा लोग तो परेशान हुए ही, शवों का पोस्टमॉर्टम कराना भी मुश्किल हो गया. यही वजह है कि सरकार को डॉक्टरों की सारी मांगें माननी पड़ीं, मसलन-
- आंदोलन के दौरान अगस्त, अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर में काम नहीं करने वाले दिनों को अब पीएल माना जाएगा.
- हड़ताली डॉक्टरों पर जो भी मुकदमें दर्ज किए गए, वे सभी वापस लिए जाएंगे. डॉक्टरों पर की जा रही प्रशासनिक/विभागीय कार्रवाई पर सकारात्मक रुख अपनाया जाएगा.
- चिकित्सा विभाग में जिस अतिरिक्त निदेशक की नियुक्ति पर पूरा बवाल हुआ, उसका तबादला किया जाएगा.
- सेवारत चिकित्सक संघ अध्यक्ष डॉ अजय चौधरी को सीकर का CMHO बनाया जाएगा. पिछले महीने की हड़ताल के बाद चौधरी का तबादला CMHO,चूरू से CHC, हिंडौन कर दिया गया था. इनके साथ ही स्थानांतरित किए गए 12 अन्य डॉक्टरों को भी वापस उनकी पसंद की जगह लगाया जाएगा.
- पिछले महीने हड़ताल के बाद 12 नवंबर को हुआ समझौता पूर्ण रूप से लागू किया जाएगा.
7 करोड़ जिंदगियों से बड़ा 'ईगो'
इस हड़ताल के लिए सरकार सेवारत चिकित्सक संघ से जुड़े डॉक्टरों के निजी अहं टकराव को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. हड़ताल से पहले और हड़ताल के दौरान चिकित्सा मंत्री के लगातार उकसाने वाले बयान सामने आते रहे. नवंबर की हड़ताल खत्म होने के हफ्ते भर के अंदर ही सेवारत चिकित्सक संघ के बड़े नेताओं के 500 किलोमीटर दूर तक तबादले कर दिए गए.
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तबादलों को डॉक्टरों ने बदले की कार्रवाई करार दिया और दिसंबर के दूसरे हफ्ते में एकबार फिर हड़ताल कर दी. हालांकि सरकार ने दोनों बार रेस्मा(राजस्थान आवश्यक सेवा कानून) लागू कर दिया. लेकिन ये डॉक्टरों को वापस अस्पताल तो क्या लाता, उलटे इन्होंने अपने साथ रेजीडेंट्स को भी जोड़ लिया. यही नहीं, सरकार पर दबाव बनाने के लिए निजी अस्पतालों और दूसरे राज्य के डॉक्टरों को भी हड़ताल में शामिल करने की कोशिशें की जाने लगीं.
बताया जा रहा है कि मामला तब शुरू हुआ जब एक महिला डॉक्टर की चिकित्सा विभाग के अतिरिक्त निदेशक से कहासुनी हो गई. इसके बाद डॉक्टरों ने इस अतिरिक्त निदेशक को हटाने की मांग कर डाली. डॉक्टरों ने चिकित्सा विभाग में गैर-चिकित्सक प्रशासनिक अधिकारी की नियुक्ति पर ही सवाल उठा दिए.
अधिकारी को हटाने/न हटाने की बात को दोनों पक्षों ने अपना-अपना ईगो बना लिया. ये ईगो इतना बड़ा था कि 100 जिंदगियों पर भारी पड़ा और इतना बेशर्म कि समझौते के बाद दोनों पक्षों को दांत निपोरते हुए मिठाई खाने में कुछ भी गुरेज नहीं हुआ. इस बेशर्मी से पूर्व चिकित्सा मंत्री राजकुमार शर्मा बेहद आहत हैं. इतने आहत कि उन्होंने विधायक पद से इस्तीफा देने तक का ऐलान कर दिया. शर्मा ने कहा कि जब सारी मांगें माननी ही थी तो इतने मरीजों को मरने क्यों दिया गया.
वैसे कई लोग इस हड़ताल को साजिश भी करार दे रहे हैं. इस मुद्दे पर खुद बीजेपी में 2 धड़े हैं. एक धड़ा इसके पीछे कांग्रेस को बता रहा है. चूरू में पोस्टेड रहे डॉ. अजय चौधरी की कांग्रेस से नजदीकियों की तरफ इशारा किया जाता है. हड़ताल को बीजेपी के खिलाफ माहौल तैयार करने की रणनीति का हिस्सा बताया जा रहा है.
दूसरा धड़ा इसके पीछे बीजेपी के ही एक पूर्व चिकित्सा मंत्री का हाथ बताता है. बताया जा रहा है कि कभी सरकार में नंबर 2 की हैसियत रखने वाले इन मंत्रीजी को अब मुख्यमंत्री उतनी तवज्जों नहीं देती हैं. इस बार उन्हें मनचाहा पोर्टफोलियो भी नहीं दिया गया. तो क्या यही निजी महत्वाकांक्षा उस जनता पर भारी पड़ी जिसे लोकतंत्र में सबसे बड़ी शक्ति कहा जाता है.
जनता की सर्वोपरि है, ये बात सिर्फ संविधान तक
संविधान की शुरुआत इन शब्दों के साथ होती है कि हम भारत के लोग... यानी सरकार को जनता से ही शक्ति मिलती है. यानी राज्य में जो सरकार है वो जनता की सेवक है. ये जनता की गाढ़ी कमाई से ही पलती है. इन लोकसेवक/जनप्रतिनिधियों का काम हर हाल में जनता की सेवा करना ही होता है. जनसेवा की बाकायदा शपथ ली जाती है.
दूसरी ओर, डॉक्टरों को धरती पर भगवान कहा जाता है. ये हिप्पोक्रेटिक शपथ लेते हैं कि हर पल, हर हालात में मरीज की सेवा/इलाज को प्राथमिकता देंगे. इलाज इनका कर्म ही नहीं धर्म भी होता है. जनता की गाढ़ी कमाई से नाममात्र की फीस में ये करोड़ों के खर्च वाली मेडिकल शिक्षा हासिल करते हैं.
मालिक क्या करे जब उसके सेवक काम करने से इनकार कर दें या उसे आंख दिखाए या फिर दो सेवक अपने-अपने अहम की लड़ाई में मालिक का जानलेवा नुकसान करें ? कानून में एक कत्ल पर फांसी तक की सजा तय की जा सकती है. लेकिन यहां तो 100 लोगों की जान चली गई और हैरानी ये है कि जिम्मेदारी लेने की बजाय एक दूसरे को मिठाई खिलाकर खुशियां मनाई जा रही हैं.
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हड़ताल की पूरी तस्वीर सामने लाई जाए तो रूह कांप उठे. ये ऐसे वक्त में की गई जब इस साल स्वाइन फ्लू से ही 250 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं. स्वाइन फ्लू का कहर आम आदमी पर ही नहीं बल्कि जयपुर में ऑफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल पर भी टूटा है. यहां एक कर्मचारी की मौत हो गई तो ट्रेनिंग ले रहे दर्जनों अधिकारियों की जान पर बन आई. खुद मुख्यमंत्री के गृह संभाग हाड़ौती में 100 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं.
लेकिन सवाल यही है कि क्या 70 साल बाद भी जनता के मानवाधिकार सिर्फ राजनीतिक भाषणबाजी की विषयवस्तु ही बने रहेंगे? संविधान में राज्य के नीति निदेशक तत्वों के तहत जिस कल्याणकारी राज्य की उम्मीद जताई गई थी, क्या वास्तव में वो साकार हो सकेगी? क्या महात्मा गांधी के सपनों का रामराज्य कभी अस्तित्व में आ भी पाएगा?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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