view all

हमारे राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह: मीरी का फर्ज निभाया और पीरी को रुसवा ना किया...!

सिक्खी में ‘पीरी’ (अध्यात्म) और ‘मीरी’ (राजसत्ता) की दो तलवारें गुरु हरगोविन्द के जमाने से एक साथ रहती आई हैं

Chandan Srivastawa

जिसे लोकतंत्र कहते हैं वह भी सत्ता पाने की जंग ही है भले ही यह जंग चुनावी मैदान में लड़ी जाती है और फैसला बुलेट की जगह बैलेट से होता है. मोहब्बत की तरह जंग के बारे में भी कहा जाता है कि उसमें सब कुछ जायज है. बीते जनवरी महीने की 29 तारीख को पंजाब के फरीदकोट जिले के ‘कोट कपूरा’ में यही कहावत सच होती दिखी.

पंजाब की सियासत का विरोधाभास


सूबे में फरवरी के पहले हफ्ते में चुनाव होने वाले थे और पंजाब में वंशवादी राजनीति के प्रतीक बन चले ‘बादल-परिवार’ के साथ कोट कपूरा की चुनावी रैली में मंच पर बैठे थे कुनबापरस्ती की सियासत के सबसे मुखर आलोचकों में से एक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी!

पता नहीं ‘बादल-कुनबे’ की उस चुनावी रैली में किसी को यह बात याद आई या नहीं कि कोट कपूरा ने देश को एक ऐसा राष्ट्रपति दिया है जिसने अपने बेटे को समझाया था- ‘राजे दा पुत्त राजा नहीं होणा चाहिदा’ (राजा के बेटे को राजा नहीं होना चाहिए).

‘कोट कपूरा’ इलाके के ही एक छोटे से गांव संधावां में जन्म हुआ था देश के सातवें राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह का. बादल-परिवार की 29 जनवरी वाली चुनावी रैली के वक्त ज्ञानी जैल सिंह के अस्सी वर्षीय बेटे जोगिन्दर सिंह से एक पत्रकार ने भेंट की. जोगिन्दर सिंह ने एक वाकये को याद करते हुए उसे बताया कि ’मेरे पिता कहा करते थे कि राजा के लड़के को राजा नहीं होना चाहिए. हमलोग आनंदपुर साहिब गुरुद्वारा गए थे तो मेरे पिता ने कहा वचन दो कि तुम पंजाब के बाकी मुख्यमंत्रियों के बेटों की तरह नहीं बनोगे.’

जोगिन्दर सिंह ने पिता के जीवित रहते उस वचन को निभाया. ज्ञानी जैल सिंह की मृत्यु (1994) के बाद वे कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़े लेकिन हार गए और इसकी वजह का भी अनुमान लगाया जा सकता है.

यह भी पढ़ें: हमारे राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद: आपको याद करें और फिर इमरजेंसी को याद करें..

सियासत को कोई एक अहम लम्हा किसी राजनेता को हमेशा के लिए एक खास छवि में कैद कर सकता है, बाद के वक्तों में तथ्यों के आधार पर बहस होते रहती है लेकिन राजनेता की वह छवि कायम रहती है. सिख समुदाय से देश के पहले राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और उनके परिवार ने सियासत की इस तल्ख सच्चाई को बड़ी शिद्दत से महसूस किया है.

पूरे देश में जिसे ऑपरेशन ब्लूस्टार (जून,1984) के नाम से जाना जाता है उसे पंजाब का सिख जन-मानस अपने सबसे पवित्र धर्मस्थल स्वर्णमंदिर पर हमले के रूप में देखता आया है. ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद दो सिख बॉडीगार्ड के हाथों प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या (अक्तूबर 1984) हुई, जनाक्रोश को हवा देकर पूरे भारत में सिख समुदाय के निर्दोष लोगों को निशाना बनाया गया. दिल्ली में तो एक तरह से सिख समुदाय के लोगों का कत्ल-ए-आम हुआ.

इन झंझावाती घटनाओं के वक्त ज्ञानी जैलसिंह देश के राष्ट्रपति थे और पंजाब का सिख जन-मानस उन्हें लंबे समय तक एक ना एक अर्थ में इन घटनाओं का दोषी मानता रहा. माना जा सकता है कि ऑपरेशन ब्लूस्टार और 1984 के दंगे को लेकर पिता ज्ञानी जैल सिंह के बारे में बनी यह धारणा भी पुत्र जोगिन्दर सिंह की चुनावी हार का कारण बनी होगी.

जैलसिंह की कहानी सवाल करती है

एक राष्ट्रपति के रूप में ज्ञानी जैलसिंह की कहानी को उनके धर्मपरायण सिख होने से अलग करके नहीं पढ़ा जा सकता. ऑपरेशन ब्लूस्टार और 1984 के दंगे इस कहानी का सबसे अहम पड़ाव साबित हुए.

इस पड़ाव पर दिन का खून सना उजाला है. इस खून सने उजाले में आप भारत से अलग खालिस्तान बनाने पर अड़े खाड़कुओं और भारतीय सेना की लड़ाई की बारूदी गंध के बीच स्वर्णमंदिर पहुंचे एक राष्ट्रपति को गजब के धीरज के साथ अपना फर्ज निभाता देखते हैं.

और, इस पड़ाव पर एक खूब गहरा अंधेरा है. इस अंधेरे के एकांत में अपने राष्ट्रपति होने का बोझ संभाले एक धर्मपरायण सिख है- अपने दुख में निहायत अकेला ! ना उसके साथ उसके धर्म-बंधु हैं जिनकी पहचान के प्रतीक के रूप में उसे जाना गया और ना ही वह सरकारी मशीनरी जिसके साथ उसने प्राणपण से अपनी वफादारी निभाई!

ज्ञानी जैलसिंह की कहानी की यही खासियत है, वह अपने पाठक से सवाल पूछती है. आपको इस कहानी के बारे में कोई भी राय बनाने से पहले जवाब देना होता है कि आप कौन हैं. अगर आप अपने को सिर्फ और सिर्फ किसी किसी धर्म-समुदाय का सदस्य मानते हैं तो फिर ज्ञानी जैल सिंह नाम के अफसाने को पढ़कर आपकी आंखें गुस्से से लाल हो सकती हैं या फिर अफसोस के आंसुओं से गीली. अगर आप अपने को सिर्फ और सिर्फ सेक्युलर राष्ट्र-राज्य का नागरिक समझते हैं तो फिर ज्ञानी जैल सिंह की कहानी पढ़कर आपको गर्व होगा, लगेगा फर्ज को सही अर्थों में अंजाम दिया गया.

यह भी पढ़ें: हमारे राष्ट्रपति: क्या वीवी गिरि की जीत सचमुच एक तख्तापलट थी?

और, अगर आप आप मानते हैं कि एक जिंदगी एक से ज्यादा पहचान की तलबगार होती है और इन एक से ज्यादा पहचानों के अंतर्विरोध के बीच आपके विवेक का इम्तिहान लेते रहती है सो ना कायदे से हमेशा के लिए किसी धर्म-समुदाय का सदस्य हुआ जा सकता है ना ही हमेशा के लिए राष्ट्र-राज्य का नागरिक, कि इन दोनों पहचानों के बीच इतनी जगह बनी रहनी चाहिए जो एक सिरे से दूसरे सिरे के बीच आवाजाही बनी रहे- तो फिर ज्ञानी जैल सिंह की कहानी को पढ़कर आपको फिल्म उमराव जान की मशहूर गजल का यह शेर याद आएगा—

तुझको रुसवा ना किया,खुद भी पशेमां ना हुए- इश्क की रस्म को इस तरह निभाया हमने

जब इस कहानी की शुरुआत हुई

ज्ञानी जैल सिंह की इस दुविधाग्रस्त कहानी को समझने के लिए बहुत पीछे लौटना होगा, उनके जन्म (1916) और उसके तुरंत बाद के दशक में फरीदकोट रियासत के एक गरीब और मेहनती किसान के घर पांच भाई-बहनों के परिवार में जैल सिंह का जन्म हुआ. पिता किशनसिंह के पास खेती-बाड़ी की थोड़ी सी ही जमीन थी, सो परिवार के भरण-पोषण के लिए अपने गांव में बढ़ई का भी काम करते थे. बहुत धर्मपरायण थे वे और आस-पास उनकी पहचान बात-बरताव की सादगी के लिए थी. पिता की इसी धर्मपरायणता ने जैल सिंह को ‘गुरु ग्रंथसाहिब’ का प्रेमी बनाया.

शुरुआती स्कूली पढ़ाई तो कुछ खास नहीं हुई लेकिन कहते हैं, गुरु ग्रंथसाहिब के पाठ और प्रवचन में वे इतने दक्ष हुए कि इसी के बूते आगे चलकर शहीद सिख मिशनरी कॉलेज में दाखिला मिला हालांकि तब कॉलेज में दाखिले की न्यूनतम योग्यता (मैट्रिकुलेशन) से भी महरूम थे. गुरु ग्रंथसाहिब के अपने खूब सुथरे और गहरे ज्ञान के ही कारण कॉलेज की पढ़ाई के दिनों में उन्हें ज्ञानी की उपाधि मिली और फिर यह उपाधि ताउम्र उनके साथ जुड़ी रही.

सियासत में उनका आना भी अपने मजहब से हासिल इंसान-दोस्ती और इंसाफ के ख्यालों की वजह से हुआ होगा, सिक्खी धर्मपूर्वक राज करना सिखाती है- उसके म्यान में ‘पीरी’(अध्यात्म) और ‘मीरी’ (राजसत्ता) की दो तलवारें गुरु हरगोविन्द के जमाने से एक साथ रहती आई हैं. बेशक कहा यह भी जाता है कि सरदार भगत सिंह की फांसी ने 16 साल के ज्ञानी जैल सिंह को बहुत आंदोलित किया था और सियासत में उतरने का रुझान इस घटना के बाद ही बना.

यह भी पढ़ें: हमारे राष्ट्रपति: वाइस चांसलरी के लिए सिर्फ 80 रुपए लेते थे जाकिर हुसैन

1938 में आजादी के आंदोलन की रौ में ज्ञानी जैल सिंह ने फरीदकोट में कांग्रेस की स्थानीय इकाई बनाई और इसके बनने के साथ फरीदकोट रियासत के राजा के आंखों की किरकिरी बन गए. फरीदकोट के महाराजा कांग्रेस को अपना दुश्मन मानते थे और इसके स्थानीय स्वयंसेवक जैल सिंह को उन्होंने अपने गद्दी के लिए खतरा माना. जैलसिंह को राजा के कोप के कारण पांच साल की जेल हुई और कुछ दिनों तक रियासत से बाहर भी रहना पड़ा.

देश की आजादी के वक्त तक फरीदकोट एक छोटी सी रियासत थी. वहां के राजा अंग्रेजी रंग-ढंग में रमे थे और जब भारत नाम के गणतंत्र में देसी रियासतों के विलय की बात आई तो उन्होंने इनकार कर दिया. ‘पीरी और मीरी’ की गुरु-परंपरा का खास ख्याल रहा होगा जो फरीदकोट के राजा की गैर-मौजूदगी में वहां की आम जनता ने अपनी समानान्तर सरकार बनाई तो उसके इस आक्रोश की अगुवाई ज्ञानी जैल सिंह ने की और एक बार फिर से फरीदकोट के राजा के कोप के शिकार हुए, तब राजा का हुक्म हुआ था कि जैल सिंह के दोनों हाथ बांधकर जीप के पीछे लटकाकर घसीटा जाए. खैर, ऐन वक्त पर राजा को अक्ल आई और इस हुक्म पर अमल ना हुआ.

देश के बंटवारे के बाद के दिनों में पूर्वी पंजाब की रियासतें पटियाला, जिन्द, नाभा, कपूरथला और फरीदकोट का एक मिला-जुला संघ पटियाला एंड ईस्ट पंजाब स्टेटस् यूनियन (पेप्सू) नाम से बना. 1949 में इसी संघ में पटियाला के ज्ञान सिंह रारेवाला की सरकार बनी और ज्ञानी जैल सिंह राजस्व मंत्री बने. 1951 में चुनावों के बाद यहां कांग्रेस की सरकार कायम हुई तो कृषि-मंत्री बनाए गए. प्रदेश की राजनीति में उनका कद बढ़ा और 1972 के चुनाव के बाद वे सूबे के मुख्यमंत्री बने. 1980 के चुनाव में लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए और इंदिरा गांधी की सरकार में गृहमंत्री बनाए गए फिर 1982 में विपक्ष के उम्मीदवार जस्टिस हंसराज खन्ना को हराकर वे देश के पहले सिख राष्ट्रपति बने.

1984 के जून में स्वर्णमंदिर में जो कुछ हुआ उसकी पृष्ठभूमि पंजाब में ज्ञानी जैलसिंह की मदद से तैयार हुई थी. खालिस्तानी उग्रवाद के बहुत से कारण गिनाए जाते हैं लेकिन इस अलगाववाद का चेहरा बनता है ताकतवर दमदमी टकसाल के जरनैल सिंह भिंडरावाले से. इंदिरा गांधी की शह पर अकाली दल की सियासत की काट में जरनैल सिंह भिंडरावाले को आगे बढ़ाने में मददगार ज्ञानी जैल सिंह भी थे.

और, अचरज कीजिए कि जब जरनैलसिंह भिंडरावाले की कारस्तानियां भारतीय राष्ट्र-राज्य की एकता-अखंडता के लिए चुनौती बनने लगीं तो सिख जनमानस के मान-मनौव्वल के लिए इंदिरा गांधी ने प्रतीकात्मक उपाय के तौर पर ज्ञानी जैल सिंह को पहले गृहमंत्री बनाया फिर राष्ट्रपति के ओहदे पर बैठाया.

खालिस्तान और जरनैल सिंह भिंडरावाले

पंजाब के उग्रवाद पर काबू करने वाले प्रसिद्ध पुलिस अधिकारियों में से एक के.पी.एस गिल ने साध्वी खोसला के साथ मिलकर लिखी गई अपनी किताब ‘पंजाब- द एनेमी विदिन’ में सवाल उठाया है कि आखिर बंटवारे के दर्द को झलने वाला वह पंजाब जो आजादी के बाद के सालों में अपने किसानों की मेहनत के बूते देश में सबसे ज्यादा प्रतिव्यक्ति आमदनी वाला राज्य बना, उग्रवाद की जमीन कैसे साबित हुआ ?

यह भी पढ़ें: हमारे राष्ट्रपति: जब एक दार्शनिक बना देश का राष्ट्र प्रमुख

केपीएस गिल की किताब में इस सवाल के ढेर सारे जवाबों में एक यह भी है कि 1971 की जंग के बाद इंदिरा गांधी की लोकप्रियता चरम पर पहुंची, पंजाब में कांग्रेस की सरकार बनी और कांग्रेस की सूबाई सरकार के दौर में अकाली दल के नेताओं को अपनी पहचान का संकट सताने लगा. अकाली दल के नेता किसी बहाने की तलाश में थे कि सत्ता उन्हें फिर से हासिल हो.

केपीएस गिल के शब्दों में उस वक्त इंदिरा लहर रुकने का नाम नहीं ले रही थी और इंदिरा गांधी के बाकी विरोधियों की तरह अकाली दल भी चाहता था कि यह लहर जल्दी थम जाए. अकाली दल ने आंदोलन शुरू किया और इंदिरा गांधी को किसी ऐसे सहारे की जरूरत हुई जो इस आंदोलन की काट साबित हो. उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी भूलों में एक यह भी शुमार किया जाएगा कि उन्होंने जरनैल सिंह भिंडरावाले के लिए राह बनाई. संजय गांधी और जैल सिंह ने सिख उग्रपंथी जरनैल सिंह भिंडरावाले को खोजा और इंदिरा गांधी उस पर दांव खेलने के लिए तैयार हो गईं. 

‘पंजाब- द एनेमी विदिन’ में बताई गई तफ्सील को थोड़े में बयान कुछ यों किया जा सकता है कि स्वायत्ता की मांग वाला ‘आनंदपुर साहिब प्रस्ताव’ इंदिरा गांधी की लोकप्रियता की काट के लिए अकाली दल के हाथ तुरूप का पत्ता साबित हुआ. 1977 के चुनाव में पंजाब में अपनी हार से तिलमिलाए जैलसिंह ने अकाली दल की पंथप्रधान राजनीति की काट के लिए संजय गांधी और इंदिरा गांधी को सलाह दी कि किसी संत को ही इनके खिलाफ सामने लाना ठीक होगा.

अकाली दल में उन दिनों प्रकाश सिंह बादल, हरचंद सिंह लोंगोवाल और गुरचरणसिंह टोहड़ा की चलती थी. बादल अनुभवी राजनेता थे और जैलसिंह की कांग्रेसी सरकार को हराकर 1977 में सूबे के मुख्यमंत्री बने थे. हरचंद सिंह लोंगोवाल संत थे और इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के खिलाफ पंजाब में हुए आंदोलन की अगुवाई की थी और गुरचरण सिंह टोहड़ा अकाली राजनीति में वामपंथी रुझान और संबंधों वाले नेता थे.

संजय गांधी की सोच इन तीन नेताओं के बीच तकरार पैदा करने की थी लेकिन जैलसिंह की सलाह पर इन तीनों की राजनीति की काट में एक ऐसे संत की खोज शुरू हुई जो धर्मपंथ की बातों को लेकर कहीं ज्यादा उग्र हो. दमदमी टकसाल के जरनैल सिंह भिंडरावाले इसी खोज के परिणाम थे.

जैलसिंह और संजय गांधी की सोच थी कि जरनैल सिंह भिंडरावाले परंपरागत अकाली राजनीति की काट साबित होंगे और सत्ता में बने रहने के लिए अकाली नेताओं ने जो सुलह-समझौते किए हैं, उनका पर्दाफाश करके लोगों की बीच अकाली राजनीति की पोल खोलेंगे.

आगे हुआ यह कि जरनैल सिंह भिंडरावाले अकाली दल और कांग्रेस ही नहीं पूरे पंजाब के दुश्मन साबित हुए. आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को हू-ब-हू लागू करवाने की जिद में उग्रवादी बंदूकों ने गरजना शुरू किया और पूरा पंजाब 1980 के दशक की शुरूआत में एक कत्लगाह में तब्दील होता नजर आया.

1984 का जून और स्वर्णमंदिर में जैलसिंह

ज्ञानी जैल सिंह ने जिस साल (1982) भारतीय राष्ट्र की तीनों सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर और भारतीय एकता-अखंडता को सुनिश्चित करने वाले संविधान के मुहाफिज के रूप में राष्ट्रपति पद की शपथ ली उसी साल पंजाब में जरनैल सिंह भिंडरावाले ने आनंदपुर साहिब प्रस्ताव की अपनी स्वतंत्र व्याख्या के अनुकूल खालिस्तान बनाने की मांग को लेकर एक तरह से भारतीय राजसत्ता के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया. हालात का अंदाजा लगाइए कि इससे पहले 1980 के अप्रैल में दिल्ली में निरंकारी पंत के संत गुरबचन सिंह की हत्या हो चुकी थी और 1981 के सितंबर में पंजाब केसरी के संस्थापक लाला जगत नारायण की जान उग्रपंथी गोलियों ले चुकी थीं.

यह भी पढ़ें: हमारे राष्ट्रपति: अपनी सैलरी का आधा देश के लिए छोड़ देते थे राजेन्द्र प्रसाद

हालात को बेकाबू होते देख ऑपरेशन ब्लूस्टार का फैसला हुआ और उस वक्त घटना को करीब से देखने वालों ने लिखा है कि ऑपरेशन ब्लूस्टार का फैसला ज्ञानी जैलसिंह की जानकारी में लिया गया लेकिन इस दावे की काट में भी तर्क दिए गए हैं. कहा गया है कि जैल सिंह को ऑपरेशन ब्लूस्टार के बारे में ऐन वक्त तक अंधेरे में रखा गया, उन्हें स्वर्णमंदिर पर फौजी कार्रवाई की जानकारी मीडिया के मार्फत मिली.

खैर, इन दोनों दावेदारियों से अलग एक तथ्य यह है कि स्वर्णमंदिर में अभी खून के धब्बे धुले भी नहीं थे, गोलियों की बारुदी गंध अभी गुरु ग्रंथसाहिब के प्रांगण में डेरा जमाए हुए थी कि 1984 के जून के दूसरे हफ्ते में राष्ट्रपति स्वर्णमंदिर पहुंचे. पत्रकार प्रभु चावला ने स्वर्णमंदिर पहुंचे जैलसिंह की उस वक्त की दुविधा को नोट करते हुए लिखा है- ’ यह बात बिल्कुल समझी जा सकती है कि एक धर्मपरायण सिक्ख के रूप में उन्हें स्वर्णमंदिर पर फौजी कार्रवाई को लेकर फैली भयावह बातों से चिन्ता थी लेकिन साथ ही देश के राष्ट्रपति के रूप में उस घड़ी वे इस बात की भी चिन्ता कर रहे थे कि कोई समाधान निकले और पंजाब में सांप्रदायिक सौहार्द्र कायम हो.’

जो लोग सोचते हैं कि स्वर्णमंदिर में छिपे बैठे आतंकियों पर कार्रवाई से जैलसिंह नाराज थे उन्हें यह तथ्य ध्यान रखना चाहिए कि जैलसिंह ने पंजाब के गवर्नर बी.डी पांडेय को सेना के अधिकारियों की मौजूदगी में डांटा था कि उग्रवादियों के पास मौजूद असलहों और गोला-बारूद को लेकर आपका आंकलन गड़बड़ा कैसे गया, इन दिनों आपने अपने आंख-कान कहां गिरवी रख दिए हैं?

1984 का कत्लेआम और एक राष्ट्रपति का अकेलापन

दो सिख अंगरक्षकों के हाथों प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में सिखों के खिलाफ जो कुछ हुआ उसे शब्दों में बयान करना मुमकिन नहीं. वह भारतीय लोकतंत्र के सबसे स्याह पन्नों में एक है.

स्व.खुशवंत सिंह के शब्दों में ’उत्तर भारत से लेकर कर्नाटक तक भारत में ऐसा रक्तपात मचा जैसा आजादी के बाद कभी नहीं मचा था. दिल्ली में 3000 सिख मारे गए. उनकी बीवी-बेटियों के साथ रेप हुआ, संपत्ति लूट ली गई, 72 गुरुद्वारे जला दिए गए. पूरे देश में 10 हजार सिख मारे गए और हजारों करोड़ की संपत्ति बर्बाद हुई. उनकी (इंदिरा गांधी) मौत का समाचार जैसे ही फैला हिंदुओं की उन्मादी भीड़ खून का बदला खून चिल्लाती, हाथ में लाठी, पेट्रोल के कनस्तर और माचिस की डिब्बी लिए हुए सड़कों पर दौड़ने लगी—जो भी सिख मिला उसे आग लगा दिया जाता था.!

ऐसे वक्त में दिल्ली के एम्स में इंदिरा गांधी के शव को अपनी श्रद्धांजलि दे जैल सिंह अपनी कार से लौट रहे थे और उनकी कार पर पत्थरों की बौछार हुई. पहली बार हुआ कि देश का सिरमौर भीड़ के हाथों लाचार हुआ. संकट की इस घड़ी में जो कुछ जैलसिंह पर गुजर रहा था उसके बारे में अच्छा होगा कि उनकी बेटी की ही जुबानी सुनी जाए.

अब से तीन साल पहले एक अखबार को जैलसिंह की बेटी डा.गुरदीप कौर ने बताया था- मेरे पिता दंगों के भड़क उठने से बहुत परेशान थे. उन्होंने पीएमओ, गृह मंत्रालय और बाकी जरूरी अहम अधिकारियों को फोन मिलाने की कोशिश की ताकि निर्दोष सिक्खों पर हो रहे हमलों को रोका जाए. लेकिन उनका फोन किसी ने नहीं उठाया या फिर फोन मिलाते ही पता नहीं क्यों लाइन कट जाती थी और इस तरह भारत के तीनों सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर उस घड़ी अपने को एकदम असहाय महसूस कर रहा था.’

एक राजनेता के रूप में ज्ञानी जैल सिंह को इंदिरा गांधी का वफादार कहा जाता है. जैल सिंह के विरोधी बार-बार याद दिलाते हैं कि वे इंदिरा गांधी के लिए कुछ भी करने को तैयार थे. ऐसे आलोचक भूल जाते हैं कि इंदिरा गांधी ने आंध्रप्रदेश में जब एनटी रामराव की लोकतांत्रिक सरकार गिराने का फैसला लिया तब जैलसिंह उनके इस फैसले के साथ नहीं थे.

उन्होंने एनटी रामाराव का राष्ट्रपति भवन में खुले दिल से स्वागत किया और राजनीतिक इतिहास में यह भी दर्ज है कि एनटीआर की सरकार आखिरकार इंदिरा गांधी को फिर से बहाल करनी पड़ी थी.