अखंड भारत ब्रिटिश गुलाम से निकल पाता उसके पहले ही पाकिस्तान यानी मुस्लिमों के लिए अलग देश बनाने की मांग करने वाले मुहम्मद अली जिन्ना को हम भारत में आज क्यों याद कर रहे हैं? मुल्क की आजादी के सत्तर साल बाद भी हम एक ऐसे आदमी को याद करने पर क्यों मजबूर हैं जिसने लाखों लोगों की मौत पर पाकिस्तान की नींव रखी. महज एक तस्वीर के लिए? नहीं वो तो संसद में भी लगी है. दरअसल तस्वीर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में लगी है! मुस्लिम यूनिवर्सिटी और पाकिस्तान बनाने वाले जिन्ना का कॉम्बिनेशन ही इस याद की असली जड़ है.
1938 में भारत जब अविभाजित था तब AMU छात्रसंघ के पदाधिकारियों ने जिन्ना को मानद आजीवन सदस्यता से नवाजा था और यह तस्वीर भी तभी लगाई गई थी.
अलीगढ़ से बीजेपी सांसद सतीश गौतम ने AMU के वीसी को पत्र लिखा और मुद्दा देखते ही देखते राजनीतिक हो गया. लेकिन ऐसा पहली बार नहीं है जब जिन्ना की याद किसी बीजेपी नेता को आई हो. तकरीबन 13 साल पहले बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी को जिन्ना याद आए थे. याद भी क्या आए थे आडवाणी जी पाकिस्तान गए थे. वहां उन्होंने जिन्ना की तारीफ में कसीदे पढ़े, तो उन्हें भारत आकर पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा था.
2005 में अपने पाकिस्तान दौरे पर आडवाणी जिन्ना के मकबरे पर गए थे और वहां मौजूद आगंतुक रजिस्टर में लिखा, ‘ऐसे कई लोग हैं जो इतिहास पर अपनी अमिट पहचान छोड़ जाते हैं. लेकिन बहुत कम लोग हैं जो वास्तव में इतिहास बनाते हैं, कायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना एक ऐसे ही दुर्लभ व्यक्ति थे.’
आडवाणी यहीं नहीं रुके उन्होंने आगे लिखा ‘अपने शुरुआती सालों में, भारत की स्वतंत्रता संग्राम की अग्रणी सरोजिनी नायडू ने श्री जिन्ना को 'हिंदू-मुस्लिम एकता के राजदूत' के रूप में वर्णित किया था. 11 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान की संविधान सभा को संबोधित करते हुए उनका बयान वास्तव में उत्कृष्ट था, एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का सशक्त अनुरक्षण जिसमें, हर नागरिक अपने धर्म का अभ्यास करने के लिए स्वतंत्र होगा, राज्य नागरिकों की आस्थाओं के आधार पर उनके बीच कोई अंतर नहीं करेगा. इस महान व्यक्ति को मेरी आदरणीय श्रद्धांजलि.’
इसके बाद आडवाणी को लेकर चर्चाओं का दौर शुरू हुआ. खबरें आईं कि इस बयान के बाद RSS और आडवाणी के बीच दूरियां बढ़ गईं. अभी बीजेपी 2004 की हार से ही बाहर नहीं आ पाई थी, ऐसे में पार्टी अध्यक्ष आडवाणी का जिन्ना का समर्थन करना भारी पड़ गया. पार्टी ने आडवाणी के इस बयान से किनारा कर लिया और आरएसएस ने सबके सामने आडवाणी के बयान से असहमति जताई थी. हालांकि आडवाणी ने अपने इस बयान का खंडन करने इनकार कर दिया और पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया.
आडवाणी के बाद 2009 में जिन्ना ने बीजेपी को परेशान किया. अब बारी थी जसवंत सिंह की. इस बार वाजपेयी सरकार में मंत्री रह चुके जसवंत सिंह को जिन्ना का समर्थन करने के बाद पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था.
जसवंत सिंह ने अपनी बुक 'Jinnah- India, Partition, Independence' में जिन्ना को अप्रत्यक्ष रूप से नायक बताया था उन्होंने जिन्ना को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने के लिए कांग्रेस और जवाहरलाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराया था. इसके बाद जसवंत सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. इसके बाद आडवाणी ने उन्हें पार्टी में वापस लाने के लिए अहम भूमिका निभाई.
अपनी बुक रिलीज करने के बाद वरिष्ठ पत्रकार करण थापर को CNN-IBN को दिए इंटरव्यू में जसवंत सिंह ने कहा था ‘मैं जिन्ना की शख्सियत से प्रेरित था, जिसका परिणाम यह किताब है. यदि मैं उनकी शख्सियत को पसंद नहीं करता हूं तो यह किताब नहीं लिखता.’
किताब में गांधी और जिन्ना की तुलना करते हुए लिखा गया कि गांधी की राजनीति में कहीं न कहीं धार्मिक झुकाव दिख जाता था, जबकि जिन्ना एक सेक्युलर ( Non-Sectarian) और राष्ट्रव्यापी एप्रोच रखते थे.
AMU विवाद के बाद बीजेपी नेता और योगी सरकार में मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने भी जिन्ना की तारीफ की थी. मौर्य ने कहा था कि जिन्ना भारत के महान पुरुष थे. बंटवारे से पहले जिन्ना का भी देश के लिए योगदान था. मौर्य के इस बयान पर विपक्ष टूट पड़ा और मौर्य ने अपने ही बयान से किनारा कर लिया. इसके बाद यूपी के मुख्यमंत्री ने मौर्य के बयान पर कहा कि पार्टी का मत स्पष्ट है जिन्ना देश के दुश्मन हैं.
एक बात तो साफ है कि कोई भी भारतीय जिन्ना को महान नहीं बता सकता, लेकिन हमें यह भी पता होना चाहिए जिन्ना इतिहास हैं. हमें भारत का इतिहास जानने के लिए भी जिन्ना को जानना जरूरी है. जिन्ना को यूनिवर्सिटी में पढ़ाने से या फोटो लगाने से भारत को कोई भी नुकसान नहीं होने वाला. जिन्ना के बारे में हर किसी के अपने निजी विचार हो सकते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि जिन्ना का नाम ही भारतीय इतिहास से मिटा दिया जाए.
आखिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि जो तस्वीर 1938 वहां मौजूद है यदि वह नहीं हटाई जाती तो देश की अखंडता पर सवाल खड़े हो जाएंगे. एक तरफ युवा वाहिनी जिन्ना की फोटो पर इतना नाराज थी कि वह अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में जबरदस्ती घुस गई तो दूसरी तरफ उनकी सरकार में मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य पर जिन्ना की तारीफ करने के लिए पार्टी की तरफ से कोई कार्रवाई नहीं की गई. यहां तक कि पार्टी के अंदर से ही मौर्य पर कार्रवाई करने की मांग उठ रही थी. स्वामी प्रसाद मौर्य इससे पहले बीएसपी में थे. इसके अलावा उनका यह बयान उनके राजनीतिक भविष्य के आढ़े भी आता रहेगा. जहां मौर्य को यूपी में एक उभरते नेता के तौर पर देखा जा रहा था, ऐसे में उनके इस बयान को पार्टी नेता कभी स्वीकार कर पाएंगे?
1940 के दशक के जिन्ना तो शायद इस देश में किसी को भी पसंद न हों. चूंकि जिन्ना का सबसे बड़ा योगदान पाकिस्तान बनाना ही है इस वजह से उनके बारे में हर याद नासूर बनके ही आती है. रही बात वैचारिक स्थिति तो भारतीय जनता पार्टी के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का हिंदूवादी झुकाव जिन्ना को किसी भी रूप में याद करने से रोकता है. ऐसी स्थिति में अगर कोई भी पार्टी नेता जिन्ना की बड़ाई या प्रशंसा में कुछ भी बोलता है तो उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.
जिन्ना से भारत में कौन प्यार करता होगा? शायद ही कोई हो जो उन्हें हीरो के तौर पर देखता हो! लेकिन बात जब राजनीतिक हो और उस पर से आपका संगठन ने अपनी सैद्धांतिक जगह ली हुई हो तो आपको आडवाणी या जसवंत सिंह की तरह मुश्किलें तो आएंगी ही. नैतिक तौर पर तो AMU में मौजूद उस तस्वीर को यूं ही हटा दिया जाना चाहिए था लेकिन अब जब विवाद बढ़ता जा रहा है तो इसकी जड़ हम पिछले सालों के बीजेपी नेताओं में ढूंढें तो शायद मिल जाए.
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