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मां जिस बेटे को शर्मीला समझती थी, उसी IPS की अंडरवर्ल्ड डॉन से होती थी लंबी-लंबी बातें!

नीरज कुमार सहज स्वीकारते हैं कि 16 दिसंबर, 2012 को दिल्ली के निर्भया गैंगरेप और हत्याकांड ने उन्हें काबिल बना दिया. यही वो कांड था जिसने उन्हें दुश्मन और दोस्तों की पहचान कराई

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

कहते हैं कि संतान को उसकी मां से ज्यादा जमाने में कोई भी नहीं समझ सकता है. यहां तक कि पिता भी. कोख से जन्म देने वाली मां भी कभी-कभी संतान की फितरत समझने से चूक सकती है. अगर मैं यह कहूं तो समाज में यह बेहद बेहूदा तर्क लगेगा. मेरी बात आसानी से किसी के गले नहीं उतरेगी. ‘संडे क्राइम स्पेशल’ की इस खास कड़ी में मैं एक ऐसे ही इंसान की कहानी से जमाने को रुबरु करा रहा हूं. जिसे, जन्म देने वाली उसकी मां की आंखें भी पहचानने में जाने-अनजाने चूक कर बैठीं.

बचपन से जवानी की दहलीज तक पहुंचाते-पहुंचाते जिस बेटे को मां ने संकोची, बेहद शर्मीला और कम बोलने वाला, हर किसी से आसानी से न घुलने-मिलने वाला समझती रही. बीते कल में वही संकोची-शर्मीला बेटा अक्सर करने लगा था दुनिया के दुश्मन नंबर वन यानी अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम से खुलकर गुफ्तगू. जो मां, बेटे को जिंदगी भर संकोची समझती रही कालांतर में, उसी बेटे ने मंगवा दी थी सिर पर सैकड़ों मौत का बोझ लेकर भटकते फिर रहे दाउद को भी ‘पनाह’.


1950 के दशक में बिहार का गांव शिवपुर चितौली

बिहार के रोहतास जिले के शिवपुर चितौली गांव में विश्वनाथ सहाय अपनी पत्नी पुष्पा सहाय के साथ रहते थे. उच्च शिक्षित विश्वनाथ सहाय बिहार में सिविल इंजीनियर थे. वर्ष 1985-86 में विश्वनाथ सहाय सरकारी सेवा से रिटायर होने के बाद राजधानी पटना में बस गए. कालांतर में विश्वनाथ सहाय और पुष्पा के यहां तीन बेटों नीरज कुमार, डॉ. मनोज कुमार (जांबिया में) और अनूप कुमार (एयर इंडिया से रिटायर) का जन्म हुआ. नीरज कुमार का जन्म 4 जुलाई, 1953 को पटना में हुआ था. इस संडे क्राइम स्पेशल में मैं नीरज के ही अतीत की अनकही सच्ची कहानी बयान कर रहा हूं. बिना किसी कांट-छांट (संपादन) के. हू-ब-हू वही कहानी जो इस लेखक को अगस्त 2018 में दिल्ली में किसी स्थान पर नीरज ने खुद सुनाई.

समझदार बेटे को लेकर मां की ‘न-समझी’!

सबसे बड़ा बेटा नीरज बचपन में बेहद संकोची और शर्मीला था. घर में जब कोई मेहमान आता तो नीरज मेहमानों से दूर घर के किसी कोने में जाकर छिपकर बैठ जाता. मेहमानों के सामने आता भी तो चुपचाप एकदम शांत. कई बार तो ऐसा भी होता कि मेहमान काफी देर बैठकर चले जाते, मगर ‘नमस्ते’ के अलावा वो नीरज के मुख से दूसरा शब्द नहीं सुन पाते. पिता तो समाज की रोजमर्रा की जिंदगी में मशरुफ रहते. मां को मगर बेटे का यह शर्मीला स्वभाव परेशान करता रहता. उन्हें चिंता रहती थी कि चलो अभी तो नीरज छोटा है. परिवार के बीच में रहता है. कल को पढ़-लिखकर घर से बाहर निकलेगा, तो न मालूम कैसे निभेगा?

पूर्व आईपीएस नीरज कुमार यानी मां का वो शर्मीला बेटा जिसने मंगवा दी थी अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम को पनाह

आंखों के सामने मौजूद हालातों को देखकर मां का चिंतित होना स्वाभाविक था. यह अलग बात है कि भविष्य के गर्भ में छिपे बेटे के भविष्य को मां नहीं देख पा रही थी. बेटे के माथे और हथेलियों की लकीरें भी पढ़ने से मां पुष्पा चूकती जा रही थीं. भले ही उन्होंने नीरज को जन्म अपनी कोख से क्यों न दिया हो. इस सबको जाने-अनजाने मां की मासूम ‘चूक’ कहिए या फिर विधि का लिखा विधान! जिसे मां तो क्या दुनिया का कोई भी ज्योतिषि कलियुग में नहीं पढ़ सका.

पिता की हसरत और पुत्र का सच

नीरज ने अपनी प्राइमरी शिक्षा बाकी बच्चों की तरह पटना के एक पब्लिक स्कूल में ली. पांचवीं से 10वीं तक तिलैया, बिहार (तिलैय्या अब झारखंड) स्थित सैनिक स्कूल में पढ़े. यह बात वर्ष 1963 के आसपास की है. बाद में उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज का रुख किया. 1970 से 75 के बीच स्टीफेंस से ही ग्रेजुएशन ऑनर्स (बीएससी) और फिर एमएससी किया. बेहद सुलझे और उच्च शिक्षित पिता जानते थे कि, उनके गांव से अजीत लाल (आईएएस), संजय श्रीवास्तव (आईपीएस) बन चुके हैं. इसके बावजूद भी वो बड़े बेटे नीरज में एक साइंटिस्ट देखा करते थे. जबकि मां पुष्पा को बेटे की पढ़ाई-लिखाई के लिए हमेशा पैसों के इंतजाम की चिंता सताए रहती थी. हालांकि बेटे ने अब तक इस बारे में कुछ सोचा ही नहीं था.

दोस्त फेल और मैं पास हो गया!

बकौल नीरज कुमार, ‘इसे महज इत्तिफाक कहें या फिर विधि का लिखा विधान. एमएससी की परीक्षा हो चुकी थी. रिजल्ट का इंतजार था. एक दिन दोस्तों ने कहा 3 महीने बाद कॉलेज लाइफ खत्म हो जाएगी तो क्या करेंगे, कहां जाएंगे, कहां रहेंगे? वो सब उस दिन यूपीएससी से सिविल सर्विसेज के फॉर्म लेने जा रहे थे. मुझसे बोले तुम भी चलो फॉर्म लेने. मैंने जाने से इनकार कर दिया. उन्हें 20 रुपए दिए और कहा दो फॉर्म मेरे लिए भी लेते आना. सिविल सर्विसेज का एग्जाम दिया. जिन दोस्तों ने फॉर्म लाकर दिए थे वो सब उस परीक्षा में फेल और मैं पास हो गया. हालांकि अगले ही बैच में उनमें से कोई आईएस, कोई आईएफएस सर्विस में निकल गया. जिन लड़कों ने मुझे सिविल सर्विसेज का फॉर्म लाकर दिया उन्हीं में से एक मेरे सबसे अजीज आर. बालाकृष्णन और देवाशीष चक्रवर्ती थे. बालाकृष्णन बाद में तमिलनाडु काडर के आईएएस बने. अब वो तमिलनाडु के चीफ सेक्रेटरी पद से रिटायर हो चुके हैं. जबकि देवाशीष विदेश सेवा में चले गए. देवाशीष वर्ष 2013 में ही डबलिन में अंबेसडर पद से रिटायर हो चुके हैं.’

आईपीएस बेटे को देखकर मां सोच में पड़ीं

65 साल पुरानी यादों के करीने से तह लगे पन्नों को पढ़ने की कोशिश करते-करते नीरज कुमार बताते हैं, ‘बचपन से ही बेहद शर्मीले और संकोची स्वभाव ने मां को हमेशा मेरी ओर से चिंतित ही रखा. आईपीएस की नौकरी में चयनित हुआ तो मां की चिंता और ज्यादा बढ़ गई. वो इस उधेड़बुन में खोई रहने लगीं कि किसी से बातचीत न करने वाला, कम बोलने वाला संकोची बेटा आईपीएस जैसी खांटी नौकरी में आखिर खुद को एडजस्ट कैसे करेगा? मां को मेरी एक बात और हमेशा परेशान करती रहती थी कि, मैं या तो बोलता नहीं था. बोलता था तो किसी के भी मुंह पर ही कुछ भी कह गुजरता. मां जानती थी कि पुलिस-अफसरी में साम-दाम-दंड-भेद सब इस्तेमाल होते हैं. जबकि मेरा इन सबसे दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था.’

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फिल्म डायरेक्टर के बजाए ‘डॉन’ का दुश्मन बना

नीरज कुमार के मुताबिक, ‘आज के बॉलीवुड के मशहूर फिल्म डायरेक्टर प्रकाश झा, मंजुला सिन्हा ने साथ ही पढ़ाई की थी. दोनों ही पांचवीं क्लास से हायर सेकेंडरी तक मेरे साथ रहे. पढ़ाई के दौरान सोचा करता था कि मुंबई जाकर फिल्म डायरेक्टर बनूंगा. कहते हैं कि इंसान का सोचा अक्सर होता नहीं है. तो फिर भला मैं विधाता के लिखे विधान से पृथक कैसे हो सकता था. प्रकाश झा आज देश के मशहूर फिल्म डायरेक्टर और मैं रिटायर्ड आईपीएस. हां, यह जरुर है कि पढ़ाई के दौरान दिल में बलबने वाली फिल्म डायरेक्टर बनने की हसरत मैं कभी पिता के सामने जाहिर नहीं कर सका. इसकी वजह पिता के प्रति मेरा सम्मान कहिए. या फिर पिता का मेरे मन पर बैठा वो भय जिसने कभी जुबान खोलने की हिम्मत या माद्दा ही मुझमें पैदा नहीं होने दिया. चलो कोई बात नहीं ईश्वर को आईपीएस बनाना था. मैं कुनबे का पहला आईपीएस बनकर इसी में खुश हूं. आईपीएस की नौकरी में भी तमाम इज्जत-शोहरत हासिल हुई है. इसे भगवान बरकरार रखे.’

मैं हरफनमौला और वो पढ़ाकू निकली

जिस शख्स से अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम पनाह मांग गया हो. जिस दाउद ने दुनिया में किसी के आगे सिर न झुकाया हो. वो दाउद नीरज कुमार के सामने खुद को बचा लेने के लिए बिलबिला-बिलख रहा हो. नीरज कुमार का दिल मगर फिर भी दाउद के लिए नहीं पिघला. क्या ऐसे दिल में प्यार पनप सकता है? पनप सकता है बशर्ते सामने वाला भी उस काबिल हो तब. नीरज के ही अल्फाजों में, ‘बात है वर्ष 1973 के आसपास की. मुझे थिएटर का बहुत शौक था. उन्हीं दिनों मथुरा की मां और बरेली के पिता से जन्मी एक लड़की से दिल्ली में भेंट हुई. वो उन दिनों दिल्ली के आईपी कॉलेज से हिस्ट्री ऑनर्स कर रही थी. एक-दो बार पंडारा रोड (दिल्ली) स्थित लड़की के भाई के घर पर भी उससे मुलाकात हुई. मुलाकातों ने प्यार की ‘कच्ची-पगडंडियां’ बनाई तो, हम दोनों उन पर चलने की प्रैक्टिस करने लगे. कुछ समय बाद ही हमें अपनी चालें मजबूत हो जाने का अहसास हो गया. लिहाजा 11 मार्च, 1977 को प्यार को शादी के रिश्ते की डोर से बांध दिया. वो रिश्ता माला कुमार आज भी निभा रही हैं. इसके बावजूद कि, माला पढ़ाकू-संजीदा मगर, मैं तमाम उम्र हरफनमौला और अल्हड़ ही बना रहा. आज माला और मेरे पास मौजूद है ईश्वर का भेंट किया हुआ दो बेटियों का वो बेशकीमती गिफ्ट, जिसके सहारे हम दोनों की जिंदगी खुशहाल है. बस ईश्वर हमारी इन्हीं खुशियों की नेमतों को सलामती बख्शे.’

9 साल सीबीआई और देश के लिए खून-पसीना बहाने के बाद भी उसका डायरेक्टर क्यों नहीं बनाया गया...दिल्ली पुलिस कमिश्नर पद से रिटायर होने के बाद भी नीरज कुमार को इस सवाल का जबाब देने वाला कोई नहीं मिला

सीबीआई डायरेक्टर न बनाया जाना अबूझ पहेली?

सीबीआई में तमाम महत्वपूर्ण पदों पर नीरज कुमार करीब 9 साल तक डटे रहे. जाहिर सी बात है कि कोई न कोई काबिलियत ही उनको इतने समय तक सीबीआई जैसी देश की इकलौती संवेदनशील जांच एजेंसी की नौकरी करा पाई होगी. इसके बाद भी नीरज कुमार से सीबीआई की कुर्सी दूर रखी गई. इस बारे में पूछने पर नीरज कुमार कहते हैं, ‘इस सवाल का जबाब तो मुझे भी आज तक नहीं मिला कि, आखिर मुझमें वो कौन सी कमी-खामी थी, जिसके चलते मुझे सीबीआई डायरेक्टर नहीं बनाया गया? यह सवाल आज तक मेरे लिए ही अबूझ पहेली बना हुआ है. मैं आपको (इस लेखक को) उस सवाल का माकूल जबाब भला कैसे दे सकता हूं? हां, इस बात को नीरज कुमार सहज स्वीकारते हैं कि दिल्ली के निर्भया गैंगरेप और हत्याकांड ने उन्हें काबिल बना दिया. यही वो कांड था जिसने उन्हें दुश्मन और दोस्तों की पहचान कराई.’

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आज भी याद हैं इंस्पेक्टर मौजी खान

बात है वर्ष 1978 के आसपास की. मैं आईपीएस ट्रेनिंग से वापस दिल्ली लौटा. बतौर एएसपी (सहायक पुलिस अधीक्षक) मुझे ट्रेनिंग करने के लिए भेजा गया थाना डिफेंस कॉलोनी में. उस वक्त डिफेंस कॉलोनी के एसएचओ थे इंस्पेक्टर मौजी खान. इंस्पेक्टर मौजी खान की उन दिनों दिल्ली पुलिस में तूती बोलती थी.

रिटायर्ड एसीपी मौजी खान, जिन्होंने 12 साल पहले ही कर दी थी नीरज कुमार के दिल्ली पुलिस कमिश्नर बनने की भविष्यवाणी

1970 के दशक में दिल्ली पुलिस में इंस्पेक्टर मौजी खान की काबिलियत और उनके तफ्तीशी-हुनर की मिसालें पेश की जाती थीं. सही मायने में थाने चौकी की असली पुलिसिंग मैंने मौजी खान से ही हासिल की. मौजी खान के दिशा-निर्देशन में ‘डी-कोर्स’ ट्रेनिंग पूरी होने के बाद पहली पोस्टिंग मिली, 1979 में बतौर एसीपी (सहायक पुलिस आयुक्त) नई दिल्ली जिले के चाणक्यपुरी सब-डिवीजन में. चाणक्यपुरी से मेरा ट्रांस्फर अरुणाचल प्रदेश में बतौर पुलिस अधीक्षक (एसपी) कर दिया गया.

इंस्पेक्टर की भविष्यवाणी हुई सच

31 जनवरी, 1997 को एसीपी क्राइम अगेंस्ट वूमैन सेल नानकपुर से रिटायर मौजी खान और उनके कुनबे से इस संवाददाता/लेखक का दो दशक पुराना ताल्लुक रहा है. दौरान-ए-गुफ्तगू इस लेखक और मौजी खान के बीच नीरज कुमार पर भी गाहे-ब-गाहे चर्चा होती थी. मुझे खूब याद है कि 2000 के दशक में ही मौजी खान ने मेरे साथ चल रही चर्चा में ही इस बात की भविष्यवाणी कर दी थी कि, एक दिन 1976 बैच के आईपीएस में से नीरज कुमार दिल्ली के पुलिस कमिश्नर जरुर बनेंगे. क्योंकि उनमें कमिश्रनर बनने का हुनर ‘डी-कोर्स’ के दौरान ही मौजी खान ने ताड़ लिया था.

वर्ष 1978 में नीरज कुमार को अपनी शागिर्दी में थाने-चौकी की ट्रेनिंग कराने वाले मौजी खान उनकी तफ्तीश करने के तरीके के कायल हो चुके थे. हालांकि आज मौजी खान इस दुनिया में नहीं हैं. 14 नवबंर, 2011 को उनका इंतकाल (निधन) को चुका है. लेकिन यह लेखक इस बात का गवाह है कि, मौजी खान की नीरज कुमार के पुलिस कमिश्नर बनने की भविष्यवाणी करीब 12 साल बाद सच साबित हुई.

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इस बात की तस्दीक मौजी खान के बेटे अहमद मौजी खान भी करते हैं. बकौल अहमद मौजी खान, ‘नीरज कुमार सर जब दिल्ली पुलिस के स्पेशल सीपी एडमिन थे, तो मैं अब्बा के साथ उनसे मिलने दिल्ली पुलिस मुख्यालय गया था. अब्बा जितना नीरज सर के बारे में घर में चर्चा करते थे, उससे कहीं ज्यादा इज्जत नीरज साहब ने अब्बा को बख्शी थी.’

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र खोजी पत्रकार हैं)

(‘संडे क्राइम स्पेशल’ में जरूर पढ़िए...

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