पिछले एक महीने में राजस्थान में 2 ऐसी वारदातें हुई हैं, जो बेहद निंदनीय तो हैं ही साथ ही समाज के सौहार्द्रपूर्ण माहौल को बिगाड़ने की कोशिशें भी कही जा सकती हैं. लेकिन दोनों की लगभग एक जैसी प्रकृति के बावजूद राज्य में चर्चा के केंद्र में जो बना हुआ है, वो है, दोनों मामलों में अलग-अलग दिखी पुलिस की कार्रवाई, प्रशासन की प्रतिक्रिया और सरकार का रवैया.
नवंबर के आखिर में राजधानी जयपुर के नाहरगढ़ किले पर चेतन सैनी नाम के शख्स का शव लटका मिला. शव के पास ही पत्थरों पर सांप्रदायिक बातें लिखी हुई थी. लेकिन पुलिस ने प्रथम दृष्टया इसे खुदकुशी माना और जांच की दिशा सभी और घुमाकर अब इसी थ्योरी पर खत्म करने की तैयारी भी है. प्रशासन की तरफ से कुछ विशेष प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली और सरकार ने सिर्फ ये कह कर अपना फर्ज पूरा मान लिया कि कानून अपना काम कर रहा है.
दूसरा मामला राजसमंद का है. पिछले हफ्ते यहां शंभूलाल रैगर नाम के शख्स ने अफराजुल नाम के अधेड़ की हत्या कर दी. हत्या बेहद वहशियाना तरीके से की गई. और तो और उसने अपने नाबालिग भांजे से इसका वीडियो भी शूट कराया. इस दौरान हत्यारे ने इसे लव जिहाद का बदला बताया और स्त्री सम्मान पर भाषण भी दिया.
लेकिन अब पुलिस, प्रशासन और सरकार की फुर्ती देखिए. गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया ने विशेष जांच दल (SIT) के गठन का फौरन ऐलान कर दिया. पुलिस ने 24 घंटे के अंदर फरार हत्यारे/आरोपी को गिरफ्तार कर लिया. पुलिस महानिदेशक ओपी गल्होत्रा ने कहा कि ऐसे हत्यारे को फांसी तक पहुंचाने की पूरी कोशिश की जाएगी. सरकार ने भी मृतक के परिजनों को 5 लाख रुपए की सहायता की घोषणा कर दी.
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इसमें कोई दो राय नहीं कि ऐसे हत्यारे को कड़ी से कड़ी सजा मिले. इतने वीभत्स और वहशियाना काम के समर्थन में दिया कोई भी तर्क सिर्फ कुतर्क ही हो सकता है. लेकिन कई लोग अब पुलिस, प्रशासन और सरकार की सेलेक्टिव कार्यवाही पर सवाल उठा रहे हैं. विश्व हिंदू परिषद से जुड़े राजेश सवाईका का कहना है कि ऐसा लगता है जैसे बीजेपी भी तुष्टिकरण के उसी रास्ते पर चल पड़ी है, जिसके आरोप पहले विपक्षी पार्टियों पर लगाए जाते थे.
सेलेक्टिव कार्यवाही पर उठे सवाल
राजसमंद मामले में गजब की फुर्ती दिखाई गई तो जयपुर मामले में बहानेबाजी. जयपुर मामले में पहले पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट तो बाद में एफएसएल रिपोर्ट का इंतजार करने की बातें दोहराई जाती रहीं. पुलिस हर सूरत में इसे खुदकुशी साबित करने की थ्योरी पर ही काम करती रही. लोग आरोप लगा रहे हैं कि आखिरकार एफएसएल रिपोर्ट में यही सच भी स्थापित कर दिया गया.
ये सब उस सच से पूरी तरह दूर था जो चश्मदीदों ने दावा किया था. पुलिस का सच उन सवालों का जवाब भी नहीं दे पा रहा है जो लोग पूछ रहे हैं.
-पुलिस के मुताबिक नाहरगढ़ किले पर चेतन अकेला था लेकिन शव जिस बुर्ज से लटका मिला था, उसकी चौड़ाई 3 फीट से ज्यादा है. ऐसे में अकेला शख्स इतनी चौड़ी दीवार पर फंदा कैसे बना सकता है.
-पुलिस ने पहले कहा कि खुदकुशी के लिए चेतन रस्सी खुद खरीद कर ले गया. लेकिन पुलिस न रस्सी बेचने वाले को ढूंढ पाई और न ही सीसीटीवी फुटेज में चेतन रस्सी के साथ जाता हुआ दिखा. फिर कहा गया कि चेतन अपने शरीर पर रस्सी लपेटकर ले गया था. लेकिन कपड़ों के नीचे करीब 50 फीट लंबी रस्सी लपेटने से आदमी असामान्य दिखेगा. जबकि सीसीटीवी में ऐसा दिखा नहीं. -एफएसएल रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पत्थरों पर लिखे शब्द चेतन की ही हैंडराइटिंग हैं. लेकिन ये यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि एक सामान्य सा हिंदु युवक आखिर क्यों काफिरों को मारने, अलाउद्दीन खिलजी का समर्थन करने, अभी और हत्याएं करने या देश को दारूल इस्लाम बनाने की बातें लिखेगा.
-चट्टानों पर लिखा था- चेतन मारा गया. कोई शख्स खुदकुशी करेगा तो ये बात फर्स्ट पर्सन में लिखेगा जैसे कि मैं मर रहा हूं या जान दे रहा हूं. ये लिखना समझ से परे है कि मैं मारा गया.
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इस केस में पुलिस की लीपापोती गंभीर शक पैदा कर रही है. क्या पुलिस पर राजनीतिक दबाव है. या फिर सरकार ही किसी दबाव में है. पत्थरों पर सांप्रदायिक बातें लिखी होने के बावजूद ‘राष्ट्रवादी’ सरकार की तरफ से जांच को आगे बढ़ाने का कोई बयान सामने नहीं आया है. जबकि राजसमंद के अफराजुल मामले में बयानों की गति बिना किसी अवरोधक के थी. आईजी आनंद श्रीवास्तव ने मीडिया से यहां तक कहा कि व्हाट्सएप पर आरोपी का समर्थन करने वालों को भी गिरफ्तार किया जाएगा.
यही नहीं, मुआवजे में भी सेलेक्टिव कार्यवाही का ही आरोप लगाया जा रहा है. ममता बनर्जी के 3 लाख रुपए के ऐलान के बाद वसुंधरा राजे सरकार ने भी अफराजुल के परिवार को 5 लाख रुपए की सहायता का ऐलान कर दिया. दूसरी तरफ, चेतन का परिवार भी खराब आर्थिक हालात से गुजर रहा है. लेकिन उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है.
मुआवजे का आधार मनमर्जी
वैसे, मुआवजा बांटने की कोई पूर्व शर्तें नहीं हैं. ये सरकारों का विशेषाधिकार माना जाता है. दिल्ली में एक किसान की खुदकुशी पर केजरीवाल सरकार ने 1 करोड़ के मुआवजे का ऐलान किया. हालांकि ये न तो दिल्ली का किसान था और न ही इसने कर्ज के कारण खुदकुशी की थी. इसी तरह, दिल्ली में ही हत्या कर दिए गए NDMC के अधिकारी एमएम खान के परिजनों को एक करोड़ की मुआवजा राशि दी गई. लेकिन भीड़तंत्र का शिकार बने डॉ. पंकज नारंग के परिजनों की खैर-खबर भी नहीं ली गई.
उत्तर प्रदेश के दादरी में भी मुआवजे के विशेषाधिकार पर ऐसे ही सवाल उठे थे. यहां अखलाक केस में एक आरोपी युवा की भी जेल में मौत हो गई थी. लेकिन उसके साथ सरकार ने वैसी सहानुभूति नहीं दिखाई. तब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी.
अब तक बीजेपी मुआवजों में इस भेदभाव पर हिंदू सहानुभूति पाने की कोशिश करती रही है. लेकिन राजस्थान मे जब चुनाव में 12 महीने से भी कम वक्त बचा है, तब तुष्टिकरण के भी शायद दो वर्ग हो गए हैं-राष्ट्रवादी और राष्ट्रविरोधी. बीजेपी का मुस्लिम तुष्टिकरण राष्ट्रवादी और दूसरी पार्टियों का मुस्लिम तुष्टिकरण राष्ट्रविरोधी.
सरकार सबकी है, तुष्टिकरण क्यों ?
सरकार को समाज के सभी समूहों को साथ लेकर चलना चाहिए. चाहे कोई वर्ग उसके पक्ष में हो या विपक्ष में. भारतीय लोकतंत्र में जहां ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ व्यवस्था है, वहां ये मायने नहीं रखना चाहिए कि विजेता प्रतिनिधि को किसने वोट दिया और किसने नहीं. बहुमत विजेता बनाता है लेकिन अल्पमत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
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ठीक उसी तरह, अपने खास वोटबैंक की भी ये सोचकर अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि वो कहीं और तो जाएगा नहीं, फिर उसे जोड़े रखने के लिए विशेष प्रयास क्यों. सुशासन का पहला कदम तुष्टिकरण की नीति के त्याग से होकर ही जाता है. चाणक्य से लेकर तुलसीदास तक कई विद्वानों ने एक आदर्श प्रशासक की कई खूबियां गिनाई हैं. इनमें समान व्यवहार सबसे ऊपर है.
'मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान कहुं एक
पालई पोषई सकल अंग, तुलसी सहित विवेक'
तुलसीदास के मुताबिक मुखिया को मुंह की तरह होना चाहिए, जो अलग-अलग तरह के खाने को एकसार करने की क्षमता रखता है. यह सभी अंगों को पालने-पोषने की जिम्मेदारी निष्पक्षता के साथ निभाता है.
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