पिछले साल जब हॉलीवुड में प्रोड्यूसर हार्वे वाइन्स्टीन पर यौन शोषण के आरोप लगने के साथ एक बड़ा अभियान खड़ा हुआ था, तब #MeToo अभियान के जरिए बहुत सी बड़ी अभिनेत्रियों ने अपने करियर के दौरान अपने साथ हुई यौन शोषण जैसी घटनाओं का जिक्र किया था. तब भारत में भी इसकी खूब चर्चा हुई थी, लेकिन यहां असली भूचाल तो अब आया है. भारत का अपना मी टू अभियान अब शुरू हुआ है और अब इसकी चपेट में मीडिया और फिल्म इंडस्ट्री से कई चेहरे आ रहे हैं.
अभिनेत्री तनुश्री दत्ता के नाना पाटेकर पर यौन शोषण के आरोप लगाने के बाद से फिल्म इंडस्ट्री से विकास बहल, रजत कपूर, आलोक नाथ जैसे कई नाम सामने आए हैं. मीडिया में भी कई जर्नलिस्ट्स पर उनकी महिला सहकर्मियों ने ये आरोप लगाए हैं. कॉमेडी डायस्पोरा से भी बड़े-बड़ों के चेहरे उघड़ते दिखाई दे रहे हैं.
भारत में 'चल पाएगा' #MeToo?
लेकिन भारत में ये अभियान किस ओर जाएगा, ये बहुत ही मुश्किल सवाल है. पिछले कुछ सालों में हमारे लिए चीजें हमारे लिए बहुत जल्दी बासी होने लगी हैं. अब ट्रेंड्स आते हैं और चले जाते हैं. जब भी कोई गंभीर मुद्दा चल रहा होता है, कुछ दिनों तक सबका ध्यान उस ओर होता है, फिर जल्द ही उब जाने पर हमनी अपनी भूख के लिए कुछ और ढूंढने लगते हैं. और ये कहा भी जाता है, ‘अरे ऐसे ही कुछ न कुछ आता रहता है, ये भी चला जाएगा.’ मी टू में ऐसी प्रतिक्रियाएं भी आ गई हैं. और ये भी सुन लिया है कि भारत में ये अभियान नहीं चल पाएगा. इससे ज्यादा कुंठित समाज क्या ही हो सकता है?
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यहां मेरे साथ क्या हुआ, या किसी और के साथ क्या हुआ, उसपर बात नहीं. जो सवाल उठ रहे हैं उनपर सवाल उठाया जाएगा. तनुश्री दत्ता के सामने आने पर जो सवाल उठाया गया, वो ये कि वो 10 साल तक क्या कर रही थीं? उन्हें ये क्यों नहीं पता कि तनुश्री ने उस वक्त भी ये मुद्दा उठाया था, लेकिन उनकी मदद के लिए कोई खड़ा नहीं हुआ, ये जानकारी भी पब्लिक में है, इस बारे में भी उन्हें क्यों नहीं पता? और अगर मान लेते हैं कि तनुश्री ने ये मुद्दा फिर से 10 साल बाद उठाया है, तो इसमें बुरा क्या है?
देर से रिपोर्ट करने के पीछे क्या वजह है?
पिछले एक साल में इस अभियान के तहत मिली हिम्मत से कई महिलाओं ने अपनी आवाज उठाई है. क्या ये बात बहुत बड़ी अजूबा है कि अगर आपको पता है कि आपकी आवाज नक्कारखाने में तूती बनकर रह जाएगी और उल्टा आपको ही इसके अंजाम भुगतने पड़ेंगे क्योंकि आप इस लड़ाई में अकेले होंगे, तो आप अपनी लड़ाई का बिगुल नहीं बजाएंगे. इतना बड़ा क्रांतिकारी आम तौर पर फिल्मी दुनिया से इतर तो कोई नहीं होता. यहां लोग वर्कप्लेस या आम रूटीन में हो रहे अन्याय पर स्टैंड नहीं लेना चाहते तो आप किसी से ये उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वो यौन शोषण जैसे केस में अपना झंडा बुलंद कर दे?
यौन शोषण जैसा मामला, जिसका सबसे बड़ा नुकसान खुद विक्टिम को भुगतना होता है. अगर वो सामने न आए तो उस दर्द और ग्लानि के साथ जिंदगी गुजारे या सामने आए तो पचहत्तर तरह की गपशपों का मुद्दा बने. कोई ऐसी नियति नहीं चुनना चाहता. सबको सपोर्ट चाहिए होता है और इस अभियान ने, इतनी सारी महिलाओं के सामने आने से इन मामलों की पीड़िताओं को सपोर्ट मिला है. हमारी सोसाइटी इतनी कुंठित है कि हम किसी भी असहज करने वाली बात को अपनी नाक के ऊपर नहीं जाने देना चाहते. तनुश्री के सामने आने पर कहा जा रहा था कि बिग बॉस में एंट्री करने के लिए वो गड़े मुर्दे उखाड़ रही हैं. सोसाइटी की कुंद बुद्धि का इससे अच्छा नमूना नहीं मिल सकता.
टीनएज में हुई घटनाओं के लिए निशानदेही या नहीं?
इसके अलावा एक और सवाल है, जो उठाया गया है. वो ये कि- सालों पहले या टीनएज में हुई घटनाओं के लिए किसी को क्यों निशानदेह किया जाना चाहिए? ये बात सही है कि हो सकता है कि वो गलती अनजाने में हुई हो (जिसकी कम ही संभावना है), या फिर उस घटना के बाद के सालों में उस व्यक्ति ने साफ-सुथरी जिंदगी गुजारी हो. लेकिन क्या इससे उस घटना को जस्टिफाई किया जा सकता है? या उस घटना को यूं ही जाने देना चाहिए?
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अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के जज बने ब्रेट कैवेनॉ के नॉमिनेट होने पर उनके खिलाफ यौन शोषण के आरोप लगे, जो उन्होंने अपने टीनएज में किया था. इससे इन सवालों को बल भी मिला कि किसी शख्स के टीनएज में लिए गए फैसलों से उसकी पूरी जिंदगी का फैसला कैसे किया जा सकता है, लेकिन क्या उस शख्स की हरकतों से विक्टिम की जिंदगी पर असर नहीं पड़ा था? क्या उसकी जिंदगी को उसकी मर्जी के बगैर डिफेक्ट नहीं किया गया? किसी भी तरह के सेक्सुअल हैरेसमेंट से गुजरी महिलाओं की जिंदगी का एक हिस्सा भोथरा हो जाता है. आप उसे बदल नहीं सकते. इसलिए अगर आवाजें उठ रही हैं, तो उन्हें उठने दीजिए. आरोपी दोषी है या नहीं, इसका फैसला कानून को करने दीजिए.
मर्दों का सेक्सुअली अडवांस होना इतना सामान्य कि उन्हें कुछ पता ही नहीं होता
सबसे बड़ी बात ये है कि औरतों को सेक्सुअल ऑब्जेक्ट के तौर पर देखना और उनसे सेक्सुअली अडवांस होना हमारी सोसाइटी में इतना सामान्य है कि ऐसी हरकतें कर रहे शख्स को कभी-कभी पता भी नहीं होता कि वो सामने वाले को अनकम्फर्टेबल सिचुएशन में डाल रहा है. यहां लोगों को यही नहीं पता कि उनकी आदतों में क्या-क्या शामिल है, जो अपोजिट सेक्स के लिए असहज हो सकता है.
#HeToo जैसी बात करने वालों को उनमें शामिल किया जा सकता है, जो किसी कॉज़ को कमजोर करने की कोशिश करते हैं. यही तो प्रॉब्लम है कि अगर महिला किसी पुरुष के साथ ऐसा करे तो हम उसे तुरंत अपराध की तरह देखते हैं ये समझ में भी आता है लेकिन यही महिला किसी पुरुष पर ऐसे आरोप लगाए तो उसमें पचास पेचीदगियां देखी जाती हैं. दोनों एक ही किस्म के अपराध क्यों नहीं हो सकते? महिलाओं के आरोपों को इतने हल्के में क्यों लिया जाता है?
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उन्हें बोलने दीजिए, बहती गंगा में हाथ धोने बहुत आएंगे
एक बात और आज जब ऐसे आरोप लगने लगे हैं तो तर्क दिए जाते हैं कि आदमियों के साथ भी तो होता है. सवाल ये है कि क्या आप दो साल में थक गए? पुरुषों का खराब वक्त आ गया? अभी तो आपने कुछ नहीं झेला है. सदियों से सेक्सुअल ऑब्जेक्ट बनी महिलाओं का डर आप दो साल में नहीं झेल सकते. खुद को विक्टिम दिखाना बंद करिए. क्योंकि हां, अभी डरने का वक्त है और आपको डरना चाहिए. औरतें बोल रही हैं, हिसाब बराबर करने के लिए नहीं क्योंकि वाे हमेशा के डर को खत्म करना चाहती हैं.
आखिर में, ये स्थापित तथ्य है कि जब कोई अभियान चलता है, जब विरोध के स्वर उठाए जाते हैं, जब लड़ाई का मैदान तैयार किया जाता है, तो वहां कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो बहती गंगा में हाथ धोकर पूरी लहर को मैला कर रहे होते हैं. इस बार भी ऐसा होगा. बहुत सी झूठी आवाजें सच्ची आवाजों को कमजोर करेंगी लेकिन हमें समझना होगा कि ये इनके चलते हमें सारे सर्वाइवर्स पर सवाल नहीं उठाना चाहिए क्योंकि ये वक्त है आवाज उठाने का और आवाज उठनी भी चाहिए.
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