पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल का 10 सितंबर से प्रस्तावित जम्मू-कश्मीर दौरा घाटी में कांग्रेस की खोई जमीन तलाशने की कवायद है अथवा इसका सरकार द्वारा नई पहल की मंशा जताने से कोई संबंध है?
गौरतलब है कि केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी 9 सितंबर से घाटी का चार दिन का दौरा शुरू कर चुके हैं. इधर डाॅ मनमोहन सिंह 10 सितंबर को जहां जम्मू में रहेंगे, वहीं 16 सितंबर को कश्मीर घाटी का दौरा करेंगे. कांग्रेस सूत्रों के अनुसार डाॅ सिंह बाद में लद्दाख भी जाएंगे. साल 2014 में कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने के बाद डाॅ सिंह पहली बार इस सीमाई राज्य के दौरे पर जा रहे हैं.
जम्मू-कश्मीर सेल के मुखिया के तौर पर है ये दौरा
हालांकि, बतौर प्रधानमंत्री अपने 10 साल के कार्यकाल में डाॅ सिंह आठ बार जम्मू-कश्मीर के दौरे पर गए. उस दौरान उन्होंने घाटी के लिए मोटे आर्थिक पैकेज भी लागू किए, जिनमें रेलवे लाइन का विस्तार और अनेक बिजली परियोजना शामिल हैं. फिलहाल डाॅ सिंह, कांग्रेस द्वारा अप्रैल में जम्मू-कश्मीर के लिए गठित विशेष सेल के मुखिया की हैसियत से राज्य के हालात का जायजा लेने जा रहे हैं.
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डाॅ सिंह ने कश्मीर संकट को हल करने के लिए पहल तो अनेक कीं मगर उनका वांछित लाभ नहीं मिल पाया. अलबत्ता उनके कार्यकाल में राज्य के बुनियादी ढांचे में सुधार, पर्यटन और शिक्षा सुविधाएं बढ़ने से राज्य में लोगों की आमदनी बढ़ी और जीवन स्तर भी सुधरा. पंचायत से लेकर विधानसभा और लोकसभा चुनाव में लोगों की भागीदारी बढ़ने से आतंकवादियों के हौसले भी पस्त रहे.
हालांकि, घाटी में सैन्य शिविरों और विधानसभा के आसपास हमले से लेकर मुंबई में 26/11 के भीषण नरसंहार तक आतंकवादियों ने हालात बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. इसके बावजूद राज्य में लगातार बातचीत के दौर चलने से लोगों की फौरी शिकायतों का हाथों-हाथ निवारण भी होता रहा, जिसकी फिलहाल भारी कमी महसूस की जा रही है.
राजनीतिक और आर्थिक हल का दौर
डाॅ मनमोहन सिंह ने घाटी की समस्या के आर्थिक हल पर ज्यादा जोर दिया जबकि उनसे पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिक हल पर जोर देते रहे. डाॅ मनमोहन सिंह ने साल 2004 के मई महीने में प्रधानमंत्री बनने के बाद वाजपेयी द्वारा घाटी में की गई पहल का सिरा पकड़कर ही अपने कदम बढाए.
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डाॅ सिंह ने नवंबर 2004 में जम्मू-कश्मीर के लिए 24,000 करोड़ रूपए के आर्थिक पैकेज की घोषणा की. बाद में इसे बढ़ाकर 30,000 करोड़ रूपए किया मगर इसके समानांतर राजनीतिक उपायों के अभाव में इसका जमीनी स्तर पर कोई खास प्रभाव नहीं दिखा. उनके मुकाबले वाजपेयी ने तो कुल 6,700 करोड़ रूपए की मदद की घोषणा की और उसके साथ ही जमीनी स्तर पर राजनीतिक संवाद कायम रखा जिसकी वजह से आपसी विश्वास बढ़ा और 2002 का विधानसभा चुनाव सबसे अधिक विश्वसनीय रहा. उन्होंने अपने उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी से अलगाववादी नेताओं की बात कराई और एनएन वोहरा को वार्ताकार बनाया.
वाजपेयी सरकार के 2004 में चुनाव हारने के बाद यूपीए ने कमान संभालकर बातचीत और सुलह-सफाई की नीति को ही बढ़ावा दिया. पाकिस्तान से आतंकवादी वारदातों के बावजूद घाटी में हालात सुधरते रहे मगर उसी बीच अमरनाथ मंदिर परिषद के लिए जमीन अधिग्रहण की तैयारी का मसला उछला और हालात फिर बिगड़ गए. कश्मीर और दिल्ली के बीच बनता भरोसा टूट गया और घाटी सुलगने लगी.
2008 में यूपीए ने किया अच्छा काम
उसी बीच 2008 का विधानसभा चुनाव आया जो बेहद मुश्किल साबित हो सकता था, मगर कांग्रेस ने नियंत्रण रेखा के आर-पार पहले बस सेवा और फिर व्यापार शुरू करवाकर हालात सुधारने के लिए फिर बड़ी पहल की. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी चुनाव से ऐन पहले अक्टूबर 2008 में घाटी आए और अन्य आर्थिक उपाय किए. नतीजन 2008 के विधानसभा चुनाव में यूपीए की उम्मीद से ज्यादा लोगों ने वोट डाला.
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साल 2009 के लोकसभा चुनाव में लोगों ने और भी अधिक संख्या में मतदान किया. 2009 के अक्टूबर में प्रधानमंत्री सिंह फिर घाटी में आए. दक्षिण कश्मीर में भीड़ भरी सभा में उन्होंने फिर आर्थिक विकास की बात की. कौशल विकास के लिए 300 युवाओं को और 800 युवाओं को सालाना आईटीआई प्रशिक्षण देने, दो केंद्रीय विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा की. 385 करोड़ की लागत से मुगल विरासत सड़क बनाने, डल झील की सफाई व संवारने पर 365 करोड़ की योजना आदि के लिए पैसा देने को भी कहा.
आर्थिक विकास पर था ज्यादा जोर
सिंह के भाषण में 80 फीसद बात आर्थिक मुद्दों पर ही थी. उन्होंने साफ किया कि सबसे बात करेंगे बशर्ते उनके पास कोई सार्थक सुझाव हो. पी चिदंबरम की परदे के पीछे से चली ‘शांत राजनय’ की नीति का भी अच्छा असर दिखा.
मीरवाइज उमर फारूक नीत हुर्रियत गुट ने आपस में बात करके केंद्र सरकार से सहयोग का ऐलान किया मगर छह महीने यूं ही निकल जाने पर उन्होंने केंद्र की मजम्मत की. गलियों में प्रदर्शन शुरू हो गए, हालांकि आतंकवादियों की बंदूकें शांत रहीं, मगर पत्थरबाजी कहीं अधिक परेशानी का सबब बनी.
वाजपेयी ने कश्मीरियत और इंसानियत के दायरे में बात करने की पेशकश की थी, जिसे हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी लालकिले की प्राचीर से दोहराया है. उनके कार्यकाल में भी जम्मू-कश्मीर विधानसभा पर, संसद पर और सेना पर हमलों का सिलसिला चलता रहा और उनके बावजूद वाजपेयी की इस दरियादिली को अवाम ने सराहा भी. वाजपेयी ने अवाम की भावना समझ कर पाकिस्तान से भारत के रिश्तों को भी फिर से पटरी पर लाया.
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मनमोहन ने भी उसी थ्योरी पर आगे काम किया मगर 26/11 के मुंबई हमले ने बातचीत विरोधियों को हावी कर दिया. इसलिए वे अपनी मुहिम को तेज नहीं कर पाए. वाजपेयी ने लाहौर बस यात्रा, आगरा में मुशर्रफ से बातचीत और 2003 में श्रीनगर में की गई पहल आदि के माध्यम से लगातार पहल और कश्मीर में हालात सुधारने के प्रति अपनी गंभीरता का परिचय दिया था.
नया कश्मीर बनाने का किया था वादा
मनमोहन ने जुलाई 2007 में जम्मू विश्वविद्यालय से डी लिट् की मानद डिग्री लेते समय नया कश्मीर बनाने का वादा किया था और युवाओं से उसमें मदद मांगी थी. राज्य में जिला स्तर पर ज्ञान केंद्र बनाने का सुझाव दिया था. उन्होंने लोगों को राजा जम्भूलोचन का किस्सा भी सुनाया कि किस प्रकार कभी शिकार पर जम्मू के पास से तवी नदी को पार करके वे आगे निकले तो उन्हें शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते दिखे. आश्चर्य से उनका मुंह खुला रह गया और अपने साथियों से इसकी वजह पूछी तो बताया गया यह पुण्यभूमि है. यहां किसी के मन में दूसरे के अहित का विचार ही नहीं आ पाता.
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उन्होंने दोहराया कि इतनी समृद्ध विरासत और सहिष्णुता के लंबे इतिहास के कारण जम्मू-कश्मीर के हालात सुधरने की उम्मीद हमेशा जिंदा रहती है. राज्य की समस्याओं पर मनमोहन ने बतौर प्रधानमंत्री तीन गोलमेज सम्मेलन किए और राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक हरेक पहलू पर खुले दिल से विचार किया. 15 सितंबर, 2010 को कश्मीर पर लगातार तीसरे साल सर्वदलीय बैठक हुई, जिसे हुर्रियत ने खारिज कर दिया.
लेकिन अभी तक नहीं पूरा हुआ सपना
डाॅ सिंह के ही प्रधानमंत्री काल में केंद्र ने तीन वार्ताकार नियुक्त किए थे. 13 अक्टूबर, 2010 को नियुक्त हुए ये वार्ताकार थे- वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगावकर, प्रोफेसर राधा कुमार और सूचना आयुक्त एमएम अंसारी. इन वार्ताकारों ने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख की महीनों खाक छानकर और लगभग हरसंभव समूह से बात करके अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप दी थी. उसके बावजूद न तो डाॅ मनमोहन सिंह की सरकार और न ही उनके बाद आई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ही पिछले पांच सालों में इस अशांत राज्य की समस्या हल करने को कोई ठोस उपाय नहीं कर पाई.
देखना अब यही है कि पिछले दो साल से लगातार हिंसा की चपेट में आई घाटी को केंद्र सरकार और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के नेताओं का दौरा क्या कोई राहत दिला पाएगा? यूं भी घाटी के हालात अब उस मोड़ पर हैं जहां सरकार और अवाम के बीच विश्वास बहाली बेहद कठिन ही नहीं लंबी और पेचीदा प्रक्रिया भी साबित हो सकती है. बहरहाल, देर आयद-दुरूस्त आयद की तर्ज पर देश के राजनीतिक प्रतिष्ठान द्वारा देष के सबसे अधिक संकटग्रस्त सूबे की सुध लेना और वहां हालात सामान्य करने की पहल करना निश्चित ही सुखद है.