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पीएनबी घोटाला: बैंकों का राष्ट्रीयकरण बुरी तरह फेल रहा है?

वर्ष 2014 में आई इंद्रधनुष योजना भी बस एक योजना ही बन कर रह गई

Dinesh Unnikrishnan

20 जुलाई, 1969 को टाइम्स ऑफ इंडिया ने पहले पन्ने पर दो बड़ी खबरें छापी थीं. पहली खबर थी कि इंदिरा गांधी 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया है. और दूसरी बड़ी खबर थी कि अपोलो मिशन चांद की कक्षा में प्रवेश कर गया है.

ये दोनों ही ख़बरें अपने-अपने क्षेत्र में मील का पत्थर थीं. बैंकों का राष्ट्रीयकरण भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा कदम था. वहीं अपोलो मिशन के चांद की कक्षा में पहुंचने से इंसान के चांद पर पहुंचने का रास्ता खुला.


इंदिरा गांधी सरकार ने एक अध्यादेश के जरिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था. ये अध्यादेश मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल से बाहर होने के एक घंटे के भीतर ही जारी कर दिया गया था.

पहले राउंड में जिन 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, वो थे- सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ महाराष्ट्र, देना बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, सिंडिकेट बैंक, कनारा बैंक, इंडियन बैंक, इंडियन ओवरसीज बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, यूनियन बैंक, इलाहाबाद बैंक, यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया, यूको बैंक और बैंक ऑफ इंडिया. 1980 में दूसरे राउंड में 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया. ये बैंक थे-आंध्रा बैंक, कॉरपोरेशन बैंक, न्यू बैंक ऑफ इंडिया, ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स, पंजाब ऐंड सिंध बैंक और विजया बैंक.

बैंकों का राष्ट्रीयकरण, भारत में बैंकिंग व्यवस्था शुरू होने के बाद सुधार का सबसे बड़ा कदम था. इसका मकसद था भारत के दूर-दराज के गांवों तक बैंकिंग की सुविधा पहुंचाना. मगर, ये कदम बहुत बड़ी भूल साबित हुआ. बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने ऐसी निकम्मी संस्थाओं को जन्म दिया, जो भ्रष्टाचार और फर्जीवाड़े में आकंठ डूबी हैं. सियासी तिकड़म की शिकार हैं.

राष्ट्रीयकरण का असर

हां, बैंकों के राष्ट्रीयकरण से इतना तो हुआ कि कृषि क्षेत्र में ज्यादा कर्ज दिए जाने लगे. कुछ और क्षेत्रों में भी लोन देने की प्रक्रिया तेज हुई. इसके अलावा बैंकों के राष्ट्रीयकरण से सरकार को बिना किसी सवाल जवाब के कल्याणकारी योजनाएं लागू करने में भी काफी मदद मिली. लेकिन इन बैंकों ने कभी भी खुद से अपना रख-रखाव और बचाव करना नहीं सीखा. इन बैंकों को सरकारी बैसाखी की लत पड़ गई. इसने इन्हें लापरवाह बना दिया. सरकारी बैंकों ने कभी खुद की फिक्र करनी नहीं सीखी. न ही इन बैंकों ने खुद को बाजार यानी निजी बैंकों से मुकाबले के लिए तैयार किया. इन बैंकों ने अपने सियासी आकाओं को खुश करने के लिए आपस में होड़ लगाई. हर साल पूंजी के लिए ये वित्त मंत्रालय के सामने कटोरा लेकर खड़े हो जाते थे.

राष्ट्रीयकरण के बाद से सरकारी बैंकों में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ. जबकि इसी दौरान निजी बैंकों में तकनीक के इस्तेमाल, कारोबार के विस्तार और मैनेजमेंट को लेकर बहुत सारे बदलाव हुए हैं. सरकारी बैंकों को स्वायत्तता हासिल नहीं है. साल में सिर्फ एक बार सरकारी बैंकों का बजट में उस वक्त जिक्र होता है, जब सरकार उनमें पूंजी लगाने का एलान करती है. या फिर किसी नई जनहित की योजना को बैंकों के जरिए लागू किया जाना होता है.

संपत्ति के लिहाज से देश के दूसरे सबसे बड़े सरकारी बैंक, पंजाब नेशनल बैंक में हुआ फर्जीवाड़ा इन बैंकों में कई दशक से चले आ रहे काम-काज के तरीके का नतीजा है. यहां कुछ बैंक कर्मचारियों ने नीरव मोदी और मेहुल चोकसी के साथ मिलकर अवैध लेटर ऑफ अंडरस्टैंडिंग यानी एलओयू जारी किए. इसकी बड़ी वजह है सरकारी बैंकों के काम-काज का माहौल. इन बैंकों में किसी की कोई जवाबदेही नहीं है. फिर चाहे मैनेजमेंट हो या निवेशक. सरकारी बैंकों में कारोबार के जोखिम से निपटने की कोई सटीक व्यवस्था नहीं. बैंक कर्मचारियों का बैंक और कामकाज को लेकर कोई अपनापन नहीं. न ही किसी खतरे और गलत फैसलों को रोकने के लिए कारगर नियामक व्यवस्था है.

पंजाब नेशनल बैंक में हुए घोटाले में हमने देखा कि बैंकों में निगरानी की सारी व्यवस्था को धता बताकर फर्जीवाड़ा किया गया. किसी भी बैंक अधिकारी ने ये देखने की जहमत नहीं उठाई कि नीरव मोदी को कर्ज बांटने में नियमों का पालन किया जा रहा है या नहीं. बैंक में शाखा के स्तर पर ऑडिट से लेकर बैंक के बोर्ड तक बड़े लेन-देन की निगरानी की व्यवस्था है. लेकिन, जालसाज निगरानी और रोकथाम के पूरे सिस्टम को झांसा देकर 7 साल तक बैंक को लूटते रहे.

पी जे नायक पैनल-वो वादा जो कभी पूरा नहीं हुआ-

हाल के दिनों में सरकारी बैंकों में सुधार के बड़े सुझाव रिजर्व बैंक के बनाए एक पैनल की तरफ से आए थे. इस पैनल के अध्यक्ष थे एक्सिस बैंक के पूर्व चेयरमैन पी जे नायक. नायक और उनके साथियों ने मई 2014 को सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में सरकारी बैंकों के निजीकरण का सुझाव दिया था. पैनल का मानना था कि सरकारी बैंकों की उत्पादकता दिनों-दिन घटती जा रही है. ये निजी बैंकों और बाजार की दूसरी ताकतों से मुकाबले लायक नहीं रह गए हैं. सरकारी बैंकों की पूंजी का स्तर भी गिरता जा रहा है. मतलब ये कि सरकारी बैंक, निजी बैंकों के मुकाबले घटिया काम कर रहे हैं. उनकी जो जमा-पूंजी है उसकी कीमत घटती जा रही है. ऐसे कर्ज का बोझ बढ़ रहा है, जो शायद कभी न वसूले जा सकें.

पी जे नायक पैनल ने सरकारी बैंकों को लेकर जो सुझाव दिए थे, उनमें से कुछ प्रमुख बातें थीं-

-कुछ अधिकृत निवेशकों को बिना किसी नियामक मंजूरी के, बैंकों में 20 फीसद तक हिस्सेदारी रखने का अधिकार दिया जाना चाहिए.

-अगर किसी बैंक की माली हालत खराब है तो निजी शेयरधारकों और फंड को बैंकों में हिस्सेदारी बढ़ाकर 40 प्रतिशत करने की इजाजत होनी चाहिए.

-एक बैंक इनवेस्टमेंट कंपनी बनाकर, सरकार को बैंकों में अपनी हिस्सेदारी इस कंपनी के हवाले कर देनी चाहिए. ये इनवेस्टमेंट कंपनी स्वायत्त संस्था होनी चाहिए.

-सरकार को सिर्फ सरकारी बैंकों पर लागू होने वाले दिशा-निर्देश जारी करने बंद करने चाहिए. इससे बैंकिंग सेक्टर में निजी और सरकारी बैंकों के बीच भेदभाव होता है.

-सरकार को बैंकों में अपनी हिस्सेदारी घटाकर 50 फीसद से कम करनी चाहिए. ताकि, बैंक  सतर्कता, कर्मचारियों की सैलरी और काम-काज की बेहतरी, सूचना के अधिकार और कारोबार में दूसरे बैंकों से मुकाबले लायक बन सकें.

पैनल की रिपोर्ट के हवाले से लाइवमिंट ने लिखा था कि 'अगर काम-काज बेहतर करने के लिए जरूरी हो, तो सरकार बैंक इनवेस्टमेंट कंपनी में भी अपनी हिस्सेदारी 50 फीसद से कम ही रखे, क्योंकि अगर बीआईसी कामयाब होती है, तो इसका सबसे ज्यादा फायदा सरकार को ही होगा'.

मगर, अफसोस की बात ये है कि पी जे नायक पैनल के ज्यादातर सुझाव कागजी ही रह गए. किसी ने भी सरकारी बैंकों में सुधार और खास तौर से निजीकरण के इन प्रस्तावों पर ध्यान नहीं दिया.

इंद्रधनुष आया...और चला गया

सरकारी बैंकों में सुधार का अगला बड़ा प्रस्ताव अगस्त 2014 में इंद्रधनुष योजना के रूप में आया था. सरकारी बैंकों में सुधार के कुछ और वादे किए गए. लेकिन ये वादे भी कागजी ही रह गए.

इंद्रधनुष योजना में सात प्रमुख बातें थीं, जिनके जरिए सरकारी बैंकों को बेहतर बनाया जाना था-

  • प्राइवेट सेक्टर के बैंकों के अधिकारियों को सरकारी बैंकों का प्रमुख बनाया जाए.
  • एक बैंक बोर्ड ब्यूरो बनाया जाए, जो सरकारी बैंकों के निदेशक बोर्ड के साथ तालमेल से बैंकों की तरक्की और विकास की रणनीति बनाए.
  • सरकारी बैंकों में सालाना पूंजी निवेश का प्लान बने.
  • जोखिम रोकने के तरीके, प्रोजेक्ट की निगरानी और कर्ज न चुकाने वालों से निपटने के नियम मजबूत हों.
  • सरकारी बैंकों को स्वायत्तता मिले.
  • बैंक के अधिकारियों की जवाबदेही का ढांचा तैयार हो.
  • बैंकों में काम-काज के तरीकों में सुधार किया जाए.
  • इस एक्शन प्लान को कितना लागू किया गया है? सच पूछें तो कुछ सरकारी बैंकों में निजी बैंकों के अधिकारियों को प्रमुख नियुक्त करने और बैंकों में सालाना पूंजी निवेश लगाने के सिवा कुछ नहीं हुआ. सरकारी बैंकों में जोखिम से निपटने के तौर-तरीके बदलने और काम-काज सुधारने को लेकर कोई काम नहीं हुआ. ये प्रस्ताव अब तक कागजी ही हैं.

    ये उम्मीद बुनियादी तौर पर ही गलत है कि निजी क्षेत्र के अधिकारियों को सरकारी बैंकों में नियुक्त करने से सरकारी बैंक अच्छा काम करने लगेंगे. सरकारी बैंकों का वर्क कल्चर तो वही रह गया, जो पहले था.

    बिजनसे स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो मार्च के आखिर तक अपना बोरिया-बिस्तर समेट लेगा. वजह ये कि ये कभी भी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा. बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो की बड़ी जिम्मेदारियों में सरकारी बैंकों में मानव संसाधन का बेहतर मैनेजमेंट और बैंक के प्रबंधन के लिए कोड ऑफ कन्डक्ट तैयार करना था. लेकिन पीएनबी घोटाले से साफ है कि बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो अपनी जिम्मेदारियां निभाने में नाकाम रहा है. अगर ब्यूरो ने कुछ किया भी है, तो उसका असर फिलहाल तो नहीं दिख रहा है. सरकार ने सार्वजनिक बैंकों में 2.11 लाख करोड़ रुपयों के निवेश का वादा किया है. इस रकम से सरकारी बैंकों की दिक्कत का फौरी समाधान ही हो सकता है.

    बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैसला पलटने का वक्त आ गया है?

    सरकारी बैंकों की समस्याएं इतनी पेचीदा और गहरी हैं कि सिर्फ पूंजी लगाने से इन्हें दूर नहीं किया जा सकता. पीएनबी घोटाले ने हमें बताया है कि उनकी बीमारी बहुत पुरानी है और इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं. इन्हें खत्म करने के लिए बड़ी सर्जरी की जरूरत है.

    अब वक्त आ गया है कि सरकार इंदिरा गांधी के बैंकों के राष्ट्रीयकरण के फैसले को पलटने पर विचार करे. क्योंकि, बैंकों का राष्ट्रीयकरण बुरी तरह नाकाम रहा है. ऐसे में हमें बैंकों के निजीकरण के विकल्प पर गंभीरता से विचार करना चाहिए.

    बैंकों का राष्ट्रीयकरण इसलिए किया गया था ताकि देश के दूर-दराज के इलाकों के लोगों को बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ा जा सके. सरकारी बैंकों ने काफी हद तक इस लक्ष्य को हासिल करने में मदद की है. जबकि निजी बैंक, ज्यादा मुनाफे और बेहतर कारोबार के चक्कर में सिर्फ शहरी इलाकों तक ही सीमित रहे हैं.

    लेकिन राष्ट्रीयकरण के पांच दशकों बाद सार्वजनिक बैंक, सरकार के मालिकाने में निकम्मे ही साबित हुए हैं. यही वजह है की पी जे नायक पैनल ने इनके निजीकरण का सुझाव दिया था. आज की तारीख में 90 फीसद एनपीए सरकारी बैंकों के खातों में ही है. एनपीए वो रकम है, जो बैंकों ने कर्ज के तौर पर बांट रखी है और जिसका भुगतान कर्जदार बैंकों को नहीं कर रहे हैं. पीएनबी घोटाले ने एक बार फिर ये साबित किया है कि सरकारी बैंकों के फर्जीवाड़े, जालसाजी और घोटाले का शिकार होने की आशंका ज्यादा रहती है. इससे बैंकिंग सिस्टम का जोखिम बढ़ता है. पिछली घटनाओं से सबक लेते हुए सरकार को कम से कम अब तो बैंकों के निजीकरण के बारे में सोचना चाहिए.

    जैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि देश के बैंकिंग सिस्टम को बचाने के लिए जरूरी हो गया है कि इन पर सरकार का मालिकाना हक खत्म हो और सार्वजनिक बैंकों को निजी हाथों में सौंप दिया जाए. इसके बाद भी सरकार जरूरतमंद लोगों को खास तौर से कर्ज देने का निर्देश इन बैंकों को दे सकती है.

    जब इन बैंकों को निजी क्षेत्र चलाएंगे तो अधिकारियों की जवाबदेही ज्यादा होगी. कर्ज बांटने में जोखिम का खयाल रखा जाएगा. लापरवाही कम होगी. सरकार को सभी 21 सरकारी बैंकों को एक झटके में निजी हाथों में सौंपने की जरूरत नहीं. सरकार ऐसा भी कर सकती है कि पांच-छह बड़े सरकारी बैंकों का मालिकाना अधिकार अपने हाथों में रखे. ताकि, सामाजिक क्षेत्र को बैंकिंग की सुविधा मुहैया कराई जा सके और सरकार कल्याणकारी योजनाएं लागू करने में इन बैंकों की मदद ले सके.

    पर, किसी भी पैमाने पर कस कर देख लें, हमें 21 बैंकों पर सरकारी नियंत्रण की कोई जरूरत नहीं लगती. वक्त आ गया है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के इंदिरा गांधी के फैसले को पलट दिया जाए.

    (ये सरकारी बैंकों की समस्याओं पर आधारित श्रृंखला का लेख है. आप इस श्रृंखला की कड़ियां नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं)

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