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हमारे राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद: आपको याद करें और फिर इमरजेंसी को याद करें..

आपातकाल के परवाने पर दस्तखत बेशक राष्ट्रपति के थे लेकिन यह सोचने के लिए पर्याप्त कारण हैं कि वे एक कठपुतली थे.

Updated On: Jul 01, 2017 04:14 PM IST

Chandan Srivastawa Chandan Srivastawa
लेखक सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों के शोधकर्ता हैं

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हमारे राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद: आपको याद करें और फिर इमरजेंसी को याद करें..

वह आधी रात थी जब देश को आजादी मिली, तब समय जैसे एक पल को ठहर गया था. नेहरु के प्रसिद्ध शब्दों में__

'आधी रात के गजर के साथ, जब दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन और स्वतंत्रता के लिए जाग जाएगा. ऐसा क्षण आता है, मगर इतिहास में विरले ही आता है, जब हम पुराने से बाहर निकल नए युग में कदम रखते हैं, जब एक युग समाप्त हो जाता है, जब एक देश की लंबे समय से दबी हुई आत्मा मुक्त होती है.'

आधी रात का विरोधाभास

और वह भी आधी रात ही थी जब देश की इस स्वतंत्रता को कुचलने की कोशिश हुई! हां, आधी रात को ही देश में आपातकाल लागू करने के परवाने पर एक राष्ट्रपति ने दस्तखत किए थे!

इस परवाने पर लिखा हुआ था, 'मैं, भारत का राष्ट्रपति, फखरुद्दीन अली अहमद संविधान के अनुच्छेद 352 की धारा (1) द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए इस उद्घोषणा के मार्फत एलान करता हूं कि एक गंभीर आपातकाल आन पड़ा है जिससे भारत की सुरक्षा को आंतरिक गड़बड़ियों के कारण खतरा है.'

इस देश के लिए वक्त 25 जून, 1975 की आधी रात के बाद भी ठहर गया था. लगा जैसे नए युग में कदम रखने को निकला राष्ट्र फिर से पीछे के उस दौर में चला गया जब तख्तनशीनों को खुद के खुदा होने का गुरूर हुआ करता था, जब उनकी मर्जी ही कानून हुआ करती थी. आधी रात को आए इस आपातकाल के बारे में देश ने 26 जून के दिन में जाना जब इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो से कहा- 'भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है. इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है.'

लेकिन आतंकित होने के कारण थे, यह बात सैकड़ों किताबों में कही गई है और इनमें से एक किताब अभी के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की भी है. आतंक की बात प्रणब मुखर्जी ने सीधे नहीं कही है लेकिन उन्होंने किसी खूब मंजे लेखक की तरह सच्चाई को आड़ लेकर झांकने का मौका दे दिया है.

वे लिखते हैं, '25 जून, 1975 की आधी रात के कुछ मिनट पहले भारत के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा की. मैं 26 जून को होने वाले अपने राज्यसभा के चुनाव के सिलसिले में कलकत्ता में था और मुझे इस वाकये की जानकारी 26 तारीख की सुबह हुई.

9 बजकर 30 मिनट पर मैं विधानसभा पहुंचा, यह इमारत विधायकों, मंत्रियों और राजनेताओं से भरी पड़ी थी. कुछ के पास सवाल थे तो कुछ साजिश की बात कह रहे थे. कुछ तो यह तक कह रहे थे कि बांग्लादेश के मुजीबुर्रहमान की तरह इंदिरा गांधी ने संविधान को निष्प्रभावी कर, सेना को साथ में लेकर सत्ता अपने हाथ में कर ली है.

प्रलय की कथा बांचने वाले इन पैगंबरों को दुरुस्त करते हुए मैंने कहा कि आपातकाल की घोषणा संविधान के रहने के बावजूद नहीं बल्कि संविधान के प्रावधानों के अनुसार ही की गई है, मैंने तर्क दिया कि अगर संविधान निष्प्रभावी हो गया है तो आखिर राज्यसभा के चुनाव क्यों हो रहे हैं?

इस लिखे से एक सच्चाई झांकती है, सच्चाई यह कि आपातकाल के बारे में जो प्रणब मुखर्जी सोच रहे थे, कोलकाता की विधानसभा में उनके सामने मौजूद ‘प्रलय की कथा बांचने वाले पैगंबर’ वैसा बिल्कुल नहीं सोच रहे थे.

तर्क ठीक लग सकता है कि संविधान के प्रावधानों के तहत ही आपातकाल की घोषणा हुई थी, राज्यसभा के चुनाव भी हो रहे थे, लेकिन क्या सचमुच आतंकित होने का कोई कारण नहीं था, जैसा कि इंदिरा गांधी ने रेडियो पर कहा? और क्या आपातकाल के बाद सचमुच कोई विपक्ष रह गया था जिससे चुनावी लड़ाई करने के लिए चुनाव हो रहे थे?

Fakhruddin Ali Ahmed

कठपुतले में तब्दील होते राष्ट्रपति

आपातकाल के परवाने पर दस्तखत बेशक राष्ट्रपति के थे लेकिन यह सोचने के लिए पर्याप्त कारण हैं कि वे एक कठपुतली थे, डोर किसी और के हाथ में थी. दस्तखत के लिए हाथ भले राष्ट्रपति के लिए चल रहे थे लेकिन मर्जी इंदिरा गांधी की थी. एस गुरुमूर्ति ने लिखा है कि राष्ट्रपति को '25 जून की आधी रात झिंझोरकर जगाया गया, कहा गया कि आपातकाल की घोषणा पर दस्तखत करो और उन्होंने बड़ी निष्ठापूर्वक ऐसा (दस्तखत) किया. छह ही घंटे के भीतर इसका असर भी सामने था, अखबारों से समाचार गायब हो गए और पूरा विपक्ष जेल में बंद हो गया.'

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राष्ट्रपति तब किसी कठपुतले की तरह बरताव कर रहे थे, यह इमर्जेंसी के दिनों में एक कार्टून में दर्ज हुआ. आपातकाल के विरोध की वजह से जेल में बंद कर दिए गए लालकृष्ण आडवाणी ने अपने संस्मरण 'ए प्रिजनर्स स्क्रैप-बुक' में लिखा है, 'तय बात है कि राष्ट्रपति आज छपे अबू (अब्राहम) के कार्टून को नहीं भूलेंगे.

यह मारक और बेअदब है लेकिन मैं कहूंगा तीर एकदम निशाने पर मारा है. यह गुरूवार के इंडियन एक्सप्रेस में छपा है. इसमें दिखाया गया है कि फखरुद्दीन अपने बाथटब में बैठे हैं और प्रेस के नाम जारी अध्यादेश पर दस्तखत कर रहे हैं. एक संदेशवाहक उनके स्नानघर में घुस आया है और दस्तखत के ये कागज वे संदेशवाहक को देते हुए कह रहे हैं, अगर कुछ और अध्यादेश हों तो उन लोगों से कहो कि थोड़ा इंतजार कर लें, मैं बस स्नान कर के आता ही हूं.'

फखरुद्दीन अली अहमद वही कर रहे थे जो उन्हें करने के लिए कहा जा रहा था, वे राष्ट्रपति बन ही पाए इसी कारण कि पार्टी के अनुशासित सिपाही थे. ‘बातें कम-काम ज्यादा’ के सरकारी पोस्टर वाले उस वक्त में 'अनुशासन’ सबसे बड़ा सद्गुण था, अनुशासन की परिभाषा यह थी कि जो इंदिरा गांधी कह रही हैं उसे सिर झुकाकर मान लो. राष्ट्रपति से लेकर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष तक सब एक ही कतार में खड़े नजर आ रहे थे. उनके आगे एक चाबुक फटकारती इंदिरा गांधी थी. तब वही पार्टी थीं और वही देश भी. ताबेदारी में लगे ऐसे एक जन ने कहा भी 'इंदिरा इज इंडिया.'

आतंक के वे दिन

पार्टी के भीतर जिन्होंने इस ‘अनुशासन’ को नहीं माना उन्हें सजा दी गई. पार्टी के पांच नेताओं ने जी-हजूरी की सरहदों पर पहुंचते इस अनुशासन को नहीं माना और ठीक इसी कारण वे यानी चंद्रशेखर, मोहन धारिया, रामधन, कृष्णकांत और लक्ष्मीकांतम्मा पार्टी से निलंबित हुए. अन्यथा पार्टी के भीतर सबके सब दंडित होने के भय में आपातकाल से सहमत थे.

कांग्रेस की सारी राज्य इकाइयों और मुख्यमंत्रियों ने प्रस्ताव पास कर कहा कि हमें इंदिरा गांधी के नेतृत्व में विश्वास है. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इंदिरा गांधी के आपातकाल में उनके साथ थी. दरअसल वह इंदिरा गांधी के भी साथ नहीं थी. वह अपने सोवियत पार्टी के साथ थी, उसी के अनुशासन का पालन कर रही थी. सोवियत संघ ने कह दिया था कि यह इमर्जेंसी नहीं ‘दक्षिणपंथी साजिश पर प्रहार’ है.

जो असहमत थे और असहमति को आवाज दे रहे थे जैसे कि जयप्रकाश नारायण और उनके आवाज से अपनी आवाज मिलाती पार्टियां यानी जनसंघ, भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी, अकाली दल, सीपीएम और डीएमके के नेता, उन सब के लिए जेल थी.

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आज हम शाह कमीशन की रिपोर्ट के पन्नों के मार्फत जानते हैं कि इमर्जेंसी में 110806 लोगों को जेल हुई. इनमें कम से कम 30 तो सांसद थे. जेल में नेताओं को प्रताड़ना दी गई. स्नेहलता रेड्डी की मौत हुई क्योंकि उपचार के लिए उन्हें पेरोल पर नहीं छोड़ा गया.

राजन और वरकल विजयन केरल की जेल में मार दिए गए. मृणाल गोरे को एक पागल और एक कुष्ठ रोगी के साथ जेल की कोठरी में रखा गया था. लॉरेंस फर्नान्डिस से पूछा गया बताओ तुम्हारे भाई जार्ज फर्नान्डिस कहां छुपे हैं और जुबान खुलवाने के लिए पुलिसिया डंडे का इस्तेमाल हुआ.

इंडियन एक्प्रेस और स्टेटस्मैन जैसे चंद उदाहरण छोड़ दें तो मुख्यधारा के लगभग सभी अखबार ‘अनुशासन-पर्व’ के जयगान में खड़े थे. जिन्होंने इनकार किया जैसे 'सेमिनार', 'हिम्मत', 'मेनस्ट्रीम', 'जनता', 'क्वेस्ट', 'फ्रीडम फर्स्ट', 'फ्रंटियर', 'साधना', 'तुगलक', 'स्वराज्य' और 'निरीक्षक'- सबके सब बैन कर दिए गए.

चर्चा विदेश ना पहुंचे, छवि को धक्का ना लगे इसका ख्याल रखकर टाइम्स ऑफ लंदन, द डेली टेलीग्राफ, द वाशिंग्टन पोस्ट और द लॉस एंजिल्स टाइम्स जैसे विदेशी अखबारों के संवाददाताओं को सीमा-बाहर कर दिया गया. बीबीसी ने मार्ट टुली को वापस बुला लिया.

कुलदीप नैयर पत्रकारों के एक प्रदर्शन की अगुवाई करने के जुर्म में गिरफ्तार हुए तो सिनेमा की दुनिया के गायक किशोर कुमार के लिए ऑल इंडिया रेडियो के दरवाजे बंद हो गए, उन्होंने यूथ कांग्रेस को अपना समर्थन देने से मना कर दिया था.

गृह मंत्रालय ने एक साल बाद 1976 की मई में संसद में कहा कि इमरजेंसी के विरोध में साजिशी पर्चे बांटने के अपराध में 7000 लोगों को गिरफ्तार किया गया था.

विकास के नाम पर गरीब की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही थीं, सेहतमंद देश बनाने के ख्याल से नसबंदी करवाई जा रही थी और जहां से लोगों को इंसाफ मिलने की उम्मीद थी उसके हाथ संविधान में संशोधन (38वां) कर के बांध दिए गए थे.

अदालत ना तो इमरजेंसी के औचित्य पर विचार कर सकती थी ना ही राष्ट्रपति के हाथों जारी अध्यादेश पर ही उंगली उठा सकती थी. संविधान के 42वें संशोधन के जरिए यह भी व्यवस्था कर दी गई कि पूरा संविधान ही बदल सकते हो, लोगों से जीने तक का हक छीन सकते हो.

एक जस्टिस हंसराज खन्ना थे जो खिलाफ खड़े थे वर्ना सुप्रीम कोर्ट के भी विधि-विधान में ‘अनुशासन-पर्व’ का डर आ समाया था.

आखिर क्यों किया था राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल के उस परवाने पर दस्तखत जिसने कुछ देर के लिए लोगों से जीने का अधिकार तक छीन लिया था?

आखिर क्यों?

विडंबना देखिए कि इस सवाल का सबसे अच्छा जवाब उन्हीं इंदिरा गांधी की जुबान में दर्ज है जो इमरजेंसी के दौर में खुद को देश के ऊपर मान बैठी थीं. डॉ. जाकिर हुसैन के बाद फखरुद्दीन अली अहमद देश के दूसरे राष्ट्रपति थे जिनका निधन (11 फरवरी) कार्यकाल के दौरान हुआ. उन्हें याद करते हुए इंदिरा गांधी ने कहा कि, 'बड़े ऊंचे आदर्शों के व्यक्ति थे, देश के लिए लंबे समय तक निष्ठापूर्वक काम किया.'

अगर इंदिरा गांधी इस कहे को इमरजेंसी के दिनों (1975-1977) में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे देवकांत बरुआ के 1974 वाले बोल से मिलाकर पढ़ें तो फखरुद्दीन अली अहमद की शख्शियत की उस खूबी का पता चलेगा जिसने उन्हें राष्ट्रपति के पद तक पहुंचाया. अपनी नेता-भक्ति को नई ऊंचाई प्रदान करते हुए देवकांत बरुआ ने ही कहा था, ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया.’

फखरुद्दीन अली अहमद की सबसे बड़ी खासियत थी उनकी वफादारी! उन्होंने एक लंबा जीवन जिया और ताउम्र वफादार बने रहे, पहले जवाहरलाल नेहरु के फिर नेहरुजी के परिवार के. और, शायद उनकी इसी अडिग वफादारी को इंदिरा गांधी अपने शब्दों में याद कर रही थीं. शायद फखरुदीन अली अहमद की कहानी लगातार वफादारी निभाने और उसका सिला पाते जाने की भी कहानी है.

वफा का सिला?

फखरुद्दीन अली अहमद के पिता कर्नल जुल्नार अली इंडियन मेडिकल सर्विस में थे और मां लोहारु (हरियाणा) के नवाब की बेटी थीं. कर्नल जुल्नार अली असम (गोलाघाट) के एक प्रतिष्ठित और धनी परिवार के थे और इस समृद्धि का भी असर रहा होगा जो डॉक्टर ऑफ मेडिसिन की डिग्री हासिल करने वाले वे असम (तथा पूर्वोत्तर के शेष राज्यों के भी) के पहले व्यक्ति बने. पारिवारिक समृद्धि का फायदा फखरुद्दीन अहमद को भी हुआ, सो पहले दिल्ली के सेंट स्टीफेन्स कॉलेज में पढ़े फिर कैम्ब्रिज के सेंट कैथरीन कॉलेज में.

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यहीं 1925 में उनकी मुलाकात जवाहरलाल नेहरू से हुई. कहते हैं नेहरू के विचारों से प्रभावित होकर उन्हें अपना रहबर सरीखा मान बैठे. उनके ही असर में 1930 के दशक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य बनकर आजादी के आंदोलन के भागीदार हुए. हां, यह बात नोट की जा सकती है कि वे चाहते तो अपने साथियों के संगत में मुस्लिम लीग में भी जा सकते थे. बहुत से लोग उनके दोस्त थे. कहा यह भी जाता है कि बाद के समय में बहुत से सांप्रदायिक सोच वाले साथियों को कांग्रेस से जोड़ने में उन्हें कामयाबी मिली.

कांग्रेस की सदस्यता हासिल करने के चंद बरसों के भीतर वे असम कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य बने. फिर 1935 में असम विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए और 1938 में गोपीनाथ बोरदोलाई की सरकार में राजस्व तथा श्रम मंत्रालय संभाला. इसी दौरान उन्होंने चाय-बगानों की जमीन पर टैक्स आयद किया जिसकी सराहना की जाती है लेकिन इसके विरोध में उस वक्त हड़ताल भी हो गई थी.

भारत छोड़ो आंदोलन (1942) के दौरान उनकी गिरफ्तारी और साढ़े तीन साल तक अंग्रेजी जेल में रहने का जिक्र मिलता है. इससे पहले 1939 यानी विश्व युद्ध शुरु होने के वक्त अंग्रेजी राज से हुए संघर्ष के दौरान उनकी थोड़े दिनों के लिए गिरफ्तारी हुई थी. जेल से रिहाई के बाद वे अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य बनाए गए और असम के एडवोकेट जनरल भी नियुक्त हुए. जवाहर लाल नेहरु ने ही उन्हें राष्ट्रीय कार्यकारिणी के लिए नामित किया.

एडवोकेट जनरल बनाए जाने की वजह भी बड़ी दिलचस्प है. 1946 में असम में बनी बारदोलाई सरकार के लिए चूंकि उनका निर्वाचन नहीं हो सका था और मंत्री नहीं बनाया जा सकता था सो उन्हें एडवोकेट जनरल बना दिया गया.

एडवोकेट जनरल के रुप में कार्यकाल समाप्त हुआ तो 1952 में राज्यसभा के लिए चुन लिए गए. 1957 में असम की विधानसभा के लिए चुने गए और मंत्री बने फिर 1962 की असम विधानसभा में भी मंत्री का ओहदा संभाला. नेहरु परिवार से नजदीकी का एक बड़ा प्रमाण यह भी है कि 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो उन्हें कैबिनेट मंत्री (सिंचाई और बिजली) बनाया गया. फिर उन्हें शिक्षा मंत्रालय दिया गया. संक्षेप में यह कि 3 जुलाई, 1974 तक वे इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में ओहदेदार रहे. इसी दिन राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था.

राष्ट्पति पद के मुकाबले के लिए उनके खिलाफ आठ विपक्षी दलों ने अपना साझे का उम्मीदवार गोवा के आजादी के संग्राम में शामिल रहे समाजवादी नेता त्रिदिब चौधरी के रूप में खड़ा किया. 17 अगस्त, 1974 के दिन चुनाव हुए तो नतीजा सबको पता था. वह इंदिरा गांधी की चरम लोकप्रियता के दिन थे. 20 अगस्त को मतों की गिनती हुई तो त्रिदिब चौधरी को 1 लाख 89 हजार वोट मिले थे और फखरुद्दीन अली अहमद को 7 लाख 65 हजार वोट!

इंदिरा गांधी के निजी स्टाफ रह चुके जनकराज जय ने भारत के राष्ट्रपतियों पर केंद्रित अपनी मशहूर किताब में फखरुद्दीन को बड़े उदार शब्दों में याद किया है. तो भी उनकी कलम से यह तल्ख सच्चाई दर्ज हो ही गई है कि इस प्रकार काजी का बेटा सर्वोच्च पद के लिए चुना गया. जिसके बारे में वह या उसके परिवार का कोई भी सदस्य जीवन में इतने सुखदायक क्षण की कल्पना भी नहीं कर सकता था. यह घटना साबित कर रही थी कि किसी के जीवन में तकदीर कितनी महान भूमिका निभा सकती थी.

कौन जाने, इंदिरा गांधी के पर्सनल स्टाफ जनकराज जय ने जिसे किस्मत कनेक्शन बताया है शायद उसे ही इंदिरा गांधी अपनी श्रद्धांजलि में फखरुद्दीन अली अहमद की वफादारी कहकर याद कर रही हों. इससे बड़ी वफादारी क्या होगी कि आपातकाल की घोषणा के लिए जो शब्द इंदिरा गांधी की तरफ से भेजे गए उसका एक शब्द बदले बगैर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की मुहाफिज मानी जाने वाली शख्शियत ने दस्तखत कर दिए थे! .

कार्टून की लिंक-

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