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आलोक वर्मा को 'संत' साबित करने की कोशिश में देश के अहम पदों और संस्थाओं को पहुंचाया जा रहा है नुकसान

कुछ लोगों ने संदेहास्पद आचरण वाले एक पुलिस ऑफिसर को संत साबित करने का जिम्मा कुछ इस तरह अपने सिर पर उठा रखा है मानो वही उनकी जिंदगी का मकसद हो

BV Rao

किसी खबर का अच्छा मुखड़ा कैसे लिखें- नए रिपोर्टरों को ये बात सबसे पहले सिखाई जाती है. कोई रिपोर्ट हो या फिर पत्रकार की कलम से निकली कोई और रचना- पहला पैरा ही पाठक की आंख को अपनी तरफ पहले खींचता है. और, होता अक्सर यही है कि पत्रकार अपने लिखे में असर जगाने के लिए तथ्य को कल्पना की चाशनी में लपेटकर परोस देते हैं.

तथ्य पर चाशनी लपेटने की इस अदा को पत्रकारिता की दुनिया में भी अच्छा नहीं माना जाता. लेकिन ये बीमारी अब पत्रकारों को ही नहीं, अकादमिक जगत के उन विद्वानों को भी लग गई है जो पत्रकारिता की शैली में हर विषय पर टीका-टिप्पणी लिखा करते हैं. ऐसी ही एक टिप्पणी अशोक यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रताप भानु मेहता ने हाल में इंडियन एक्सप्रेस में लिखी है. इसमें सीबीआई के डायरेक्टर अलोक वर्मा के ट्रांसफर का जिक्र है.


नौकरशाही और न्यायपालिका को दोषी साबित करने पर उतारू

प्रो.मेहता के अकादमिक मुहावरों में ही कहें तो लगता है वे सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ओछा ठहराने की जिद इस हद तक ठान चुके हैं कि उसे पत्रकारिता जगत में मर्यादा लांघने की सबसे खराब मिसालों में एक गिना जाएगा.

दुर्भाग्य कहिए कि प्रो. प्रताप भानु मेहता का मामला कोई इकलौता नहीं है. ऐसे विद्वान भरे पड़े हैं, जिन्होंने संदेहास्पद आचरण वाले एक पुलिस ऑफिसर को संत साबित करने का जिम्मा कुछ इस तरह अपने सिर पर उठा रखा है मानो वही उनकी जिंदगी का मकसद हो. सो, ये विद्वान कह रहे हैं कि उस पुलिस ऑफिसर को ‘बदले पर उतारू नौकरशाही और दब्बू न्यायपालिका ने’ ‘नाहक ही सजा’ दी है. सोच के इसी टेक पर ये विद्वान फैसले का ‘निंदा-गान’ करने में लगे हैं.

इन विद्वानों के लिए यह बात कोई मायने ही नहीं रखती कि आलोक वर्मा सीबीआई के आधे हिस्से की अगुआई करते हुए उसे कुश्ती के एक अखाड़े में बदल चुके थे जबकि इस कुश्ती से सिर्फ उनका निजी हित सधना था. अपने डिप्युटी के खिलाफ खड़े होकर उन्होंने सीबीआई के नाम को कीचड़ में धकेल दिया- चाहे जीत इस मुकाबले में किसी की भी हो.

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जरा तथ्यों पर भी गौर करते हैं

एक और जरूरी सबक हर न्यूजरूम में सिखाई जाती है: टिप्पणियां चाहे जितनी बटोरो मगर तथ्य के साथ छेड़छाड़ मत करो- तथ्य पवित्र होते हैं.

तो आइए जरा तथ्यों पर गौर करें कि किस संस्था या व्यक्ति को मामले में बचाया गया और किसे कलंकित करने की कोशिश हुई. तथ्य सीवीसी (केंद्रीय सतर्कता आयोग) ने खोजे थे और सीवीसी सार्वजनिक भरोसे की बहाली की वैसी ही अहम संस्था है जैसे कि सीबीआई (दरअसल, सीबीआई का बॉस है सीवीसी). लेकिन अभी के सूरत-ए-हाल में सीवीसी की ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की फिक्र किसे है? मानकर चला जा रहा है कि सीवीसी पाक-साफ संस्था है ही नहीं. ऐसा मानने की जो जाहिर सी वजहें बताई जा रही हैं उनमें एक यह है कि सीवीसी के अगुआई एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में है जिसे नरेंद्र मोदी की सरकार ने नियुक्त किया है और दूसरी वजह ये गिनाई जा रही है कि सीवीसी ने ‘संत शिरोमणि’ आलोक वर्मा के किए-धरे पर अंगुली उठाई है.

बेशक, सीवीसी को ऐसे अधिकार नहीं हासिल कि वो किसी को दंड दे सके लेकिन उसे एक काम करने का जिम्मा सौंपा गया था. यह जिम्मा किसी और ने नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने सौंपा था (वैसे सुप्रीम कोर्ट को भी आलोक वर्मा के मुहाफिज तभी तक भरोसे के सबसे ऊंचे पाए पर रखते हैं जब तक कि कोर्ट की कही बातें उनकी लिखी इबारत से मेल खाती नजर आएं)

सीवीसी ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि आलोक वर्मा पर लगाए गए दस आरोपों में से चार आरोप दमदार हैं. सुप्रीम कोर्ट ने माना कि कुछ आरोपों के पेशेनजर मसला वर्मा के ‘बहुत विपरीत जान पड़ता’ है. तो, आइए आलोक वर्मा के बहुत विपरीत जान पड़ते इन मसलों में से सिर्फ एक पर विचार करते हैं. इसकी वजह यही नहीं कि वर्मा के विपरीत जान पड़ता यह मसला बहुत हैरतअंगेज है बल्कि यह मसला ही सीबीआई में मचे गड़बड़झाले की जड़ में है.

गड़बड़झाले की की जड़, आलोक वर्मा की गोपनीय चिट्ठी

मसला 21 अक्तूबर, 2017 का है. यानी आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजे जाने से लगभग एक साल पहले का. वर्मा को 23 अक्टूबर, 2018 को छुट्टी पर भेजा गया था. सीवीसी की चयन समिति की बैठक बुलाई गई थी. इसमें राकेश अस्थाना को सीबीआई के स्पेशल डायरेक्टर के पद पर प्रमोट किए जाने के मसले पर विचार किया जाना था (अस्थाना उस वक्त सीबीआई के एडिशनल डायरेक्टर थे). पद पर प्रमोट करने के दस्तावेज 2017 की जुलाई में खुद आलोक वर्मा ने आगे बढ़ाए थे. लेकिन चयन समिति की बैठक के वक्त आलोक वर्मा ने एक ‘गोपनीय चिट्ठी' सौंपी. इस चिट्ठी का लब्बोलुआब ये था कि अस्थाना को एक उद्योगपति ने 3.94 करोड़ रुपए की रिश्वत दी है लेकिन आलोक वर्मा ने ये नहीं बताया था कि रुपए राकेश अस्थाना को ही मिले हैं (उन्होंने किन वजहों से ऐसा नहीं किया वह भी जल्दी ही आपको पता चल जाएगा).

चाहे आलोक वर्मा ने ‘गोपनीय चिट्ठी’ सौंपकर अपने निराले अंदाज का इजहार किया हो या फिर एक मनमानेपन का कि जब जैसा मन हुआ वैसे ही दस्तावेज सौंप दिए. लेकिन चयन समिति ने वर्मा के ऐसे बर्ताव को तूल नहीं दिया- उसने सौंपी गई गोपनीय चिट्ठी पर विचार किया और खूब सोच-समझकर फैसला किया कि राकेश अस्थाना को प्रमोट किया जाना चाहिए.

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इसके फौरन बाद प्रशांत भूषण ने अस्थाना की नियुक्ति के खिलाफ जनहित याचिका लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. लेकिन कोर्ट ने भी उसी तेजी के साथ याचिका को खारिज कर दिया.

लेकिन मसला एक वरिष्ठ अधिकारी के गैर-कानूनी तरीके से रुपए लेने का था और इसे किसी और ने नहीं बल्कि सीबीआई सरीखी संस्था के डायरेक्टर ने उठाया था सो समिति ने एक जांच शुरू की. सीवीसी जानना चाहती थी कि आखिर गोपनीय चिट्ठी में दर्ज सूचना का आधार क्या है, जिसके चलते आलोक वर्मा मानकर चल रहे हैं कि राकेश अस्थाना ने 3.94 करोड़ रुपए की रिश्वत ली है. जांच के लिए सीवीसी को सीबीआई के रिकॉर्ड खंगालने की जरूरत पड़ी. रिकॉर्ड के लिए सीवीसी ने पहली चिट्ठी आलोक वर्मा को 9 नवंबर 2017 को लिखी थी और इसके बाद से लगातार कई चिट्ठियां उन्हें भेजी गईं, लेकिन सीवीसी को रिकॉर्ड देखना नसीब नहीं हुआ.

अस्थाना के प्रमोशन के खिलाफ फर्जी दस्तावेज का सहारा

एक साल तक इस मोर्चे पर कुछ नहीं हुआ. फिर 2018 के नवंबर की शुरुआत में रिकॉर्ड सीवीसी के हाथ में आए, जब सुप्रीम कोर्ट ने जांच समिति बैठा दी. दरअसल, आलोक वर्मा जबरिया छुट्टी पर भेजे जाने के खिलाफ अर्जी लेकर अदालत का दरवाजा खटखटा चुके थे. जान पड़ता है कि जांच में अड़ंगा लगाने के पीछे आलोक वर्मा के पास ठीक-ठाक वजहें थीं- उन्हें पता था कि जांच से यह हैरतअंगेज तथ्य निकलकर आएगा कि सीबीआई का ऊपर से नीचे तक अपराधीकरण हो चुका है.

आलोक वर्मा ने जो गोपनीय चिट्ठी सीवीसी को दी थी उसमें किसी ‘आरए’ को 23 दफे भुगतान होने की बात कही गई थी. इस ‘आरए’ को आलोक वर्मा ने राकेश अस्थाना समझ लिया था. भुगतान के तौर पर सभी 23 प्रविष्टियों को जोड़कर कथित रिश्वत की रकम 3.94 करोड़ रुपए आ रही थी, साथ ही 23वें नंबर की प्रविष्टि में ही अकेले 3.88 करोड़ रुपए की रकम दिखाई गई थी.

सीबीआई के कई वरिष्ठ अधिकारियों से पूछताछ करने के बाद सीवीसी को पता चला कि आलोक वर्मा ने अपनी ‘गोपनीय चिट्ठी’ एक रिपोर्ट के आधार पर लिखी थी, जिसे सीबीआई की स्पेशल यूनिट ने तैयार किया था. मूल रिपोर्ट में प्रविष्टियों की संख्या केवल 22 बताई गई थी.

सुप्रीम कोर्ट में सीवीसी ने जो रिपोर्ट सौंपी उसके एक खास हिस्से को गौर से पढ़िए, आपको धक्का लगेगा. रिपोर्ट में एक जगह आता है: ‘स्पेशल यूनिट ने जो गोपनीय रिपोर्ट तैयार की थी, उसमें 22 प्रविष्टियां थीं लेकिन समिति को सौंपी गई गोपनीय चिट्ठी में 23 प्रविष्टियां बताई गईं और गोपनीय चिट्ठी के पेज नंबर तीन पर एक अहम निष्कर्ष यह लिखा मिलता है कि ‘अभी तक कागजी और कंप्यूटरी रूपाकार (हार्ड और सॉफ्ट डाटा) में 23 संदिग्ध प्रविष्टियां मिली हैं जिनको जोड़कर कुल रकम 3,94,72,106 रुपए की आती है और इस रकम का रिश्ता राकेश अस्थाना से है’.’

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आलोक वर्मा ने जो गोपनीय चिट्ठी सीवीसी को सौंपी थी उसपर एडिशनल आईजीपी एस बालासुब्रमण्यम के हस्ताक्षर थे. बालासुब्रमण्यम ने सीवीसी से कहा था कि उसे (सीवीसी को) सौंपी गई गोपनीय चिट्ठी पर उन्होंने दस्तखत ‘सीबीआई डायरेक्टर के निर्देश और अनुमोदन’ से किए और उसमें 22 प्रविष्टियों का जिक्र है. ऐसे में, बालासुब्रमण्यम के दफ्तर से चलकर जब चिट्ठी सीवीसी तक पहुंची तो इस दरम्यान क्या कुछ घटित हुआ? किसने उसमें 23 नंबर की प्रविष्टि जोड़ी और ऐसा करने के लिए उसे किसने मंजूरी दी? क्या दर्ज इबारत को बदलने की इस करतूत से आलोक वर्मा अनजान थे? या वे भी इस खेल में शामिल थे?

इस बात के क्या मायने निकलते हैं? यही कि महिमामयी सीबीआई के माननीय डायरेक्टर साहेब ने एक फरेब (और हम नहीं जानते कि यह फेरब किसने किया) भरे दस्तावेज पर भरोसा किया और राकेश अस्थाना के प्रमोशन को रोकने की कोशिश की!

भारतीय दंड विधान (आईपीसी) में फर्जीवाड़े और धोखाधड़ी को आपराधिक कृत्य करार दिया गया है (अधिकतम सजा तीन साल). सबूतों के साथ छेड़छाड़ की तो बात ही क्या करना- इसके लिए तो सात साल तक की सजा का प्रावधान है. लेकिन दस्तावेज के साथ छेड़छाड़ का वाकया डायरेक्टर साहब के ऐन नाक के नीचे हुआ जो इसे और भी ज्यादा संगीन अपराध बनाता है. ऐसे अपराध के लिए कोई भी सजा पर्याप्त नहीं कही जा सकती. सीबीआई से तबादला तो खैर हल्की सजा भी कहलाने के काबिल नहीं.

कीचड़-उछाल लड़ाई में संस्थाओं की स्वायत्तता का सवाल

ये सारे तथ्य एक रिपोर्ट के हिस्से के रूप में मौजूद हैं. यह रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सीवीसी ने सौंपी है. लेकिन रिपोर्ट के तथ्यों पर सार्वजनिक बहस-मुबाहिसे में कोई खास तवज्जो नहीं मिली. वजह शायद यह कि आलोक वर्मा को लेकर कहानियां गढ़ी गई हैं. इनमें उन्हें संस्थाओं की स्वतंत्रता की सुरक्षा में उतरे अनथक योद्धा के रूप में दर्शाया गया है. उससे ये तथ्य मेल नहीं खाते थे. क्या सुप्रीम कोर्ट यह सोचकर इन तथ्यों से आंख मूंद लेती कि संत शिरोमणि आलोक वर्मा सीबीआई के हक में एक धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं? शीर्षस्तर पर होने वाली इस घटिया और कीचड़-उछाल निजी लड़ाई में आखिर संस्थाओं की स्वायत्तता का सवाल है कहां?

चयन समिति की सहमति के बगैर आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजने के सरकार के फैसले को झटका देते हुए उन्हें फिर से पद पर बहाल करके और मामले पर एक हफ्ते के भीतर निर्णय देने के लिए सीवीसी को भेजकर सुप्रीम कोर्ट ने ठीक किया था.

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सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करके अपने लिए ऐसे लोगों से बचाव की गुंजाइश बनाकर रखी, जो आलोक वर्मा खेमे के थे. यह फैसला आलोक वर्मा की तरफदारी करने में लगे लोगों की सोच से मेल खाता था. अदालत की जय-जयकार की गई कि सरकार तो सीबीआई के डायरेक्टर को हटाने पर तुली थी, लेकिन कोर्ट ने कानून की खामी को ठीक करके ऐसा होने से बचा लिया. कोर्ट ने बेशक ऐसा ही किया था लेकिन सीबीआई और सीवीसी से परे सिर्फ आलोक वर्मा की साख को बचाने के लिए चल रहे इस ‘धर्मयुद्ध’ में सुप्रीम कोर्ट को भी नहीं बख्शा गया- यह बात भी जल्दी ही आपके सामने आ जाएगी.

सरकार के खिलाफ आलोक वर्मा की जीत के सुरूर में मामले के महीन नुक्तों की अनदेखी हुई. सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा को पद पर बहाल बेशक किया था लेकिन बस कच्चे तौर पर और वह भी सिर्फ इसलिए कि मामले में सरकार प्रक्रिया और कानून के पालन की जमीन पर तनिक ढीली नजर आई. लेकिन सुप्रीम कोर्ट को डायरेक्टर साहब पर लगे आरोपों की गंभीरता का भान था सो उसने यह भी कहा कि चयन समिति आलोक वर्मा के भविष्य को तय करने के लिए तुरंत बैठक बुलाए.

यहीं से आलोचना की तलवार उस सुप्रीम कोर्ट की तरफ मुड़ गई जिसे महज 36 घंटे पहले भारत के संविधान और संस्थाओं का संरक्षक बताकर जय-जयकार की जा रही थी. बात बिल्कुल समझ में आती है. अगर भारत का कोई ऐसा संविधान है जो लिखा नहीं गया और जिस पर विद्वानों, बुद्धिजीवियों और मीडिया का एक हिस्सा हाल-फिलहाल यकीन करने लगा है तो फिर उसमें यह बात भी कहीं ना कहीं आती ही होगी कि जबतक सुप्रीम कोर्ट से एक खास रुझान के फैसले आएं- देश की संस्थाओं को सुरक्षित और स्वायत्त मानो. ये विद्वानों, बुद्धिजीवियों और मीडियाकर्मियों का वही तबका है जो अपने को हमेशा विजयी पक्ष में पाता है.

संत साबित करने में देश की संस्थाओं की लानत-मलानत

सो, जब आलोक वर्मा की कुर्सी चली गई तो विद्वानों-बुद्धिजीवियों के इस तबके की कलई भी उतर गई और शायद दिमाग भी फिर गया. ताबड़तोड़ हमले शुरू हो गए. इस बार अपने मकसद को परम पवित्र मानने वाली इस जमात ने सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा को भी नहीं बख्शा. चयन समिति ने आलोक वर्मा का तबादला किया तो उसे हड़बड़ी में उठाया गया विद्वेष भरा कदम करार दिया गया. कहा गया कि आलोक वर्मा के साथ कायदे से न्याय नहीं हुआ. उन्हें चयन समिति में अपना पक्ष रखने का मौका नहीं मिला. ऐसा कहने वालों के लिए यह बात कोई मायने ही नहीं रखती कि जांच के दौरान आलोक वर्मा को दो दफे सीवीसी के साथ बैठने का मौका मिला था और जांच की रिपोर्ट को स्वयं सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज ने देखा था और चीफ जस्टिस रंजन गगोई की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों वाली बेंच ने रिपोर्ट की परीक्षा की थी.

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सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जजों में दूसरे नंबर पर शुमार जस्टिस एके सीकरी को एक झटके में नजरों से गिराने का खेल हुआ. येदियुरप्पा के विश्वास-मत के सवाल पर जस्टिस सीकरी ने कहा था कि मुद्दा 15 दिनों के बजाय 48 घंटों में निपटा लिया जाए और उस घड़ी जस्टिस सीकरी को मीडिया के एक बड़े हिस्से ने सिर-आंखों पर बैठा लिया था. लेकिन वही जस्टिस सीकरी मीडिया में रातों-रात एक सरकारी एजेंट बना दिए गए. और क्या था उनका अपराध? यही कि उन्होंने आलोक वर्मा के तबादले के पक्ष में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मतदान किया था. इतना ही नहीं, उनका एक बड़ा अपराध यह भी गिनाया गया कि चयन समिति में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के प्रतिनिधि नियुक्त होने के एक महीने में पहले सरकार ने उन्हें (जस्टिस सीकरी) रिटायरमेंट के बाद के दिनों के लिए एक पद सौंपा था- एक ऐसा पद जिसकी कोई खास अहमियत ही नहीं.

आलोक वर्मा के तरफदारों को इस बात का जरा भी खयाल ना रहा कि जस्टिस सीकरी के नाम पर कीचड़ उछालना दरअसल भारत के मुख्य न्यायाधीश गोगोई को तोहमत देना है, उन्हें सरकार के पक्ष में खड़ा बताना है.

क्या साल में तीन दफे लंदन के सफर पर निकलने का मौका इतना बड़ा प्रलोभन है कि सुप्रीम कोर्ट का सबसे सीनियर जज इसके लिए अपनी प्रतिष्ठा और सुप्रीम कोर्ट की साख को दांव पर लगा देगा? अगर आज आप इस कहानी पर विश्वास करने लगे हैं तो इसलिए कि आलोक वर्मा की तरफदार बुद्धिजीवियों की जमात आपको यही बताने-समझाने पर तुली हुई है. हमें समझाया ये जा रहा है कि एक सीवीसी को फर्जी दस्तावेज सौंपने में तनिक भी संकोच न महसूस करने वाले सीबीआई डायरेक्टर की साख सीबीआई, सीवीसी, भारत के प्रधानमंत्री के संवैधानिक दफ्तर, भारत के मुख्य न्यायाधीश, उनके वरिष्ठ न्यायाधीश साथियों और स्वयं सुप्रीम कोर्ट की सत्यनिष्ठा की तुलना में कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है. आज जब किसी एक व्यक्ति के निजी हित की रक्षा करने के लिए इतनी सारी संस्थाओं और लोगों की निजी साख पर तोहमत उछालने का खेल चल रहा है तो इसे भारत में संस्थाओं के निर्माण के सफर का सबसे खराब वक्त करार दिया जाना चाहिए.

इन तमाम बातों से हम एक अहम सवाल पर पहुंचते हैं कि आखिर ऐसे ऑफिसर क्या करिश्मा करते हैं जो उन्हें संवेदनशील संस्थाओं की अगुवाई के लायक मान लिया जाता है. आखिर में एक सवाल यह भी कि सरकार ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ की कहावत से किस हद तक सबक लेने को तैयार है.