live
S M L

वो भी जमाना था जब शार्प-शूटर इंस्पेक्टर की ‘कप्तानी’ में SSP, डाकुओं के सीने में झोंक देते थे गोलियां!

‘जंग’ में सब जायज है. दरकार इसकी होती है कि आखिर मैदान में फतेह की उम्मीद कौन जगा सकता है? जीत कमांडर ने दिलाई या फिर सिपाही ने? जंग के बाद, ऐसे तमाम सवाल बेईमानी और जमींदोज हो जाते हैं.’

Updated On: Oct 21, 2018 03:56 PM IST

Sanjeev Kumar Singh Chauhan Sanjeev Kumar Singh Chauhan

0
वो भी जमाना था जब शार्प-शूटर इंस्पेक्टर की ‘कप्तानी’ में SSP, डाकुओं के सीने में झोंक देते थे गोलियां!

‘जंग’ में सब जायज है. दरकार इसकी होती है कि आखिर मैदान में फतेह की उम्मीद कौन जगा सकता है? जीत कमांडर ने दिलाई या फिर सिपाही ने? जंग के बाद, ऐसे तमाम सवाल बेईमानी और जमींदोज हो जाते हैं.’ मेरे ऐसे ही तमाम ‘मत’ की पुरजोर पैरवी करती है पड़ताल की यह ‘खास-किश्त’. जिसमें पेश है 1980 के दशक की यानि 38 साल पुराने ‘पुलिसिया-एनकाउंटर’ की अविश्वसनीय कहानी. उन्हीं ‘एनकाउंटर-स्पेशलिस्टों’ में से कुछ की ‘मुंह-जुबानी’ जो, दिन-दहाड़े हुई उस ‘खूनी-मुठभेड़’ में शामिल थे.

आसानी से गले न उतरने वाली उस एनकाउंटर की खास बात यह भी थी कि टीम में जिला पुलिस अधीक्षक (एसपी) मय दो-दो दबंग डिप्टी एसपी खुद भी शामिल थे. वो भी महज एक अदद ‘शार्प-शूटर सिपाही’ की हैसियत से. किसी को भी जानकर हैरत होगी कि आईपीएस एसपी/डिप्टी एसपी से सजी-धजी उस ‘घातक’ टीम को ‘लीड’ कर रहा था, साधारण सा पतला-दुबला मगर तीव्र-बुद्धि वाला वो मातहत इंस्पेक्टर. खाकी वर्दी की नौकरी के दौरान जिसने अपने इन्हीं तमाम आला-अफसरों’ को सैल्यूट ठोंकते-ठोंकते. घिसा दी होंगी पुलिसिया जिंदगी में न जाने कितनी जोड़ी खाकी-वर्दियां और कितने जोड़ी चमड़े के बूट?

पढ़ने गये थे नमाज, रोजे गले पड़ गये

‘1970-80 के दशक में डाकू ‘शिवराज-गैंग’ उत्तर प्रदेश पुलिस का दुश्मन नंबर-वन था. 3 फरवरी 1982 को एसपी एटा आईपीएस विक्रम सिंह और मेरी टीम ( इंस्पेक्टर रामचरन सिंह थानाध्यक्ष अलीगंज) ने खूंखार डाकू शिवराज सहित उसके गैंग का सफाया एक ही एनकाउंटर में कर दिया. एनकाउंटर के बाद शाबासी में पीठ ठुकवाने की चाहत पाले मेरी पुलिस-टीम तत्कालीन पुलिस महानिरीक्षक (आईजी जोन) नरेश कुमार के सामने पेश हुई. उम्मीद थी इनाम और इकराम मिलेगा. वहां पहुंचे तो मिल गई अगली चुनौती.

आईजी बोले कमजोर डाकू मार डाला!

आईजी साहब बोले, “रामचरन सिंह डाकू शिवराज पर इनाम भले ही एक लाख का था. जिस तरह से तुम खोज-खोज कर एनकाउंटर करने के महारथी हो, उस गुणा-गणित से, शिवराज तुम्हारे सामने बहुत कमजोर डकैत था. इसलिए तुमने उसे घेरकर ‘शिकार’ (मार डाला) कर लिया. एक-एक लाख के इनाम का वजन सिर रखकर भटक रहे महावीर सिंह यादव उर्फ महाबीरा और करुआ डाकू को लाकर दिखाओ.' शाबासी के बदले आईजी साहब की उस खुली-चुनौती को. मैंने तैश में ही सही लेकिन ‘कुबूल’ कर लिया. यह कहते हुए, ‘एटा में अगर पोस्टिंग रही तो साहब, महाबीरा से भी जल्दी ही किसी दिन मिल लूंगा.’

जिस डाकू से पुलिस का ‘हलक’ सूखता था

गौरतलब है कि जिस महाबीरा और करुआ डाकू को निपटाने का जिम्मा आईजी नरेश कुमार ने इंस्पेक्टर रामचरन सिंह के कंधों पर डाला था. उन दोनों डाकू के नाम से 1970 के दशक में पुलिस वालों का ‘हलक’ सूखता था. वजह थी इन दोनो डकैतों द्वारा 1970 के आसपास दारोगा के साथ की गई बर्बरता.

एटा-बदायूं के बीच मौजूद जंगलों में इन दोनों डाकूओं ने यूपी पुलिस के दारोगा का पत्नी सहित अपहरण कर लिया. दारोगा के सामने ही पत्नी से बलात्कार किया. उस जमाने में भी ऑटोमेटिक राइफल, स्टेनगन से सुसज्जित डाकुओं ने मौके पर ही दारोगा को टुकड़े-टुकड़े काटकर लाश नदी में बहा दी थी.

उस्ताद के अल्फाजों ने नींद उड़ा दी

डाकू महाबीरा गैंग को घंटो चली मुठभेड़ में मार गिराने के तुरंत बाद बायें से दायें यूपी के डिप्टी एसपी अमर सिंह, एटा के पूर्व एसएसपी आईपीएस विक्रम सिंह और अलीगंज थाना प्रभारी दबंग इंस्पेक्टर रामचरन सिंह

डाकू महाबीरा गैंग को घंटो चली मुठभेड़ में मार गिराने के तुरंत बाद बाएं से दाएं यूपी के डिप्टी एसपी अमर सिंह, एटा के पूर्व एसएसपी आईपीएस विक्रम सिंह और अलीगंज थाना प्रभारी दबंग इंस्पेक्टर रामचरन सिंह ( फोटो सौजन्य: सज्जन सागर )

‘आईजी साहब से मिलने के बाद मैं थाना अलीगंज पहुंच गया. रात भर मगर नींद नहीं आई. थाने में लेटा-लेटा उन सब चेहरों को (मुखबिरों) आंखों के सामने लाता-हटाता रहा जो, मुझे डाकू करुआ और महाबीरा तक पहुंचा सकते थे.

आईजी साहब के शब्द, 'रामचरन, शिवराज डाकू तुमसे कमजोर था. इसलिए तुमने उसे घेरकर मार लिया. अपनी टक्कर के एक लाख के इनामी करुआ उर्फ कलुआ डाकू या उसके साथी महाबीरा में से किसी को लाकर दिखाओ.' मेरे दिमाग में रात भर गूंजते रहे. यह बात है फरवरी 1982 के अंत की. उन दिनों मैं एटा जिले के थाना अलीगंज का इंस्पेक्टर था.’

इंस्पेक्टर ने तलब किए ‘एसपी’ साहब!

‘20 मार्च 1982 की बात है. मुखबिर ने थाने आकर खबर दी कि डाकू करुआ अपने सहयोगी महाबीरा और बाकी डाकुओं के साथ जहान नगर गांव में पहुंचेगा. जो कि थाना अलीगंज (अब थाना राजा का रामपुर) से करीब 13-14 किलोमीटर दूर था. मैंने खबर तुरंत एसपी एटा विक्रम सिंह को दे दी. मैने साहब से कहा, 'शिकार' पहुंच गया है. जितनी जल्दी हो जहान नगर गांव के करीब पहुंचिए. विक्रम सिंह, डिप्टी एसपी अमर सिंह और मैं मय फोर्स जहान नगर गांव के करीब जा पहुंचे. दिन में 2 बजे कनफर्म हुआ कि करुआ-महाबीरा का गैंग सुरेश नाई के तंबाकू-गोदाम में खाना खाने के इंतजार में छिपा बैठा है. गैंग की दावत के लिए दोपहर का खाना बनाया जा रहा था. पुलिस के पहुंचने की खबर से बेखबर डाकुओं पर मैंने उसी वक्त झपट्टा मारने की रणनीति बनाई.’

मातहत का हुक्म बजाने को बेताब ‘साहब’!

करुआ-महाबीरा जैसे खूनी डाकुओं का एक ही दिन में नाम-ओ-निशां मिटा देने वाली टीम के कप्तान रहे और इस वक्त भी मौजूद इंस्पेक्टर रामचरन सिंह के अल्फाजों में, ‘करुआ-महाबीरा गैंग को उस दिन घेरना बहुत जरूरी था. क्योंकि यह गैंग आसानी से पुलिस के हाथ लगता ही नहीं था. मैने चार टीम बनाईं. मेरी टीम सादे लिबास में थी. एसपी विक्रम सिंह और डिप्टी एसपी अमर सिंह (अलीगंज सब-डिवीजन के सर्किल आफिसर) तथा डिप्टी एसपी सुरेंद्र सिंह नेगी की टीम ब-वर्दी रखी.

एसपी विक्रम सिंह की टीम को मैंने जिस तंबाकू गोदाम में डाकू छिपे थे, उससे 100 गज दूर दक्षिण दिशा में लगाया. डिप्टी एसपी अमर सिंह की टीम गोदाम की पश्चिम दिशा में लगाई. जबकि गोदाम के उत्तरी छोर पर सर्किल-ऑफिसर जैथरा सुरेंद्र सिंह नेगी (बाद में एसएसपी और डीआईजी बनकर रिटायर हुए) की टीम तैनात की.’

डाकुओं ने गोलियों से दरवाजा ढहा दिया

‘गोदाम के पश्चिम में मैंने अपनी टीम के साथ मोर्चा संभाला. दबे पांव धीरे-धीरे बढ़ते हुए मैने सेल्फ लोडेड राइफल (एसएलआर) से गोदाम पर अंधाधुंध फायर झोंक दिए. जवाबी फायरिंग में SLR जैसी घातक राइफल की गोलियों से डाकुओं ने गोदाम का मुख्य द्वार एक सेकेंड में ढहा दिया. उसी दौरान विक्रम सिंह, अमर सिंह और सीओ जैथरा सुरेंद्र सिंह नेगी की टीमों ने भागते हुए डाकुओं पर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं. गोदाम से सुरक्षित बचकर भागे डाकू जंगल में जा छिपे.

बाएं से दाएं 1970 के दशक के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट रामचरन सिंह के पौत्र चौ. गुरुष गैबरियल सिंह, पुत्रवधू Ewa Maria Strzelczyk Singh, बड़ा बेटा शाकेंद्र सिंह व छोटा पौत्र चौधरी दिग्विजय डेनियल सिंह

बाएं से दाएं 1970 के दशक के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट रामचरन सिंह के पौत्र चौ. गुरुष गैबरियल सिंह, पुत्रवधू Ewa Maria Strzelczyk Singh, बड़ा बेटा शाकेंद्र सिंह व छोटा पौत्र चौधरी दिग्विजय डेनियल सिंह

शाम ढले तक करीब 3 घंटे डाकू करुआ और महाबीरा गैंग से हमारी आमने-सामने मुठभेड़ चली. पश्चिम दिशा में मैंने तंबाकू के खेत में अपनी टीम के साथ जमीन पर लेटकर पोजीशन ले रखी थी. जबकि दक्षिण दिशा से डाकुओं की बंदूक राइफलें गोलियां उगल रही थीं.’ करीब 38 साल बाद उस एनकाउंटर का आंखों-देखा हाल सुनाते हुए बताते हैं इंस्पेक्टर रामचरन सिंह.

पुलिस को जब सामने मौत खड़ी दिखी

उस वक्त एटा जिले के एसपी रहे आईपीएस विक्रम सिंह के शब्दों में, ‘पुलिस पार्टी में शामिल जवानों को उस वक्त मौत सामने खड़ी दिखाई देने लगी जब, बेखौफ डाकू जंगल से निकल कर रेंगते-रेंगते हमारे सामने आकर 50-60 गज से गोलियाँ बरसाने लगे. पुलिस और डाकू अब एक दूसरे को देख पा रहे थे.’ उस एनकाउंटर में अपने एसपी और डिप्टी-एसपी को लीड कर रहे टीम-कमांडर इंस्पेक्टर रामचरन सिंह के शब्दों में, ‘गैंग में उस्तादों (गैंग सरगना) के जूते उठाने वाले छुटभैय्ये बदमाश मौत सामने देखकर भाग गए. करुआ, महाबीरा, रोहताश सहित पांच-छह डाकू मारे गए.’

जिंदा बच जाते दोनों डाकू अगर

एटा जिले की कोतवाली अलीगंज 1980 के दशक में जहां तैनाती के दौरान इंस्पेक्टर रामचरन सिंह ने शायद ही किसी डाकू की जिंदगी बख्शी हो...!

एटा जिले की कोतवाली अलीगंज 1980 के दशक में जहां तैनाती के दौरान इंस्पेक्टर रामचरन सिंह ने शायद ही किसी डाकू की जिंदगी बख्शी हो...!

महाबीरा-करुआ जैसे खूंखार डाकुओं को महज तीन घंटे में ही ढेर कर लिए जाने के बारे में, पूछे जाने पर बेबाकी से बताते हैं दबंग इंस्पेक्टर रामचरन सिंह, ‘दरअसल अगर आईजी नरेश कुमार साहब मुझे चैलेंज नहीं करते, तो 20 मार्च 1982 को भी करुआ-महाबीरा गैंग तबाह नहीं होता. असल में पूछिए तो आईजी की चुनौती ने ही महाबीरा-करुआ डाकू की उम्र कम करा दी थी. वरना मैं इन दोनों के अलावा किसी और बड़े काम पर (इनसे भी खतरनाक डाकू पोथीराम ) लगा हुआ था. 20 मार्च 1982 को दोनों नहीं मरते तो चार-छह महीने बाद मरना था. उन दोनों को मरना मेरी ही गोलियों से था. उस एनकाउंटर वाले दिन भी डाकू महाबीरा-कुरुआ हड़बड़ा गए. इसलिए वे मारे गए. अगर उन्हें (महाबीरा-करुआ डाकू गैंग) जरा भी संभलने का मौका मिलता तो, तबाही पुलिस के खेमे में ही मचनी तय थी.’

एक IPS की मौत पर कैसे मुंह दिखाता?

‘उस एनकाउंटर में दरअसल एसपी साहब (विक्रम सिंह) चाहते थे कि वे मेरी वाली अटैकिंग पार्टी के साथ रहें. ताकि आमने-सामने आने पर डाकुओं के सीनों में बेधड़क अंधाधुंध गोलियां झोंक सकें. अटैकिंग पार्टी को मैं खुद ही लीड कर रहा था. इतनी खतरनाक मुठभेड़ों में अक्सर अटैकिंग पार्टी के ही जवान अक्सर शहीद होते हैं. मेरे मन में था कि मैं या मेरी टीम का कोई जवान शहीद हुआ तो, पुलिस का ज्यादा कोई नुकसान नहीं होगा. देश का एक आईपीएस अफसर (विक्रम सिंह) अगर मारा गया तो मैं, जिंदगी भर समाज को मुंह दिखाने काबिल नहीं रहूंगा. इसलिए मैने उन्हें (विक्रम सिंह) जान-बूझकर अपनी डायरेक्ट अटैकिंग पार्टी में न रखकर ‘साइड-शैडो’ टीम का नेतृत्व सौंपा था.’ अतीत के खुबसूरत किस्से बताते-सुनाते 76 साल के रामचरन सिंह की आंखों में आंसू छलक आते हैं.

जब इंस्पेक्टर बना पुलिस कप्तान का ‘बॉस’!

‘मेरे सिर-शरीर और काम करने के तौर-तरीके पर. बुलेट-प्रूफ जैकेट की मानिंद खुला-हाथ था. उस जमाने में 31-32 साल के दबंग युवा के आईपीएस विक्रम सिंह (यूपी कॉडर 1974 बैच) का. एटा में मेरे एसपी और फिर वहीं एसएसपी बनाये गए विक्रम साहब को बहैसियत मातहत-इंस्पेक्टर दिन-रात मैं चाहे जितने भी सैल्यूट ठोंकता. दौरान-ए-एनकाउंटर वह मुझे जबरिया ही अपना, 'उस्ताद-कमांडर' घोषित कर डालते थे. बेझिझक, सर-ए-आम तमाम सिपाही-हवलदार-दारोगाओं की भीड़ के सामने. मुझ जैसे अदना से इंस्पेक्टर की शागिर्दी कुबूल करने में अगर कोई, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक/आईपीएस (एसएसपी विक्रम सिंह) दिली-खुशी महसूस करता हो तो, पुलिसिया नौकरी में भला मुझे इससे बड़ा कौन सा सम्मान या मेडल हासिल हो सकता था?’ इस लेखक से ही सवाल करते हैं इंस्पेक्टर रामचरन सिंह.

वक्त की हर शै गुलाम,वक़्त का हर शै पे राज ..मैने डाकू नहीं बख्शे और वक्त ने मुझे नहीं बख्शा ...यही दुनिया का रिवाज है.. 76 साल की उम्र में जिंदगी बसर कर रहे कल के दबंग यूपी पुलिस की आन-बान-शान रहे रामचरन सिंह

वक्त की हर शै गुलाम,वक़्त का हर शै पे राज ..मैने डाकू नहीं बख्शे और वक्त ने मुझे नहीं बख्शा ...यही दुनिया का रिवाज है.. 76 साल की उम्र में जिंदगी बसर कर रहे कल के दबंग यूपी पुलिस की आन-बान-शान रहे रामचरन सिंह

सिपाही गोली खाते, अफसर दफ्तर में सेव!

‘पहले की तरह उस दिन भी (20 मार्च 1982) जिला पुलिस कप्तान (एसपी) होने के बाद भी विक्रम सिंह ने करुआ-महाबीरा डाकू गैंग नेस्तनाबूद करने वाली टीम की बागडोर मेरे हाथ थमा दी. जबकि खुद मय डिप्टी एसपी अमर सिंह. विक्रम सिंह साहब मेरे इशारे (हुक्म) का इंतजार करने लगे. आमने-सामने की दिन-दहाड़े हुई खूनी-मुठभेड़ के दौरान सिपाही-हवलदार-दारोगा के साथ. जमीन पर लेटकर गोलियां झोंकने की कुव्वत रखने वाले पुलिस अधीक्षक की मुठभेड़-स्थल पर मौजूदगी से बड़ा. कम से कम मेरे लिए तो पुलिसिया नौकरी में कोई दूसरा ‘सम्मान’ नहीं हो सकता है. आज एकदम उल्टा हो रहा है. मुठभेड़ के दौरान सिपाही हवलदार मरते-खपते रहते हैं. ज्यादातर मामलों में आला पुलिस अफसर दफ्तरों में बैठे सेव खा रहे होते हैं.’ बताते हैं अब से करीब 4 दशक पहले उस खूनी एनकाउंटर को, अंजाम देने वाली टीम के ‘कमांडर’ रहे इंस्पेक्टर रामचरन सिंह.

इंस्पेक्टर नहीं खाकी में फरिश्ता था वह

‘38 साल पुरानी रूह-कंपा देने वाले उस एनकाउंटर का जिक्र छिड़ने पर पर बताते हैं. एटा के तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और यूपी के रिटायर्ड पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह, ‘इंस्पेक्टर रामचरन सिंह सिर्फ पुलिसिकर्मी भर नहीं थे. यूपी पुलिस महकमे के पास खाकी-वर्दी में मौजूद वह कोई फरिश्ता था. जिसके ऊपर किसी अदृष्य दैवीय शक्ति की कृपा या साया मौजूद था. मुझे खुशी है कि मैंने ज्यादातर एनकाउंटर की कमान रामचरन सिंह के हाथों में ही रखी. उन एनकाउंटर्स में जैसा रामचरन सिंह का हुक्म होता था, मैं वैसा ही करता था. बेशक पुलिसिया तिजोरी का ‘ताला’ मैं था. चाबियां मगर सब रामचरन सिंह की जेब में होती थीं. करुआ-महाबीरा गैंग को ढेर करने वाले दिन भी अगर, इंस्पेक्टर रामचरन की जगह किसी और के हाथ में ‘कमान’ होती तो, हम (यूपी एटा पुलिस) जान-माल का बहुत नुकसान झेलते.’

दबंग रामचरन सिंह इंस्पेक्टर नहीं बल्कि उस जमाने में वर्दी की शान और डाकूओं की जान का सबसे बड़ा दुश्मन था...50 साल बाद भी याद है रामचरन सिंह के साथ किया हर एक एनकाउंटर...यूपी के पूर्व पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह

दबंग रामचरन सिंह इंस्पेक्टर नहीं बल्कि उस जमाने में वर्दी की शान और डाकूओं की जान का सबसे बड़ा दुश्मन था...50 साल बाद भी याद है रामचरन सिंह के साथ किया हर एक एनकाउंटर...यूपी के पूर्व पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह

डाकू हलकान थे, अफसर जिसके कायल

1960 से 1990 के दशक तक अपराधियों में खौफ का नाम रहे रामचरन सिंह का जन्म दिल्ली से सटे यूपी के बुलंदशहर जिले के गांव चरोरा (पहले थाना जहांगीराबाद अब थाना आहार) में हुआ था. 3 जनवरी 1943 को चौधरी रिसाल सिंह के यहां जन्म लेने वाले रामचरन सिंह ने यूपी पुलिस 1966 में बतौर सब-इंस्पेक्टर जॉइन की. रामचरन सिंह के पुत्र शाकेंद्र सिंह और शैलेंद्र सिंह गुड्डू के मुताबिक, ‘कुनबे में उनके पिता पुलिस की नौकरी करने वाले पहले शख्स थे. दादा-दादी (चौधरी रिसाल सिंह-मुख्यतियार कौर) पुलिस की नौकरी के खिलाफ थे.’ पौत्र चौधरी गुरुष गैबरियल सिंह (शाकेंद्र सिंह का पुत्र) के मुताबिक, ‘मैं पढ़ाई पूरी करने के बाद गुड़गांव (गुरुग्राम) में एक मल्टी-नेशनल कंपनी में नौकरी कर रहा हूं. बजरिये ‘फ़र्स्टपोस्ट हिंदी’ मुझे इतनी उम्र में पहली बार , दादा जी द्वारा जवानी के दिनों में पुलिस की नौकरी में किये जा चुके, बड़े-बड़े एनकाउंटर और कारनामों का पता अब चल रहा है.’

पुलिस अफसर चाहते थे पापा वर्दी न उतारें!

श्रीनगर (कश्मीर) में तैनात भारतीय सेना में कर्नल संजीव कुमार की पत्नी चेतना सिंह (रामचरन सिंह की बेटी) के शब्दों में, ‘मुझे नहीं लगता कि पापा ने, पुलिस की नौकरी में कभी कोई वो ओछा काम या हरकत की होगी जिससे, समाज में उनके बच्चे सिर उठाकर जीने में परेशानी या हिकारत महसूस करें. सम्मान को बचाये रखने की खातिर ही.

सड़क हादसे में घायल होने पर (सीबीसीआईडी इंस्पेक्टर बरेली में तैनाती के दौरान) पापा ने, 1990 के दशक में पुलिस की नौकरी से इस्तीफा दे दिया. हालांकि तब यूपी पुलिस महकमे के तमाम ‘सुपर-कॉप’ चाहते थे कि, पापा (इंस्पेक्टर राम चरन सिंह) वर्दी न उतारें.’

आगरा में मौजूद 39 साल पुरानी वो सम्मान पट्टिका जिस पर आगरा शहर के सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान से सम्मानित होने वालों में दर्ज है. सबसे ऊपर पहले नंबर पर इंस्पेक्टर रामचरन सिंह काल नाम (फोटो- सज्जन सागर)

आगरा में मौजूद 39 साल पुरानी वो सम्मान पट्टिका जिस पर आगरा शहर के सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान से सम्मानित होने वालों में दर्ज है. सबसे ऊपर पहले नंबर पर इंस्पेक्टर रामचरन सिंह का नाम (फोटो- सज्जन सागर)

सम्मानित हुआ इंस्पेक्टर, हैरत में सल्तनत!

छोटे पुत्र शैलेंद्र सिंह और पुत्रवधु एकता सिंह के मुताबिक, ‘बात है 1979-80 की. पिताजी (रामचरन सिंह) आगरा जिले के खैरागढ़ थानाध्यक्ष से ट्रांसफर होकर लखनऊ जा चुके थे. एक दिन आगरा के अखबारों में खबर छपी कि सेठ अचल ट्रस्ट सन् 1979 का आगरा शहर के ‘सर्वश्रेष्ठ-नैतिक-सदाचारी नागरिक’ का सम्मान खैरागढ़ थानाध्यक्ष इंस्पेक्टर रामचरन सिंह को दे रहा है.

इस खबर से यूपी पुलिस महकमा और हमारा परिवार हैरत में था. आम-आदमी का सम्मान किसी पुलिस इंस्पेक्टर को भला कैसे मिल सकता है? आसानी से गले न उतरने वाला सच मगर वही था.’ बकौल बड़े बेटे शाकेंद्र सिंह के मुताबिक, ‘पुलिस की नौकरी में पापा द्वारा कमाई गयी यही इज्जत. हमारे परिवार और आने वाली पीढ़ियों की ‘पूंजी’ है.’

( इस ‘संडे क्राइम स्पेशल’ में जरूर पढ़ें: ‘जहां कहते ‘पढ़ाई का छोरी से के जोड़? बाबुल ने बेटी की खातिर वहीं, चंदे से खुलवा ‘स्कूल’ कर दी थी जमाने की जुबान बंद! आखिर कैसे आम से ‘खास’ होकर, दो बच्चों की वकील माँ बन गई ‘चाइल्ड वेलफेयर कमेटी की चेयरपर्सन?’)

0

अन्य बड़ी खबरें

वीडियो
KUMBH: IT's MORE THAN A MELA

क्रिकेट स्कोर्स और भी

Firstpost Hindi