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#MeToo की सफलता के लिए अभियान की कमजोरियों को दूर करना जरूरी

#MeTooIndia अभियान देश में लैंगिक हिंसा पर चर्चा के लिए बेहद महत्व रखता है. चलो इसे परवान चढ़ाकर कामयाब बनाते हैं

Tara Kaushal

आज से तकरीबन साढ़े 12 साल पहले मैं डीएनए के एडिटर-इन-चीफ गौतम अधिकारी का इंटरव्यू लेने गई थी. उस वक्त मेरी उम्र महज 22 साल थी. इंटरव्यू के सिलसिले में जब मैं गौतम अधिकारी के केबिन में पहुंची, तो अचानक उसने मुझे पीछे की ओर धकेल दिया. मेरी पीठ बंद दरवाजे से जा लगी. मैं कुछ भी समझ पाती उससे पहले ही गौतम अधिकारी ने मुझे किस करना शुरू कर दिया. यही नहीं उसने अपनी जुबान को मेरे मुंह में डालने की कोशिश भी की थी.

गौतम अधिकारी की करतूतों के खिलाफ आखिरकार संध्या मेनन ने आवाज बुलंद की. संध्या के आरोप जब भारतीय पत्रकारिता में #MeToo अभियान के परिवर्तनकारी पल बने, तब मेरी एक सबसे करीबी दोस्त, जो उस समय की घटना से वाकिफ थी, उसने मुझे बताया कि गौतम अधिकारी के चेहरे से शराफत का नकाब हट चुका है, लिहाजा अब मुझे भी हिम्मत करके दुनिया को अपनी आपबीती बता देना चाहिए. दोस्त की हौसला अफजाई के बाद मुझे भी लगा कि शायद अपनी कहानी सुनाने का यही मुनासिब वक्त है.


क्यों वक्त पर आवाज नहीं उठाती हैं महिलाएं?

हालांकि मैं हमेशा से सहज रूप से यह मानती आई हूं कि किसी भी प्रकार के यौन हमले (उत्पीड़न) के लिए किसी भी महिला को खुद को न तो दोष देना चाहिए और न ही उसे खुद पर शर्म करना चाहिए. इसके बावजूद ऐसी घटनाएं हम महिलाओं के लिए अंतरंग और निजी बातों की श्रेणी में आती हैं. यौन उत्पीड़न हमारे लिए एक ऐसी बुरी चीज या बुरे सपने जैसा होता है, जिसका सार्वजनिक रूप से जिक्र करना हमारे लिए सबसे मुश्किल काम है. जिस वक्त गौतम अधिकारी ने मुझ पर यौन हमला किया था, उस वक्त मैं पत्रकारिता में नई-नई आई थी. मैं एक फ्रीलांस राइटर हुआ करती थी. मेरे सामने कई आर्थिक और सामाजिक मजबूरियां थीं. उस वक्त मुझमें गौतम अधिकारी से टकराने के लिए शक्ति और सामर्थ्य भी नहीं था. यही वजह है कि तब गौतम अधिकारी की हरकतों पर मैं खामोश रही.

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साल 2013 में मैं एक बार फिर यौन उत्पीड़न का शिकार बनी. इस बार एक विज्ञापन कंपनी के एग्जिक्यूटिव ने मुझ पर यौन हमला किया था. मैं किसी तरह से उसके कमरे से बचकर निकल भागने में कामयाब हुई थी. इस घटना के अनुभव के बारे में मैंने लिखा भी था. लेकिन तब मैंने उस आरोपी एग्जिक्यूटिव के नाम का जिक्र नहीं किया था. हालांकि अब मैंने उसके नाम का खुलासा कर दिया है. उस वक्त मैंने अपने साथ हुए दुर्व्यवहार की शिकायत पुलिस से इसलिए नहीं की थी, क्योंकि मैं कानूनी पचड़े में नहीं पड़ना चाहती थी. तब मैं अपने खिलाफ मानहानि का केस दायर होने से डरती थी. लिहाजा मैं इस बार भी लगभग खामोश ही रही. लेकिन मेरी चुप्पी ने मेरे गुनहगारों को बच निकलने का रास्ता दे दिया.

#MeToo कैंपेन ने महिलाओं को हिम्मत के साथ-साथ एकजुट होने का मौका भी दिया है. इस अभियान ने महिलाओं को अपनी आपबीती बयां करने की शक्ति प्रदान की है. एक उचित और उपयुक्त प्रक्रिया के अभाव में यौन हमले की शिकार बनीं महिलाएं अब अपने साथ दुर्व्यवहार करने वालों का नाम सार्वजनिक करके उन्हें शर्मिंदा कर रही हैं. लेकिन सवाल यह उठता है कि आगे क्या होगा?

ऐसे मामलों में एक पूंजीवादी समाज में सामाजिक संगठन प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं. बिना गवाह या सबूत के यौन उत्पीड़न के मामलों में कानूनी प्रतिशोध लेना मुश्किल होता है. लिहाजा कानूनी प्रतिशोध की जगह गुनहगार को सामाजिक और आर्थिक परिणाम भुगतने के लिए मजबूर किया जा सकता है. यानी आरोपी को उस मकाम तक पहुंचाया जा सकता है जहां पर उसके सामने अपने गुनाह को स्वीकार करने के सिवा और कोई रास्ता न बचे. मतलब साफ है कि गुनहगारों को कठघरे में खड़ा करने का वक्त आ गया है यानी # TimesUp.

पटरी से उतर भी सकता है आंदोलन

लेकिन, ऐसी कुछ चीजें ऐसी हैं जो इस आंदोलन को पटरी से उतार सकती हैं. जाहिर तौर पर उनमें से एक है, झूठे आरोप. अगर फैसला जनता की अदालत में होगा, तो लोगों की विश्वसनीयता परखने के लिए बुनियादी फिल्टर का होना अनिवार्य है. हमें यह पता लगाना होगा कि क्या किसी अज्ञात ट्विटर या फेसबुक अकाउंट से तो किसी व्यक्ति विशेष पर आरोप नहीं लगाए गए हैं. हमें आरोप लगाने वाली/वाले की मंशा और विश्वसनीयता की भी छानबीन करना होगी.

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हालांकि शिवम विज ने तर्क दिया है कि राइट विंग ट्रोल इस आंदोलन में सहयोग करने की कोशिश नहीं करेंगे. ऐसा इसलिए क्योंकि यह आंदोलन उनकी विचारधारा और नैतिकता के पैमाने से मेल नहीं खाता है. ऐसा ही कुछ द वायर के संपादकों के खिलाफ लगे आरोपों के मामले में होता नजर आ रहा है. क्या लेखक वरुण ग्रोवर और हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार कुणाल प्रधान की तरह लोग खुद पर लगे आरोपों पर सही वक्त पर आगे आकर सफाई देंगे? कौन पीड़ित है, कौन गुनहगार है? इस बात का स्पष्ट होना बेहद जरूरी है. इसके अलावा आरोपों में छिपे किसी भी तरह के राजनीतिक या आर्थिक एजेंडे की भी पड़ताल की सख्त जरूरत है.

यौन उत्पीड़न के मामलों में अक्सर कोई गवाह नहीं होता है. ऐसे में किसी पर आरोप लगाना जितना आसान होता है, उतना ही आरोपी का उनसे मुकरना. लिहाजा पीड़ित को चाहिए कि वह पूरे विवरण के साथ अपनी बात सार्वजनिक करे. बरसों पहले मेरे साथ जो घटनाएं घटी थीं, उनका तब का विवरण और मेरे हालिया बयानों में जो विवरण है वह समान है. यानी मेरे हर विवरण की पुष्टि की जा सकती है. मेरी तरह ही यौन उत्पीड़न की शिकार कई अन्य महिलाओं के साथ भी ऐसा ही है. इनमें नाना पाटेकर के खिलाफ आरोप लगाने वाली तनुश्री दत्ता और पूर्व एडिटर एमजे अकबर पर आरोप लगाने वाली कुछ महिला पत्रकार भी शामिल हैं.

यौन उत्पीड़न को समझना भी होगा

दूसरी अहम बात यह है कि किसी भी महिला के आरोपों और जनता की प्रतिक्रिया पर अपनी कोई राय बनाने से पहले हमें कुछ अन्य पहलुओं पर गौर करना होगा. दूर्वा बहुगुणा के शब्दों में कहें तो, हमें यौन उत्पीड़न के आरोपों और स्कैंडल में फर्क समझना होगा. जैसे कि लेखक चेतन भगत का मामला ही ले लीजिए. चेतन भगत पर एक महिला ने वॉट्सएेप मैसेज के जरिए बहलाने-फुसलाने और प्रणय निवेदन करने के आरोप लगाए हैं. आरोप लगने के बाद चेतन भगत ने इस मामले में अपनी सफाई भी दी और माफी भी मांगी. लेकिन क्या यह वाकई यौन हमले या यौन उत्पीड़न का मामला था? क्या एक शादीशुदा व्यक्ति का किसी महिला से फ्लर्ट करना उसका यौन उत्पीड़न माना जाना चाहिए? इस सवाल के जवाब के लिए हमें फ्लर्ट और उत्पीड़न का फर्क समझना होगा. दरअसल वासना, प्यार, सेक्स और रोमांस हर मानव के अस्तित्व का आंतरिक हिस्सा होते हैं. लेकिन समस्या तब खड़ी होती है जब कोई व्यक्ति फ्लर्ट की सीमाएं लांघकर उत्पीड़न पर उतर आता है.

दूर्वा बहुगुणा के मुताबिक, 'एक लड़का (कुंवारा हो या शादीशुदा) अगर आपको कहीं बाहर घुमाने ले जाने के लिए पूछ रहा है तो उसे उत्पीड़न नहीं माना जाएगा. आप के न कहने के बावजूद भी अगर वह जिद करता है, आप के न कहने पर अगर वह अपनी ताकत से आप के जीवन को प्रभावित करने की कोशिश करता है, आपके न कहने के बाद अगर वह आपको बेइज्जत या शर्मिंदा करता है, तो यह उत्पीड़न माना जाएगा.'

मेरा उसूल है कि मैं उन लोगों को माफ करती आ रही हूं, जिन्होंने मुझसे प्यार का इजहार किया या जिन्होंने मुझ पर डोरे डालने की कोशिश की. लेकिन माफी में हमेशा से मेरी एक शर्त शामिल रही है. वो शर्त यह है कि मुझ पर अपना भाग्य आजमाने वाले ने अगर मेरा इनकार सुनकर अपने कदम वापस खींच लिए, तभी मैं उसे माफ करती हूं. लेकिन यह फॉर्मूला कार्यस्थलों (दफ्तरों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों) में कई बार कारगर साबित नहीं होता है. ऐसा इसलिए क्योंकि कार्यस्थलों पर शक्ति संतुलन आमतौर पर बहुत जटिल होता है.

इसके अलावा, हमें उत्पीड़न के सूक्ष्म भेद को भी समझने की जरूरत है. किसी भी महिला को अपनी आपबीती कहने का अधिकार है. अलग-अलग लोगों पर किसी घटना का आघात या अनुभव व्यक्तिगत होता है. जैसे कि कुछ लोग महज तीन फीट गहरे पानी में डूबकर मर जाते हैं, जबकि कुछ लोग अथाह गहरे समुद्र में डूबने पर भी जिंदा बच जाते हैं. कहने का मतलब यह है कि सभी अपराधों की सजा समान नहीं हो सकती है. किसी को एक पल से ज्यादा लंबा गले लगना (हग करना) भी अपराध हो सकता है. उसे उत्पीड़न, भद्दे और अवांछित शारीरिक संपर्क या रेप के दायरे में माना जा सकता है.

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इस समय आपसी सहमति और महिलाओं के मानवाधिकार के मुद्दे पर चर्चाएं अपने चरम पर हैं. महिलाओं की मर्जी का उल्लंघन या उनकी निजता में अतिक्रमण जैसे अपराधों की वर्तमान में एक ही सजा है. बरसों के दमन के बाद महिलाओं के लिए यह अब स्वभाविक बात हो गई है. लेकिन यह बात बहुत खतरनाक साबित हो सकती है. एक तरह से यह पुरुषों और महिलाओं के लिए द्विगुण बनता जा रहा है. इससे पारस्परिक संबंध प्रभावित हो रहे हैं. लेकिन महिलाओं के जरा सी छूट देने और बेख्याली में रहने से उन्हें उत्पीड़न का शिकार बनने में देर नहीं लगती है. जो लोग यह कहते हैं कि हर बुरी डेट रेप नहीं होती है, वे शायद स्थिति की गंभीरता को समझ नहीं पा रहे हैं. लेकिन आपको पता होना चाहिए कि उनके कहने का क्या मतलब है.

गुनहगारों की पहचान और सजा तय करनी क्यों मुश्किल होगी?

एक बार हम गुनहगारों की पहचान कर लें, फिर उनकी सजा तय करना आसान होगा. पॉक्सो एक्ट के हालिया संशोधन के बारे में मैंने जिन चीजों की भविष्यवाणी की है, उनपर बहुत ही कम रिपोर्टिंग हुई है. दरअसल संशोधित पॉक्सो एक्ट में बच्चों से रेप के गुनहगारों के लिए मौत की सजा का प्रस्ताव रखा गया है. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या कोई मासूम बच्चा अपने दादा या चाचा या चाची को अपराधी के तौर पर पहचानने में सक्षम होगा. सवाल यह भी उठता है कि क्या कोई बच्चा यह समझ सकता है कि उसकी शिनाख्त से कोई व्यक्ति फांसी के फंदे पर चढ़ाया जा सकता है? क्या ऐसी स्थिति में माता-पिता अपने बच्चे के साथ हुई ज्यादती की शिकायत दर्ज कराएंगे? यानी कई बार हालात ऐसे बन जाते हैं कि फैसला करना मुश्किल हो जाता है. उस स्थिति में लोग यौन उत्पीड़न की शिकायत करने के बजाए खामोश होकर बैठ जाते हैं. मतलब साफ है कि महिलाओं के सामने दुविधाएं कम नहीं हैं. लिहाजा दुविधाओं के चलते वे फिर से यौन उत्पीड़न के खिलाफ चुप्पी साध सकती हैं. 90 के दशक में मेरी मां ने भी ऐसा ही किया था. मां ने अपने साथ रेप की कोशिश करने वाले शख्स के खिलाफ महज इसलिए शिकायत दर्ज नहीं कराई थी, क्योंकि उन्हें आरोपी की पत्नी और उसके बच्चों की चिंता थी.

कॉमेडियन तन्मय भट्ट का मामला ही लीजिए. तन्मय को अपने साथी कॉमेडियन उत्सव चक्रवर्ती द्वारा एक महिला के यौन उत्पीड़न की जानकारी थी. लेकिन इसके बावजूद तन्मय भट्ट ने अपने साथी के खिलाफ पर्याप्त कदम नहीं उठाए. तो क्या तन्मय भट्ट को उत्सव चक्रवर्ती के बराबर गुनहगार माना जाना चाहिए? शायद नहीं. हालांकि, अब दोनों ही एआईबी से अलग हो गए हैं. उसी तरह से एमजे अकबर मामले में सीमा मुस्तफा का रवैया भी सवालों के घेरे में है.

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दरअसल सीमा मुस्तफा को एमजे अकबर द्वारा एक महिला के उत्पीड़न के बारे में पता था. हाल ही में सीमा ने एक लेख लिखकर अकबर की हरकतों का बचाव करने की कोशिश की है. तो क्या सीमा को उस वेबसाइट की नौकरी से बेदखल कर देना चाहिए जहां वह एडिटर के पद पर तैनात हैं? एमजे अकबर की बात की जाए तो वह देश के विदेश राज्य मंत्री हैं. फिलहाल अकबर सरकारी काम से देश से बाहर हैं. देखते हैं कि उनके देश लौटने पर सरकार क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करती है.

अब एक बार फिर से उन लोगों की बात कर ली जाए जिन्होंने मेरा यौन उत्पीड़न किया था. गौतम अधिकारी को सेंटर फॉर अमेरिकन प्रोग्रेस में अपना पद छोड़ना पड़ गया है. यकीनन अब उसे महिलाओं के उत्पीड़क के तौर पर याद किया जाएगा. उसके लिए यह सजा पर्याप्त है. चूंकि विज्ञापन कंपनी के एग्जिक्यूटिव को किसी तरह का कोई सामाजिक या आर्थिक खामियाजा नहीं भुगतना पड़ा है, लिहाजा मैं उसके खिलाफ राष्ट्रीय महिला आयोग में शिकायत करने जा रही हूं.

#MeTooIndia अभियान देश में लैंगिक हिंसा पर चर्चा के लिए बेहद महत्व रखता है. चलो इसे परवान चढ़ाकर कामयाब बनाते हैं.