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शक्की-दिमाग और पैनी-नजर पुलिस की पड़ताल के इसलिए मूल-मंत्र हैं क्योंकि....

पुलिस चाहे ब्रिटिश टाइम की हो या फिर आज की. ‘शक्की-दिमाग’ और ‘पैनी नजर’. ये दोनों अल्फाज हमेशा पुलिस की ‘फतेह’ यानि जीत की ‘चाबी’ या ‘मूलमंत्र’ रहे हैं.

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

पुलिस चाहे ब्रिटिश टाइम की हो या फिर आज की. ‘शक्की-दिमाग’ और ‘पैनी नजर’. ये दोनों अल्फाज हमेशा पुलिस की ‘फतेह’ यानि जीत की ‘चाबी’ या ‘मूलमंत्र’ रहे हैं. 1880 के आसपास (ब्रिटिश काल में) यूपी के बरेली जिले में उस जमाने के एक दबंग दारोगा ने इन्हीं दो अल्फाजों के बलबूते, उस जमाने के कुख्यात डाकू को धर-दबोचा था. कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है. सो करीब 80 साल बाद यानी 1960 के दशक में दिल्ली पुलिस के नौसिखिये एक थानेदार ने ‘शक्की-दिमाग’ और ‘पैनी नजर’ वाला फार्मूला अख्तियार क्या किया उसे नामी-गिरामी ‘पड़ताली’ पुलिस-अफसर का खिताब तक मिल गया.

‘पड़ताल’ की इस खास किश्त में मैं आपको पढ़वा रहा हूं, हिंदुस्तान की दो अलग-अलग उन ‘पड़ताल’ की हैरतंगेज मगर, सच्ची कहानियां (एक 138 साल पुरानी और दूसरी 58 साल पुरानी) जो, शायद ही पाठकों ने अब से पहले कभी सुनी होंगी या पढ़ी होंगी. उन्हीं पड़तालियों और उनकी पांचवीं-छठी पीढ़ी के वारिसों के हवाले से.


हर पुलिस वाला कामयाब ‘पड़ताली’ नहीं होता

खाकी वर्दी पहन लेने भर से हर पुलिस वाला ‘काबिल-पड़ताली’ नहीं बन जाता. ‘पड़ताली’ बनने के भी तमाम गुण-खासियतें होती हैं. मसलन मजबूत मुखबिर-तंत्र. सोचने-समझी की तीव्र गति. मौका-ए-वारदात पर मौजूदगी के वक्त पैनी-नजर. बिखरे हुए सबूतों के टुकड़ों को पिरोकर उन्हें क्रमवार एक-दूसरे के साथ जोड़ना. सबूतों/तथ्यों को जोड़कर सामने निकल कर आए परिणाम से आपराधिक घटना और उसमें शामिल अपराधियों को ‘कनेक्ट’ करना.

यह तमाम खूबियां जिसमें मौजूद हों, वही बेहतर ‘पड़ताली’ समझा जाता है. यह भी जरूरी नहीं कि खाकी यानी पुलिसिया वर्दी पहनते ही इंसान अच्छा ‘इंवेस्टिगेटर’ हो जाता है. दरअसल ‘पड़ताल’ है ही ‘पैनी-नजर’ और ‘शक्की-दिमाग’ का खेल. यह दोनों खासियतें जिसके पास मौजूद हैं, वही खुद को काबिल ‘पड़ताली’ साबित कर पाता है. यह खूबी पुलिस वाले में ही नहीं किसी ‘आम’ इंसान में भी हो सकती है. यह अलग बात है कि कोई आम इंसान इन खूबियों के बावजूद कानून की नजर में ‘पड़ताली’ की हैसियत/रुतबा हासिल नहीं कर सकता है. हां, इन दोनों खूबियों वाला कोई आम-इंसान कानून और पुलिस का मददगार जरूर साबित हो सकता है. अगर यही खूबियां किसी पुलिस वाले को नसीब हुई होती हैं तो, वो पुलिस की आने वाली नई पीढ़ियों के लिए ‘दस्तावेज’ या ‘पाठ’ और कानून की नजर में ‘नजीर’ बन जाता है. इसमें कोई शक नहीं.

अंग्रेजों के जमाने का वो ‘पुलिसिया-पड़ताली’

किस्सा है 1880 के दशक यानी अब से करीब 138 साल पुरानी एक हैरतंगेज पुलिसिया ‘पड़ताल’ और दारोगा से जुड़ा. वो हैरतंगेज ‘पड़ताली’ थानेदार अब भले ही दुनिया में नहीं हैं. लेखक ने मगर उस दबंग दारोगा की आज मौजूद तीन पीढ़ी (पांचवीं, छठी और सातवीं) के सदस्य (वंशज) जरूर खोज निकाले. महीनों के प्रयास के बाद.

बाएं से दाएं- अंग्रेजों के जमाने के दबंग पड़ताली दारोगा पद्म सिंह की पांचवीं पीढ़ी के वारिस हरिभान सिंह चौहान एवं शिवरतन सिंह (बृजभूषण सिंह चौहान और शांति देवी के पुत्र. फोटो सौजन्य- अखिलेश सिंह चौहान)

1880 (ब्रिटिश हुकूमत) के आसपास की बात है. ठाकुर पद्म सिंह चौहान उत्तर-प्रदेश के मैनपुरी (अब फिरोजाबाद जिला) के गांव नगलाधीर (खरीद नहर के पुल के करीब) के मूल निवासी थे. ब्रिटिश-पुलिस में पद्म सिंह ईमानदार और दबंग-थानेदारों (दारोगा) में शुमार थे. हिंदुस्तान के मशहूर पड़ताली पुलिस अफसर रहे पद्म सिंह आज भले मौजूद न हों. उनकी दबंगई और पुलिसिया-पड़तालों के किस्से उत्तर-प्रदेश के जनमानस के बीच (मैनपुरी से लेकर बरेली तक) आज भी चर्चा का विषय हैं.

पुलिस-फौज में भर्ती होने जाने वाले गांव युवाओं को आज भी अंग्रेजों के जमाने के दारोगा पद्म सिंह चौहान की कार्यशैली की मिसालें दी जाती हैं.

‘पड़ताली’ पुलिसिया पुरखे पर जिन्हें आज भी ‘नाज’ है

पद्म सिंह की आज मौजूद पीढ़ियों (वंशजों) को जानने के लिए करीब डेढ़ सौ साल पहले के अतीत पर एक नजर डालना जरूरी है.

पद्म सिंह की पांचवी पीढ़ी के वारिस और कुनबे में मौजूद सबसे बुजुर्ग करीब 80 साल के पूर्व भारतीय फौजी शिवमंगल सिंह चौहान हैं. शिवमंगल सिंह का परिवार लंबे समय से यूपी में बरेली जिले के गांव बिशुनपुरी (पांडव कालीन राजा द्रुपद की नगरी क्षेत्र) में रह रहा है. जबकि सातवीं पीढ़ी के सबसे छोटे नवजात शिशु देवेश सिंह चौहान (छठी पीढ़ी और भारतीय फौज के सैनिक अभिनेष सिंह चौहान का पुत्र ) का जन्म तीन महीने पहले ही हुआ है.

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बकौल शिवमंगल सिंह, ‘ठाकुर पद्म सिंह के पुत्र छत्र सिंह और छत्रसिंह के बेटे खंजन सिंह चौहान थे. कालांतर में खंजन सिंह के बेटे यहां बेटे बृजभूषण सिंह चौहान का जन्म हुआ. बृजभूषण सिंह, पद्म सिंह की चौथी पीढ़ी के इकलौते वारिस थे. पदम सिंह की पांचवी पीढ़ी के रूप में बृजभूषण सिंह और उनकी पत्नी शांति देवी से तीन बेटों शिव मंगल सिंह, शिव रतन सिंह चौहान, हरिभान सिंह चौहान और एक पुत्री रानीबेटी सहित चार संतानों का जन्म हुआ.’

बाएं से दाएं- ब्रिटिश काल के मशहूर पुलिसिया पड़ताली  दरोगा ठाकुर पद्म सिंह की बरेली जिले के बिशुनपुरी गांव में मौजूद सातवीं पीढ़ी के वारिसान (चुनमुन, सन्नीऔर निक्की)

मौजूद पांचवी, छठी पीढ़ी के वारिस (राजीव गोपाल, राजेश बिल्लू, मुकेश, अभिषेक, अखिलेश सिंह गोपी, अविषेक कन्हैया आदि) को इस बात पर आज भी नाज है कि, वे अंग्रेजों के जमाने के दबंग और ईमानदार दारोगा पद्म सिंह के वारिसान हैं. या पद्म सिंह जैसा ब्रिटिश पुलिस के जाबांज दारोगा उनके ‘पुरखे’ थे.

‘शक’ ने जब पड़ताली ‘पद्म’ के पांव जकड़ लिए

दारोगा पद्म सिंह की पांचवी पीढ़ी के मुखिया और वारिसान पूर्व फौजी शिव मंगल सिंह चौहान और उत्तर प्रदेश शिक्षा विभाग के रिटायर्ड हेड-मास्टर हरिभान सिंह चौहान (निवासी गांव रायपुर हंस, तहसील फरीदपुर, जिला बरेली ) के मुताबिक, ‘हमारी दादी (खंजन सिंह की पत्नी मुनिया यानि पद्म सिंह के पोते और तीसरी पीढ़ी की वारिस बहू) बताती थीं कि, उन दिनों भारत में ब्रिटिश-हुकूमत कायम थी. दारोगा पद्म सिंह उन दिनों बरेली जिले की आंवला तहसील के थाने में बतौर सेकेंड-अफसर तैनात थे. पुलिसिया जांच-पड़ताल में माहिर दारोगा पद्म सिंह कभी किसी की सिफारिश नहीं मानते थे. एक दिन वो बरेली जिला पुलिस मुख्यालय से सरकारी-घोड़े पर सवार होकर थाने में ड्यूटी पर आमद करने के लिए वापस लौट रहे थे.'

'रास्ते में अलीगंज (अब थाना और बड़ा कस्बा) से पहले गैनी गांव में से उनका पुलिसिया-घोड़ा (काफिला) कच्ची सड़क किनारे मौजूद बंजारों की बस्ती से गुजर रहा था. उसी वक्त उनकी नजर बंजारों की एक झोपड़ी में से निकल कर दूसरी झोपड़ी में तेज कदमों से घुसते नौजवान पर पड़ गई .’

दारोगा के सवालों से सकपका गया ‘संदिग्ध’

करीब 138 साल पुरानी उस पुलिसिया पड़ताल की कहानी के मुताबिक, दारोगा पद्म सिंह ने जिस तरह युवक को एक से दूसरी झोपड़ी में तेज कदमों से घुसते हुए देखा, उससे उनके मन में संदेह पैदा हुआ. उन्होने चंद कदम आगे जाकर अपने घोड़े को रोक दिया. पैदल-पैदल साथ चल रहे सिपाहियों को पास बुलाया. सिपाहियों के कान में कुछ फुसफुसा कर उन्हें उस संदिग्ध युवक को बुलाने के लिए भेज दिया. सामने आने पर दारोगा पद्म सिंह चौहान ने बंजारों की बस्ती में मौजूद उस संदिग्ध युवक से पूछा, ‘तुम पुलिस को देखकर क्यों भागे?' पद्म सिंह से अचानक सामना होने पर युवक कांपने लगा.

बाएं से दाएं- दरोगा ठाकुर पद्म सिंह की चौथी पीढ़ी (शांति देवी और उनके पति स्वर्गीय बृजभूषण सिंह चौहान, पद्म सिंह के प्रपौत्र)

वह बोला, ‘मैं एक झोपड़ी से दूसरी में आग लेने गया के लिए गया था.’ जवाब से असंतुष्ट और शक्की दिमाग वाले दारोगा पद्म ने संदिग्ध के ऊपर दूसरा सवाल दागा, ‘हमारा काफिला (पुलिस दस्ता) बंजारा बस्ती से गुजरते ही तुम्हें आग लेने का अचानक ख्याल कैसे आया? और अगर आग ही लेनी थी तो फिर तुमने पुलिस की ओर से अपना मुंह छिपाकर दूसरी ओर क्यों मोड़ रखा था? तुम्हारे कदमों की चाल तेज क्यों थी?’ कड़क आवाज में किए गए दारोगा के दोनों ही सवालों का माकूल जवाब संदिग्ध के पास मौजूद नहीं था.

‘पैनी-नजर’ और ‘शक्की-सोच’ ने पकड़वाया डाकू

थानेदार पद्म सिंह खुद की पैनी-नजरों में उतर आए शक को दूर करने के लिए दो सिपाहियों के साथ युवक को लेकर खुद ही बंजारा बस्ती की दोनो झुग्गियों में जा धमके. वहां दोनों झुग्गियों में आग पहले से मौजूद देखकर दबंग दारोगा पद्म सिंह की पारखी नजरों में उतरा ‘शक’ ब-सूबत सही साबित हो गया.

संदिग्ध ने पूछताछ में कबूल लिया कि वो सरासर झूठ बोल रहा था. संदिग्ध अपनी झुग्गी से दूसरी झूग्गी में आग लेने नहीं गया था. असल में जैसे ही उसे दारोगा के काफिले के बस्ती में पहुंचने शक हुआ तो वह डरकर एक झोपड़ी से दूसरी झोपड़ी में छिपने के इरादे से भागा था. झुग्गी बदलने की टाइमिंग कुछ ऐसी गड़बड़ हुई कि बदकिस्मती से दारोगा पद्म सिंह की नजर डाकू पर पड़ गई और वो धर लिया गया. पूछताछ में पता चला कि पकड़ा गया संदिग्ध युवक, उस जमाने का इलाके का सबसे खूंखार डाकू था.

ब्रिटिश पुलिस के चर्चित दारोगा पद्म सिंह चौहान की पांचवी पीढ़ी के सबसे बुजुर्ग वारिस और भारतीय फौज के पूर्व योद्धा 80 वर्षीय शिव मंगल सिंह चौहान (बृजभूषण सिंह और शांति देवी के बड़े पुत्र)

ऐसा भी कहा जाता है कि पद्म सिंह द्वारा डाकू बेटे की गिरफ्तारी कर लिए जाने से परेशान उसकी मां आधी रात को ही आंवला थाने जा पहुंची. उन दिनों आंवला थाना छप्पर की झुग्गी में चला करता था. पद्म सिंह के आगे डाकू की मां ने गधों की पीठ पर लाद कर ले जाए गए करीब एक कुंटल से ज्यादा चांदी के सिक्कों को परोस दिया. पहले तो दबंग दारोगा डाकू को न छोड़ने पर अड़ा रहा. बाद में मां की ममता के आगे दारोगा भी खुद को ज्यादा देर तक टिका न रख सके.

लिहाजा उसी रात इस शर्त के साथ उन्होंने आरोपी डाकू को उसकी मां के हवाले कर दिया कि दिन निकलने से पहले वो बेटे के साथ आंवला थाने की चौहद्दी (सीमा) से बाहर चली जाए. मरता क्या न करता. डरी-सहमी मां-बेटे को उसी रात गिरते-पड़ते पीलीभीत की सीमा में लेकर जा छिपी. उस जमाने में पीलीभीत जिला न होकर बरेली जिले की सबसे बड़ी तहसील हुआ करता था.

पद्म सिंह के वारिसान खुलकर भले ही कुछ न बोलें. मगर इन चर्चाओं पर पूर्ण-विराम भी नहीं लगाते हैं. यह कहकर कि, ‘हां, मां की मान-मनुहार पर बाद में दारोगा जी ने शायद डाकू के अपने थाना-इलाके (आंवला) से भाग जाने की रहम-दिली बरत कर एक दबंग पुलिस अफसर के साथ-साथ इंसानियत की भी मिसाल कायम की होगी.’

थाने में लगी आग और जली ‘लाश’ आज भी ‘रहस्य’!

कहा जाता है कि जिस रात बंजारा बस्ती के बदनाम डाकू को पद्म सिंह ने उसकी मां के हवाले किया. उसी रात छप्परों में चल रहे थाना आंवला में संदिग्ध हालातों में आग लग गई. जब आग बुझी तो थाना परिसर से जले हुए इंसान की एक संदिग्ध लाश भी बरामद हुई. वो लाश किसकी थी? थाने में आग लगाई गई या लग गई? संदिग्ध हालात में छोड़े गए डाकू की मां द्वारा गधों की पीठ पर लादकर थाने ले जाये गए चांदी के करीब एक कुंटल सिक्कों का बाद में क्या हुआ? आदि-आदि सवालों से परदा उठाने वाली ‘पड़ताल’ 138 साल बाद आज भी अधूरी है.

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यह अलग बात है कि आज न ब्रिटिश हुकूमत सलामत बची. न ही दारोगा पद्म सिंह का आज कोई वजूद जमाने में बाकी है. इन तमाम सवालों के बाबत पूछे जाने पर पद्म सिंह के सबसे बुजुर्ग वारिस भारतीय सेना के पूर्व फौजी शिव मंगल सिंह चौहान बताते हैं, ‘आज सबूत गवाह तो कोई बचा नहीं. सब कुछ बुजुर्गों की मुंहजुबानी ही बस सुना है. सुना तो यह भी था कि डाकू की मां से मिले चांदी के उन सिक्कों को रातों-रात ऊंट-गाड़ी पर लादकर किसी अज्ञात स्थान को भेजा गया था. उस रहस्यमयी स्थान और रकम के बारे में हमारी नई पीढ़ी में तो कम-से-कम आज किसी को कुछ ठोस नहीं पता है. जबकि आग लगने के बाद थाने से बरामद लाश को गिरफ्तार डाकू की बता दिया गया था. हकीकत अतीत के गर्भ में ही जमींदोज हो चुका है.

हां, इतिहास खुद को दोहराता है

भारत के रक्षामंत्री बाबू जगजीवन राम की कोठी में हुई चोरी का पर्दाफाश करने वाले दिल्ली पुलिस काबिल पड़ताली रिटायर्ड एसीपी प्रभाती लाल

गुलाम भारत के दबंग और चर्चित दारोगा पद्म सिंह की 138 साल पुरानी ‘पड़ताल’ का चर्चा हो तो, भला ऐसे में 1960 के दशक में आजाद भारत के मशहूर पड़ताली दिल्ली के दारोगा प्रभाती लाल निम्भल को भुलाना बेईमानी होगा. प्रभाती लाल निम्भल ( 2000 में दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड सहायक पुलिस आयुक्त यानी एसीपी ) को याद करने से साबित हो जाता है कि हो न हो इतिहास खुद को दोहराता जरूर है.

करीब 42 साल दिल्ली पुलिस की नौकरी करने वाले प्रभाती लाल की उम्र इस वक्त है करीब 76 साल. भारत के राष्ट्रपति संजीवा रेड्डी और ज्ञानी जैल सिंह के निजी सुरक्षा अधिकारी (पर्सनल सिक्योरिटी अफसर) रह चुके निंभल भी कमोबेश 1880 के तेज-तर्रार दारोगा पद्म सिंह चौहान से ही ‘शक्की’ और ‘पैनी-नजर’ वाले पड़ताली साबित हुए. प्रभाती लाल ने सन् 1970 में धनतेरस वाले दिन, भारत के पूर्व रक्षा-मंत्री बाबू जगजीवन राम और सुप्रीम कोर्ट के जज की कोठी में एक ही रात में हुई चोरी की दो सनसनीखेज घटनाओं का खुलासा कर डाला था.

फिर भला हम क्यों पीछे रहें?

ब्रिटिश-पुलिस के हिंदुस्तानी दारोगा पद्म सिंह चौहान ने 1880 में अगर ‘शक’ की बिना पर खूंखार डाकू धर दबोचा था. तो आजाद हिंदुस्तान की दिल्ली पुलिस के नौसिखिये दारोगा प्रभाती लाल निम्भल की पैनी नजरों ने उससे भी चार-कदम आगे का करिश्मा कर दिखाया. बकौल प्रभाती लाल, ‘बात है सन् 1960 के अक्टूबर या नवंबर महीने की. दिल्ली का थाना कोटला मुबारकपुर उन दिनों वजीरनगर में किराए की बिल्डिंग में था. ट्रेनिंग के बाद मेरी पहली पोस्टिंग बतौर असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर उसी थाने में हुई. एसएचओ थे सब-इंस्पेक्टर साधूराम. उस जमाने में कोटला मुबारकपुर थाना अवैध शराब बिक्री के लिए बदनाम था. नया-नया समझकर एसएचओ ने मुझे इलाके में शराब तस्करी रोकने की ड्यूटी पर अड़ा दिया.

यूपी के बरेली जिले के रायपुर हंस गांव में स्थित ब्रिटिश काल के दबंग दरोगा पद्म सिंह चौहान की पांचवीं, छठी और सातवीं पीढ़ी का आशियाना. फोटो सौजन्य- अखिलेश सिंह चौहान

लड़की के ‘घाघरे’में मिली शराब की बोतलें!

नई-नई पुलिसिया नौकरी में अफसरों को कुछ कर दिखाने का जूनुन था. एक दिन पता चला कि इलाके में अवैध शराब की तस्करी में मर्दों से ज्यादा हिस्सेदारी औरतों-लड़कियों की है. इतना सुनते ही मुझे सांप सूंघ गया. विचार आया कि भला औरतों-लड़कियों को कैसे शराब तस्करी करते पकड़ा जाएगा. कुछ दिन शांत रहकर मुखबिर तंत्र तैयार किया. एक दिन पता चला कि, इलाके में ‘गोरी’ (बदला हुआ नाम) नाम की एक लड़की का अवैध शराब की तस्करी में ‘सिक्का’ चलता है. उसके ग्राहकों की संख्या सबसे ज्यादा है. कई दिन की मेहनत के बाद एक शाम मैंने संदिग्ध लड़की (शराब तस्कर) गोरी का पीछा करना शुरूकर दिया. उसने उस दिन दो-तीन घंटे के भीतर ही तीन चार तरह और रंग के कपड़े बदल डाले. बस इसी से मुझे उस पर संदेह पक्का हो गया. दिन-छिपे जब वो ‘घाघरा’ पहन कर आई तो उसकी चाल बदली हुई थी.

वो आहिस्ता-आहिस्ता एक-एक कदम धीरे-धीरे बढ़ा रही थी. मेरी पैनी नजर ने उसकी संदिग्ध चाल देखकर ताड़ लिया कि हो न हो मामला गड़बड़ जरूर है. शक होने पर मैंने साथ मौजूद महिला पुलिस स्टाफ से उसकी जांच कराई. सामने आया परिणाम देखकर पब्लिक और पुलिस वालों की सांसें थम गई. वजह थी उस शराब तस्कर लड़की ने घाघरे के अंदर अपने पांवों में शराब की छोटी बोतलें और पव्वे बांध रखे थे. वो मेरी पुलिसिया जिंदगी की पहली कामयाब ‘पड़ताल’ और ‘पैनी-नजर ’ तथा ‘शक्की-दिमाग’ का असली ‘मेहनताना’ था. जो 77-78 साल की उम्र में आज भी याद है.