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जिन्ना की तस्वीर पर AMU को फैसला लेना चाहिए, सरकार या उपद्रवियों को नहीं

जिन्ना की हजार तस्वीरों से ज्यादा बड़ा धब्बा तो देश की विरासत पर इन उत्पातियों के कारनामों को कहा जाएगा

Ajay Kumar

छात्रसंघ के हॉल में जिन्ना की तस्वीर को लेकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी फिलहाल विवादों में है. आरोप लगाया जा रहा है कि यूनिवर्सिटी में राष्ट्रभक्ति की कमी है. आखिर जिन्ना भारतीय इतिहास के सबसे बड़े खलनायकों में शुमार हैं और उन्हें देश के बंटवारे का जिम्मेवार बताया जाता है. लेकिन क्या सचमुच देश का बंटवारा भर ही भारत में जिन्ना से जुड़ी एकलौती विरासत है?

गांधी और नेहरु के साथ जिन्ना ने भी देश की आजादी की लड़ाई लड़ी थी. पाकिस्तान की मांग उठने के ऐन पहले तक इस देश की कहानी में वे भी उतने ही अहम राष्ट्रीय नेता माने जाते थे जितने कि बाकी राजनेता. पाकिस्तान की मांग उठने के बाद भी नेहरु और गांधी ने जिन्ना से नाता नहीं तोड़ा. भारत की आजादी की मांग में सबकी आवाज शामिल थी, उस वक्त तमाम पार्टियों ने ये मांग बुलंद की थी. हां, आजाद भारत कैसा हो- इसको लेकर बाकी पार्टियों और जिन्ना की राय में अलगाव जरूर था और इसी कारण विवाद चलता है कि जिन्ना को याद करना राष्ट्रभक्ति कहलाएगा या नहीं.


जिन्ना की विरासत को 'बंटवारे का चश्मा' उतारकर देखें

किसी जिक्र की जमीन पर जिन्ना को ठीक-ठीक परखने के लिए जरूरी है कि हम उनकी विरासत को महज ‘बंटवारे’ के चश्मा उतारकर देखें. जिन्ना लिंकन इन्न के बैरिस्टर थे. उन्होंने मुंबई (तब की बंबई) में अपनी वकालत शुरू की. उन्होंने अपनी प्रैक्टिस हाईकोर्ट में शुरू की थी और वकालत के पेशे में नाम कमाया था. हमारे आजादी के आंदोलन से जुड़े एक खास मामले में जिन्ना ने बतौर वकील जिरह की थी.

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यह मामला बाल गंगाधर तिलक से जुड़ा है. पुणे के डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट का मानना था कि तिलक राजद्रोह के भाव जगाने वाली चीजें बांट रहे हैं सो उन्हें अदालत के सामने अपनी तरफ से अच्छे आचरण का इकरारनामा भरना होगा. कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ दायर अपील की तरफदारी में जिन्ना ने बहस की थी. जिन्ना ने बम्बई हाईकोर्ट में तिलक की तरफ से पैरवी की और आदेश को निरस्त करवाने में उन्हें कामयाबी मिली. जिन्ना ने दलील दी कि तिलक की लिखी हुई चीजें दंड-संहिता की धारा 124-ए के अंतर्गत राजद्रोह की श्रेणी में नहीं आती क्योंकि तिलक ने अपने लेख में सिर्फ होम-रूल के पक्ष में तर्क रखे हैं. आखिरकार राजद्रोह के मामले में दिया गया डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट का आदेश निरस्त हुआ और तिलक मुकदमे में बरी करार दिए गए.

एक दमदार और यादगार वकील थे जिन्ना

वकील के रूप में जिन्ना की विरासत बड़ी चमकदार है. यहां तक कि जब देश के बंटवारे का ऐलान हो गया और डायरेक्ट एक्शन डे (सीधी कार्रवाई) के नाम पर दंगे-फसाद हो चुके थे तब भी बॉम्बे बार एसोसिएशन ने अपने एक जलसे में उन्हें आमंत्रित किया था. जलसे का आयोजन जिन्ना के सम्मान के लिए किया जाना था क्योंकि उन्होंने वकालत के पचास साल पूरे कर लिए थे. जिन्ना ने यह निमंत्रण स्वीकार नहीं किया क्योंकि उन्हें सम्मानित करने का प्रस्ताव मतों के बड़े छोटे से अंतर से पारित हुआ था जो कि उस वक्त के माहौल और उसके जज्बातों का एक संकेत देता है.

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बाम्बे हाईकोर्ट के म्यूजियम में जिन्ना के बैरिस्टर होने का सर्टिफिकेट हिफाजत से रखा है. म्यूजियम में उनकी एक तस्वीर भी टंगी है और वह अर्जी भी है जिसमें उन्होंने बार एसोसिएशन में दाखिल होने का निवेदन किया था. बॉम्बे बार में बी.आर.आंबेडकर और मोहनदास गांधी ने भी प्रैक्टिस की थी सो जिन्ना की तस्वीर इन दोनों नेताओं के साथ ही टंगी है. जिस म्यूजियम में ये चीजें मौजूद हैं उसका उद्घाटन खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 के फरवरी महीने में किया था. ये बात बड़ी विचित्र है कि संघ अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में टंगी जिन्ना की तस्वीर पर खलनायकी के रंग चढ़ाए जबकि प्रधानमंत्री खुद एक ऐसे म्यूजियम का उद्घाटन करें जिसमें वैसी ही तस्वीर टंगी हो और जहां जिन्ना की यादों से जुड़ी ज्यादा चीजें हों!

ICJ के एडहॉक और ब्रिटेन में भारत के पूर्व उच्चायुक्त एम सी छागला ने जिन्ना को यूं याद किया है

बात सिर्फ बंटवारे से पहले के भारत तक सीमित नहीं, जिन्ना की विरासत से जुड़ी ‘बंटवारे’ के बाद की भी कुछ बातें हैं जिन्हें कहा जाना चाहिए. शायद वकालत के पेशे से जुड़ी अपनी विरासत के लिए जिन्ना सबसे ज्यादा याद किए जाने के काबिल हैं. आजादी मिलने के बाद के वक्त में बॉम्बे हाईकोर्ट के पहले चीफ जस्टिस एम. सी. छागला थे. वे बॉम्बे बार में जिन्ना के जूनियर रह चुके थे. जिन्ना के चैंबर से ही वे अपनी वकालत की प्रैक्टिस करते थे. अपनी आत्मकथा 'रोजेज इन दिसंबर' में छागला लिखते हैं-

'जैसा कि मैं पहले जिक्र कर चुका हूं, मेरे इंग्लैंड रवाना होने से पहले जिन्ना ने वादा किया था कि चाहो तो मेरे साथ मेरे चैंबर में पढ़ाई कर सकते हो. जिन्ना की दमदार शख्शियत ने तो मुझे आकर्षित किया ही था, सबसे ज्यादा आकर्षित हुआ था मैं उनकी उच्च कोटि के राष्ट्रवाद और देशभक्ति के गुणों के कारण. अगर उस वक्त किसी ने मुझसे कहा होता कि जिन्ना एक दिन देश के बंटवारे का कारण बनेंगे तो मैं सोचता कि वो आदमी पागल है. मैंने उनका चैम्बर ज्वाइन किया और उनके साथ छह सालों तक रहा. मैं उनके तैयार किए गए दलीलनामे पढ़ता था, उनके साथ अदालत जाता था और उनकी जिरह सुना करता था. वे बड़ी साफगोई से अपनी बात रखते थे और धाराप्रवाह बोलते थे. मुझे उनकी ये बात सबसे ज्यादा जंचती थी. जिन्ना को अदालत से जो कुछ कहना होता था उसमें किन्तु-परन्तु और अगर-मगर से पैदा होने वाली दोहरे अर्थों की कोई गांठ नहीं हुआ करती थी. वे अपनी बात बेलाग और बेधड़क कहते थे और हमेशा ही उनकी बातों का गहरा असर होता था चाहे उनका मामला अंदरूनी तौर पर कमजोर हो या फिर मजबूत. मुझे याद है, एक दफे उन्होंने एक कांफ्रेंस में सॉलिसिटर से कहा कि जिस मुकदमे में वे पैरवी कर रहे हैं वह एकदम ही लचर है लेकिन अदालत में वे किसी बाघ की तरह लड़े और एक पल को तो मुझे यकीन भी हो गया कि जिन्ना ने अपनी जिरह से बात मनवा ली. बाद के वक्त में जब मैं इस मुकदमे के बारे में उनसे बात करता था वे कहा करते थे कि मामला चाहे जितना भी कमजोर हो एक वकील के रूप में मेरा फर्ज बनता है अपने मुवक्किल के लिए मैं पूरा जोर लगाऊं.'

एम. सी छागला ने जिन्ना के साथ छह साल तक वकालत सीखी लेकिन जब जिन्ना ने देश के बंटवारे की मांग उठाई तो वे जिन्ना को नापसंद करने लगे. लेकिन एक वकील के रूप में छागला की विरासत जिन्ना के साथ बंधी हुई है, चाहे हम उसे इतिहास के रुप में पसंद करें या ना करें. बाद के वक्त में छागला आईसीजे (इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस) में एडहॉक जज बने, ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त नियुक्त हुए और नेहरु सरकार में मंत्री-पद संभाला.

महात्मा गांधी के साथ मुहम्मद अली जिन्ना

जिस देश के लिए गांधी-नेहरु ने लड़ाई लड़ी, उसे अनपढ़ों का देश मत बनाइए

भारत में जिन्ना की एक विरासत है. जिन जगहों पर उन्होंने अहम भूमिका निभाई, जैसे कि एएमयू (अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी), वहां हमें उनकी तस्वीर टांगने की इजाजत होनी चाहिए. एएमयू ने अपने इतिहास में कई अहम शख्सियतों को अपना ऑनरेरी मेंबर (मानद सदस्य) बनाया है. भारत में जिन्ना की विरासत का तकाजा है कि उनकी तस्वीर लगाई जानी चाहिए और ऐसा करना भारत के विरासत की भी एक जरूरत है.

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भारत की विरासत किसी नफरत की देन नहीं. आजादी के बाद के वक्तों में हमने पाकिस्तान के साथ अमन कामय करने की अनगिनत कोशिशें की हैं. भारत के नेता एक बहुलतावादी भारत के लिए लड़े थे जिसकी बुनियाद में हो विचारों की आजादी. अगर कुछ हिंदुस्तानियों को जिन्ना से कोई प्रेरणा मिलती है तो फिर इसमे हर्जा क्या है, होने दीजिए ऐसा! भारत को वैसा ही भारत बनाइए जिसके लिए गांधी और नेहरू ने लड़ाई लड़ी, इसे अनपढ़ों का देश मत बनाइए जो ठोस तर्क का रास्ता अपनाने की जगह एक दिखाई पड़ते प्रतीक के पीछे पड़कर उसे हटाने पर तुल गए हैं.

जिन्ना की तस्वीर एएमयू की दीवार से हटानी है या नहीं- ये बात एएमयू के दायरे में उठाई जानी चाहिए. खुली बहस होनी चाहिए कि क्या जिन्ना की विरासत अब भी इस लायक है कि उनकी तस्वीर वहां टांगने के काबिल लगे. ये सरकार का काम नहीं है और मामले को उपद्रवियों की उस गैर-जानकार जमात के भरोसे भी नहीं छोड़ा जा सकता जो वह तय करे कि एएमयू के छात्र-संगठन की दीवारों पर किसकी तस्वीर लगाई जाए और किसकी नहीं.

भारत एक आजाद मुल्क है और यहां हम किसी मूर्ति या तस्वीर लगाने या हटाने का फैसला मसले पर पूरी बहस के बाद करते हैं ना कि जज्बातों के जोर में आकर. भारत ने आजादी के बाद के सालों में यह विरासत तैयार की है. यह आजादी और लोकतंत्र की विरासत है. जान पड़ता है कि उत्पातियों की हाल-फिलहाल की करतूतों को सरकार की भी शह हासिल है. जिन्ना की हजार तस्वीरों से ज्यादा बड़ा धब्बा तो देश की विरासत पर इन उत्पातियों के कारनामों को कहा जाएगा.